Ashtavakra Mahageeta Day 16

इन सूत्रों पर खूब मनन करना—बार—बार; जैसे कोई जूगाली करता है। फिर—फिर,
      क्‍योंकि इनमें बहुतरस है। जितना तुम चबाओगे, उतना ही अमृत झरेगा।
      वे कुछ सूत्र ऐसे नहीं है कि जैसे उपन्‍यास, एक दफे पढ़ लिया, समझ गए,
बात खत्‍म हो गई, फिर कचरे में फेंका। यह कोई एक बार पढ़ लेने वाली बात नहीं है, यह तो किसी शुभमुहूर्त में,किसी शांत क्षण में किसी आनंद की अहो—दशा में, तुम
इनका अर्थ पकड़ पाओगे। यह तो रोज—रोज, घड़ी भर बैठ कर, इन परम सूत्रों को फिर
से पढ़ लेने की जरूरत है। अनिवार्य है।

——ओशो

धर्म है जीवन का गौरी शंकर—प्रवचन—एक

दिनांक: 26 सितंबर, 1976,
श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍न सार:

पहला प्रश्न:

प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक ए. एच. मैसलो ने मनुष्य की जीवन आवश्यकताओं के
क्रम में आत्मज्ञान (Self—actualization) को अंतिम स्थान दिया है। क्या आपके जाने आत्मज्ञान मनुष्य—जीवन की एक अनिवार्य आवश्यकता हैऔर धर्मअध्यात्म जैसे संबोधन अनावश्यक रूप से आत्मज्ञान के साथ जोड़ दिए गए हैंकृपा करके समझाएं।


