Ashtavakra mahageeta (Day 6)

अष्‍टावक्र: माहागीता--भाग-1 प्रवचन--6

जागो और भोगो—प्रवचन—छटवां

16 सितंबर, 1976
कोरेगांव पार्क,
ओशो आश्रम पूना।


पहला प्रश्न :

वेदांत तथा अष्टावक्र—गीता जैसे ग्रंथों द्वारा स्वाध्याय करके यह जाना कि जो पाने योग्य है वह पाया हुआ ही है! उसके लिए प्रयास करना भटकन है। इस निष्ठा को गहन भी कियातो भी आत्मज्ञान क्यों नहीं हुआकृपया मार्गदर्शन करें।

शास्त्र से जो समझ में आया वह तुम्हें समझ में आया र ऐसा नहीं है। शब्द से जो समझ में आयावह तुम्हारी प्रतीति हो गईऐसा नहीं है। अष्टावक्र को सुनकर बहुतों को ऐसा लगेगा कि अरेतो सब पाया ही हुआ है! लेकिन इससे मिल न जायेगा।
अष्टावक्र को सुनकर ही लगने से मिलने का क्या संबंध हो सकता हैयह प्रतीति तुम्हारी हो कि मिला ही हुआ है। यह अहसास तुम्हें होयह अनुभूति तुम्हारी होयह बौद्धिक निष्कर्ष न हो। बुद्धि तो बड़ी जल्दी राजी हो जाती है। इससे सरल बात और क्या होगी कि मिला ही हुआ है। चलोझंझट मिटी! अब कुछ खोजने की जरूरत नहींध्यान की जरूरत नहींपूजा—प्रार्थना की जरूरत नहीं—मिला ही हुआ है!

बुद्धि इससे राजी हो जाती है—इसलिए नहीं कि बुद्धि समझ गईबुद्धि राजी हो जाती हैक्योंकि मार्ग की अड़चन भी छूटीसाधन का श्रम भी छूटाउपाय करने की जरूरत भी छूटी। फिर तुम चारों तरफ देखने लगते हो कि अरेअभी तक मिला नहीं।
अगर बुद्धि को ही समझने से मिलता था तो फिर अध्यात्म के विश्वविद्यालय हो सकते थे। अध्यात्म का कोई विश्वविद्यालय नहीं है। शास्त्र से न मिलेगा,स्वयं की स्वस्फूर्त प्रज्ञा से मिलेगा।      अष्टावक्र को सुनोलेकिन जल्दी मत करना मानने की। तुम्हारा लोभ जल्दी करवा देगा। तुम्हारा लोभ कहेगायह तो बड़ी सुलभ बात हैयह खजाना मिला ही हुआ है। तो चलो पाने का भी उपद्रव मिटाअब कहीं जाना भी नहींअब कुछ करना भी नहीं।
यही तो तुम सदा से चाहते थे कि बिना किये मिल जाये। लेकिन ध्यान रखना इस सबके पीछे पाने की आकांक्षा बनी ही हुई है : बिना किये मिल जाये! पहले सोचते थे करके मिलेगाअब सोचते हो बिना किये मिल जाये। पाने की आकांक्षा बनी हुई है। इसलिए तो प्रश्न उठता है कि अभी तक आत्मज्ञान क्यों नहीं हुआ?
जिसको समझ में आ गई बात—भाड़ में जाये आत्मज्ञानकरना क्या हैअगर अष्टावक्र को समझ गये तो दूसरा प्रश्न उठ ही नहीं सकता। आत्मज्ञान नहीं मिलातो इसका अर्थ हुआ कि अष्टावक्र को मानने के साथ—साथ आंख के कोने से देख रहे थेअभी तक मिला कि नहीं मिलानजर अभी भी मिलने पर लगी थी।
मेरे पास लोग आते हैं। उनको मैं कहता हूं कि ध्यान तब तक न गहरा होगाजब तक तुम कुछ माग जारी रखोगे। जब तक तुम सोचोगे कुछ मिले—आनंद मिलेपरमात्मा मिलेआत्मा मिले—तब तक ध्यान गहरा न होगाक्योंकि यह लोभ की वृत्ति हैजो मिलने की बात सोच रही हैयह महत्वाकांक्षा हैयह राजनीति हैअभी धर्म नहीं हुआ। तो वे कहते हैं, ' अच्छा! तो अब बिना सोचे बैठेंगेफिर तो मिलेगा न?'
अंतर जरा भी नहीं पड़ा। वे इसके लिए भी राजी हैं कि न सोचेंगेचलो आप कहते हो मिलने के लिए यही उपाय हैतो न सोचेंगेलेकिन फिर मिलेगा न?
तुम लोभ से छूट नहीं पाते। अष्टावक्र को सुनकर बड़े जल्दीबहुत लोग मान लेंगे कि चलोमिल गया। इतनी जल्दी अगर मिलता होता! और ऐसा नहीं है कि कोई बाधा है मिलने में। बाधा है तो तुम्हारी कामना की नासमझी ही। है तो बिलकुल पास।
ठीक अष्टावक्र कहते हैंमिला ही हुआ है। लेकिन 'यह मिला हुआ ही हैतब समझ में आयेगाजब पाने की सारी आकांक्षा विसर्जित हो जायेगी। तब तुम्हारी समग्रता से तुम जानोगे कि मिला हुआ है। अभी तो बुद्धि का खिलवाड़ हो जाता है।
अष्टावक्र जैसे महर्षि कहते हैं तो ठीक ही कहते होंगे। तुम जल्दी कर लेते हो मानने की। तुम्हारी श्रद्धा बड़ी नपुंसक है। तुम संदेह भी नहीं करतेतुम जल्दी मान लेते हो। शास्त्र के वचन पर इस देश में तो संदेह करनेकी आदत ही खो गई हैशास्त्र कहते हैं तो ठीक ही कहते होंगे।
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन आयातो एक बड़ी खूबसूरत छतरी लिए हुए था। मैंने पूछाकहां मिल गईइतनी खूबसूरत छतरी यहां तो बनती नहीं! उसने कहाबहन ने भेंट भेजी है। मैंने कहानसरुद्दीन! तुम तो सदा कहते रहे कि तुम्हारी कोई बहन नहीं! वह कहने लगायह बात तो सच है।
तो फिर मैंने कहायह बहन ने भेंट भेजी?
उसने कहाअब आप न मानो तो इसकी डंडी पर लिखा हुआ है बहन की ओर से भाई को भेंट। एक होटल से निकलने लगायह छतरी पर लिखा थामैंने सोचा अब हो न होबहन हो ही। जब लिखा हुआ है तो मानना ही पड़ता है। और फिर ऐसे कोई फुफेरीममेरीकोई चचेरी बहन शायद हो भी। और फिर अध्यात्मवादी तो सदा से कहते हैं कि अपनी पत्नी को छोड्कर सभी को माता—बहन समझो।
लिखी हुई बात पर—और फिर शास्त्र में लिखी हो! छपी बात पर बड़ी जल्दी श्रद्धा आती है। कुछ बात कहो किसी सेवह कहता हैकहां लिखी है?लिखा हुआ बता दो तो वह राजी हो जाता है। जैसे लिखे होने में कोई बल है। कितनी पुरानीतो लोग राजी हो जाते हैं। जैसे सत्य का पुराना होने से कोई संबंध है! किसने कहीअष्टावक्र ने कहीबुद्ध ने कहीमहावीर ने कही? —तो फिर ठीक ही कही।
तुम थोड़ा भी तो अपनी तरफ सेथोड़ा भीइंच भर भी जागने का प्रयास नहीं करते। किसी ने कह दीतुमने मान ली—और फिर ऐसी सरल बात कि बिना कुछ किए मिल जाए।
कृष्णमूर्ति को मानने वाले चालीस वर्षों से सुन रहे हैं—करीब —करीब वे ही के वे लोग। मिला कुछ भी नहीं है। मेरे पास कभी—कभी उनमें से कोई आता है तो कहता है कि हमें पता है कि सब मिला ही हुआ हैमगर मिलता क्यों नहींहम कृष्णमूर्ति को सुनते हैंबात समझ में आती है कि सब मिला ही हुआ है। ये लोभीजन हैं। ये चाहते ही थे पहले से कि कोई श्रम न करना पड़ेमुफ्त मिल जाये। इन्होंने कृष्णमूर्ति को नहीं सुनान अष्टावक्र को समझा हैइन्होंने अपने लोभ को सुना है। इन्होंने अपने लोभ के माध्यम से सुना है। फिर इन्होंने अपने हिसाब से व्याख्या कर ली!
किसी मित्र ने पूछा है कि अब ध्यान करना बड़ा बेहूदा लगता है। पांच—पांच ध्यान—और अष्टावक्र पर चल रही प्रवचनमाला—बडा बेहूदा लगता है!
ध्यान छोड़ने में कितनी सुगमता है—करने में कठिनता है! अष्टावक्र को भी जो मिलावह कुछ करके मिलाऐसा नहींलेकिन बिना कुछ किए मिलाऐसा भी नहीं।
अब इसे तुम समझना। यह थोड़ा जटिल मामला है।
मैंने तुमसे कहाबुद्ध को मिला जब उन्होंने सब करना छोड़ दियालेकिन पहले सब किया। छह वर्ष तक अथक श्रम कियासब दाव पर लगा दिया। उस दाव पर लगाने से ही यह अनुभव आया कि करने से कुछ नहीं मिलता। अष्टावक्र को पढ्ने से थोड़े हीनहीं तो अष्टावक्र की गीता बुद्ध के समय में उपलब्ध थी। उन्होंने पढ़ ली होतीछह साल मेहनत करने की जरूरत न थी। छह साल अथक श्रम किया और श्रम कर—करके जाना कि श्रम से तो नहीं मिलता। रत्ती भर रेखा भी न बची भीतर कि श्रम करने से मिल सकता है। ऐसी कोई वासना भी न बची भीतर। करके देख लियानहीं मिलता। यह इतना प्रगाढ़ हो गया कि एक दिन इसी प्रगाढ़ता में करना छूट गयातभी मिल गया।
तो मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि न करने की अवस्था आयेगीजब तुम सब कर चुके होओगे। जल्दबाजी मत करनाअन्यथा थोड़ा—बहुत ध्यान कर रहे होवह भी छूट जायेगाथोड़ी बहुत पूजा—प्रार्थना में लगे होवह भी छूट जायेगी। अष्टावक्र तो दूर रहेतुम जो हो थोड़े —बहुतचल रहे थे किसी यात्रा पर,वह भी बंद हो जायेगा।
इसके पहले कि कोई रुकेसमग्र रूप से दौड़ लेना जरूरी है। तो ही दौड़ने से नहीं मिलतायह बोध प्रगाढ़ होता है। छूटता है एक दिन श्रमलेकिन केवल बुद्धि के समझने से नहीं—तुम्हारा रोआं —रोआंतुम्हारा कण —कण समझ लेता है कि व्यर्थ हैउसी घडी मिल जाता है।
ठीक कहते हैं अष्टावक्र कि अनुष्ठान बंधन है। लेकिन जो अनुष्ठान करेगाउसको ही पता चलेगा।
मैं तुमसे कह रहा हूं क्योंकि अनुष्ठान किया और पाया कि बंधन है। मैं तुमसे कह रहा हूं, क्योंकि साधन किये और पाया कि कोई साधन साध्य तक नहीं पहुंचते। ध्यान कर करके पाया कि कोई ध्यान समाधि तक नहीं लाता। लेकिन जब ऐसा करके तुम पाते हो कि कोई ध्यान समाधि तक नहीं लाताऐसी तुम्हारी गहन होती अनुभूतिएक दिन उस जगह आ जातीसौ डिग्री पर उबलतीतुम सब दाव पर लगा देते होकुछ बचाते नहींअपने को पूरा झोंक देते हो आग मेंश्रम परिपूर्ण हो जाता हैतपश्चर्या पूरी हो जाती हैसाधन पूरा हो जाता हैअब तुमसे कोई अस्तित्व यह मांग नहीं कर सकता कि तुमने कुछ भी बचाया थासब लगा दिया—उस दिनउस प्रगाढता मेंउस प्रज्वलित चित्त की दशा में अचानक सब भस्मीभूत हो जाता है। सब साधनसब अनुष्ठानसब ध्यानसब तप—त्याग—अचानक तुम जागकर पाते हो कि अरेयह तो मिला ही था जिसे मैं खोज रहा था!
लेकिन यह अष्टावक्र को पढ्ने से हो जाता होता तो बात बड़ी सुगम थी। अष्टावक्र को पढ़ना क्या कठिन हैसूत्र तो बड़े सीधे—साफ हैं।
ध्यान रखनासीधी—सरल बातें समझना इस जगत में सबसे कठिन है। और कठिनाई तुम्हारे भीतर से आती है। तुम चाहते ही थे कि कुछ न करना पड़े। ध्यान बामुश्किल लोग करने को राजी होते हैं। अब यह कसौटी है—अष्टावक्र की गीता। अष्टावक्र को सुनकर भी जो ध्यान करते रहेंगेवे ही समझे। जो अष्टावक्र को सुनकर ध्यान छोड़ देंगेअष्टावक्र को तो समझे ही नहींध्यान भी गया। अनुष्ठान करके ही पता चलेगा अनुष्ठान बंधन है। यह तो आखिरी दशा है अनुष्ठान करने की। इससे तुम जल्दबाजी मत कर लेना।
'वेदांत और अष्टावक्र जैसे ग्रंथों द्वारा स्वाध्याय करके यह जाना।
स्वाध्याय करके किसी ने कहीं जाना? पठन—पाठन करके किसी ने जानाशास्त्रशब्दों को सीख लेने से किसी ने जानायह जानना नहीं हैयह जानकारी है।जानकारी हुईकहोकि जो पाने योग्य है पाया ही हुआ है। अगर जान ही लिया तो बात खत्म हो गई। सूचना मिलीगुदगुदी उठीलोभ में अंकुर हुआ! लोभ ने कहाअरे! हम नाहक मेहनत करते थेये अष्टावक्र कहते हैंबिना ही किएतो चलो बिना ही किए बैठ जाएं। तो तुम बिना ही किये बैठ गये। थोड़ी ही देर में तुम देखने लगे अभी तक घटी नहीं घटनादेर लग रही हैबात क्या हैऔर अष्टावक्र कहते हैंअभी!तुम घड़ी पर नजर लगाये बैठे हो कि 'पांच सेकेंड निकल गयेपांच मिनिट निकल गयेयह घंटा भी बीता जा रहा है —और अष्टावक्र कहते हैंतत्क्षण! इसी वक्त! एक क्षण के भी विदा होने की जरूरत नहीं!फिर तुम कहने लगेझूठ ही कहते होंगे। श्रद्धा टूट गई।
जाना नहीं—जानकारी हुई। जानकारी और जानने के फर्क को सदा याद रखना। जानकारी अर्थात उधार। किसी और ने जानाउससे सुन कर तुम्हें जानकारी हुई। इन्‍फर्मेशन—जानकारी। जानना तो अनुभव है। तुम्हारे अतिरिक्त कोई तुम्हारे लिए जान नहीं सकता। यह उधार नहीं हो सकता। मैं जान लूं इससे तुम्हारे जानने की थोड़े ही घटना घटेगी। मेरा जानना मेरा होगातुम्हारा जानना तुम्हारा होगा। हीअगर मेरे शब्दों को तुमने संग्रह कर लिया तो वह जानकारी है। जानकारी से आदमी पंडित बनता हैप्रज्ञावान नहीं। ज्ञान का बोझ इकट्ठा हो जाता हैशान की मुक्ति नहीं। शब्दों का जाल खड़ा हो जाता हैसत्य का सौंदर्य नहीं। शब्द और घेर लेते हैंऔर बांध लेते हैं। इसलिए तुम पंडित को बड़ा बंधा हुआ पाओगे। खुला आकाश कहां?
'यह जाना कि जो पाने योग्य है वह पाया ही हुआ है।’ अगर जान ही लियातो अब क्या पूछने को बचा?
'उसके लिये प्रयास भटकन है।’ अगर यह जान ही लियातो अब और क्या पूछने को बचा? 'इस निष्ठा को गहन भी किया।’ यह निष्ठा या तो होती है या नहीं होतीइसे गहन करने का उपाय नहीं है। गहन कैसे करोगेनिष्ठा होती है तो होती हैनहीं होती तो नहीं होती—ग्रहन कैसे करोगेक्या उपाय है निष्ठा को गहन करने कासंदेह को दबाओगेसंदेह की छाती पर बैठ जाओगेक्या करोगेसंदेह को झुठलाओगेमन में प्रश्न उठेंगेनहीं सुनोगेभीतर संदेह का कीड़ा काटेगा,और कहेगा कि सुनो भीकहीं बिना किये कुछ मिला हैबैठे—बैठे कहीं कुछ हुआ हैकुछ करने से होता हैखाली बैठने से कहीं होता हैमुफ्त कहीं कुछ मिलता हैकिन बातों में पड़े होकिस भ्रांति में भटके होउठोचलोदौड़ोअन्यथा जीवन निकल जायेगाजीवन निकला ही जा रहा है! ऐसे बैठे—बैठे मूढ़ की भांति समय मत गंवाओ।