हली बातकि आत्मज्ञान न तो अनिवार्य है और न आवश्यकता है।
वैसी भाषा आत्मज्ञान के संबंध में मूलभूत रूप से गलत है। भूख है तो रोटी की आवश्यकता
है। देह है तो श्वास की आवश्यकता है!
इनके बिना तुम जी न सकोगे। लेकिन आत्मज्ञान के बिना तो आदमी मजे से जीता है। पानी चाहिए
रोटी चाहिएमकान चाहिए। इनकी तो आवश्यकता है। इनके बिना तुम एक क्षण न जी सकोगे।
आत्मज्ञान के बिना तो अधिक लोग जीते ही हैं।
तो पहली तो बात आत्मज्ञान आवश्यकता नहीं। और अनिवार्य तो बिलकुल ही नहीं है। कभी
कोई बुद्धकभी कोई अष्टावक्रकोई क्राइस्टमुहम्मद उस दशा को उपलब्ध होते हैं। यह इतना
अद्वितीय है इस घटना का घटनाकि इसको अनिवार्य तो कहा ही नहीं जा सकतानहीं तो सबको
घटतीप्रत्येक को घटती।
अध्यात्म एक अर्थ में प्रयोजन—शून्य हैअर्थहीन है। इसलिए तो हम इस देश में उसे सच्चिदानंद
कहते हैं।
आनंद का क्या अर्थआनंद की क्या आवश्यकताआनंद की क्या अनिवार्यतापरमात्मा के
बिना जगत बड़े मजे से चल रहा है। इसलिए तो परमात्मा कहीं दिखाई नहीं देता। उसकी मौजूदगी
आवश्यक नहीं मालूम होती—न दूकान पर जरूरत हैन दफ्तर में जरूरत हैन घर में जरूरत है।
आत्मज्ञान तो आत्यंतिक आभिजात्यआत्यंतिक ऐरिस्टोक्रेसी है।
रोटी की जरूरत हैलेकिन माइकल ऐंजिलो की मूर्तियों की थोड़े ही जरूरत है! उनके बिना
आदमी मजे से रह लेगा। छप्पर की जरूरत हैलेकिन कालिदास की क्या जरूरत हैन हों कालिदास
के ग्रंथकौन—सी अड़चन आ जाएगी? क्षुद्र की जरूरत हैविराट की कहां जरूरत है? और अगर
विराट तुम्हारी जरूरत हो तो वह भी क्षुद्र हो जाएगा। विराट तो आनंद हैअहोभाव है। विराट को तुम
आवश्यकता की भाषा में मत खींचना। परमात्मा को अर्थशास्त्र मत बनानाईकनॉमिक्स मत बनाना।
इसलिए तो समाजवादी कहते हैं : रोटीरोजी और मकान। उसमें कहीं परमात्मा को जगह नहीं।
इसलिए कम्यूनिज्य में परमात्मा को कोई जगह नहीं। थोड़ा सोचोमार्क्स जैसा अर्थशास्त्री... अगर
परमात्मा की कोई आवश्यकता होतीआत्मज्ञान की आवश्यकता होती तो कम्यूनिज्म में कुछ जगह रखता। बिलकुल जगह नहीं रखी। शुद्ध अर्थशास्त्र में कोई जरूरत ही नहीं।
सच तो यह है कि तुम्हारे जीवन में परमात्मा की किरण उतरेगी तो बहुत अड़चनें खड़ी होंगी।
इसलिए तो बहुत से लोग हिम्मत नहीं करते। परमात्मा की किरण उतरेगी तो तुम जैसे चलते थे फिर
वैसे न चल पाओगे। अड़चनें आनी शुरू हो जाएंगी। तुम्हारे जीवन का ढांचा बदलने लगेगा। तुम्हारी
शैली बदलेगी। तुम्हारा होने का रूप बदलेगा। तुम्हारी दिशा बदलेगी। तुम बुरी तरह अस्त—व्यस्त हो
जाओगे। तुम्हारा जो जमा—जमाया रूप था सब उखडेगा। तुम्हारी जड़ें उखड़ जाएंगी। तुम्हें नई भूमि
खोजनी पड़ेगीपुरानी भूमि काम न आएगी। तुम पृथ्वी पर न टिक सकोगेतुम्हें आकाश का सहारा
लेना होगा।
इस बात को तुम जितनी गहराई से समझ लो उतना उपयोगी होगा।
परमात्मा बिलकुल गैर—जरूरी है। इसलिए तो उन थोड़े—से लोगों के ही मन में परमात्मा की प्यास पैदा होती हैजिन्हें यह बात समझ में आ गई कि जरूरी में आनंद नहीं हो सकता। जरूरी में ज्यादा से ज्यादा जरूरत पूरी होती है।
तुम्हें भूख लगीतुमने भोजन कर लिया। भूखे रहो तो तकलीफ होती हैभोजन करके कौन—सा सुख मिल जाता हैधूप पड़ती थीपसीना आता थातुम परेशान और बेचैन थे। छप्पर के नीचे आ गएबेचैनी मिट गई। लेकिन छप्पर के नीचे आ जाने से कोई सुख थोड़े ही मिल जाता है।
आवश्यकता के जगत में दुख है और दुख से छुटकारा हैआनंद बिलकुल नहीं। यही तो
तकलीफ है कि एक गरीब आदमीजिसके पास धन नहीं हैसोचता है धन मिल जाएगा तो आनंद
मिल जाएगा। जब धन मिल जाता हैतब पता चलता है : गरीबी तो मिट गईधन भी मिल गया,
आनंद नहीं मिला।
आवश्यकताओं की तृप्ति में आनंद कहांआवश्यकताओं की तृप्ति से दुख कम होता जाएगा।
औरएक और अनूठी घटना घटती है कि जैसे—जैसे दुख कम होता जाएगावैसे—वैसे तुम्हें लगेगा
कि सब दुख भी समाप्त हो जाए और आनंद न मिले तो सार क्या हैएक आदमी है जिसे न कोई
बीमारी हैन कोई कष्ट हैन कोई आर्थिक परेशानी हैसब सुख—सुविधा है—मकान हैकार है,
प्रतिष्ठा है—अब और क्या चाहिएसब आवश्यकताएं पूरी हो गईंअब और क्या चाहिएलेकिन
वह आदमी भी कहता है कुछ खाली—खाली हैकुछ लगता है खो रहा हैकुछ मिला नहीं!
जब तक तुम प्रयोजन—शून्य से संबंध न बांधोजब तक तुम आवश्यकता के ऊपर उठकर न देखोजब तक तुम्हारे जीवन में कुछ ऐसा न घटे जिसकी कोई आवश्यकता नहीं थी—तब तक आनंद न घटेगा। आवश्यकता के मिटने सेपूरे होने से दुख नहीं होतासुविधा हो जाती हैआनंद भी नहीं होता। आनंद तो घटता है तब जब तुम आवश्यकता के पार उठते हो—अर्थ —शून्य मेंफूलों मेंसंगीत में, काव्य में। कोई जरूरत नहीं है। वैजनर हो या न होशेक्सपियर हो या न होरवींद्रनाथ हों या न हों—क्या सार हैखाओगे कविताओं कोपीयोगेओढोगेलेकिन यह तो मैं इसलिए नाम ले रहा हूं कि तुम्हें समझ में आ जाएं। इनमें भी थोड़ा—बहुत अर्थ हो सकता है। परमात्मा में उतना भी अर्थ नहीं है। आत्मज्ञान तो बिलकुल ही निरर्थक है। उसका होने का रस तो हैअर्थ बिलकुल नहीं। उसे तुम'कमोडिटी', बाजार में बिकने वाली वस्तु न बना सकोगे।
जिस दिन कोई व्यक्ति इस सत्य को समझने में समर्थ हो जाता है कि जब तक मैं आवश्यकता की पूर्ति खोजता रहूंगातब तक मैं एक वर्तुल में घूमूंगा। रोज भूख लगेगीरोज खाना कमा लूंगा, रोज खाना खा लूंगाफिर भूख मिट जाएगीकल फिर भूख लगेगी। फिर भोजनफिर भूखफिर भोजन। भोजन से कुछ सुख न मिलेगासिर्फ भूख से जो दुख मिलता थावह न होगा।
सांसारिक आदमी की परिभाषा यही है—जो केवल सुविधा खोज रहा हैअसुविधा न हो।
आध्यात्मिक आदमी का अर्थ यही है कि जो इस सत्य को समझ गया कि सुविधा सब भी मिल जाए
तो जीवन में फूल नहीं खिलतेन सुगंध उठतीन गीत बजते। नहींजीवन की वीणा खाली ही पड़ी
रह जाती है।
इसलिए मैं धर्म को आभिजात्य कहता हूं। आभिजात्य का अर्थ है. इसका कोई प्रयोजन नहीं है। यह प्रयोजन—हीनप्रयोजन—शून्य या कहो प्रयोजन— अतीत। और तुम्हारे जीवन में जब भी कभी कोई प्रयोजन— अतीत उतरता हैवहीं थोड़ी—सी झलक आनंद की मिलती हैजैसे प्रेम में। प्रेम का क्या अर्थ हैक्या सार हैखाओगेपीयोगेओढोगे? क्या करोगे प्रेम का न अगर कोई तुमसे पूछने लगे कि क्या पागल हो रहे होप्रेम से फायदा क्या है? बैंक—बैलेंस तो बढ़ेगा नहीं। मकान बड़ा बनेगा नहीं। प्रेम से फायदा क्या है? क्यों समय गंवाते हो?
इसलिए तो राजनीतिज्ञ प्रेम—व्रेम के चक्कर में नहीं पड़तावह सारी शक्ति पद पर लगाताप्रेम पर नहीं। धन का दीवानाधन का आकांक्षीसारी शक्ति धन को कमाने में लगाता है। प्रेमवह कहता हैअभी नहीं! अभी फुर्सत कहां?
फिर प्रेम का प्रयोजन भी कुछ नहीं दिखाई देता—स्व तरह का पागलपन मालूम होता है।
तुम व्यावहारिक लोगों से पूछोवे कहेंगेप्रेम यानी पागलपन। लेकिन प्रेम में थोड़ी—सी झलक
मिलती है उसकीजो प्रयोजन—हीन हैजिसका कोई अर्थ नहींफिर भी परम रसमय हैफिर भी परम विभामय हैफिर भी सच्चिदानंद है।
कोई आदमी बैठकर अपनी सितार बजा रहा है। तुम उससे पूछो कि 'क्या मिलेगा इससे?' वह
उत्तर न दे पाएगा। 'क्या सार है इस तार को ठोकनेखींचनेपीटने सेबंद करो। कुछ काम करो
कुछ काम की बात करो। कुछ उपजाओकुछ पैदा करो! फैक्टरी बनाओखेत में जाओ! ये तार छेड़ने
से क्या सार है?' लेकिन जिसको तार छेड़ने में रस आ गयावह कभी—कभी भूखा भी रह जाना पसंद
करता है और तार नहीं छोड़ता।
विन्सेंट वानगॉग भूखा— भूखा मरा। उसके पास इतने ही पैसे थे... उसका भाई उसे इतने ही पैसे देता था कि सात दिन की रोटी खरीद सकता था। तो वह तीन दिन खाना खाताचार दिन भूखा रहता। और जो पैसे बचतेउनसे खरीदता रंगकैनवसऔर चित्र बनाता। चित्र उसके एक भी बिकते नहीं। क्योंकि उसने जो चित्र बनाएवे कम—से—कम अपने समय के सौ साल पहले थे। दुनिया की सारी प्रतिभा समय के पहले होती है। वस्तुत: प्रतिभा का अर्थ ही यही हैजो समय के पहले हो। कोई
खरीददार न था उन चित्रों का। अब तो उसका एक—एक चित्र लाखों में बिकता हैदस—दस लाख
रुपये में एक—एक चित्र बिकता है। तब कोई दस पैसे में भी खरीदने को तैयार न था। वह भूखा ही जीयाभूखा ही मरा। घर के लोग हैरान थे कि तू पागल है!
आदमी की भूख पहली जरूरत हैलेकिन कुछ मिल रहा होगा वानगॉग कोजो किसी को दिखाई नहीं पड़ रहा था। कोई रसधार बह रही होगी! नहीं तो क्योंक्या प्रयोजनन प्रतिष्ठा मिल रही हैन नाम मिल रहा हैन धन मिल रहा हैभूख मिल रहीपीड़ा मिल रहीदरिद्रता मिल रही—लेकिन वह है कि अपने चित्र बनाए जा रहा है। जब वह चित्र बनाने लगता तो न भूख रह जातीन देह रह जाती—वह देहातीत हो जाता। जब उसके सारे चित्र बन गएजो उसे बनाने थेतो उसने आत्महत्या कर ली। और वह जो पत्र लिखकर छोड़ गयाउसमें लिख गया कि अब जीने में कुछ अर्थ नहीं रहा।
अब यह बड़े मजे की बात है। वह लिख गया कि जो मुझे बनाना थाबना लियाजो मुझे
गुनगुनाना थागुनगुना लियाजो मुझे रंगों में ढालना थाढाल दियाजो मुझे कहनी थी बातकह