ये संदेह उठेंगेइनका क्या करोगेइनको दबा लोगे? इनको झुठला दोगेकहोगे कि नहीं सुनना चाहताइनको अचेतन में फेंक दोगेतलघरे में छिपा दोगे भीतरइनके सामने आंख करके न देखोगेक्या करोगे निष्ठा गहन करने मेंऐसा ही कुछ करोगे। किसी तरह का दमन करोगे। यह निष्ठा झूठी होगी। इसके नीचे अविश्वास सुलगता होगा। यह निष्ठा ऊपर—ऊपर होगी। इसकी झीनी चांद र होगी ऊपरभीतर अविश्वास केसंदेह के अंगारे होंगेवह जल्दी ही इस निष्ठा को जला डालेंगे। यह निष्ठा किसी भी काम की नहीं हैइसको तुम गहरा नहीं कर सकते। निष्ठा होती हैतो होती है। ऐसा समझो कि कोई आदमी एक वर्तुल खींचे,आधा वर्तुल खींचेतो क्या तुम उसे वर्तुल कहोगेआधे वर्तुल को वर्तुल कहा जा सकता हैचाप कहते हैंवर्तुल नहीं। वर्तुल तो तभी कहते हैंजब पूरा होता है। अधूरे वर्तुल का नाम वर्तुल नहीं है।
अधूरी श्रद्धा का नाम श्रद्धा नहीं हैक्योंकि अधूरी श्रद्धा का अर्थ हुआ कि अधूरा अभी अविश्वास भी खड़ा है। वह जो आधी जगह खाली हैवहां कौन होगावहां संदेह होगा। संदेह के साथ श्रद्धा चल ही नहीं सकती। यह तो ऐसा हुआ कि एक पैर पूरब जा रहा हैएक पैर पश्चिम जा रहा है—तुम कहीं पहुंचोगे नहीं। यह तो ऐसा हुआ कि तुम दो नावों पर सवार होएक इस किनारे को आ रहीएक उस किनारे को जा रही है—तुम पहुंचोगे कहां?
संदेह की यात्रा अलगश्रद्धा की यात्रा अलग। तुम दो नावों पर सवार हो। अधूरी श्रद्धा का क्या अर्थअधूरी निष्ठा का क्या अर्थकि आधा अविश्वास,आधा संदेह भी मौजूद है! श्रद्धा होती तो पूरीनहीं होती तो नहीं होती।
और एक और मजे की बात ध्यान रखनाइस जगत में जब भी श्रेष्ठ को निकृष्ट से मिलाओगेतो निकृष्ट कुछ भी नहीं खोताश्रेष्ठ का कुछ खो जाता है। जब भी तुम श्रेष्ठ के साथ निकृष्ट को मिलाओगेतो निकृष्ट की कोई हानि नहीं होतीश्रेष्ठ की हानि हो जाती है।
शुद्ध पकवानभोजन तैयार हैतुम जरा—सी मुट्ठी भर गंदगी लाकर डाल दो। तुम कहोगेयह पकवान का तो ढेर लगा है मनोंइसमें मुट्ठी भर गंदगी से क्या होता हैतो मुट्ठी भर गंदगी उस पूरे शुद्ध भोजन को नष्ट कर देगी। वह पूरा शुद्ध भोजन भी उस मुट्ठी भर गंदगी को नष्ट न कर पायेगा। तुम एक फूल पर पत्थर फेंक दोतो पत्थर का कुछ न बिगड़ेगाफूल समाप्त हो जायेगा। पत्थर जड़ हैनिकृष्ट है। फूल महिमावान है। फूल आकाश का हैपत्थर पृथ्वी का है। फूल काव्य है जीवन का। पत्थर और फूल की टक्कर होगीतो फूल का सब बिगड़ जायेगापत्थर का कुछ भी न बिगड़ेगा। एक बूंद जहर पर्याप्त है।
तो ध्यान रखनासंदेह निकृष्ट है। श्रद्धा के फूल के साथ अगर संदेह का पत्थर भी पड़ा है तो फूल दबेगा और मर जायेगाहत्या हो जायेगी फूल की।
तुम यह मत सोचना कि श्रद्धापत्थर को बदल लेगी। पत्थर फूल को नष्ट कर देगा।
निष्ठा या तो होती है या नहीं होती। इसमें दो मत नहीं हैं। होती हैतो सारे जीवन को घेर लेती हैरोएं—रोएं को व्याप्त कर लेती है। निष्ठा व्यापक है फिर। पर ऐसी निष्ठा शास्त्र से नहीं मिलती हैन मिल सकती है। ऐसी निष्ठा जीवंत अनुभव से मिलती है। जीवन के शास्त्र को पढ़ोगे तो मिलेगीअष्टावक्र को पढ़ने से नहीं।
अष्टावक्र को समझ लो। उस समझ को ज्ञान मत समझ लेना। अष्टावक्र को समझकरअपने भीतर सम्हाल करएक कोने में रख दो। एक कसौटी मिली। ज्ञान नहीं मिलाएक कसौटी मिली। अब जब तुम्हें ज्ञान मिलेगातब अष्टावक्र की कसौटी पर उसे कसने में तुम्हें सुविधा हो जायेगी।   कसौटी सोना नहीं है। तुम जाते हो एक सुनार के पासदेखते हो रखा है काला पत्थर कसौटी का। वह काला पत्थर सोना नहीं है। जब सोना मिलता है तो सुनार उस काले पत्थर पर घिसकर देख लेता है कि सोना सोना है या नहीं है?
अष्टावक्र की बात को समझकरकसौटी की तरह सम्हाल कर रख लोगाठ बांध लोजब तुम्हारे जीवन का अनुभव आयेगातो कस लेना। अष्टावक्र की कसौटी उस वक्त काम आयेगी। तुम जान पाओगे कि जो हुआ हैवह क्या हुआतुम्हारे पास समझने को भाषा होगी। तुम्हारे पास समझने को उपाय होगा। अष्टावक्र तुम्हारे गवाह होंगे।
मैं शास्त्रों को इसी अर्थ में लेता हूं। शास्त्र गवाह हैं। अनजाना है मार्ग सत्य का। उस अनजाने मार्ग पर तुम्हें कुछ गवाहियां चाहिए। तुम जब पहली दफा स्वयं सत्य के सामने आओगेसत्य इतना विराट होगा कि तुम कंपोगेसमझ न पाओगे। तुम जड़—मूल से कैप जाओगे। बहुत डर है कि तुम पागल हो जाओ।
थोड़ा सोचो तोकि एक आदमी जो जन्मों—जन्मों से किसी खजाने को खोज रहा थाएक दिन अचानक पाए कि खजाना वहीं गड़ा है जहां वह खड़ा है—वह पागल नहीं हो जाएगायह जन्मों— जन्मों की खोज व्यर्थ गई। और खजाना यहीं गड़ा था जहां मैं खड़ा हूं।
तुम थोड़ा सोचो! उस आदमी पर यह आघात बड़ा हो जाएगा। 'तो इतने दिन मैं व्यर्थ जीया! तो यह सारा अनंत काल तक जीना एक निरर्थक चेष्टा थी,एक दुख—स्वप्न था! जिसे मैं खोज रहा थावह भीतर पड़ा था!क्या ऐसी चोट मेंसंघात में आदमी पागल न हो जाएगाउस वक्त अष्टावक्र की मधुर वाणी शीतल करेगी। उस वक्त वेदांतबुद्ध के वचनउपनिषदबाइबिलकुरान तुम्हारे साक्षी होकर खड़े हो जाएंगे। उनकी उपस्थिति में जो नया तुम्हें घट रहा हैतुम उसे समझने में सफल हो पाओगेअन्यथा अकेले में बड़ी मुश्किल हो जाएगी।
शास्त्रों पर मैं बोल रहा हूं—इसलिए नहीं कि शास्त्रों को सुनकर तुम ज्ञानी हो जाओगेइसलिए बोल रहा हूं कि ध्यान के मार्ग पर चले होआज नहीं कल घटना घटेगीघटनी ही चाहिए। जब घटना घटे तो ऐसा न हो कि सोना सामने हो और तुम समझ भी न पाओ। कसौटी तुम्हें दे रहा हूं। इन कसौटियों पर कस लेना।
अष्टावक्र शुद्धतम कसौटी हैं। अष्टावक्र पर निष्ठा नहीं करनी हैअष्टावक्र की कसौटी का उपयोग करना है स्वयं के अनुभव पर। अष्टावक्र को गवाही बनाना है।
जीसस ने कहा है अपने शिष्यों से कि जब तुम पहुंचोगेमैं तुम्हारा गवाह रहूंगा। शिष्य तो फिर भी गलत समझे। शिष्य तो समझे कि हम जब मरेंगे और परमात्मा के स्वर्ग में पहुंचेंगे तो जीसस हमारी गवाही देंगे कि ये मेरे शिष्य हैंइन्हें भीतर आने दोये अपने वाले हैंईसाई हैं। इनके साथ थोड़ी विशेष अनुकंपा करो। इन पर प्रसाद ज्यादा हो!
लेकिन जीसस का मतलब बहुत और था। जीसस ने कहा कि जब तुम पहुंचोगेमैं तुम्हारी गवाही होऊंगा—इसका यह मतलब नहीं कि जीसस वहां खड़े होंगे। लेकिन जीसस ने जो कहा हैवह कसौटी की तरह पड़ा रहेगा। जब तुम्हारा अनुभव होगाझट तुम उसे कस लोगे और गुत्थी सुलझ जाएगी। अन्यथाअसत्य में भटके हो इतने दिन तक कि तुम्हारी आंखें असत्य की आदी हो गई हैं। सत्य का आघात कहीं तुम्हें तोड़ न देविक्षिप्त न कर दे।
इसे याद रखनासत्य के बहुत खोजी पागल हो गए हैं। सत्य के बहुत खोजी ठीक उस दशा के करीबजब परमहंस होने को होते हैंतभी पागल हो जाते हैंविक्षिप्त हो जाते हैं। क्योंकि घटना इतनी बड़ी हैअविश्वसनीय हैभरोसे—योग्य नहीं हैजैसे पूरा आकाश टूट पड़े तुम परछोटा तुम्हारा पात्र है और विराट तुम्हारे पात्र पर बरस जाए! तुम अस्तव्यस्त हो जाओगे। तुम सम्हाल न पाओगे। जैसे सूरज एकदम सामने आ जाए और तुम्हारी आंखें झकपका जाएंधुंधलका हो जाए! सूरज सामने हो और अंधेरा हो जाएक्योंकि तुम्हारी आंखें बंद हो जाएं। उस घड़ी अष्टावक्र के वचन तुम्हें सूरज को समझने में उपयोगी हो जाएंगे। उस समय तुम्हारे अचेतन में पड़ी अष्टावक्र की वाणी तत्क्षण मुखर हो जाएगी। गूंजने लगेंगे उपनिषद के वचनगूंजने लगेगी गीतागूंजने लगेगा कुरानउठने लगेंगी आयतें! उनकी गंध तुम्हें आश्वस्त करेगी कि तुम घर आ गए होघबड़ाने की कोई बात नहीं। यह विराट हो तुम!
अष्टावक्र कहते हैं तू व्यापक है! तू विराट है। तू विभु है। तू कर्म—शून्य! तू शुद्ध—बुद्ध। तू सिर्फ ब्रह्मस्वरूप है!
ये वचन उस क्षण व्याख्या बनेंगे। इन पर निष्ठा करने मात्र सेइनको पकड़ लेने मात्र से तुम कहीं भी पहुंचोगे नहीं। और लोभ तुम्हारा भीतर खड़ा है कि आत्मज्ञान हुआ नहीं।
      वासना को बांधने को
      तूमड़ी जो स्वरतार बिछाती है।
      आह! उसी में कैसी एकांत—निबिड़
      वासना थरथराती है!
फिर सुनो
      वासना को बौधने को
      तूमड़ी जो स्वरतार बिछाती है।
      आह! उसी में कैसी ख्यात—निबिड़
      वासना थरथराती है!
      तभी तो सांप की कुंडली हिलती नहीं,
      फन डोलता है।
तुम वासना से मुक्त भी होना चाहते होतो भी तुम वासना का ही जाल बिछाते हो। तुम परम शुद्ध—बुद्ध होना चाहते होतो भी लोभ के माध्यम से हीतो भी वासना ही थरथराती है।
      आह! उसी में कैसी एकांत—निबिड़
      वासना थरथराती है।
      वासना को बांधने को
      तूमडी जो स्वरतार बिछाती है।
तुम परमात्मा को पाने चलते होलेकिन तुम्हारे पाने का ढंग वही है जो धन पाने वाले का होता है। तुम परमात्मा को पाने चलते होलेकिन तुम्हारी वासना,कामना वही है—जो पदार्थ को पाने वाले की होती है। संसार को पाने वाले की जो दीवानगी होती हैवही दीवानगी तुम्हारी है।
वासना विषय बदल लेती हैवासना नहीं बदलती।
सुनकर अष्टावक्र को तुम्हारी वासना कहती है : 'अरेयह तो बड़ा शुभ हुआ! हमें पता ही न था कि जिसे हम खोज रहे हैं वह मिला ही हुआ है। तो अब बस बैठ जाएं। फिर तुम प्रतीक्षा करते हो : अब मिलेअब मिलेअब मिले! कैसी वासना थरथराती है! अब मिले! तो तुम समझे ही नहीं। फिर से सुनो अष्टावक्र को। अष्टावक्र कहते हैं. मिला ही हुआ है। लेकिन इसे तुम कैसे सुनोगेकैसे समझोगेतुम्हारी वासना तो थरथरा रही है।
जब तक तुम अपनी वासना में दौड़ न लोदौड़—दौड़कर वासना की व्यर्थता देख न लोदौड़ो और गिरो और लहूलुहान न हो जाओहाथ—पैर न तोड़ लो—तब तक तुम नहीं समझ पाओगे। वासना के अनुभव से जब वासना व्यर्थ हो जाती हैथककर गिर जाती है और टूट जाती है—उस निर्वासना के क्षण में तुम समझ पाओगेकि जिसे तुम खोजते हो वह मिला ही हुआ है।
अन्यथातुम तोते हो जाओगे। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम हिंदू तोते हो कि मुसलमान कि ईसाई कि जैन कि बौद्धइससे कुछ फर्क नहीं पड़ता—तोते यानी तोते। तोते को तुम चाहो तो बाइबिल रटा दोऔर तोते को तुम चाहो तो गीता रटा दो। तोता तोता हैवह रटकर दोहराने लगेगा।
      मंदिर के भीतर वे सब धुले—पुंछे
      उघडेअवलिप्तखुले गले से,
      मुखर स्वरों मेंअति प्रगल्म
      गाते जाते थे राम—नाम।
      भीतर सब गंगेबहरेअर्थहीन
      जलपकनिबोंधअयानेनाटे
      पर बाहर,
      जितने बच्चेउतने ही बड़बोले!
मंदिरों में देखो!
      मंदिर के भीतर वे सब धुले—पुंछे,
      उघडेअवलिप्त..!
कैसे लोग निर्दोष मालूम पड़ते हैं मंदिर में। उन्हीं शक्लों को बाजार में देखोउन्हीं को मंदिर में देखो। मंदिर में उनका आवरण भिन्न मालूम होता है।
      खुले गले सेमुखर स्वरों में
      अति प्रगल्मगाते जाते थे राम—नाम।
देखा तुमने माला लिएकिसी को राम—नाम जपते न: राम चदरिया ओढ़ेचंदन—तिलक लगाए— कैसी शुभ्र लगती है प्रतिमा! इन्हीं सज्जन को बाजार में देखोभीड़— भाड़ में देखोपहचान भी न पाओगे। लोगों के चेहरे अलग— अलग हैंबाजार में एक चेहरा ओढ़ लेते हैंमंदिर में एक चेहरा ओढ़ लेते हैं।
      अति प्रगल्मगाते जाते थे राम—नाम
      भीतर सब गुंगेबहरेअर्थहीन
      जलपकनिबोंधअयानेनाटे,
      पर बाहर,
      जितने बच्चे उतने ही बड़बोले!
जानकारी तुम्हें तोता बना सकती हैबड़बोला बना सकती है। जानकारी तुम्हें धार्मिक होने की भ्रांति दे सकती हैधोखा दे सकती है। लेकिन ज्ञान उसे मत मान लेना। और जानकारी के आधार पर तुम जो निष्ठा सम्हालोगेवह निष्ठा संदेह के ऊपर बैठी होगीसंदेह के कंधे पर सवार होगी। वह निष्ठा कहीं सत्य के द्वार तक ले जाने वाली नहीं है। उस निष्ठा पर बहुत भरोसा मत करना। वह निष्ठा दो कौड़ी की है।
निष्ठा आनी चाहिए स्वानुभव से। निष्ठा आनी चाहिए शुद्ध निर्विकार स्वयं की ध्यान—अवस्था से।