दीजो मेरे भीतर छिपा थावह प्रगट हो गयाअब कुछ अर्थ नहीं है रहने का।
वह जो अर्थहीन चित्र बना रहा थावही उसका अर्थ थाजब उसका काम चुक गयावह विदा
हो गया। जीवन में जैसे कोई और अर्थ था नहीं!
क्या फायदा रोटी रोज खा लोफिर भूख लगा लोफिर रोटी रोज खा लोफिर भूख लगा लो?
हर रोटी नई भूख ले आती हैहर भूख नई रोटी की मांग ले आती है। यह तो एक वर्तुल हुआजिसमें
हम घूमते चले जाते हैं। इससे सार क्या हैतुमने कभी सोचा?
एक आदमी अगर अस्सी साल जीए तो अस्सी साल में उसने किया क्याजिसको तुम अर्थपूर्ण प्रक्रियाएं कहते हो—रोटीरोजीमकान—उसने किया क्याजरा तुम गौर करो। न मालूम कितने हजारों मन भोजन उसने मल—मूत्र बना दिया। इतना ही काम किया। जरा सोचोअस्सी साल में उसने कितने मल—मूत्र के ढेरअगर वह लगाता ही चला जाता तो कितने ढेर लग जातेपहाड़ खड़े कर देता। बस इतना ही उसका काम है। पीछे तुम मल—मूत्र का एक पहाड़ छोड़ कर विदा हो जाओगे। इसको तुम अर्थ कहते होलेकिन यही अर्थ जैसा मालूम पड़ता है। इसका ही अर्थशास्त्र है।
मैं इसीलिए परमात्मा को अर्थ नहीं कहताक्योंकि अर्थ देने से ही तो वह अर्थशास्त्र का हिस्सा हो जाएगा। मैं उसे कहता हूं 'अर्थातीत'। वह कोई आवश्यकता नहीं है। और जब तक तुम
आवश्यकताओं में उलझे होतब तक तुम उस तरफ आंख न उठा सकोगे। इसलिए मैं कहता हूं जब
कोई समाज बहुत समृद्ध होता हैतभी धर्म में गति होती हैअन्यथा नहीं होती।
यह मेरी बात बड़ी मुश्किल में डालती है लोगों को। क्योंकि लोग पूछने लगते हैं. 'तो फिर क्या
गरीब धार्मिक नहीं हो सकता?' मैं यह नहीं कहता। गरीब भी धार्मिक हो सकता हैलेकिन गरीब
समाज कभी धार्मिक समाज नहीं हो सकता। व्यक्तिगत रूप से गरीब भी इतना प्रतिभावान हो सकता
है कि धार्मिक हो जाएजीवन की व्यर्थता को समझ लेजिसको हम अर्थ कहते हैंउसकी व्यर्थता
समझ ले। तो फिर जो अर्थोतीत हैवही अर्थ हो जाता है। लेकिन वह बड़ी रूपांतरण कीबड़ी क्रांति
की बात है। लेकिन समृद्ध समाज निश्चित रूप से धार्मिक हो जाता है।
मेरे देखे तो वही समृद्ध समाज है जो धार्मिक हो जाए। भारत जब अपने स्वर्ण —शिखर पर था, जब जरूरतें पूरी थींखलिहान भरे थेखेतो  में फसलें थीं,लोग भूखे न थेपीड़ित न थेपरेशान न थेतब धर्म ने ऊंचे शिखर छुएतब भगवदगीता उतरीतब अष्टावक्र की महागीता उतरीतब
उपनिषद गंजेतब बुद्ध और महावीरों ने इस देश को जगाया। वह स्वर्ण—शिखर था।
अब वैसा स्वर्ण —शिखर पश्चिम जा चुका है। अब अगर धर्म की कोई भी संभावना है तो पश्चिम में हैपूरब में नहीं है। पूरब के साथ धर्म का अतीत है,पश्चिम के साथ धर्म का भविष्य है। तुमने अपने हाथ गंवाया। तुमने यह सोचकर गंवाया कि क्या रखा है धन मेंसंपदा में! कुछ भी नहीं रखा हैयह भी सच है। लेकिन जब धन—संपदा होती है तभी पता चलता है कि कुछ भी नहीं रखा है। इतनी सार्थकता उसमें है—यह दिखाने की। और जब तुम्हारे जीवन में सब होता है और तुम पाते हो कुछ भी नहीं हुआतो पहली दफा एक हूक उठती है कि अब खोजें उसेजो आवश्यकता नहीं है।
और अनिवार्य तो बिलकुल ही नहीं है परमात्मा। अनिवार्य का तो अर्थ यह होता कि तुम चाहे
करो चाहे न करोहो कर रहेगा। अनिवार्य मौत हैसमाधि नहीं। अनिवार्य तो मृत्यु हैध्यान नहीं।
अनिवार्य बुढ़ापा हैधर्म नहीं। अनिवार्य इतना ही है कि यह जो क्षणभंगुर हैबह जाएगा। शाश्वत
आएगा कि नहींयह अनिवार्य नहीं है। शाश्वत तो तुम खोजोगे तो आएगा। खोजोगेभटकोगे,
बार—बार पा लोगे और खो जाएगाबड़ी मुश्किल से आएगा। अनिवार्य तो कतई नहीं है। अनिवार्य
का तो यह मतलब है कि तुम बैठे रहोकुछ न करोहोने वाला हैहोकर रहेगा। मौत जैसा होगा
परमात्मा फिरजैसे सभी आदमी मरते हैंऐसे सभी आदमी आत्मज्ञान को उपलब्ध हो जाएंगे। नहीं,
न तो अनिवार्य है और न आवश्यकता है। आत्मज्ञान खोजने से होगागहन साधना से होगाबड़ी
त्वरा से होगादाव पर लगाओगे अपने कोतो होगा। आत्मज्ञान भाग्य नहीं है कि हो जाएगालिखा
है विधि में। विधि में जो लिखा हैवह तो क्षुद्र हैवह होता रहेगा।
चौदह साल के हो जाओगे तो कामवासना पैदा होगी। अस्सी साल के हो जाओगे तो मौत आ
जाएगी। पचास के पार होने लगोगे तो बुढ़ापा आ जाएगा। कामवासना अनिवार्य हैचौदह साल के
हुए कि हर बच्चे में हो जाती है। अगर किसी बच्चे में न हो तो कुछ गड़बड़ हैतो चिकित्सा की जरूरत
है। होनी ही चाहिएअनिवार्य हैप्राकृतिक है। लेकिन अध्यात्म अनिवार्य नहीं है और न प्राकृतिक
है। हो जाए तो चमत्कार है। जब हो जाए किसी को तो आश्चर्य है : जो नहीं घटना चाहिएवह घटा।
इसलिए तो हम सदियों तक याद रखते हैं बुद्ध कोकि जो नहीं घटना था वह घटाजिसकी कोई
अपेक्षा न थीवह घटाजिसकी कोई संभावना न थीवह घटा। हजारों साल बीत जाते हैंबुद्धों को
हम नहीं भूल पाते। उनकी याद हमें सताती है। कोई तार हमारे हृदय में बजता रहता है। असंभव भी
हुआ है।
इस पृथ्वी पर सबसे ज्यादा असंभव घटना आत्मज्ञान है। जब मैं कहता हूं असंभवतो मैं यह
नहीं कह रहा हूं कि नहीं घटने वालीघटती हैघट सकती हैलेकिन अनिवार्यता नहीं है। ऐसा नहीं
है कि तुम कुछ न करोगे और अपने से घट जाएगी। प्राकृतिक नहीं हैअति—प्राकृतिक है।
पूछा है कि 'क्या आपके जाने आत्मज्ञान मनुष्य—जीवन की एक अनिवार्य आवश्यकता है?'
दोनों बात नहीं है। अनिवार्य हो तो फिर तुम्हें कुछ करने की जरूरत न रही। तुम्हें बहुत कुछ करना
पड़ेगातब भी घट जाए तो चमत्कार है। तब भी पक्का नहीं हैआश्वासन नहीं है कि घट ही जाएगी,
कोई गारंटी नहीं है। बड़ी अभूतपूर्व घटना है उतार कर लाना है सीमा में असीम कोउतार कर लाना
है देह में परमात्मा कोउतार कर लाना है शून्य को मन मेंमहाशून्य के लिए जगह बनानी है। अनिवार्य तो बिलकुल नहीं है। अनिवार्य तो वही है जो हो गया है। वासना हो गई हैघर बस गया हैधन की दौड़ चल रही हैपद की दौड़ चल रही है। राजनीति अनिवार्य हैधर्म अनिवार्य नहीं है।
इसलिए तो हमने इस देश में धार्मिक व्यक्ति को समादर दिया। हमने सम्राटों को आदर नहीं दिया, क्योंकि इसमें क्या है पर सभी सम्राट होना चाहते हैं। नहीं हो पातेयह दूसरी बात हैलेकिन सभी होना चाहते हैंसभी की आकांक्षा है। यह होना कुछ विशेष नहीं। यह बड़ी साधारण बात है। पद पर हो जाना कुछ विशेष बात नहीं।
एक गांव में बुद्ध का आगमन हुआ था। तो उस गाव के वजीर ने अपने राजा को कहा कि बुद्ध आते हैंहम स्वागत के लिए गाव के बाहर चलें। राजा अकड़ीला था। उसने कहा, 'जाने की हमें क्या जरूरत हैऔर बुद्ध हैं क्याभिखारी ही हैं। आ जाएंगे अपने — आप! हमारे जाने न जाने की क्या जरूरत है?
वह बूढ़ा वजीर तो यह सुन कर रोने लगा। उसने अपना इस्तीफा लिख दिया। उसने कहा, 'यह मेरा इस्तीफा ले लेंयह त्यागपत्र! मुझे क्षमा करेंमैं चला! अब तुम्हारी छाया में भी बैठना उचित नहीं।
उस राजा ने कहा, 'मामला क्या हैइसमें इतने नाराज होने की बात क्या हैमैंने कुछ बुरी बात तो कही नहीं। मैं सम्राट हूं, वे भिखारी हैं। उनके लिए मुझे लेने जाने की जरूरत क्या है?'
उस वजीर ने कहा, 'बस बात खत्म हो गई। अब मैं तुम्हारे पास न बैठ सकूंगा। तुम अपने लिए वजीर खोज लो। क्योंकि ऐसे आदमी के पास क्या बैठना,जिसे इतनी भी समझ न हो कि राजनीति तो साधारण हैराजा होना तो साधारण है। लेकिन यह बुद्ध का भिखारी हो जाना असाधारण हैअपूर्व हैअद्वितीय है। यहां कुछ घटा है। जाओउनके चरणों में गिरो! यह सौभाग्य तुम्हारा कि वे इस गांव में आते हैं। और मैं तो चला! तुम्हारे पास बैठना कुसंग है। '
यह ठीक कह रहा है वजीर। इस बूढ़े के पास आंखें हैं। इसके पास कुछ समझ हैकुछ परख है।
धन का हमने समादर नहीं किया है। हमने समादर कुछ और ही बात का किया है—बोध का,
संन्यास कात्याग का। उन्होंने जिन्होंने छोड़ाउन्होंने जिन्होंने ऊपर आंखें उठाई और आकाश की
तरफ देखाउनका हमने सम्मान किया है।
पश्चिम में इतिहास लिखा गयापूरब में इतिहास नहीं लिखा गयाहमने पुराण लिखे। पश्चिम के विचारक बड़े हैरान होते हैं कि भारत में इतिहास क्यों नहीं लिखा गया! वे समझते हैंपुराण तो कथाकल्पना!
लेकिन हमने इतिहास जान कर नहीं लिखाक्योंकि इतिहास तो होता है साधारण घटनाओं का; पुराण होता है असाधारण घटनाओं का। इसलिए तो कल्पना जैसा मालूम होता है पुराणक्योंकि उस पर भरोसा नहीं आता कि यह घटा भी होगा। पुराण का अर्थ होता है जो कभी—कभी घटता है। इतिहास का अर्थ होता है जो रोज घटता हैजो पुनरुक्ति है। नेपोलियन होकि नादिरशाह होकि तैमूरलंग होकि चंगेज होकि हिटलर होकि स्टेलिन होकि माओ हो—यह रोज की घटना हैइससे
इतिहास बनता है। ये तो अखबार की कतरनें हैंजिनसे इतिहास बनता है।
बुद्ध का घटना अनहोना है। नहीं घटना था और घटा। जैसे अचानक आधी रात में सूरज ज्या
आएकि अंधेरे में किरण उतर आए और हम पकड़ भी न पाएं और खो जाएऔर हमारे हाथ भी न लगे और खो जाए। हम ठगे और अवाक रह जाएंआए और चली जाए। गंजे एक गीतहम ठीक