दूसरा प्रश्न :

कल संध्या घूम रहा था कि अचानक आपका कल सुबह का पूरा प्रवचन मेरे रोम—रोम में गूंजने लगा। दर्शक होकर दृश्यों की छवि निहार रहा था कि कहीं से द्रष्टा की याद आ गई। द्रष्टा का खेल भी जरा देर चलालेकिन इसी बीच मेरे पैर लड़खड़ाने लगे और गिरने से बचने के लिए मैं सड़क के किनारे बैठ गया। और तभी न दृश्य रहा न दर्शक रहा और न द्रष्टा ही रहा। सब कुछ समाप्त हो गया और फिर भी कुछ था। कभी अंधेराकभी प्रकाश की आख—मिचौनी चलती रही। लेकिन तभी से बेचैनी भी बढ़ गई और समझ में नहीं आया कि यह सब क्या है!

ही मैं तुमसे कह रहा हूं। अगर सत्य की थोड़ी—सी झलक भी तुम्हारे पास आएगी तो तुम बेचैन हो जाओगेतुम समझ न पाओगे यह क्या है। न समझ पाए कि क्या हैतो गहन अशांति पकड़ लेगीविक्षिप्तता भी पकड़ सकती है। इसलिए बोलता हूं इन शास्त्रों पर। इसलिए रोज तुम्हें समझाए जाता हूं कि कहीं तुम्हारे अचेतन में जानकारी पड़ी रहे और जब घटनाएं घटें तो तुम उनकी ठीक—ठीक व्याख्या कर लोसुलझा लो। अन्यथा तुम सुलझाओगे कैसे? —तुम्हारे पास भाषा न होगीशब्द न होंगेसमझने का कोई उपाय न होगामापदंड न होगा। तराजू न होगातुम तौलोगे कैसेकसौटी न होगीतुम परखोगे कैसे?
पूछा है 'मेरे रोम—रोम में प्रवचन गूंजने लगा। दर्शक होकर दृश्यों की छवि निहार रहा थाकहीं से द्रष्टा की याद आ गई। द्रष्टा का खेल भी जरा देर चला,लेकिन इसी बीच मेरे पैर लडखडाने लगे और गिरने से बचने के लिए मैं सडक के किनारे बैठ गया। '
निश्चित ही ऐसा ही होता है। जब पहली दफा तुम्हें द्रष्टा का थोड़ा—सा बोध होगातुम लड़खड़ा जाओगेतुम्हारी पूरी जिंदगी लड़खड़ा जाएगी। क्योंकि तुम्हारी पूरी जिंदगी ही द्रष्टा के बिना खड़ी है। यह नई घटना सब अस्तव्यस्त कर देगी। जैसे अंधे आदमी की अचानक आख खुल जाएथोड़ा सोचोवह चल पाएगा रास्ते परवह लड़खड़ा जाएगा। चालीस सालपचास साल से अंधा थालकडी के सहारे टटोल—टटोलकर चलता था। अंधेरे में चलने की धीरे — धीरे क्षमता आ गई थी अंधेपन के साथ ही। कुशल हो गया था। आवाजें समझ लेता था। रास्तों के मोड़ पहचान में आ गए थे। कान के द्वारा आख का काम लेना सीख गया था। पचास साल से सब ठीक व्यवस्थित हो गया था।
एक जिंदगी है अंधे की—तुम उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते—प्रकाश—विहीनरंग—विहीनरूप—विहीनआकार —विहीनसिर्फ ध्वनि के माध्यम पर टिकी। उसकी एक ही भाषा है : ध्वनि। तो उसी के आधार पर उसने अपना सारा जीवन संरचित कर लिया था। आज अचानक सुबह वह जा रहा है बाजार,उसकी अचानक आख खुल जाएथोड़ा सोचो क्या होगाउसका सारा संसार झकपका कर गिर पड़ेगा। उसकी ध्वनि का सारा लोक एकदम अस्तव्यस्त हो जाएगा। यह घटना इतनी बड़ी होगी—आख का खुलनालोगों के चेहरे दिखाई पड़नेरंग दिखाई पड़नेसूरज की किरणेंधूप—छावयह भीड़— भाड़इतने लोगबसेंकारेंसाईकिले—वह एकदम घबड़ा जाएगा। यह इतना बड़ा आघात होगा उसके ऊपर कि उसकी छोटी—सी दुनिया जो ध्वनि के सहारे बनी थीवह कहीं दब जाएगीपिछड़ जाएगीमर जाएगीकुचल जाएगी! वह वहीं थरथराकर बैठ जाएगालड़खड़ाकर गिर पड़ेगाशायद घर न आ सकेया बेहोश हो जाए।
और यह उदाहरण कुछ भी नहीं है। जब तुम्हारे जीवन में द्रष्टा का प्रवेश होगाएक किरण भी द्रष्टा की आएगीतो यह उदाहरण कुछ भी नहीं है—वह घटना और भी बड़ी है। भीतर की आख खुल रही है। तुमने उस भीतर की आख के बिना ही अपना एक संसार रच लिया है। अचानक वह भीतर की आख खुलते ही तुम्हारे सारे संसार को गलत कर देगी। तुम चौंककर अवाक रह जाओगे।      जिसने पूछा हैठीक ही पूछा है और अनुभव से पूछा है। इसे खयाल करना।
प्रश्न दो तरह के होते हैं। एक तो सैद्धांतिक होते हैं। उनका कोई बड़ा मूल्य नहीं होता। यह प्रश्न अनुभव का है। अनुभव से न हुआ होता तो यह प्रश्न बन ही नहीं सकता था। ये पैर लड़खड़ाए न होते तो यह प्रश्न बन नहीं सकता था। यह प्रश्न सीधे अनुभव का है।
'कहीं से द्रष्टा की याद आ गई। '
गज रहे होंगे अष्टावक्र के वचन। जो मैंने कहा था सुबहउसकी गज बाकी रह गई होगीउसकी सुगंध तुम्हारे भीतर उठ रही होगीउसकी थोड़ी—सी लकीरें कहीं उलझी रह गई होंगी।
'आ गई कहीं से द्रष्टा की याद! द्रष्टा का खेल थोड़ी देर चला। '
शायद क्षण भर ही चला हो। वह क्षण भी बहुत लंबा मालूम होता है जब खेल द्रष्टा का चलता हैक्योंकि द्रष्टा समयातीत है। यहां घड़ी में क्षण बीतता है,वहां द्रष्टा होने में ऐसा लग सकता है कि सदियां बीत गईं। यह घड़ी वहा काम नहीं आती। यह घड़ी भीतर की आख के लिए नहीं बनी है।  थोड़ी देर खेल चला,लेकिन इसी बीच मेरे पैर लड़खड़ाने लगेजिनसे बचने के लिए मैं सड़क के किनारे बैठ गया। '
यह लड़खड़ाहट बताती है कि घटना घटी। प्रश्न पूछने वाले ने सुनकर प्रश्न नहीं पूछा हैपढ़कर प्रश्न नहीं पूछा है—कुछ घटा।
'और तभी न दृश्य रहान दर्शक रहान द्रष्टा रहा। उस लड़खड़ाहट में सब बिखर गयासब खो गया।
ऐसी घड़ी में ही कभी विक्षिप्तता आ सकती हैअगर धीरे—धीरे अभ्यास न हो। अगर रत्ती—रत्ती हम इसको आत्मसात न करते चलें और यह एकदम से फूट पड़ेतो विस्फोट हो सकता है।
'सब कुछ समाप्त हो गया और फिर भी कुछ था। '
निश्चित कुछ था। वस्तुत: पहली दफा सब कुछ था। तुम्हारा सब कुछ समाप्त हो गया। तुमने जो बना ली थी अपनी छोटी—सी घासफूस की कुटिया—वह गिर गई। आकाश थाचांद—तारे थे। परमात्मा ही बचा! तुमने जो बना ली थी सीमाएंरेखाएं—वे खो गईं। निरभ्र आकाश बचा! तुमने जो छोटे—से में रहने का अभ्यास कर लिया थावह लड़खड़ा गया। उसी लड़खड़ाहट में तुम भी घबड़ाकर सड़क के किनारे बैठ गए।
निश्चित कुछ था। लेकिन जिसको यह अनुभव हुआअवाक कर गया। वह पकड़ नहीं पायाक्या थाकौन था!
तुम्हें खयाल हैकभी—कभी ऐसा होता हैसुबह अचानक कोई तुम्हें जगा दे जब तुम गहरी नींद में सोए थे—पांच बजे होंतुम गहरी नींद में थेरात की सबसे गहरी घड़ी थी—कोई अचानक जगा देकोई शोरगुल हो जाएरास्ते पर कोई बम फूट जाएकोई कार टकरा जाए द्वार परकोई शोरगुल हो जाए—तुम अचानक से जाग जाओ। अचानक! नींद से एकदम होश में आ जाओ। नींद की गहराई से तीर की तरह आ जाओ।
साधारणत: हम जब आते हैं नींद की गहराई से तो धीरे—धीरे आते हैं। पहले गहरी नींद छूटती हैफिर धीरे—धीरे सपने तैरना शुरू होते हैं। फिर सपनों में हम थोड़ी देर रहते हैं। इसलिए तुम्हें सुबह के सपने याद रहते हैं रात के सपने तुम्हें याद नहीं रहते। क्योंकि सुबह के सपने बहुत हलके होते हैंऔर नींद और जागरण के ठीक मध्य में होते हैं। फिर धीरे—धीरे सपने हटते हैं। फिर अधूरी—अधूरी टूटी—सी नींद होती है। फिर धूप—छांव की आख—मिचौनी चलती है थोड़ी देर,क्षण भर को लगता है जागेक्षण भर को फिर नींद में हो जाते हैंकरवट बदल लेते हैंकरवट बदलते तब लगता है जागे हैंबीच में आवाज भी सुनाई दे जाती है कि पत्नी चाय बनाने लगीकि बर्तन गिर गयाकि दूध वाला आ गयाकि राह से कोई गुजर रहाकि नौकरानी ने दस्तक दीकि बच्चे स्कूल जाने की तैयारी करने लगे। फिर करवट लेकर फिर तुम एक गहराई में डुबकी लगा जाते हो। ऐसा धीरे—धीरेधीरे— धीरे सतह पर आते हो। फिर तुम आख खोलते हो।
लेकिन अगर कभी कोई अचानक घटना घट जाए तो तुम तीर की तरह गहराई से सीधे जागरण में आ जाते हो। आख खोलकर तुम्हें लगेगा अचानकतुम कहां होकौन हो पू एक क्षण को कुछ समझ में न आएगा।
ऐसा तुम सबको हुआ होगा कभी किसी घड़ी में. 'कौन हूंनाम—पता भी याद नहीं आता। कहां हूंयह भी समझ में नहीं आता। जैसे किसी अजनबी दुनिया में अचानक आ गए हों! यह क्षण भर ही रहती है बातफिर तुम सम्हल जाते हो। क्योंकि यह धक्का कोई बहुत बड़ा धक्का नहीं है। और फिर इसके तुम अभ्यासी हो। रोज ही यह होता है। रोज सुबह तुम उठते होसपने की दुनिया से वापिस जागृति की दुनिया में लौटते हो। यह अभ्यास पुराना हैफिर भी कभी—कभी अचानक हो जाए तो चौंका जाता हैघबड़ा जाता है।
असली जागरण जब घटता है तो तुम बिलकुल ही अवाक रह जाओगे। तुम्हें कुछ समझ में न आएगाक्या हो रहा हैसब सन्नाटा और शून्य हो जाएगा। लेकिन ठीक हुआ।
'न द्रष्टा रहान दर्शकन दृश्य। सब कुछ समाप्त हो गया। फिर भी कुछ था। '
इस कुछ की ही तुम व्याख्या कर सकीइसीलिए इतने शास्त्रों पर मैं बोल रहा हूं। इस कुछ की ही तुम व्याख्या करने में समर्थ हो जाओइस कुछ को तुम अर्थ दे सकोइस कुछ की तुम प्रत्यभिज्ञा कर सकोपरिभाषा कर सकीनहीं तो यह कुछ तुम्हें डुबा लेगा। तुम बाढ़ में बह जाओगे। तुम्हारे पास खड़े होने की कोई जगह रहेइसीलिए इतनी बातें कह रहा हूं।
'सब कुछ समाप्त हो गयाफिर भी कुछ था। कभी अंधेराकभी प्रकाश की आख—मिचौनी चलती रही। लेकिन तभी से बेचैनी बढ़ गई है। और समझ में नहीं आता कि यह सब क्या था। '
जो मैं कहता हूं उसे सम्हाले जाओ। उसकी मंजूषा बनाओ। उसे ज्ञान मत समझनाजानकारी ही समझना। समझपूर्वक उसकी मंजूषा बनाओ। फिर धीरे—धीरे तुम पाओगेजब—जब अनुभव घटेगाजो अनुभव घटेगाउस अनुभव को सुस्पष्टसुविश्लिष्ट कर देने वाले मेरे शब्द तुम्हारे अचेतन से उठकर खड़े हो जाएंगे। मैं तुम्हारा साक्षी बन जाऊंगा। मैं तुम्हारा गवाह हूं।
लेकिन अगर सुनते वक्त तुम मेरे साथ विवाद कर रहे हो तो फिर मैं तुम्हारा गवाह न बन सकूंगा। अगर सुनते वक्त तुम मुझसे किसी तरह का आंतरिक संघर्ष कर रहे होतर्क कर रहे होअगर सुनते वक्त तुम मुझे सहानुभूतिप्रेम से नहीं सुन रहे होविवाद कर रहे हो—तो मैं तुम्हारा गवाह न बन सकूंगा। क्योंकि फिर तुम जो अपनी मंजूषा में रखोगेवह मेरा नहीं होगातुम्हारा ही होगा।
कल रात आस्ट्रेलिया से आए एक मनोवैज्ञानिक ने संन्यास लिया। उस मनोवैज्ञानिक को मैंने कहा कि तुम संन्यास न लोतो भी तुम्हारा स्वागत है। लेकिन तब तुम मेरे अतिथि न रहोगे। स्वागत तो तुम्हारा है। अगर तुम संन्यास ले लो तो भी स्वागत तुम्हारा हैपर तुम मेरे अतिथि भी हो गए। मुझसे लोग पूछते हैं कि 'अगर हम संन्यास नलें तो क्या आपका प्रेम हम पर कम रहेगा?' मेरा प्रेम तुम पर पूरा रहेगा। स्वागत है। लेकिन संन्यास लेते ही तुम अतिथि भी हो गए।
और बड़ा फर्क है। बिना संन्यास लिए तुम सुन रहे हो दूरी सेसंन्यास लेकर तुम पास आ गए। बिना संन्यास लिए तुम सुन रहे होअपनी बुद्धि से विश्लेषण कर रहे होतुम छांट रहे हो मैं जो कह रहा हूं। उसमें जो तुम्हें मन—भाता हैवह रख लेते होजो मन नहीं भातावह छोड़ देते हो। और संभावना इसकी है कि जो तुम्हें मन नहीं भाता है वही काम पड़ने वाला है। क्योंकि तुम्हें जो मन—भाता हैवह तुम्हें बदल नही सकता। तुम्हें मन—भाता हैउसका अर्थ है तुम्हारे अतीत से मेल खाता है। जो तुम्हारे अतीत से मेल नही खातावही तुम्हारे भीतर क्रांति की किरण बनेगा। जो तुमसे मेल नहीं खाता वही तुम्हे रूपातरित करेगा। जो तुमसे बिलकुल मेल खा जाता हैवह तुम्हें मजबूत करेगारूपांतरित नहीं करेगा। तो तुम चुन रहे हो। तुम सोचते हो तुम बुद्धिमान हो।
बुद्धिमान कभी—कभी बड़ी नासमझियां करते हैं। वे चुन रहे हैं बैठे। वे चुनते रहते हैं। अपने मतलब का जो हैवह सम्हाल लेंगेजो अपने मतलब का नहीं,उससे हमें क्या लेना—देना!
लेकिन मैं तुमसे फिर कहता हूं : जो तुम्हें लगता है तुम्हारे मतलब का नहीं हैवही किसी दिन तुम्हारे काम पड़ेगा। आज तुम्हारे पास उसको समझने का भी कोई उपाय नहीं हैक्योंकि तुम्हारे पास उसका कोई अनुभव नहीं है। लेकिन फिर भी मैं कहता हूं सम्हाल कर रख लो। किसी दिन अनुभव जब आएगातो अचानक तुम्हारे अचेतन से उठेगी बात और हल कर जाएगी। तब तुम अवाक न रहोगे। तब तुम्हारा विस्मय तुम्हें तोड़ नहीं देगा। और तब तुम घबड़ा न जाओगे और बेचैनी न होगी।
      ऊपर ही ऊपर,
      जो हवा ने गाया
      देवदारू ने दोहराया
      जो हिम—चोटियों पर झलका
      जो सांझ के आकाश से छलका
      वह किसने पाया?
      जिसने आयत करने की आकांक्षा का हाथ बढ़ाया?
      आहवह तो मेरे
      दे दिए गए हृदय में उतरा  
      मेरे स्वीकारे आंसू में ढलका
      वह अनजानाअनपहचाना ही आया
      वह इन सबके और मेरे माध्यम से
      अपने मेंअपने को लाया
      अपने में समाया
      अकेला वह तेजोमय है जहां
      दीठ बेबस झुक जाती है
      वाणी तो क्यासन्नाटे तक की गंज
      वहां चुक जाती है।
      सुनो मुझे—गहन आसुओं से! सुनो मुझे—हृदय से! सुनो मुझे—प्रेम से! बुद्धि से नहींतर्क से नहीं। वही श्रद्धा और निष्ठा का अर्थ है।
      ऊपर ही ऊपर,
      जो हवा ने गाया
      जो देवदारू ने दोहराया
      जो हिम—चोटियों पर झलका
      जो सांझ के आकाश से छलका
      वह किसने पाया?
      क्या उसनेजिसने
      आयत करने की आकांक्षा का हाथ बढ़ाया?
नहीं! जहां आकांक्षा का हाथ बढ़ावहा तो हाथ बड़ा छोटा हो गया। आकांक्षा के हाथ में तो भिक्षा ही समाती हैसाम्राज्य नहीं समाते। साम्राज्य समाने के लिए तो प्रेम से खुला हुआ हृदय चाहिएभिक्षा कावासना का पात्र नहीं।
      वह किसने पाया?
      जिसने आयत करने की आकांक्षा का हाथ बढ़ाया?
तो तुम मुझे यहां ऐसे सुन सकते हो कि चलोजो अपने मतलब का हो उसे उठा लेंअपनी झोली में सम्हाल लें। तो तुम आकांक्षा के हाथ से मेरे पास आ रहे हो। आकांक्षा तो भिक्षु है। तो तुम कुछ थोड़ा—बहुत ले जाओगेलेकिन तुम जो ले जाओगे वे टेबल से गिरे रोटी के टुकड़े इत्यादि थे। तुम अतिथि न हो पाए। संन्यास तुम्हें अतिथि बना देता है।
      आहवह तो मेरे दे दिए गए
      हृदय में उतरा!
      आहवह तो मेरे दे दिए गए
      हृदय में उतरा।
      मेरे स्वीकारे आंसू में ढलका
      वह अनजाना—अनपहचाना ही आया
      वह इन सबके और मेरे माध्यम से
      अपने मेंअपने को लाया
      अपने मैं समाया
      अकेला वह तेजोमय है जहां
      दीठ बेबस झुक जाती है।
      वहां आंख तो झुक जाती है।
      वाणी तो क्यासन्नाटे तक की गज
      वहां चुक जाती है
उसके लिए तैयारी करो। उसके लिए हृदय को प्रेम से भरो। उसके लिए सहानुभूति से सूनना सीखो। और मैं तुमसे जो कह रहा हूं, उसे मंजूषा में संजोओ। तो फिर बेचैनी न होगी। फिर वह उतरे अपरिचितअनजान—तुम उसे समझ पाओगे। तुम उसके गढ़ स्वर को समझ पाओगे। तुम उसके सन्नाटे में डूबोगे नही,घबडाओगे नहीं—मुका हो जाओगे। अन्यथावह मौत जैसा लगेगा। परमात्मा अगर बिना समझे हुए आ जाएतुम्हारे पास अगर समझने का कोई भी उपाय न हो,तो मौत जैसा लगेगा कि मरे! अगर तुम्हारे पास समझने का थोड़ा उपाय होथोड़ी तैयारी होतुमने सदगुरुओं से कुछ सीखा होसत्संग किया हो—तो परमात्मा मोक्ष हैअन्यथा मृत्यु जैसा मालूम पड़ता है। और एक बार तुम घबड़ा गए तो तुम उस तरफ जाना बंद कर दोगे। एक बार तुम बहुत भयभीत हौ गएतो तुम्हारा रोआं—रोआं डरने लगेगा। तुम और सब जगह जाओगेवही न जाओगे जहा ऐसा भय है जहां हाथ—पैर लड़खड़ा जाएंजहां राह के किनारे बैठ जाना पड़ेजहां सब धूमिल हो जाएसब खोता मालूम पड़ेकुछ अज्ञात अनजाना शेष रहे और घबड़ाए और बेचैनी दे—फिर तुम वहां न जाओगे।
रवींद्रनाथ का गीत है कि मैं परमात्मा को खोजता था अनेक जन्मों से। बहुत खोजामिला नहीं। कभी —कभी दूरबहुत दूर चांद—तारों पर उसकी झलक दिखाई पड़ जाती थी। आशा बंधी रहीखोजता रहा। फिर एक दिन संयोग और सौभाग्य कि उसके द्वार पर पहुंच गया। तख्ता लगी थी—यही रहा घर भगवान का! चढ़ गया सीढ़ियां एक छलांग मेंजन्मों—जन्मों की यात्रा पूरा हुई थी। अहोभाग्य! हाथ में सांकल लेकर बजाने को ही था किए तब एक भय पकड़ा कि अगर वह मिल गयातो फिरफिर मैं क्या करूंगाअब तक परमात्मा को खोजना ही तो मेरा कुल कृत्य था। अब तक इसी सहारे जीया। यही थी मेरी जीवन—यात्रा। तो परमात्मा अगर मिल गया तो वह तो मृत्यु हो जाएगी। फिर मेरे जीवन का क्याफिर मेरी यात्रा कहाफिर कहां जाना हैकिसको पाना हैक्या खोजना हैफिर तो कुछ भी न बचेगा। तो बहुत घबड़ा गया। छोड़ दी सांकल आहिस्ता सेकि कहीं आवाज न हो जाएकहीं वह द्वार खोल ही न दे! जूते हाथ में ले लिए। भागा तो तब से भाग रहा हूं।
अब भी खोजता हूं—रवींद्रनाथ ने लिखा है उस गीत में—अब भी खोजता हूं परमात्मा को हालांकि मुझे पता है उसका घर कहां है। उस जगह को भर छोड़ कर सब जगह खोजता हूंक्योंकि खोजना ही जीवन है। उस जगह भर जाने से बचता हूं। उस घर की तरफ भर नहीं जाता। वहा से किनारा काट लेता हूं। और सब जगह पूछता फिरता हूं,परमात्मा कहां हैऔर मुझे पता है कि परमात्मा कहां है।
मेरे देखेबहुत लोग अनत जन्मों की यात्रा में कई बार उस घर के करीब पहुंच गए हैंलेकिन घबड़ा गए हैं। ऐसे घबड़ा गए कि सब भूल गयावह घबड़ाहट नहीं भूली है अभी तक! इसीलिए लोग ध्यान करने को आसानी से उत्सुक नहीं होते। ध्यान वगैरह की बात से ही लोग डरते हैंबचते हैं। परमात्मा शब्द का औपचारिक उपयोग कर लेते हैंलेकिन परमात्मा को कभी. जीवन की गहरी खोज नहीं बनने देते। मंदिर—मस्जिद हो आते हैं—सामाजिक औपचारिकता है,लोकाचार। जाना चाहिएइसीलिए चले जाते हैं। लेकिन कभी मंदिर कोमस्जिद को हृदय में नहीं बसने देते। उतना खतरा मोल नहीं लेते। दूर—दूर रखते हैं परमात्मा को। उसका कारण होगा। कहीं किसी गहन अनुभव मेंकहीं छिपी किसी गहरी स्मृति में कोई भय का अनुभव छिपा है। कभी लड़खड़ा गए होंगे उसके घर के पास।
अब जिन मित्र को यह अनुभव हुआ हैअगर वे ठीक से न समझें तो घबड़ाने लगेंगे। अब रास्‍ते पर ऐसा घबड़ा कर बैठ जानाहाथ—पैर कंप जानाहृदय का जोर सै धड़कने लगनाश्वास का बेतहाशा चलने लगनाकुछ से कुछ हो जाए—ऐसे ध्यान से दूर ही रहना अच्छा! यह तो झंझट की बात है। फिर लौट आए तो ठीकअगर न लौट पाए तोअगर ऐसे ही बैठे रह जाएं रास्ते के किनारे तो लोग पागल समझ लेंगे। घडी—दो —घड़ी तो ठीकफिर पुलिस आ जाएगी। फिर पास—पड़ोस के लोग कहेंगे कि अब इनको उठाओअस्पताल भेजोक्या हो गयाचिकित्सक इंजेक्यान देने लगेंगे कि इनका होश खो गयाकि मस्तिष्क खराब हो गया?
मेरे एक मित्र ने लिखा है—संन्यासी है—कि यहां से गए तो नाचते हुएआनंदित होकर गए। घर के लोगों ने कभी उन्हें नाचते और आनंदित तो देखा नहीं था। जब वै घर नाचतेआनंदित पहुंचे तो लोगों ने समझा पागल हो गए। घर के लोगों ने एकदम दौड़कर उन्हें पकड़ लिया कि बैठोक्या हो गया तुमको? ' अरे,'उन्होंने कहा, 'मुझे कुछ हुआ नहीं। मैं बड़ा प्रसन्न हूं बड़ा आनंद में हूं। वे जितने जान की बातें करेंघर के लोग उतने संदिग्ध हुए कि गड़बड़ हो गई। वे उन्हें घर —से न निकलने दें। जबरदस्ती उनको अस्पताल में भरती करवा दिया। उनका पत्र आया है कि मैं पड़ा हंस रहा हूं यहां अस्पताल में। यह खूब मजा है! मैं दुखी थामुझे कोई अस्पताल न लाया। अब मैं प्रसन्न हूं तो लोग मुझे अस्पताल ले आए हैं। मैं देख रहा हूं खेल। मगर वे समझते हैं कि मैं पागल हूं। और जितना वे मुझे समझते हैं कि पागल हूं,उतनी मुझे हंसी आती है। जितनी मुझे हंसी आती हैवे समझते हैं कि बिलकुल गए काम से।
ठीक हुआ जो पूछ लिया। घबड़ाना मत। यह अनुभव धीरे—धीरे शांत हो जाएगा। साक्षी— भाव रखना। ऐसा स्वाभाविक है।