से सुन भी न पाएंक्योंकि हम अपने शोरगुल से भरे हैंऔर गीत विदा हो जाए। एक स्मृति भर रह जाएऔर हमें खुद ही शक होने लगे कि यह गीत सुना थाऐसा आदमी देखा थाहमें खुद ही भरोसा न आए। हम खुद संदेह में पड़ने लगें। जैसे—जैसे स्मृति फीकी होने लगे और दूर होने लगे,
वैसे —वैसे हमीं को भरोसा न आए. ऐसा हुआ था?
पुराण का अर्थ होता है. जो कभी—कभी होता हैहजारों साल में कभी—कभी होता है। वैसी
अद्वितीय घटनाओं के संग्रह का नाम पुराण है। पुराण पर भरोसा आता ही नहीं। इतिहास तो रही है, इतिहास तो कूड़ा—कर्कट हैकचरे का ढेर हैजो रोज होता है।
      पुराने दिनों में लोग सुबह उठ कर गीता पढ़ते थे या धम्मपद पढ़ते थे या कुरान पढ़ते थेअब उठ कर अखबार पढ़ते हैं। जो रोज होता है.।
तुमने अखबार में कभी खयाल कियातुम जो पढ़ते हो वह रोज होता है! फिर भी तुम रोज उसी को पढ़ते हो। तुमने अखबार में कुछ नया होते देखाकिसी ने कभी अखबार में नया होते देखा?
अखबार से ज्यादा पुरानी चीज तुमने देखीकहते होनया अखबार है! दो दिन का पुराना हो जाए
तो फिर तुम नहीं पढ़ते।
मैं एक जगह रहता थातो मेरे पास एक पागल आदमी रहता था। उसको अखबारों का बड़ा
शौक था। वह सब मोहल्ले के अखबार इकट्ठे कर लेता। शायद अखबारों के कारण पागल हो गया
होकुछ पता नहीं। लेकिन जब मैं गया वह पागल ही था। वह मुझसे भी आकर जो भी अखबार
वगैरह होतेसब उठा कर ले जाता। कभी मैंने कहा उसको कि तू सात—सात आठ—आठ दिन पुराने
अखबार उठा कर ले जाता हैइनका तू करेगा क्यावह बोलाअखबार क्या पुरानेक्या नए! अरे
जब पढ़ो—तभी नए! जब हमने पढे ही नहींतो हमारे लिए तो नए।
उस पागल आदमी ने बड़ी बुद्धिमानी की बात कही। कहा कि क्या नए और क्या पुराने!
तुम अखबार पढ़ते होतुमने कभी इस पर खयाल किया कि यही तुम रोज—रोज पढ़ते हो। कुछ नया घटता है कभीनया तो कुरान में घटा हैधम्मपद में घटा हैअष्टावक्र में घटा है। पुराने लोग ज्यादा होशियार थे। वे वही पढ़ते थे जो अघट हैअनिर्वचनीय हैपकड़ में नहीं आता। नहीं होना
थाफिर भी हो जाता है। वे दुर्लभ फूल खोजते थेतुम कूड़ा—कर्कट खोजते हो। दुर्लभ फूलों की खोज
में वे भी धीरे— धीरे दुर्लभ हो जाते थे। अघट की खोज में धीरे — धीरे अघट की घटने की संभावना उनके भीतर भी बन जाती थी।
इसलिए मैं तुमसे कहना चाहता हूं : न तो अनिवार्य और न आवश्यक। धर्म इस जगत में सबसे गैर— अनिवार्य बात है और सबसे अनावश्यक। इसलिए तो रूस हैबीस करोड़ लोग बिना धर्म के जी रहे हैंकौन—सी अड़चन हैसच तो यह हैबहुत मजे से जी रहे हैं। चिंता—फिक्र मिटी। सब
सुख—सुविधा से जी रहे हैं। शायर्द कुछ थोड़े —से लोगों को अड़चन हैमगर सौ में निन्यानबे आदमियों
को कोई अड़चन नहीं है। कोई एकाध है सौ मेंकोई सोल्वेनित्सिन या कोई औरकोई एकाध है
जिसको अड़चन है। मगर उस एकाध की क्या गणनालोकतंत्र तो भीड़ के लिए जीता है। निन्यानबे
को तो कोई मतलब नहीं है। उन्हें शराब मिल जाएसुंदर पत्नी मिल जाएमकान मिल जाएकार मिल जाएखाने —पीने की जगह मिल जाए—पर्याप्त है। तुम कितने क्षुद्र से राजी हो जाते हो! तुम ना—कुछ से राजी हो जाते हो। तुम्हारी दीनता तो देखो! अष्टावक्र कहते हैंयह तुम्हारा मालिन्य तो देखो! कैसे मलिन हो तुम,कितने क्षुद्र से राजी हो जाते हो!
दुनिया में धर्म अगर बिलकुल विदा हो जाए तो बहुत थोड़े लोगों को अड़चन होगी। कोई गौतम
बुद्ध पैदा होगा तो उसे अड़चन होगी। लेकिन बाकी को तो कोई अड़चन न होगी। अपूर्व है धर्म।
कभी—कभी खिलने वाला फूल हैरोज नहीं खिलता। कभी—कभी खिलने वाला फूल है!
मेरे पास कुछ दिनों तक एक माली था। वह एक पौधा ले आया। वह मुझसे कहने लगाइसके
पांच सौ रुपए देने हैंजिससे खरीदा। मैंने कहा, 'पागल इस एक पौधे के पाच सौ रुपयेइसका इतना
मूल्यमामला क्या हैइस पौधे की खूबी क्या है?'
उसने कहा, 'इसमें फूल खिलता हैलेकिन वह बारह साल में एक बार खिलता है। '
तो मैंने कहा, 'फिर देने लायक है। फिर तू पांच सौ नहीं हजार भी दे। तू ले जा। क्योंकि जब
बारह साल में फूल खिलता है तो अद्वितीय है। ऐसे मौसमी फूल हैंदो सप्ताह चार सप्ताह में खिल
जाते हैं। बारह सालतो थोड़ा धर्म जैसा फूल है। इसे तू जरूर लगा। इसे मेरे बगीचे में होना ही
चाहिए। हम प्रतीक्षा करेंगे इसकीजब खिलेगा। '
और जब फूल खिला—वह रात को ही खिलता—पूर्णिमा की रात को वह खिलातो सारा पड़ोस,
दूर—दूर से लोग उसे देखने आने लगे। वह कभी—कभी खिलताउसके दर्शन रोज—रोज नहीं होते।
बुद्ध—पुरुष कभी—कभी खिलते हैं। वह सहस्रार का कमल कभी—कभी खिलता है। उसकी
आकांक्षा मत करो जो रोज खिलता हैजो रोज मिलता है। उस क्षुद्र में कुछ भी नहीं है। उसकी आकांक्षा
करो जो अपूर्व हैअद्वितीय हैअनिर्वचनीयपकड़ के बाहर है। उसे चाहो जो असंभव है। जिस दिन
तुमने असंभव को चाहाउसी दिन तुम धार्मिक हुए। असंभव की वासना— धर्म की मेरी परिभाषा है।
तरतूलियन का बड़ा प्रसिद्ध वचन हैकि मैं ईश्वर में भरोसा करता हूं क्योंकि ईश्वर असंभव
है। असंभव है! इसलिए भरोसा करता हूं। संभव में क्या भरोसा करना! संभव में भरोसा करने के
लिए कोई बुद्धिमानी चाहिएकोई बड़ी प्रतिभा चाहिएसंभव में भरोसा तो बुद्ध से बुद्ध को आ जाता
है। असंभव में भरोसे के लिए तुम्हारे भीतर श्रद्धा के पहाड़ उठेंगौरीशंकर निर्मित होतो असंभव
की श्रद्धा होती है। असंभव की चाह है धर्म। 'पैशनफॉर द इंपॉसिबल!'
और तुमने पूछा है कि धर्मअध्यात्म जैसे संबोधन अनावश्यक रूप से आत्मज्ञान के साथ जोड़
दिए गए हैं?'
नहींजरा भी नहीं। वे संबोधन बडे सार्थक हैं। धर्म का अर्थ होता है. स्वभाव। वह बड़ा
सांकेतिक शब्द है। धर्म का अर्थ रिलिजन या मजहब नहीं होता। रिलिजन या मजहब को तो हम
संप्रदाय कहते हैं। धर्म का अर्थ तो बड़ा गहरा है। जिसके कारण इस्लामधर्म हैऔर जिसके कारण
ईसाइयतधर्म हैऔर जिसके कारण जैनधर्म हैऔर जिसके कारण हिंदू धर्म हैजिसके कारण
ये सारे धर्मधर्म कहे जाते है—वह जो सबका सारभूत हैउसका नाम धर्म है। ये सब उस धर्म तक
पहुंचने के मार्ग हैंइसलिए संप्रदाय हैं।
ईसाइयत एक संप्रदाय हुईहिंदू एक संप्रदाय हैजैन एक संप्रदाय हैबौद्ध एक संप्रदाय हैइस्लाम एक संप्रदाय है। धर्म तो वह है जहां तक ये सभी संप्रदाय पहुंचा देते हैं। इसलिए इस्लाम को धर्म कहना उचित नहींहिंदू को धर्म कहना उचित नहीं—संप्रदाय! 'संप्रदायशब्द अच्छा है। इसका अर्थ होता है मार्ग,जिससे हम पहुंचें। जिस पर पहुंचेंवह धर्म है।
'धर्मबड़ा अनूठा शब्द है। उसका गहरा अर्थ होता है. स्वभावहमारा जो आत्यंतिक स्वभाव हैहमारे भीतर के आखिरी केंद्र पर जो छिपा है बीज की तरह,उसका प्रगट हो जाना।
हम परमात्मा को बीज की तरह लिए घूम रहे हैं। हम जन्मों —जन्मों तक घूमते रहे हैं परमात्मा को बीज की तरह लिए। जब तक हम उस बीज को भूमि न देंगे —ध्यान की—तब तक धर्म का वृक्ष खड़ा न होगा। अगर धर्म से परिचित होना है तो ध्यान में गहरे उतरना पड़े। क्योंकि ध्यान भूमि बनता हैऔर धर्म का बीज ध्यान की भूमि में अंकुरित होता है।
दुनिया में धर्म नहीं हैं। हीकभी—कभी धार्मिक व्यक्ति होते हैं। जो हैंवे सब संप्रदाय हैं। तो धर्म शब्द व्यर्थ नहीं है। ऐसे जबर्दस्ती आत्मज्ञान के ऊपर नहीं थोप दिया गया है।
और अध्यात्म भी बड़ा बहुमूल्य शब्द है। उसका भी वही मतलब होता है. वहजो तुम्हारी निजता है। समझने की कोशिश करो।
तुम्हारे पास दो तरह की चीजें हैं। एक तो जो तुम्हें दूसरों ने दी हैंजो तुम्हारी निजी नहीं हैं जैसे भाषा। जब तुम पैदा हुए थे तो तुम कोई भाषा ले कर न आए थे। भाषा तुम्हें दी गई। मौन तुम ले कर आए थे। भाषा तुम्हें दी गई। मौन अध्यात्म हैभाषा सामाजिक है। जो तुम ले कर आए थेजो तुम्हारा हैनिजी है—वह अध्यात्म है। जो उधार हैबासा हैवह अध्यात्म नहीं है। जो भी तुम्हें दूसरों ने दे दिया हैवह अध्यात्म नहीं है।
तुम्हारे पास बहुत ज्ञान हो सकता है जो तुमने विश्वविद्यालय से सीखाशास्त्रों से सीखागुरुओं से सीखा—वह अध्यात्म नहीं है। जिस दिन तुम्हारा अंतश्चेतन जागेगातुम्हारी आंख खुलेगीतुम्हारे अपने शान का प्रादुर्भाव होगा—उसका नाम अध्यात्म है।
अध्यात्म का कोई शास्त्र नहीं होता और अध्यात्म की कोई किताब नहीं होती और अध्यात्म को उधार पाने का कोई उपाय नहीं है। अध्यात्म कोई वस्तु नहीं जो हस्तांतरित हो सके। अध्यात्म है तुम्हारा आत्यंतिक निज रूपतुम्हारी निजता। जिस दिन तुम सब उधार को छाटकर अलग कर दोगेकहते जाओगे यह भी मैं नहींयह भी मैं नहींनेतिनेतितुम इंकार करते जाओगे और वैसी घड़ी बचेगी जब तुम इंकार न कर सकोगेजिसे तुम्हें कहना पड़ेगायही मैं हूं—उस दिन अध्यात्म! तो साक्षी— भाव ही अध्यात्म हैबाकी तो सब गैर— अध्यात्म है।
ये शब्द बड़े प्यारे हैं। इन शब्दों का अर्थ समझोगे तो तुम्हारे भीतर शब्दों का अर्थ सुनते—सुनतेसमझते—समझते ही कुछ घटना घटनी शुरू हो जाएगी। एक छोटी—सी चिनगारी महावन को जला देती है। ये छोटे —छोटे शब्द नहीं हैंये छोटी—छोटी चिनगारियां हैं।
दूसरा प्रश्न :

गुरु शिष्य को सीधे भी देखता है लेकिन फिर भी उसे विभिन्न परीक्षाओं से जान—बूझ कर गुजारता है। क्या इससे शिष्य का आत्मज्ञान तीव्र और शुद्धतर होता है? कृपा करके समझाएं।

गुरु देखता है तुम्हारे तीन रूप—तुम जो थेतुम जो होतुम जो हो सकते हो। तुम जो थेउससे तुम्हें छुटकारा दिलाना है। तुम्हारे अतीत से तुम्हें मुक्ति दिलानी है। तुम्हारे अतीत को पोंछ डालना हैसाफ कर देना हैवह कचरा है जो तुम्हारे दर्पण पर इकट्ठा हो गया। तुम्हें अतीत से विच्छिन्न करना हैयह पहला काम।
फिर तुम जो होउसके प्रति तुम्हें जगाना है। क्योंकि तुम्हें उसका बिलकुल पता नहीं कि तुम कौन हो। तुम जो रहे हो अब तकतुम्हारा अतीत इतना बोझिल हो गया हैउससे तुम इस भांति दब गए हो कि तुम्हारा वर्तमान तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता। और वर्तमान बड़ा छोटा—सा क्षण हैबड़ा आणविक—इतना छोटा क्षण है कि तुम उसे पकड़ भी नहीं सकते। तुमने देखा कि यह रहा वर्तमान कि वह गया। इतना कहने में कि यह रहा वर्तमानवर्तमान अतीत हो जाता है। इतने समय में तो वर्तमान गया। वर्तमान को कहने के लिए शब्द भी जुटाओउतनी देर में वर्तमान जा चुका होता है। वर्तमान तो बड़ी पतली धार हैबड़ी सूक्ष्म! वहां तो तुम शात साक्षी रहोगे तो ही पकड़ पाओगे।
तो तुम्हें अतीत से छुटकारा दिलाना हैतुम्हें वर्तमान में जगाना हैऔर भविष्य..। अगर लुग अतीत में जकड़े रहे तो अतीत ही तुम्हारे भविष्य का निर्णायक होता हैअतीत ही तुम्हारे भविष्य को बनाता है। मुर्दा तुम्हारे भविष्य को भी नष्ट करता चला जाता है। क्योंकि तुम भविष्य की जो योजना बनाओगेवह कहां से लाओगे? तुम्हारे अतीत से लाओगे। अतीत के अनुभव के आधार पर ही तुम भविष्य के भवन खड़े करोगे। वे पुनरुक्तिया होंगी। वह फिर—फिर वही दोहराना होगा। थोड़े—बहुत हेर—फेर कर लोगेरंग बदल लोगेथोड़ा रूप बदल लोगेलेकिन होगा वह अतीत ही सजाया हुआसंवारा हुआ। लाश ही होगी—अच्छे वस्त्रों में श्रृंगारित। भविष्य की तुम योजना जो भी बनाओगेअतीत से आएगीवह अतीत का प्रोजेक्यान हैप्रक्षेपण होगा।
तो गुरु की चेष्टा होगी कि वह तुम्हें अतीत को भविष्य में प्रक्षेपित न होने दे। नहीं तो तुम्हारा अतीत तो नष्ट हुआतुम्हारा भविष्य भी नष्ट हो जाएगा। गुरु की चेष्टा होगी कि तुम्हें अतीत से मुक्त करवा दे और गुरु की चेष्टा होगी कि तुम्हें भविष्य की चिंता और विचारणा से भी मुक्त करवा दे। क्योंकि भविष्य का सारा विचार भविष्य को नष्ट करना है। भविष्य का विचार कैसे हो सकता हैभविष्य तो वही है जो अभी आया नहीं। भविष्य तो वही है जिसका तुम्हें कोई पता नहीं। भविष्य तो अभी कोरी स्लेट हैकोरा कागज हैजिस पर कुछ लिखा नहीं गया।
अभी तुम भविष्य पर अगर कुछ लिखना शुरू कर दोगे तो तुम भविष्य को खराब कर लोगे। उसका कोरापन घर आने के पहले ही खराब हो जाएगा।
तो वर्तमान में तुम्हें जगाना हैअतीत से तुम्हें छुटकारा दिलाना हैभविष्य के सपनों को अवरुद्ध करना है। इन तीन कामों के लिए गुरु सारी की सारी चेष्टा करता है। तुम्हें जगाताफिर परीक्षाएं भी खड़ी करता है कि तुम जागे या नहीं। क्योंकि तुम्हारी नींद इतनी गहरी है कि कई बार तुम नींद में ही सपना देख लेते हो कि जाग गए। तुम्हें ऐसे सपने याद होंगे जिनमें तुमने नींद मेंसपने में समझ लिया कि जाग गए। सुबह उठकर पता चला कि सपना तो झूठा था हीसपने में जागेवह भी झूठा था। बहुत डर है इस बात का कि जागने की बातें सुन—सुन कर कहीं तुम जागने का सपना न देखने लगो! वह यथार्थ नहीं होगा।
इसलिए अष्टावक्र जनक की खूब कस कर कसौटी करने लगते हैं। मुझे भी देखना पड़ता है कि कहीं तुम किसी नए सपने में न पड़ जाओ! कहीं अध्यात्म का सपना न देखने लगो! सपने सब सपने हैं—संसार के हों कि अध्यात्म के। सपने से मुक्त हो जाना है—तो अध्यात्म। और तुम्हें जल्दी बातें पकड़ जाती हैं। क्योंकि जिस—जिस बात से अहंकार की तृप्ति होवह तत्‍क्षण पकड़ जाती है। जैसे किसी ने कहा कि तुम तो ब्रह्मस्वरूप हो—पकड़ी! कि इसमें तो कोई अडूचन होती नहीं। इसलिए तो इतने करोड़ों लोग इस बात को मान लेते हैं कि हम ब्रह्मस्वरूप हैं। इसको पकड़ने में देर नहीं लगती। पापी से पापी आदमी भी जब सुनता है उदघोष उपनिषदों काअष्टावक्र का—सिंह गर्जना—कि तुम परमेश्वर होतो वह भी सोचता है कि बिलकुल ठीक हैयह तो हम पहले से जानते थे। कहते नहीं थे कि कोई मानेगा नहींलेकिन जानते तो हम पहले से थे ही। पाप इत्यादि तो सब सपना है!
हालांकि तुम किए जाते हो पाप। अब तुम एक नई तरकीब खोज लेते हो कि यह तो सब माया है। चोरी तुम किए चले जाते होबेईमानी तुम किए चले जाते हो—अब तुम कहते होयह सब माया है। तुम अक्सर पाओगेजहां इस तरह के शुद्ध वेदांत की बातें होती हैंवहा तुम महापापियो को बैठे देखोगे और प्रसन्न पाओगे! वहीं उनको प्रसन्नता मिलती हैऔर कहीं तो मिल नहीं सकती। और तो जहां भी वे जाते हैंकोई कहता हैयह ब्लैकमाकेंट करने वाला जा रहा हैकोई कहतायह चोर हैकोई कहतायह बेईमान हैयह महापापी है। वह जहां शुद्ध अध्यात्म बह रहा हैवहीं उनको थोड़ी शांति मिलती है। वहां उनको लगता है कि बिलकुल ठीक बात हो रही है। पाप इत्यादि सब झूठे हैं! तुम साधु—संतो  के पास पापियों को इकट्ठा देखोगे। उनके वचन उनके अहंकार को बड़ी तृप्ति देते हैं चलोकोई तो जगह है जहां हम प्रफुल्लित हो कर बैठ सकते हैं कि कोई पाप इत्यादि नहीं हैयह सब माया है। न कुछ कियान कुछ किया जा सकता है। कर्ता हम हैं ही नहींन हम भोक्ता हैं—हम तो साक्षी हैं!
तो गुरु को देखना पड़ता है कि कहीं यह साक्षी की धारणा तुम्हारे लिए आत्मघाती तो न हो जाएगी। जल्दी से यह घोषणा हो जाती है। अभी जनक और अष्टावक्र की बातें सुन कर अनेक लोगों ने मुझे पत्र लिख दिए कि आपने खूब जगा दिया! और हमको ज्ञान हो गया!एक मित्र ने लिखा कि अब तो मैं जाग कर जा रहा हूं कि मैं स्वयं परमब्रह्म हूं। वे गए भी! वे पत्र लिख कर गएवे चले ही गए पत्र लिख कर! परीक्षा देने तक का मौका उन्होंने नहीं दिया। वे तो सिर्फ घोषणा करके गए!
'स्वभावने पत्र लिख दिया कि 'मैं जाग गया! धन्यवाद प्रभु कि आपने बता दिया कि मैं भगवान हूं। न इतना कियावे सिर घुटा लिए उसी जोश में! लक्ष्मी मुझसे कहने लगी कि ऊषा आ कर रोती है (उनकी पत्नी)। मैंने लक्ष्मी को कहातू ऊषा को कहतू बिलकुल फिक्र न कर। ऐसे कहीं कोई... ऐसे कहीं स्वभाव जागने वाले नहीं। सिर घुटाने से क्या होता हैदेख चोटी बचा ली है! उसी
में सब बच गया! चोटी क्यों बचाई स्वभाव नेहिंदू चोटी तो बचाएगा ही!