तीसरा प्रश्न :

हम ईश्वर—अंश हैं और अविनाशी भी। कृपया बताएं कि यह अंश मूल से कबक्यों और कैसे बिछुड़ाऔर अंश का मूल से पुनर्मिलनकभी न बिछुडने वाला मिलना संभव है या नहींयदि संभव है तो अंश को मूल में मिला देने की कृपा करें कि बार—बार इस कोलाहाल में आकर भयभीत न होना पड़े।

देखे फर्क! अभी एक प्रश्न था—वह अनुभव का था। यह प्रश्न शास्त्रीय है. 'हम ईश्वर—अंश हैं और अविनाशी भी!यह तुम्हें पता हैसुन लियापढ़ लिया—और अहंकार को तृप्ति देता है—मान भी लिया। इससे बड़ी अहंकार को तृप्ति देने वाली और क्या बात हो सकती है कि हम ईश्वर—अंश हैंईश्वर हैंब्रह्म हैंअविनाशी हैं! यही तो तुम चाहते हो। यही तो अहंकार की खोज है। यही तो तुम्हारी गहरी से गहरी आकांक्षा है कि अविनाशी हो जाओईश्वर— अंश हौ जाओ,ब्रह्मस्वरूप हो जाओसारे जगत के मालिक हो जाओ!
'हम ईश्वर—अंश हैं और अविनाशी भी। '
ऐसा तुम्हें पता हैअगर तुम्हें पता है तो प्रश्न की कोई जरूरत नहीं। अगर तुम्हें पता नहीं है तो यह बात लिखना ही व्यर्थ हैफिर प्रश्न ही लिखना काफी है।
'कृपया बताएं कि यह अंश मूल से कबक्यों और कैसे बिछुड़ा?'
ये पांडित्य के प्रश्न हैं। कब? —समयतारीखतिथि चाहिए। क्या करोगेअगर मैं तिथि भी बता दू र उससे क्या अंतर पड़ेगासंवत बता दूं समय बता दूं कि ठीक सुबह छह बजे फला—फलां दिन—उससे क्या फर्क पड़ेगाउससे तुम्हारे जीवन में क्या क्रांति होगीतुम्हें क्या मिलेगाकबक्यों और कैसे बिछुड़ा?
अगर तुम्हें पता है कि तुम ईश्वर—अंश हो तो तुम्हें पता होगा कि बिछुड़ा कभी भी नहीं। तुमने बिछुड़ने का सपना देखा। बिछुड़ा कभी भी नहींक्योंकि अंश बिछुड़ कैसे सकता हैअंश तो अंशी के साथ ही होता है। तुम्हें याद भूल गई होबिछुड़न नहीं हो सकतीविस्मृति हो सकती है। बिछुड़ने का तो उपाय ही नहीं है। हम जो हैंवही हैं। चाहे हम भूल जाएंविस्मरण कर देंचाहे हम याद कर लें—सारा भेद विस्मृति और स्मृति का है।
'मूल से कबक्यों और कैसे बिछुड़ा?'
बिछुड़ा होता तो हम बता देते कि कबक्यों और कैसे बिछुड़ा। बिछुड़ा नहीं। रात तुम सोएतुमने सपना देखा कि सपने में तुम घोड़े हो गए। अब सुबह तुम पूछो कि हम घोड़े क्योंकैसेकब हुए—बहुत मुश्किल की बात है। 'क्यों घोड़े हुए?' हुए ही नहींपहली तो बात। हो गए होते तो पूछने वाला बचताघोड़े तो नहीं पूछते। तुम कभी हुए नहींसिर्फ सपना देखा। सुबह जागकर तुमने पाया कि अरेखूब सपना देखा! जब तुम सपना देख रहे थे तब भी तुम घोड़े नहीं थेयाद रखना। हालांकि —तुम बिलकुल ही लिप्त हो गए थे इस भाव में कि घोड़ा हो गया। यही तो अष्टावक्र की मूल धारणा है। अष्टावक्र कहते हैं जिस बात से भी तुम अपने मैं— भाव को जोड़ लोगेवही हो जाओगे।
देहाभिमान—तो देह हो गए। कहा 'मैं देह हूं', तो देह हो गए। ब्रह्माभिमान—कहा कि मैं ब्रह्म हूं तो ब्रह्म हो गए। तुम जिससे अपने मैं को जोड़ लेते होवही हो जाते हो। सपने में तुमने घोड़े से जोड लियातुम घोड़े हो गए। अभी तुमने शरीर से जोड़ लिया तो तुम आदमी हो गए। लेकिन तुम हुए कभी भी नहीं हो। हो तो तुम वहीजो तुम हो। जस—के—तस! वैसे के वैसे! तुम्हारे स्वभाव में तो कहीं कोई अंतर नहीं पड़ा है।
इसलिए इस तरह के प्रश्न अर्थहीन हैं। और इस तरह के प्रश्न पूछने में समय मत गंवाओ। और इस तरह के प्रश्नों के जो उत्तर देते हैंवे तुमसे भी ज्यादा नासमझ हैं।
झेन फकीर बोकोजू के जीवन में उल्लेख है : एक दिन सुबह उठा और उठकर उसने अपने प्रधान शिष्य को बुलाया और कहा कि सुनोमैंने रात एक सपना देखा। उसकी तुम व्याख्या कर सकोगेउस शिष्य ने कहा कि रुके। मैं थोड़ा पानी ले आऊंआप हाथ—मुंह पहले धो लें।
वह मटकी में पानी भर लाया और गुरु का उसने हाथ—मुंह धुलवा दिया। वह हाथ—मुंह धुला रहा थातभी दूसरा शिष्य पास से गुजरता था। गुरु ने कहा,सुनो! मैंने रात एक सपना देखा। तुम उसकी व्याख्या करोगे?
उसने कहा कि ठहरोएक कप चाय ले लेना आपके लिए अच्छा रहेगा। वह एक कप चाय ले आया। गुरु खूब हंसने लगा। उसने कहा कि अगर तुमने व्याख्या की होती मेरे सपने कीतो मारकर बाहर निकाल देता।
सपने की क्या व्याख्याअब देख भी लियाजाग भी गएअब छोड़ो पंचायत!
शिष्यों ने बिलकुल ठीक उत्तर दिए। वह कसौटी थी। वह परीक्षा थी उनकी। वह परीक्षा का क्षण आ गया था। एक शिष्य पानी ले आया कि आप हाथ—मुंह धो लें। सपना गयाअब मामला खत्म करें! अब और व्याख्या क्या करनीसपना सपना थाबात खत्म हो गईव्याख्या क्या करनीव्याख्या सत्य की होती हैसपनों की थोड़े ही। झूठ की क्या व्याख्या हो सकती हैजो हुआ ही नहींउसकी क्या व्याख्या हो सकती हैइतना काफी है कि जान लिया सपना थाअब हाथ—मुंह धो लें। अब बाहर आ ही जाएंजब आ ही गए।
दूसरे युवक ने भी ठीक किया कि चाय ले आयाकि हाथ—मुंह तो धुल गया लेकिन लगता है थोडी नींद बाकी हैआप ठीक से चाय पी लेंबिलकुल जाग जाएं।
यही मैं तुमसे कहता हूं : हाथ—मुंह धो लोचाय पी लो! तुम कभी अलग हुए नहीं। अलग होने का कोई उपाय नहीं है।
फिर पूछते हैं. 'अंश का मूल से पुनर्मिलनकभी न बिछुड़ने वाला मिलन संभव है या नहीं? जब तुम बिछुड़े ही नहीं तो मिलन की बात ही बकवास है। इसीलिए तो अष्टावक्र कहते हैं कि मुक्ति का अनुष्ठान मुक्ति का बधन है। वे क्या कह रहे हैंवे यह कह रहे हैं कि जिससे तुम कभी अलग ही नहीं हुएउससे मिलने की योजनातो हद हो गई पागलपन की! तो यह योजना ही तुम्हें मिलने न देगी।
थोड़ा सोचो! अगर तुम अपने घर के बाहर कभी गए ही नहींतो घर लौटने की चेष्टा तुम्हें जागने न देगी।
एक शराबी रात घर लौटा। ज्यादा पी गया। दरवाजे पर टटोलकर तो देखालेकिन समझ में न आया कि अपना मकान है। उसकी मां ने दरवाजा खोला,तो उसने कहाहे बूढ़ी मां! मुझे मेरे घर का पता बता दें।
वह बूढ़ी कहने लगीतू मेरा बेटा हैमैं तेरी मां हूं पागल! यह तेरा घर है।
उसने कहा कि मुझे भरमाओ मत। मुझे भटकाओ मत। इतना मुझे पक्का है कि घर यहीं कहीं हैलेकिन कहां है?
मोहल्ले के लोग इकट्ठे हो गए। लोग समझाने लगे। अब शराबी को समझाने की जरूरत नहीं होती। शराबी को जो समझाएं वह भी शराब पीए है। वे समझाने लगे कि यही तेरा घर है। सिद्ध करने लगेप्रमाण जुटाने लगे कि देखयह देख। वे इतनी बात समझ ही नहीं रहे कि वह आदमी शराब पीए हैकहां प्रमाण! उसे न—मालूम क्या—क्या दिखाई पड़ रहा हैजिसकी तुम सोच भी नहीं कर सकते। जो तुम्हें दिखाई पड़ रहा है उसे दिखाई पड़ ही नहीं रहा है। वह किसी दूसरे लोक में है। वह अपनी मा को नहीं पहचान रहा हैक्या खाक अपने घर को पहचानेगा! वह अपने को नहीं पहचान रहा हैवह क्या किसी और को पहचानेगा!
उसके पीछे एक दूसरा शराबी आया। वह अपनी बैलगाड़ी जोते चला आ रहा था। तो उसने कहा कि तू मेरी बैलगाड़ी में बैठमैं तुझे पहुंचा दूंगा तेरे घर।
उसने कहा कि यह आदमी ठीक मालूम होता है। सदगुरु मिल गये! ये सब तो नासमझ थे। हम पूछते हैंहमारा घर कहां हैबस वे एक ही रट लगाए हुए हैं कि यही तेरा घर है! हम क्या अंधे हैंयह आदमी सदगुरु है! तुम ध्यान रखना। तुम गलत प्रश्न पूछोगेतुम गलत गुरुओं के जाल में पड़ जाओगे। एक बार तुमने गलत प्रश्न पूछा तो कोई न कोई गलत उत्तर देने वाला मिल ही जाएगा। यह जीवन का नियम है। पूछो कि उत्तर देना वाला तैयार है। सच तो यह है कि तुम न पूछो तो उत्तर देने वाले तैयार हैं। वे तुम्हें खोज ही रहे हैं। इस तरह के प्रश्न पूछकर तुम केवल उलझनों में अपने को डालने का आयोजन करते हो।
'क्या पुनर्मिलन संभव है?'
बिछुड़न हुई ही नहींविदा कभी ली ही नहीं—पुनर्मिलन की बात ही क्या करनी?
और फिर पूछते हैं कि 'क्या न बिछुड़ने वाला मिलन संभव है —?— ' कहीं ऐसा न हो कि मिलन हो और फिर बिछुड़ जाएं!
ये सारी बातें सार्थक मालूम पड़ती हैंक्योंकि हमें याद ही नहीं कि हम कौन हैं?
परमात्मा अगर भिन्न हो तो ये बातें सब सच हैं। परमात्मा तुम्हारा स्वभाव है। स्वभाव को भूल सकते हैं हम। यह भी हमारे स्वभाव में है कि हम स्वभाव को भूल सकते हैं।
मित्र ने पूछा है कि अगर आत्मा शुद्ध—बुद्ध है और आत्मा अगर मुक्त है और आत्मा अगर असीम ऊर्जा हैपरम स्वतंत्रता है—तों फिर वासना का जन्म कैसे हुआ?
यह भी आत्मा की स्वतंत्रता है कि अगर वासना करना चाहे तो कर सकती है। अगर आत्मा वासना न कर सके तो परतंत्र हो जाएगी। थोड़ा सोचो!
संसार तुम्हारी स्वतंत्रता हैतुमने चाहा तो हो गया। तुम्हारी चाह मुक्त है। तुम चाहो तो अभी न हो जाए। तुम चाहो तो अभी फिर हो जाए।
तो मैं तुमसे यह नहीं कह सकता कि न बिछुड़ने वाला मिलन कैसे होगा। बिछुड़न तो कभी हुई नहीं हैलेकिन आत्मा की यह परम स्वतंत्रता है कि वह जब चाहे जिस चीज को भूल जाएऔर जिस चीज को चाहे याद कर ले। अगर आत्मा की यह संभावना न हो तो आत्मा सीमित हो जाएगीउसकी मुक्ति बंधित हो जाएगीउस पर आरोपण हो जाएगाउपाधि हो जाएगी।
पश्चिम में एक विचारक हुआ दिदरो। उसने सिद्ध किया है कि ईश्वर पूर्ण शक्तिमान नहीं हैसर्व शक्तिमान नहीं है। उसने तर्क जो दिए हैंवे ऐसे हैं कि लगेगा कि बात ठीक कह रहा है। जैसे वह कहता है, 'क्या ईश्वर दो और दो के जोड़ से पांच बना सकता है?' यह अपने को भी अड़चन मालूम होती है कि दो और दो से पांच ईश्वर भी कैसे बनाएगातो फिर सर्वशक्तिवान कैसादो और दो चार ही होंगे। 'क्या ईश्वर एक त्रिकोण में चार कोण बना सकता है?' कैसे बनाएगाचार कोण बनाएगा तो वह त्रिकोण नहीं रहा। त्रिकोण रहेगा तो चार कोण बन नहीं सकते उसमें। 'तो सीमित हो गया ईश्वर। '
ईसाइयों की जो ईश्वर के बाबत धारणा हैउसको तो दिदरो ने झकझोर दिया। लेकिन अगर दिदरो को भारतीयों की धारणा पता होती तो मुश्किल में पड़ जाता। वे कहते कि यही तो सारा उपद्रव है कि ईश्वर की स्वतंत्रता ऐसी है कि दो और दो पांच बना देता हैदो और दो तीन बना देता है। इसी को तो हम माया कहते हैंजिसमें दो और दो पांच हो जाते हैंदो और दो तीन हो जाते हैं। जब दो और दो चार हो गएमाया के बाहर हो गए।
यहां त्रिकोण चतुर्भुज जैसे बैठे हैं। यहां बड़ा धोखा चल रहा है। यहां कोई कुछ समझे हैकोई कुछ समझे है। जो जैसा हैवैसे भर का पता नहीं रहा। दो और दो चार नहीं रहेएक बात पक्की हैऔर सब हो गया है। इसको ही हम माया कहते हैं।
माया को हमने परमात्मा की शक्ति कहा है। तुमने कभी सोचा हैइसका क्या अर्थ होता हैमाया को हमने परमात्मा की शक्ति कहा है! इसका अर्थ हुआ कि अगर परमात्मा चाहे तो अपने को भ्रम देने की भी शक्ति उसमें हैनहीं तो सीमित हो जाएगा। वह परमात्मा भी क्या परमात्मा जो सपना न देख सकेतो उतनी सीमा हो जाएगी कि सपना देखने में असमर्थ है।
नहींपरमात्मा सपना देख सकता है। तुम सपना देख रहे हो। तुम परमात्मा होजो सपना देख रहा है। जाग सकते होसपना देख सकते हो—और यह क्षमता तुम्हारी है। इसलिए तुम जब चाहो तब सपना देख सकते होऔर तुम तब चाहो तब जाग सकते हो। यह तुम्हारी मर्जी है कि तुम अगर जागे ही रहना चाहो तो तुम जागे ही रहोगेतुम अगर सपने में ही रहना चाहो तो तुम सपना देखते रहोगे। मनुष्य की स्वतंत्रता अबाध है। आत्मा की शक्ति अबाध है। सत्य और स्वप्न—आत्मा की दो धाराएं हैं। उन दो धाराओं में सब समाविष्ट है।
तुम पूछते हो कि क्या पुनर्मिलन संभव है?
पहले तो 'पुनर्मिलनकहो मत। पुनर्सारण कहोतो तुमने ठीक शब्द उपयोग किया।
फिर तुम पूछते हो कि 'क्या न बिछुड़ने वाला...... ?’ 
उसकी गारंटी मैं नहीं दे सकता। क्योंकि वह तुम्हारे ऊपर निर्भर हैतुम्हारी मर्जी। तुम अगर उसे छोड़ना चाहोभूलना चाहोतो तुम्हें कोई भी रोक नहीं सकता।
तुम उसे याद करना चाहो तो तुम्हें कोई रोक नहीं सकता। और इससे तुम परेशान मत होना। इससे तो तुम अहोभाव मानना कि तुम्हारी स्वतंत्रता कितनी है,कि तुम परमात्मा तक को भूलना चाहो तो कोई बाधा नहीं है। परमात्मा जरा भी अड़चन —तुम्हें देता नहीं। तुम अगर उसके विपरीत जाना चाहो तो भी कोई बाधा नहीं। वह तब भी तुम्हारे साथ है। तुम तब विपरीत जाना चाहते होतब भी तुम्हें शक्ति दिए चला जाता है।
सूफी फकीर हसन ने लिखा है कि मैंने एक रात परमात्मा से पूछाकि इस गाव में सबसे श्रेष्ठ धर्मात्मा पुरुष कौन हैतो परमात्मा ने मुझे कहा कि वही जो तेरे पड़ोस में रहता है।
उस पर तो कभी हसन ने खयाल ही न दिया था। वह तो बड़ा सीधा—सादा आदमी था। सीधे—सादे आदमियों को कोई खयाल देता है! खयाल तो उपद्रवियों पर जाता है। सीधा—सादा आदमी थाचुपचाप रहता थासाधारण आदमी थाअपनी मस्ती में था—न किसी से लेना न देना। किसी ने खयाल ही न दिया था। हसन ने कहायह आदमी सबसे बड़ा पुण्यात्मा!
दूसरे दिन सुबह गौर से देखा तो लगा कि बड़ी प्रभा है इस आदमी की! दूसरी रात उसने फिर परमात्मा से कहा कि अब एक प्रश्न और। यह तो अच्छा हुआ,आपने बता दिया। पूजा करूंगा इस पुरुष की। नमन करूंगा इसे। यह मेरा गुरु हुआ। अब एक बात और बताइस गाव में सबसे बुरा कौन आदमी है जिससे मैं बचूं?
परमात्मा ने कहावही तेरा पड़ोसी।
उसने कहायह जरा उलझन की बात है।
तो परमात्मा ने कहामैं क्या करूंकल रात वह अच्छे भाव में थाआज बुरे भाव में। मैं कुछ कर सकता नहीं। कल सुबह मैं कह नहीं सकता कि क्या हालत होगी। वह फिर अच्छे भाव में आ सकता है।
आत्मा परम स्वतंत्र है। उस पर कोई बंधन नहीं है। इस परम स्वतंत्रता को ही हम मोक्ष कहते हैं। मोक्ष में यह बात समाविष्ट है कि तुम चाहो भूलना तो तुम्हें कोई रोक नहीं सकता। वह मोक्ष भी क्या मोक्ष होगाजिसके तुम बाहर निकलना चाहो और निकल न सको?
मैंने सुना है कि ईसाई पादरी मरा। स्वर्ग पहुंचातो वह बड़ा हैरान हुआ। कई लोग उसने देख कि जंजीरों मेंबेड़ियों में बंधे पड़े हैं। उसने कहायह मामला क्या हैस्वर्ग में और जंजीरें—बेड़ियां।