मैंने उनकी पत्नी को खबर भेज दी कि तू बिलकुल घबड़ा मतऊषा। जब तक मैं ही न कहूं ये जाग गयेतब तक तू फिक्र मत कर। ऐसे तो ये कई करवटें लेंगे और फिर—फिर सो जाएंगे। उत्तर मैंने उनके प्रश्न का दिया नहीं थामैंने. कि जरा तुम सुन लो पहले अष्टावक्र किस तरह जनक की परीक्षा करते हैंफिर तुम्हारा उत्तर दे देंगे। अब अष्टावक्र की परीक्षा चल रही है जनक के लिए। वह सब सोचनागौर से सोचना।
मन बड़ा बेईमान है! मन बड़ा कुशल है धोखा देने में! दूसरों को धोखा देता ही देताअपने को भी दे लेता है। जागोगे निश्चित! जागना है! जागरण तुम्हारा स्वभाव हैतुम्हारे भीतर पड़ा है! लेकिन जल्दी ही मान लोगेबहुत जल्दी मान लोगेतो गुरु को तुम्हारी टाग खींचनी पड़ेगी। फिर तुम्हें चारों खाने चित्त! अगर तुम न गिराए गए तो तुम किसी खतरे में पड़ सकते हो।
जागरण निश्चित घटता है—घटना चाहिए भी! कभी—कभी तीव्रता से भी घटता है। कभी—कभी तत्‍क्षण भी घटता है। लेकिन फिर भी गुरु को ध्यान रखना पड़ता है कि कहीं वह किसी की भी भ्रामक दशा में सहयोगी तो न बन जाएगा। हालांकि तुम्हें कभी—कभी चोट भी लगेगीक्योंकि तुम कुछ मान कर चलते थे और मैं कह देता हूं नहीं यह नहीं हुआ। तो तुम्हें चोट भी लगेगी। वह मजबूरी है। उसके लिए मुझे क्षमा करना। लेकिन चोट मुझे करनी ही पड़ेगी। अगर मैं चोट न करूं और तुम्हें किसी भांति में चलने दूं तो मैं तुम्हारा गुरु नहींतुम्हारा संगी—साथी नहींफिर तुम्हारा शत्रु हूंफिर मैंने तुम पर करुणा न कीमैंने तुम पर प्रेम न किया। तुम्हारे अहंकार को अगर मैं किसी भी कारण भरूं तो मैं तुम्हारा दुश्मन हूं। तुम्हारे अहंकार को तो मिटाना है। तुम्हारे अहंकार को तो ऐसे मिटा देना है कि उसका बीज बिलकुल दग्ध हो जाए।
अब ध्यान रखनाकहीं स्वभाव जा कर चोटी न घुटा लें। अब कोई सार नहीं है घुटाने से। अब तो मैंने कह दियाअब कुछ मतलब नहीं है। अब तुम घुटा भी लो तो कोई फर्क नहीं पड़ता।
चेष्टा तो है समझने कीस्वभाव की! गहन चेष्टा है! बड़ी तीव्र आकांक्षा है! जागना चाहते हैं। जागना चाहते हैंइसीलिए तो कभी—कभी नींद में भी जागने का सपना देख लेते हैं। आकांक्षा शुभ है। आकांक्षा होनी चाहिए। एक अर्थ में धन्यभागी है ऐसा व्यक्तिक्योंकि कम—से —कम उनसे तो बेहंतर है जो नींद में भी जागने का सपना नहीं देखते। कम —से —कम जागने का सपना ही सही। लेकिन जागने की आकांक्षा होगीतभी तो जागने का सपना देखोगे! अगर अहंकार संन्यास से भी भरते हो तो भी शुभ है एक अर्थ में कि संन्यास से भर रहे हो अहंकारसंन्यास की आकांक्षा तो है ही! अब थोड़े और आगे जाना है। इस आकांक्षा को परिशुद्ध करना पूरा। जागना ही हैसपना क्या देखना जागने का पु जागने के सपने से कुछ सार न होगा।
इस प्रभु की यात्रा के रास्ते पर कई पड़ाव पड़ेंगेजहां तुम्हारा सो जाने का मन होगा। शक्तियां जगेंगीतब तुम्हारा सो जाने का मन होगा। तुम कहोगे, 'आ गए बस हो गया! देखो शक्ति जग गई!एक मुसलमान युवक मेरे पास साधना करता था। बड़ी गहन आकांक्षा से साधना में लगा था। बड़ी अटूट उसकी निष्ठा थी। वह एक दिन मेरे पास आया और उसने कहा कि घटना घट गईमालूम होता हैआत्मज्ञान हो गया।
मैंने कहा, 'हुआ क्या?'
तो उसने कहा, 'मैं एक बस में बैठा था। और ऐसे बस मझी पहाड़ी के किनारे तो मुझे लगा कि मेरे सामने जो आदमी बैठा है वह कहीं गिर तो न जाएगा! और जैसे ही मुझे लगाकि वह गिर गया। तो मैंने सोचा कि कहीं मेरे विचार ने तो इसको नहीं गिरा दिया। पर मैंने कहासंयोग की बात भी हो सकती है। तो मैंने एक दूसरी दफेजब मझी बसतो मैंने एक दूसरे आदमी पर ध्यान किया और सोचा कि यह आदमी गिरेगा! वह आदमी गिर गया! तब मैं थोड़ा घबड़ाया कि यह मामला क्या है! पर फिर भी मैंने सोचा एक परीक्षा और कर लेनी चाहिए। तीसरी दफे जब बस मझी तो एक बहुत मोटे आदमी परजिसके गिरने की संभावना ही नहीं थीजो ऐसा फंसा बैठा था कि सीट ही छोटी पड़ रही थीबस पूरी भी उलट जाए तो वह शायद न उलटे—उसको सोचा कि यह गिर जाएवह गिर गया! तो फिर बोलाफिर तो मुझे एकदम घबडाहट हो गई। घबड़ाहट भी हुई और आनंद भी आया। मैंने कहा कि यह तो मालूम होता है शक्ति हाथ में आ रही है।
अब वस्तुत: उसे घट रहा थाफिर भी मुझे कहना पड़ायह पागलपन है।
यह एकाग्रता की क्षमता है। अगर तुम ध्यान करते —करते बहुत एकाग्र हो जाओ और उस एकाग्रता में कोई विचार तुम सोचोवह तत्‍क्षण घट जाएगा। इसलिए समस्त योगशास्त्रों ने कहा हैइसके पहले कि तुम ध्यान की एकाग्रता में उतरोतुम्हें शुभ विचारों से भर जाना चाहिए। क्योंकि अगर ध्यान की एकाग्रता के बाद अशुभ विचार तुम्हारे भीतर चलते रहे तो उनके परिणाम आने शुरू हो जाएंगे। इसलिए पतंजलि नेइसके पहले कि धारणाध्यानसमाधि साधो—यम,नियमप्राणायामप्रत्याहारइन सबके साधने की बात कही। इतने परिशुद्ध हो जाओ कि जब ध्यान की ऊर्जा उठे तो तुम्हारे पास गलत विचार तो हो ही नहीं।
इसलिए महावीर ने कहाध्यान के पहले अहिंसा का भाव गहरा कर लो। बुद्ध ने कहाध्यान के पहले करुणा का भाव गहरा कर लो।
बुद्ध ने तो यह भी कहा कि हर ध्यान के बादउठने के पहले ध्यान सेसारे जगत के प्रति करुणा का फैलाव करना। हर ध्यान को करुणा पर पूरा करना,करुणा से शुरू करनाअन्यथा खतरा हैक्योंकि अगर जरा भी गलत विचार घूम जाए ध्यान की स्थिति में तो वह विचार परिणामकारी हो जाएगा। उस विचार में एक बल आ जाता है। वह विचार दूसरे व्यक्ति में प्रवेश कर जाएगा।
शक्ति जागनी शुरू होती हैउसे भी गुरु को रोकना पड़ता है। कल्पनाएं सत्य मालूम होने लगती हैंउसे भी गुरु को रोकना पड़ता है।
भ्रांति जन्मों—जन्मों की है। उस भ्रांति का बड़ा फैलाव है। ऐसा ही समझो कि इस बगीचे में जन्मों —जन्मों से कूड़ा—कर्कट ऊगता रहा हैघास—पात ऊगता रहा है। अब तुमने गुलाब बो दिएलेकिन इस बात की बहुत संभावना है कि तुम्हारे गुलाब पर घास चढ़ दौड़ेगाउसे दबा लेगा। शायद गुलाब का पता ही नहीं चलेगा। जन्मों —जन्मों से तुम्हारे मन की भूमि आक्रांत रही है व्यर्थ सेअसार से। तो जब सार की थोड़ी—सी क्षमता भी पैदा होगीतत्‍क्षण असार उसे दबा लेगा। गुरु को चेष्टा रखनी होगी कि असार सार को दबा न पाए। स्वप्न सत्य पर हावी न हो पाए। इसलिए बहुत—सी परीक्षाओं से गुजारना होगा।
गुरु की मौजूदगी ही परीक्षा है। गुरु जब तुम्हारी आंख में आंख डाल कर देखता हैतभी परीक्षा चल रही। गुरु के पास होने का अर्थ ही यह होता है कि तुम चौबीस घंटे कसे जा रहे हो। और इस कसने से घबड़ाना मतइस कसने के लिए तैयार रहना। और गुरु को धन्यवाद देना कि मुझे ऐसा छोड़ मत देनामुझे कसते चलना। क्योंकि यात्रा लंबी है र अनजान हैअपरिचित है! मुझे तो कुछ पता नहींकहीं भटक न जाऊं! भटकाव की संभावना ज्यादा हैपहुंचने के बजायक्योंकि भटकाव हमारा पुराना अभ्यास है।

 तीसरा प्रश्न :

हमारी संन्यास—दीक्षा के समय आप जिस कागज पर हमारे नये नाम और अपने हस्ताक्षर अंकित करते हैंउसका एक बड़ा हिस्सा कोरा ही रह जाता है। उस पर क्या लिखते हैं जो कोरा रह जाता हैप्रभुउस कोरेपन के पीछे क्या रहस्य है?

ही तुम्हारे संन्यास के लिए सूत्र है। जो नाम लिखता हूं तुम्हारा कोने मेंउसे तो आज नहीं कल भूल जानाउसे तो मिटा देना। कोरा कागज ही रह जाए! तुम कोरे रह जाओ! तुम्हें पता ही न रहेतुम कौन होक्या हो! तुम्हें पता न रहेकोई तादात्म्य। तुम्हारी सारी सीमाएं गिर जाएंतुम कोरे कागज रह जाओ!
इसलिए जान कर ही एक कोने में तुम्हारा नाम लिख देता हूं वह भी नीचे। ऊपर कोरा आकाश! तुमने कभी चीनी झेन फकीरों की बनाई हुई चित्रकला देखीउनके चित्र वास्तविक चित्र हैं। उनके चित्र में तुम पाओगेबड़ा कैनवस होतालंबाऔर नीचे कोने में जरा—सी पेंटिंग होती है। बड़ा विराट आकाश और जरा—से कोने में! वे ठीक—ठीक सूचना दे रहे हैं। वे कह रहे हैंआदमी का जाना हुआ बस ऐसा है—जरा—सा कोने में! आदमी का बनाया हुआ बस ऐसा है—जरा—सा कोने में! फिर विराट आकाश है।
पश्चिम में जो पेंटिंग होती हैउसमें आकाश होता ही नहीं। सब भरा होता हैपूरा कैनवस भरा होता है। सब रंग डालते हैंकोरा कुछ छोड़ते नहीं। जब पश्चिम पहली दफा झेन पेंटिंग को पहचानने लगा तो बड़ा चकित हुआ कि इतने बड़े कागज पर इतनी सी पेंटिंग! इतनी—सी पेंटिंग तो थोड़े से कागज पर हो जाती है! यह इतना कागज खाली क्यों छोड़ा हैवह खाली बड़ा राज हैवह रहस्य हैवह सूचक है। वह खाली ही सच हैबाकी तो थोड़ी—सी लहरें हैं। सागर ही सच है।
यह पृथ्वी तो हमारी बड़ी छोटी—सी है। यह बड़ा आकाश!
इस अनुपात को मत भूलना। इसलिए कोने में नीचे दस्तखत कर देता हूं तुम्हारा नाम लिख देता हूं। और पूरा कागज खाली छोड़ देता हूंताकि बार—बार तुम्हें याद आती रहे कि तुम्हारा नाम तो बस जरा—सा कोने में है। वह भी एक दिन भूल ही जाना है। अनाम हो जाना हैतभी संन्यास पूर्ण होता है। कोरे कागज जैसे हो जाना है।
सूफियों की एक किताब हैजो बिलकुल कोरी है। उस जैसी बढ़िया कोई किताब नहीं। उस किताब में कुछ लिखा नहीं है। कोई सात सौ आठ सौ साल पुरानी किताब है। एक गुरु से दूसरे गुरु को दी जाती रही। एक गुरु ने एक शिष्य को दे दीफिर वह अपने शिष्य को दे गयाहाथ—हाथ चलती रही है। अभी भी सुरक्षित है। अभी भी सात सौ साल के बाद शिष्य उसे पढ़ते हैं खोल कर। उसमें कुछ लिखा नहीं है। वह कोरे कागज हैं। उस किताब को सूफी छापना चाहते थे,कोई पब्लिशर छापने को राजी नहीं। फिर किसी ने हिम्मत की और छापा। लेकिन उसने भी जब छापा उसको तो कोई बीस—पच्चीस पन्ने भूमिका के लिखवा लिए।.. खराब हो गई किताब! भूमिका में सब इतिहास दे दिया कि किसने शुरू की यह किताबफिर किसके हाथ में रहीफिर किसके हाथ में गई। मगर उससे सब खराब हो गया। वह किताब कोरी ही होनी चाहिए। मगर कौन राजी होगा कोरी किताब छापने को! लोग कहेंगेकुछ हो भी तो छापने को तो छापें। इसमें तो कुछ है नहीं।
राजस्थान में एक महिला है : भूरिबाई! अदभुत महिला है! जब भी मैं राजस्थान जाता थावह जरूर मुझे मिलने आती थी। बहुत थोड़ी—सी महिलाएं भारत में होंगीजो उस कोटि की हैं। बिलकुल देहाती हैउसे कुछ पता भी नहींमगर सब पता है। वह मुझसे कहने लगी कि 'बापजीआप मेरे गाव आना! मैंने एक किताब लिखी हैउसका उदघाटन करना। '
मैंने कहा, 'तू किसी और को धोखा देना। तेरी किताब मैं समझ गयाउसमें क्या होगा। तू उसे यहीं ले आनामैं यहीं उदघाटन कर दूंगा।
तो वह ले आई एक दफासिर पर रख कर लाईबड़ी सुंदर पेटी में सजा कर लाई! उसके भक्त. उसके भक्त हैं! वह महिला है योग्य! उसके भक्त साथ में आए। उसकी किताब का मैंने उदघाटन कर दिया। कुछ भी नहींएक छोटी—सी पुस्तिका थी अंदरखाली! कुछ उसमें लिखा नहीं था। वह लिखना—पढ़ना जानती भी नहीं।
जब पहली दफा मेरे शिविर में आई तो जो उसके साथ आए थेभक्तवे तो सब ध्यान करने लगेवह उठ कर अपनी कोठरी में चली गई। उसके भक्तों ने जा कर कहा कि हम आए ही यहां इसलिए हैं कि ध्यान करेंआपने ध्यान नहीं कियावह कहने लगी कि तुम बापजी से पूछ लेना। वे मेरे पास आए। उन्होंने कहा,यह मामला क्या हैश्रइरबाई कहती हैबापजी से पूछ लेना।
'बापजीमुझे कहना नहीं चाहिएक्योंकि वह होगी सत्तर— अस्सी साल की। मैंने कहावह ठीक कहती है। क्योंकि जो मैंने कहा था वही उसने किया। मैंने कहा थाकुछ न करोशात साक्षी हो जाओ! वे उसके पास गए। उन्होंने कहाउन्होंने तो ऐसा कहा। वह कहने लगी कि ठीक कहा। वहा तो बड़ी भीड़— भाड़ थीउपद्रव था। कई लोग कुछ—कुछ कर रहे थे। मैं इस कोठरी में आ कर बैठ गईमैंने कुछ न कियाबड़ा ध्यान लगा।
फिर वह अपने गांव वापिस गई तो गाव के लोगों ने पूछा कि वहा से क्या लाईतो उसने अपनी कोठरी पर 'चुपलिखवा दिया। उसने कहा कि इतना ही समझी मैं तोवे कहे तो बहुत—सी बातें लेकिन मेरी बुद्धि में ज्यादा नहीं समातामैं तो गैर—पढ़ी लिखी हूं; 'चुप'—इतना ही मेरी समझ में आया। वह अपनी कोठरी पर लिखवा रखा है कि इतना उनकी बातों  में से मैं समझ पाई। कहते तो वे बहुत कुछ हैंइतना मैं पकड़ पाई। वही मैं तुमको कह सकती हूं।
वह जो कोरा कागज हैवह कहता है 'चुप'। वह जो कोरा कागज हैवही कुरान हैवही धम्मपद वही अष्टावक्र की संहिता है। उस कोरे कागज के लिए ही सारे शास्त्रों ने चेष्टा की है कि तुम्हारी समझ में कोरा कागज पढ़ना आ जाए। शून्य को समझाने के लिए शब्दों का सहारा लिया हैलेकिन शब्दों को समझाने के लिए नहीं—शून्य को समझाने के लिए। मौन में ले जाने के लिए भाषा का प्रयोजन है। तुम साक्षी बनो! तुम कोरे भीतर शून्य के साक्षी बनो! वहीं निर्वाण घटित होता हैसमाधि घटित होती है!

 चौथा प्रश्न :

कल आपने मोह और ज्ञान के गंगा—तट जाने की कथा कही। उसमें मोह तो
गंगा में स्नान कर प्रेम को उपलब्ध हो गया लेकिन ज्ञान का क्या हुआकृपा कर ज्ञान की
नियति पर भी थोड़ा प्रकाश डालें!

ह अभी भी भटक रहा है। ज्ञान अभी भी भटक रहा है।
ज्ञान बड़ी अकड़ी हुई बात है। तुम पंडित से ज्यादा अहंकारी और किसको पाओगेधनी भी उतना अहंकारी नहीं होताजितना अहंकारी तथाकथित ज्ञानी हो जाता है। जिसको यह लगता है कि मुझे मालूम हैउसकी अकड़ का क्या कहना!
तो ज्ञान तो राजी न हुआ कल्प—गंगा में उतरने को। कल्प—गंगा ने तो दोनों को कहा था—ज्ञान और मोह दोनों खड़े थे किनारे। ज्ञान और मोह को तुम ऐसा समझ लो कि हृदय और बुद्धिसंकल्प और समर्पणभाव और विचार—नाम कुछ भी दे दो। दोनों खड़े थे। गंगा ने कहा, ' आओ प्यारे! स्नान कर लो मुझमें! हो जाओ पवित्र! नहलाऊंगी तुम्हें! शुद्ध कर दूंगी! नया कर दूंगी! पुनर्जीवन होगा तुम्हारा!'
मोह तो उतर गयाक्योंकि मोह तो भाव हैहृदय हैतर्क नहीं है वहां। उसने तो निमंत्रण स्वीकार कर लिया। उसने कहा कि चलोदेखें। वह तो उतर गया। उसने तो डुबकी मार ली। वह तो जब निकला तो पुराना जा चुका थानया हो चुका था। मोह प्रेम हो गया। हृदय समाधि बन गया। भाव रस में डूब गया।
ज्ञान अकड़ा खड़ा रहा। उसने कहाकौन मुझे शुद्ध करेगायह किस तरह की बातमुझे और शुद्धमैं शुद्ध हूं! यह साधारण—सी गंगा का जल मुझे शुद्ध करेगाअरे मैं शास्त्रों का ज्ञाता! मुझे कौन शुद्ध करेगामैं दूसरों को शुद्ध कर दूं!
वह अकड़ा खड़ा रहा। वह मोह पर हंसा भी कि यह भी क्या पागल बातों  में आ रहा है! वह अभी भी भटक रहा है। वह अभी भी वहीं खड़ा हैअब भी हंस रहा है। पंडित सदा ही हंसता है प्रेमी पर। लेकिन प्रेमी ही हैं जो पाते हैं।
तुमसे एक और कथा कहता हूं।
एक राजा के दो बेटे थे। राजा के पास बहुत धन था। एक बेटे का नाम ज्ञान थाएक बेटे का नाम प्रेम था। राजा बड़ी चिंता में था कि किसको अपना राज्य सौंप जाए। किसी फकीर को पूछा कि कैसे तय करूंदोनों जुड़वां थेसाथ—साथ पैदा हुए थे। उम्र में कोई बड़ा—छोटा न थानहीं तो उम्र से तय कर लेते। दोनों प्रतिभाशाली थेदोनों मेधावी थेदोनों कुशल थे। कैसे तय करें?
बाप का मन बड़ा डावाडोल थाकहीं अन्याय न हो जाए! फकीर से पूछा। फकीर ने कहा, 'यह करो। दोनों बेटों को कह दो कि यही बात निर्णायक होगी। तुम जाओ और सारी दुनिया में बड़े—बड़े नगरों में कोठियां बनाओ। जो कोठियां बनाने में पांच साल के भीतर सफल हो जाएगावही मेरे राज्य का उत्तराधिकारी होगा।'
ज्ञान चला। उसने कोठियां बनानी शुरू कर दीं। मगर पांच साल में सारी पृथ्वी पर कैसे कोठियां बनाओगे ? हजारों बडे नगर हैं! कुछ कोठियां बनायीं,उसका धन भी चुक गयासामर्थ्य भी चुक गईथक भी गयापरेशान भी हो गया। और फिर बात भी मूढ़तापूर्ण मालूम पडीइससे सार क्या हैपांच साल बाद जब दोनों लौटे तो जान तो थका—मादा थाभिखमंगे की हालत में लौटा। सब जो उसके पास थी संपदावह सब लगा दी। कुछ कोठियां जरूर बन गईंलेकिन इससे क्या सारवह बड़ा पराजित और विषाद में लौटा।
प्रेम बड़ा नाचता हुआ लौटा। बाप ने पूछाकोठियां बनाईप्रेम ने कहा कि बना दींसारी दुनिया पर बना दीं। सब बड़े नगरों में क्याछोटे —छोटे नगरों में भी बना दीं। समय काफी था।
बाप भी थोड़ा चौंका। उसने पूछा कि यह तेरा बड़ा भाईयह तेरा दूसरा भाईयह तो थका—हारा लौटा है कुछ नगरों में बना करतूने कैसे बना लींप्रेम ने कहा कि मैंने मित्र बनाएजगह—जगह मित्र बनाए। सभी मित्रों की कोठिया मेरे लिए खुली हैं। जिस गांव में जाऊं वहींएक क्या दो —दोतीन—तीन कोठियां हैं। मकान मैंने नहीं बनाएमैंने मित्र बनाए। यह आदमी मकान बनाने में लग गयाइसलिए चूक हो गई। मकान तो मेरे लिए खुले खड़े हैंकोठियां मेरे लिए तैयार हैंजगह—जगह तैयार हैं। जहां आप कहेंवहा मेरी कोठी। हर नगर में मेरी कोठी!
एक तो ढंग है प्रेम का और एक ढंग है ज्ञान का। शान से अंततः विज्ञान पैदा हुआ। शान की आखिरी संतति विज्ञान है। विज्ञान से अंततः टेक्योलॉजी पैदा हुई। विज्ञान की संतति टेक्योलॉजी है; तकनीक है।
प्रेम से भक्ति पैदा होती है। भक्ति प्रेम की पुत्री है। भक्ति से भगवान पैदा होता है। वह दोनों दिशाएं बड़ी अलग हैं।
ज्ञान के मार्ग से जो चला हैवह कहीं न कहीं विज्ञान में भटक जाएगा। इसलिए तो पश्चिम विज्ञान में भटक गया। यूनानी विचारकों से पैदा हुई पश्चिम की सारी परंपरा। वह ज्ञान के. उनकी बडी पकड थी। अरस्तृ प्लेटो! तर्क और विचार और ज्ञान! जानना है! जान कर रहेंगे! उस जानने का अंतिम परिणाम हुआ कि अणुबम तक आदमी पहुंच गया। मौत खोज ली और कुछ सार न आया। पूरब प्रेम से चला है। तो हमने समाधि खोजी। हमने कुछ अनूठा आकाश खोजा—जहां सब भर जाता हैसब पूरा हो जाता है। अब तो पश्चिम परेशान हैअपने ही शान से परेशान है।
अलबर्ट आइंस्टीन मरने के पहले कह कर मरा है कि अगर मुझे दुबारा जन्म मिले तो मैं वैज्ञानिक न होना चाहूंगा—कतई नहीं! प्लंबर होना पसंद कर लूंगावैज्ञानिक होना पसंद नहीं करूंगा। बड़ी पीड़ा में मरा है कि क्या सारजानने का क्या सारहोने में सार है।
प्रेम भी जब तक झुके नहीं तब तक भक्ति नहीं बनता। शान भी अगर झुक जाए तो ध्यान बन जाता है। लेकिन शान झुकने को राजी नहीं होता। प्रेम झुकने को बड़ी जल्दी राजी हो जाता है।
अगर ज्ञान भी उतर गया होता गंगा में—समझ लोउतरा नहींउतर गया होता—उसने भी निमंत्रण स्वीकार कर लिया होताडुबकी मार ली होतीतो जैसे मोह प्रेम बन कर निकलाज्ञान ध्यान बन कर निकल सकता था। लेकिन किनारे पर अकड़ा खड़ा रह गयातो विज्ञान बन गयातो टेक्योलॉजी बन गई। तो सब चीजें खराब होती चली गईं।
ऐसा नहीं है कि शान की वृत्ति वाले व्यक्ति के लिए मार्ग नहींझुक जाए वह भी तो उसके लिए भी मार्ग है। प्रेमी झुकता है तो प्रार्थना पैदा होती हैज्ञानी झुकता है तो ध्यान पैदा होता है। प्रार्थना भी परमात्मा पर ले जाती हैध्यान भी परमात्मा पर ले जाता है। भाषा अलग होगी। जब ध्यानी परमात्मा पर पहुंचेगा तो वह कहेगाआत्मा! क्योंकि दूसरे का कोई उपाय नहीं है ध्यान में। जब प्रेमी परमात्मा पर पहुंचता है तो वह आत्मा नहीं कहतावह कहता हैतुम्हीं होमैं कहां!
ये सिर्फ भाषा के भेद हैं। दोनों एक ही महाशून्य पर पहुंच गए हैं। एक उसे आत्मा कहता हैएक उसे परमात्मा कहता है। ये भाषा के भेद हैं। अगर तुम्हारी विचार पर बहुत पकड़ हो तो ध्यान का मार्ग पकड़ोडुबकी मगर लगाओ। इधर रही गंगा! यह मैं कहता हूं कि आ जाओले लो डुबकी! मैं तुम्हें नया कर दूंगा।
अगर विचार पर बहुत पकड़ हैकोई हर्जा नहीं। जो मोह तक को रूपांतरित कर देती है गंगावह विचार को न कर पाएगीमोह तक को रूपांतरित कर दिया प्रेम मेंतो विचार की क्या ताकत हैविचार तत्‍क्षण ध्यान में रूपांतरित हो जाता है। लेकिन झुकना पड़े। बिना झुके कुछ भी नहीं! बिना समर्पित हुए कुछ भी नहीं!