उन्होंने कहा.ये वापिस—ये अमरीकन हैं—वापिस अमरीका जाना चाहते हैं। ये कहते हैंवहीं ज्यादा मजा था। इनको हथकड़ियां डालनी पड़ी हैं, क्योंकि यह तो स्वर्ग की तौहीन हो जाएगी। ये कहते हैं, 'स्वर्ग में हमें रहना नहींहमें वापिस अमरीका जाना है। वहां ज्यादा मजा था। इन अप्सराओं से बेहतर स्त्रियां वहां थीं। शराब! इससे बेहतर शराब वहा थी। मकान! इससे ऊंचे मकान वहां थे। यह भी तुम कहां के पुराने जमाने के मकानों को लेकर बैठे हो?'
अब स्वर्ग के मकान हैंदकियानूसी हैंसमय के बिलकुल बाहर पड़ गए हैं। उनके इंजीनियर, उनके आर्किटेक्ट...... दस—पच्चीस हजार साल पहले बनाए थेवह चल रहा है।
'वे कहते हैंहमें अमरीका जाना है। तो इनको हमें बन्ध कर रखना पड़ा है। अगर ये भाग जाएं और अमरीका पहुंच जाएंतो स्वर्ग की बड़ी तौहीन होगी। फिर स्वर्ग कोई आना कैसे चाहेगा?' लेकिन स्वर्ग क्या रहा अगर वहां हथकड़ियां डली होंइससे तो फिर नरक बेहतरकम से कम हथकड़ियां तो नहीं हैं। एक बात ध्यान रखनास्वतंत्रता यानी स्वर्ग। मुक्ति यानी मोक्ष। तुम अपनी स्वतंत्रता से जहां होवहीं मुक्ति है। और यह अंतिम घटना है। यह अंतिम बेशर्त बात है। इसके ऊपर कोई शर्त नहीं है।
तो अगर किसी मुक्त आत्मा की मर्जी हो जाए कि फिर वापिस लौटना है संसार मेंतो कोई रोक सकता नहीं। लौटती नहीं मुक्त आत्माएंयह दूसरी बात है। लेकिन अगर कोई मुक्त आत्मा लौटना ही चाहे तो कोई रोक सकता नहीं। क्योंकि कौन रोकेगाऔर अगर कोई रोक ले तो मुक्त आत्मा मुक्त कहां रही?
तुम निकलने लगे स्वर्ग के दरवाजे से। उन्होंने कहा, 'रुको! बाहर न जाने देंगे। यह स्वर्ग हैकहां जा रहे हो? '—यह स्वर्ग इसी क्षण समाप्त हो गया।
मैं तुमसे यह नहीं कह रहा हूं कि मुक्त आत्माएं लौटती हैं। मैं यह कहता हूं कि लौटना चाहें तो कोई रोक नहीं सकता। इसलिए मैं तुम्हें गारंटी नहीं दे सकता। तुम अगर लौटना चाहो तो मैं क्या करूंगातुम अगर परमात्मा को भूलना चाहो तो मैं क्या करूंगामैं सिर्फ तुम्हारी पूर्ण मुक्ति की घोषणा करता हूं।
'यदि संभव हो तो अंश को मूल से मिला देने की कृपा करें!'
बहुत सस्ते में तुम्हारा इरादा है। तुम यह कह रहे हो कि तुम तो मिलना नहीं चाहतेकोई मिला देने की कृपा करे। यह कैसे होगाअगर तुम मिलना चाहते हो तो ही मिलना हो सकता है। यह तुम्हारी ही चाहतयह तुम्हारा ही संकल्पतुम्हारी ही आकांक्षा होगीअभीप्सा होगी—तो.। कोई और तुम्हें नहीं मिला सकेगा। जबर्दस्ती मोक्ष में ले जाने का कोई उपाय नहीं है—न बाहर न भीतर। तुम अपनी मर्जी से जाते हो।
और अगर मैं किसी तरह मिला भी दूं तो तुम फिर छूट जाओगे। क्योंकि वह बाहर से लाई हुई घटना तुम्हारी आत्मा का संबंध न बन पाएगी। वह जबर्दस्ती होगी। यह हो नहीं सकता। अन्यथा एक ही बुद्धपुरुष सारी दुनिया को मुका कर देता। एक बुद्धपुरुष काफी था। वह सबको मुक्त कर देतासबको मिला देता। कोई बुद्धपुरुषों की करुणा में कमी हैनहींउनकी करुणा में कोई कमी नहीं। लेकिन तुम्हारी मर्जी के खिलाफ कुछ भी नही हो सकता। और तुम्हारी मर्जी हो तो अभी हो सकता हैइसी क्षण हो सकता है। सुखी भव! अभी हो जाओ!
और यह दूसरे से आकांक्षा रखना कि कोई तुम्हें मिला दे परमात्मा सेयही संसार में लौटने का उपाय है। दूसरे की आकांक्षा ही संसार में लौटने का उपाय है। कोई दूसरा सुख देकोई दूसरा प्रेम देकोई दूसरा आदर दे—वही पुरानी आदत अब कहती हैकोई दूसरा मुक्त करवा देपरमात्मा से मिला दें—मगर दूसरा!
तुम कब तक कमजोरनिर्बलनपुंसक बने रहोगेकब तुम जागोगे अपने बल के प्रतिकब तुम अपने वीर्य की घोषणा करोगेकब तुम अपने पैरों पर खड़े होओगेकभी पत्नी के कंधे पर झुके रहेकभी सत्ताधिकारियो के कंधे पर झुके रहेकभी नेताओं के कंधों पर झुके रहे।
मैंने सुना हैदिल्ली के पास कुछ मजदूर सड़क पर काम करने भेजे गए। वे वहां पहुंच तो गएलेकिन पहुंच कर पता चला कि अपने फावड़े भूल आए,कुदालिया—फावडे नहीं लाए। उन्होंने वहां से फोन किया इंजीनियर कोकि कुदाली—फावड़े हम भूल आए हैंतत्काल भेजो।
उन्होंने कहाभेजते हैंतब तक तुम एक—दूसरे के कंधे पर झुके रहो।
मजदूर करते ही यही काम हैं। कुदाली—फावड़ा लेकर उस पर झुककर खड़े रहते हैं—विश्राम का सहारा। उस इंजीनियर ने कहामैं भेजता हूं जितनी जल्दी हो सकेतब तक तुम ऐसा करोएक—दूसरे के कंधे पर झुके रहो।
हम झुके हैं—कंधे बदल लेते हैं। फिर इन सबसे छुटकारा हुआ तो गुरु का कंधाकि अब कोई गुरु लगा दे पारकि चलो तुम्हीं तारण—तरणतुम्हीं पार लगा दो!
तुम अपनी घोषणाअपने स्वत्व की घोषणा कब करोगेतुम्हारी स्वत्व की घोषणा में ही तुम्हारे स्वभाव की संभावना है—फूलने कीखिलने की। यह कब तक तुम शरण गहोगेकब तक तुम भिखारी रहने की जिद बांधे बैठे होपरमात्मा भी भिक्षा में मिल जाए! जागो इस तंद्रा से!
'ऐसी कृपा करें कि बार—बार इस कोलाहल में आकर भयभीत न होना पड़े। '
इस कोलाहल में तुम आना चाहते होइसलिए आते हो। और मजा यह है कि तुमको अगर स्वात में रखा जाए तो तुम भयभीत वहा भी हो जाओगे। कौन तुम्हें रोक रहा हैभाग जाओ हिमालयबैठ जाओ स्वात में। वहां एकांत का डर लगेगाभाग आओगे कोलाहल में वापिस। कोलाहल में हम इसलिए रह रहे हैं कि स्वात में डर लगता हैअकेले रह नहीं सकते। भीड़ में बुरा लगता है। बड़ा मुश्किल है मामला। न अकेले रह सकतेन भीड़ में रह सकते।
तुमने कभी देखाजब तुम अकेले छूट जाते हो तो क्या होता है। अंधेरी रात में अकेले हो जंगल. मेंक्या होता है? आनंद आता है?
कोलाहल में ज्यादा बेहतर लगता है। कोई मिल जाएकोई बातचीत हो जाए! अकेले में तुम बहुत घबड़ाने लगते हो कि मरे। अकेले में तो मौत लगती है।
परमात्मा में डूबोगे तो बिलकुल अकेले रह जाओगेक्योंकि दो परमात्मा नहीं हैं दुनिया में—एक परमात्मा है। डूबे कि अकेले हुए। परमात्मा में डूबे कि तुम तुम न रहेपरमात्मा परमात्मा न रहा—बस एक ही बचा। इसलिए तो ध्यान की तैयारी करनी पड़ती हैताकि तुम स्वात का थोड़ा रस लेने लगो। इसके पहले कि परम स्वात में उतरोस्वात में थोड़ा आनंद आने लगेधुन बजने लगेगीत गूंजने लगे। स्वात में रस आने लगे तो फिर तुम परम एकांत में उतर सकोगे। यह अभ्यास है परमात्मा को झेलने का।
अगर तुम मुझसे पूछो तो मैं कहूंगा कि ध्यान परमात्मा को पाने की प्रक्रिया नहीं। परमात्मा तो बिना ध्यान के भी पाया जा सकता है। ध्यान परमात्मा को झेलने का अभ्यास। ध्यान पात्रता देता है कि तुम झेल सको। परम स्वात उतरेगा तो फिर तुम बिलकुल अकेले रह जाओगे। फिर न रेडियोन टेलीविजनन अखबारन मित्रन क्लबन सभा—समाज—कुछ भी नहींबिलकुल अकेले रह जाओगे। उस अकेले की तैयारी है।
मैं तो तैयार हूं तुम्हें कोलाहल के बाहर ले चलूंलेकिन तुम तैयार होतुम अकेले में भी बैठते हो तो तुम्हारे सिर में कोलाहल चलाने लगते हो। जिन मित्रों को घर छोड़ आए होउनसे सिर में बात करने लगते हो। जिस पत्नी को घर छोड़ आएउससे सिर में बात करने लगते हो। सारी भीड़ फिर इकट्ठी कर लेते हो। कल्पना का जाल बुनने लगते हो। अकेले तुम रह ही नहीं सकते। इसलिए तो तुम बार—बार लौट आते हो।
संसार में तुम अकारण नहीं लौट रहे हो। संसार में तुम अपने ही कारण लौट रहे हो। यह कोलाहल तुमने चाहा हैइसलिए तुम्हें मिला है।
      आदमी की हयात कुछ भी नहीं
      बात यह है कि बात कुछ भी नहीं।
      आदमी की हयात कुछ भी नहीं
आदमी की जिंदगी कोई जिंदगी थोड़ी है। जिंदगी तो परमात्मा की है।
      बात यह है कि बात कुछ भी नहीं।
      आदमी तो बेबात की बात है।
वह कल मुल्ला नसरुद्दीन जो गिर पड़ा था बिस्तर से—बेबात की बात है। लड़का हुआ नहीं थाउसके लिए जगह बना रहे थे। उसमें गिरेटांग टूट गई।
एक अदालत में मुकदमा था। दो आदमियों ने एक—दूसरे का सिर खोल दिया। मजिस्ट्रेट ने पूछामामला क्या हैवे दोनों बड़े सकुचाए। उन्होंने कहा,मामला क्या बताएं! मामला बताने में बड़ा संकोच होता है। आप तो जो सजा देना हो दे दो।
उसने कहाफिर मामला भी तो पता चले। सजा किस को दे दें?
तो वे दोनों एक—दूसरे की तरफ देखें कि तुम्हीं कह दो। फिर मजबूरी में जब मजिस्ट्रेट नाराज होने लगा कि कहते हो या नहींतो फिर उन्होंने बताया कि मामला ऐसा हैहम दोनों मित्र हैं। बैठे थे नदी के किनारे रेत पर। यह मित्र कहने लगा कि मैं एक भैंस खरीद रहा हूं। मैंने कहाभैंस मत खरीदोक्योंकि मैं एक खेत खरीद रहा हूंऔर तुम्हारी भैंस खेत में घूस जाए तो अपनी जिंदगी भर की दोस्ती खराब हो जाए।
इसने कहा. जाजा! तेरे खेत के खरीदने से हम अपनी भैंस न खरीदेंतू खेत मत खरीद! और फिर भैंस तो भैंस है—यह कहने लगा—अब घुस ही गई तो घुस ही गई। अब कोई भैंस के पीछे हम दिन भर थोड़े ही खड़े रहेंगे। और ऐसी दोस्ती क्या मूल्य की कि हमारी भैंस तुम्हारे खेत में घुस जाए और इससे ही तुष्ट अड़चन हो जाए।
तो मैं भी रोब में आ गया और मैंने कहातो अच्छा खरीद लिया खेततू दिखा खरीद कर भैंस। तो मैंने ऐसा जमीन पर रेत परलकड़ी से खेत बना दिया कि यह रहा खेत और इस मूरख ने एक दूसरी लकड़ी से भैंस घुसा दी। झगड़ा हो गयामारपीट हो गई! अब आपसे क्या कहें! आप सजा दे दो। कहने में संकोच होता है।
      आदमी की हयात कुछ भी नहीं
      बात यह है कि बात कुछ भी नहीं।
      तूने सब कुछ दिया है इन्सां को
      फिर भी इन्सां की जात कुछ भी नहीं।
      इस्तिराबे —दिलो —जिगर के सिवा
      शौक की वारिदात कुछ भी नहीं।
      हुस्न की कायनात सब कुछ है
      इश्क की कायनात कुछ भी नहीं।
      आदमी पैरहन बदलता है।
      यह हयातो—मयात कुछ भी नहीं।
आदमी सिर्फ कपड़े बदलता है। न तो जिंदगी कुछ हैन मौत कुछ है।
      आदमी पैरहन बदलता है।
      यह हयातो—मयात कुछ भी नहीं।
      आदमी की हयात कुछ भी नहीं
      बात यह है कि बात कुछ भी नहीं।
इतना तुम्हें समझ मैं आ जाए कि तुम बेबात की बात होकि तुम्हें सब समझ में आ गया।

आखिरी प्रश्न:

कब से आपको पूछना चाहती हूं। कृपया आप ही बताएं कि क्या पूछमेरे प्रणाम स्वीकार करें!

पूछा है 'दुलारीने। निश्चित यह बात है। वर्षों से मैं उसे जानता हूं। उसने कभी कुछ पूछा नहीं। बहुत थोड़े लोग हैं जिन्होंने कभी कुछ न पूछा हो। यह पहली दफे उसने पूछायह भी कुछ पूछा नहीं है.
'कब से आपसे पूछना चाहती हूं। कृपया आप ही बताएं कि क्या पूछूं ?'
जीवन का वास्तविक प्रश्न ऐसा है कि पूछा नहीं जा सकता। जो प्रश्न तुम पूछ सकते होवह पूछने योग्य नहीं। जो तुम नहीं पूछ सकतेवही पूछने योग्य है। जीवन का वास्तविक प्रश्न शब्दों में बांधा नहीं जा सकता। जीवन का प्रश्न तो केवल सूनी आंखों सेजिज्ञासा— भरी आंखों से निवेदित किया जा सकता है। जीवन का प्रश्न तो अस्तित्वगत हैतुम्हारी पूरी भाव—दशा से प्रगट होता है। दुलारी को मैं जानता हूं। उसने कभी पूछा नहींलेकिन उसका प्रश्न मैंने सुना है। उसका प्रश्न उसका भी नहीं हैक्योंकि जो तुम पूछते हो वह तुम्हारा होता है। जो तुम पूछ ही नहीं सकतेवह सबका है।
हम सबके भीतर एक ही प्रश्न है। और वह प्रश्न है कि यह सब हो रहा हैयह सब चल रहा है और फिर भी कुछ सार मालूम नहीं होता! यह दौड़— धूप,यह आपा— धापी—फिर भी कुछ अर्थ दिखाई नहीं पड़ता। इतना पानाखोना—फिर भी न कुछ मिलता मालूम पड़ता हैन कुछ खोता मालूम पड़ता है। जन्म—जन्म बड़ी यात्रामंजिल कहीं दिखाई नहीं पड़ती। हम हैं—क्यों हैंयह हमारा होना क्या हैहम कहां जा रहे हैं और क्या हो रहा हैहमारा अर्थ क्या हैइस संगीत का प्रयोजन क्या है      सभी के भीतर दबा पड़ा हुआ है अस्तित्व का प्रश्नकि अस्तित्व का अर्थ क्या हैऔर इसके लिए कोई शब्दों में उत्तर भी नहीं है। जो प्रश्न ही शब्दों में नहीं बनताउसका उत्तर भी शब्दों में नहीं हो सकता।
यह जो भीतर है हमारे—कहो साक्षीद्रष्टाजीवन की धाराचैतन्यजो भी नाम चाहोऐसे तो अनाम हैतुम जो भी नाम देना चाहो दो—परमात्मामोक्ष,निर्वाणआत्माअनात्माजो तुम कहना चाहो—पूर्णशून्यजो भी यह भीतर है अनाम—इसमें डूबो! इसमें डूबने से ही प्रश्न धीरे—धीरे विसर्जित हो जाएगा। उत्तर मिलेगाऐसा मैं नहीं कह रहा हूंसिर्फ प्रश्न विसर्जित हो जाएगा। और प्रश्न के विसर्जित हो जाने पर तुम्हारी जो चैतन्य की दशा होती है वही उत्तर है। उत्तर मिलेगाऐसा मैं नहीं कह रहा। निष्प्रश्न जब तुम हो जाते हो तो जीवन में आनंद हैमंगल हैशुभाशीष बरसता है। तुम नाचते होतुम गुनगुनाते हो। समाधि फलती है। फिर तुम कुछ पूछते नहीं। फिर कुछ पूछने को है ही नहीं। फिर जीवन एक प्रश्न की तरह मालूम नहीं होताफिर जीवन एक रहस्‍य है। समस्या नहींजिसका समाधान करना हैएक रहस्य हैजिसे जीना हैजिसे नाचना हैजिसे गाना हैएक रहस्यजिसका उत्सव मनाना है।
भीतर उतरो। शरीर के पारमन के पारभाव के पार—भीतर उतरो!
      जान सके न जीवन भर हम
      ममता कैसीप्यार कहां
      और पुष्प कहां पर महका करता?
      जान सके न जीवन भर हम
      ममता कैसीप्यार कहां
      और पुष्प कहा पर महका करता?
गंध तो आती मालूम होती है—कहां से आती हैजीवन हैइसकी छाया तो पड़ती हैपर इसका मूल कहां हैप्रतिबिंब तो झलकता हैलेकिन मूल कहांप्रतिध्वनि तो गूंजती है पाहाड़ों परलेकिन मूल ध्वनि कहां है?
      जान सके न जीवन भर हम
      ममता कैसीप्यार कहां
      और पुष्प कही पर महका करता?
      मिली दुलारी आहों की
      और हास मिला है शूलों का
      जान सके न जीवन भर हम
      सौरभ कैसापराग कहा
      और मेघ कहा पर बरसा करता?
पर मेघ बरस रहा है—तुम्हारे ही गहनतम अंतस्तल में। फूल महक रहा है—तुम्हारे ही गहन अंतस्तल में। कस्‍तुरी कुंडल बसै! यह जो महक तुम्हें घेर रही है और प्रश्न बन गई है—कहा से आती हैयह महक तुम्हारी हैयह किसी और की नहीं। इसे अगर तुमने बाहर देखा तो मृग—मरीचिका बनती हैमाया का जाल फैलता हैजन्मों—जन्मों की यात्रा चलती है। जिस दिन तुमने इसे भीतर झांक कर देखा उसी दिन मंदिर के द्वार खुल गए। उसी दिन पहुंच गए अपने सुरभि के केंद्र पर। वहां है प्रेमवहीं है प्रभु!
मन उलझाए रखता है बाहर। मन कहता है चलेंगे भीतरलेकिन अभी थोड़ा देर और।
      किसी कामना के सहारे
      नदी के किनारे बड़ी देर से
      मौन धारे खड़ा हूं अकेला।
      सुहानी है गोधूलि—बेला
      लगा है उमंगों का मेला।
      यह गोधूलि—बेला का हलका धुंधलका
      मेरी सोच पर छा रहा है।
      मैं यह सोचता हूं?
      मेरी सोच की शाम भी हो चली है।
      बड़ी बेकली है।
      मगर जिंदगी में
      निराशा में भी एक आशा पली है
      मचल ले अभी कुछ देर और ऐं दिल!
      सुहाने धुंधलके से हंस कर गले मिल
      अभी रात आने में काफी समय है!
मन समझाए चला जाता हैथोड़ी देर औरथोड़ी देर और—भुला लो अपने को सपनों मेंथोड़ी देर और दौड़ लो मृग—मरीचिकाओं के पीछे। बड़े सुंदर सपने हैं! और फिर अभी मौत आने में तो बहुत देर है।
इसलिए तो लोग सोचते हैंसंन्यास लेंगेप्रार्थना करेंगेध्यान करेंगे—बुढ़ापे मेंजब मृत्यु द्वार पर आकर खड़ी हो जाएगी। जब एक पैर उतर चुकेगा कब्र में तब हम एक पैर ध्यान के लिए उठाएंगे। मचल ले अभी कुछ देर और ३ दिल!
सुहाने धुंधलके से हंस कर गले मिल अभी रात आने में काफी समय है।
ऐसे हम टाले चले जाते हैं। रात आती चली जाती है। काफी समय नहीं हैरात आ ही गई है। बहुत बार हमने ऐसे ही जन्म और जीवन गंवायामौत की हम प्रतीक्षा करते रहे—मौत आ गईध्यान आने के पहले। एक जीवन फिर खराब गया। एक अवसर फिर व्यर्थ हुआ। अब इस बार ऐसा न हो। अब टालो मत! यह गंध तुम्हारी अपनी है। यह जीवन तुम्हारे भीतर ही छिपा है। घूंघट भीतर के ही उठाने हैं।
प्रश्न कहीं बाहर पूछ्ने का नहीं है। उत्तर कहीं से बाहर से आने को नहीं है। जहां से प्रश्न उठ रहा है भीतरवहीं उतर चलो। प्रश्न भी साफ नहीं हैफिक्र मत करो। जहा यह गैर—साफ धुंधलका है प्रश्न कावहीं उतरो। उसी संध्या से भरी रोशनी मेंधुंधलके में धीरे— धीरे भीतर उतरो। जहां से प्रश्न आ रहा हैउसी की खोज करो। प्रश्न की बहुत फिक्र मत करो कि प्रश्न क्या है—इतनी ही फिक्र करो कि कहां से आ रहा हैअपने ही भीतर उस तल को खोजोउस गहरे तल को,जहा से प्रश्न का बीज उमगा हैजहां से प्रश्न के पत्ते उठे हैं। वहीं जड़ है और वहीं तुम उत्तर पाओगे।
उत्तर का अर्थ यह नहीं कि तुम्हें कोई बंधा—बंधाया उत्तरनिष्कर्ष वहां मिल जाएगा। उत्तर का अर्थ : वहां तुम्हें जीवन का अहोभाव अनुभव होगा। वहां जीवन एक समस्या नहीं रह जाताउत्सव बन जाता है।
      एक चिकना मौन
      जिसमें मुखरतपती वासनाएं
      दाहक होतींलीन होती हैं।
      उसी में रवहीन तेरा गूंजता है छंद
      ऋत विज्ञप्त होता है!
      एक चिकना मौन
      जिसमें मुखरतपती वासनाएं
      दाहक होतींलीन होती हैं।
नहींभीतर एक मौनएक शातिजिसमें सारी वासनाओं का ताप धीरे—धीरे खो जाता और शांत हो जाता है। उसी में रवहीन तेरा गूंजता है छंद—फिर कोई स्वर सुनाई नहीं देतेसिर्फ छंद गूंजता है—शब्दहीनस्वरहीन छंद। शुद्ध छंद गूंजता है।
      उसी में रवहीन तेरा गूंजता है छंद
      ऋत विज्ञप्त होता है!
वहीं जीवन का सत्य प्रगट होता है—ऋत विज्ञप्त होता है।
      एक काले घोल की—सी रात
      जिसमें रूपप्रतिमामूर्तियां
      सब पिघल जातींओट पातीं
      एक स्वप्नातीत रूपातीत पुनीत गहरी नींद की
      उसी में से तू बढ़ा कर हाथ
      सहसा खींच लेता हैगले मिलता है!
छिपा है परमात्मा तुम्हारे ही भीतर। उतरो थोड़ा। छोड़ो मूर्तियों कोविचारों कोप्रतिमाओं कोधारणाओं को—मन के बुलबुले! थोड़े गहरे उतरो! जहां लहरें नहींजहां शब्द नहीं—जहां मौन है। जहां परम मौन मुखर है! जहां केवल मौन ही गूंजता है!
      उसी में रवहीन तेरा गूंजता है छंद
      ऋत विज्ञप्त होता है।
उतरो वहां!
      उसी में से तू बढ़ा कर हाथ
      सहसा खींच लेता हैगले मिलता है।
वहीं है मिलन!
तुम जिसे खोजते होतुम्हारे भीतर छिपा है। तुम जिस प्रश्न की तलाश कर रहे होउसका उत्तर तुम्हारे भीतर छिपा है। जागो! इसी क्षण भोगो उसे! अष्टावक्र के सारे सूत्र एक ही खबर देते हैं. पाना नहीं है उसेपाया ही हुआ है। जागो और भोगो!

हरि ओंम तत्सत्!