पांचवां प्रश्न :

ऐसा लगता है कि पृथ्वीचारी जनक पहली बार आकाश को देख कर आश्चर्यचकित होते हैं। तो आकाश—विहारी अष्टावक्र को संसार देख कर ही आश्चर्य होता है। क्या सच ही संसार और मोक्ष एक—दूसरे के लिए इतने आश्चर्य के विषय हैंवे परस्पर—विरोधी हैं या एक—दूसरे के पूरक हैं?

 तो विरोधी और न पूरक। जब एक होता है तो दूसरा होता ही नहीं। ऐसा समझो कि प्रकाश और अंधेरा एक—दूसरे के विरोधी हैं या एक—दूसरे के पूरकन पूरक न विरोधीक्योंकि जब प्रकाश होता है तो अंधेरा नहीं होताजब अंधेरा होता है तो प्रकाश नहीं होता। पूरक होने के लिए तो दोनों को साथ—साथ होना चाहिए। विरोधी होने के लिए भी दोनों को साथ—साथ होना चाहिए। लेकिन एक ही होता हैदूसरा तो बचता ही नहीं।
जब तुम्हारे जीवन में आकाश का अनुभव आना शुरू होता हैपृथ्वी खो जाती है। इसलिए तो उस परम दशा को प्राप्त लोगों ने कहा कि यह पृथ्वी माया है। माया का अर्थ हैभ्रम हो गईखो गईस्वप्‍नवत हो गई। जब पृथ्वी का सपना पकड़ता है तुम्हें जोर से तो आत्माब्रह्मईश्वर सब स्वप्‍नवत हो जाते हैं।
जिसके लिए पृथ्वी सच हैउसके लिए आत्मा माया है। जिसके लिए आत्मा सच हैउसके लिए पृथ्वी माया हो जाती है। लेकिन दोनों साथ—साथ कभी नहीं होतेएक ही होता है।
ऐसा समझो कि रस्सी में सांप दिखाई पड़ गया। तो जब तक सांप दिखाई पड़ता है तब तक रस्सी दिखाई नहीं पड़ती। फिर जब दीया ले आए और रस्सी दिखाई पड़ गईतो सांप दिखाई नहीं पड़ता। तो तुम क्या कहोगे? —एक—दूसरे के पूरक हैं या एक—दूसरे के विरोधीन तो पूरक न विरोधी। क्योंकि दोनों कभी साथ—साथ होते नहीं। एक ही है। एक ही भ्रांति में दूसरे जैसा भासता है।
आकाश ही हैपरमात्मा ही है—तुम्हारे देखने के ढंग में जरा भूल है! तो तुम आकार में उलझ जाते होनिराकार को नहीं देख पाते। तो तुम रूप में उलझ जाते होअरूप को नहीं देख पाते। गुण को तो पकड़ लेते होनिर्गुण छूट जाता है। फिर जब तुम्हारी समझ गहन होती हैप्रगाढ़ होती है और तुम अरूप को देखने लगते हो तो रूप खो जाता है। तब तुम निराकार को देखने लगते हो तो आकार खो जाता है। और इसलिए आश्चर्य पैदा होता है।
जनक आश्चर्यचकित हैंक्योंकि जब पहली दफा आकाश दिखाई पड़ा तो पृथ्वी एकदम खो गई। जिस पर सदा से खड़े थेअचानक वह पैरों के नीचे से खिसक गई जमीन। तो वे आश्चर्य से भरे हैं! वे कहते हैं, ' आश्चर्यआश्चर्य! यह हुआ क्या! यह कैसे हुआ!'
अष्टावक्र भी आश्चर्य से भरे हैं। वे आकाश की तरफ से जब देखते हैं तो पृथ्वी वहां कहीं भी नहीं है। तो वे कहते हैं कि आश्चर्य! तुझे आश्चर्य होता है आकाश को देख करमुझे आश्चर्य हो रहा है तेरा पृथ्वी की बातें सुन कर।
दोनों का आश्चर्य बिलकुल ठीक है। क्योंकि जिसने रस्सी में सांप देखा थाजब उसे पता चलेगा कि यह रस्सी है तो वह आश्चर्यचकित होगा। जो सदा से जानता रहा कि रस्सी रस्सी हैवह भी आश्चर्यचकित होगा कि किसी ने इसमें सांप देख लिया। दोनों आश्चर्यचकित होंगे।
एक ही हो सकता है। परमात्मा और पदार्थ दो चीजें नहीं हैं। सत्य और संसार दो चीजें नहीं हैं। जब हम सत्य को गलत ढंग से देखते हैं और हमारी व्याख्या गलत होती है —तो संसार। जब हम संसार को ठीक से देख लेते हैं और व्याख्या ठीक हो जाती है—तो सत्य। परमात्मा को ही देखते हैं हम हर हाल। कुछ भी देखोपरमात्मा को ही देखते हो। और कुछ है ही नहींजिसको देख सकते हो। हीतुम्हारे देखने में अगर थोड़ी भांति होतुम्हारी आंख में अगर थोड़ी खराबी होतो जो तुम्हें दिखाई पड़ता हैजो तुम देख लेते होवह जो दिखाई पड़ रहा है उससे भिन्न हो जाता है। लेकिन जो दिखाई पड़ रहा हैवह तो वही का वही है —शाश्वत,सनातन! उसमें कोई रूपांतरण नहीं होता है। आदमी की भूल है संसार। आदमी की गलत व्याख्या है संसार। रात अंधेरे में तुम देख लेते हो—तुम्हारा ही लंगोट टंगा है—और वह लंगोट में दो हाथ जैसे मालूम पड़ते हैं। लंगोटी लटकी हैतो लगता है कोई आदमी खड़ा है। तुम्हीं टांग आए दिन मेंऔर रात तुम्हीं बाहर जाने से डरने लगते हो कि वहां कोई आदमी खड़ा मालूम होता है! लंगोट अब भी लंगोट है। लंगोट ने डराने का तुम्हें कुछ भी नहीं किया है। मगर तुम घबड़ा सकते हो।
कभी अंधेरे में तुमने देखाअंधेरे रास्ते पर एकांत में चलते हुए अपने ही जूते की आवाज ऐसी लगती है कि कोई पीछे आ रहा है! घबड़ाहट पकड़ने लगती है। छोटी—छोटी चीजें भ्रम दे जाती हैं। उन सभी भ्रमों का जोड़ संसार है। जब भ्रम टूट जाते और वही दिखाई पड़ जाता हैजो है—तो परमात्मा। परमात्मा यानी जो हैसंसार यानी जैसा हमने देख लिया है।


छठवां प्रश्न :

मैं कभी—कभी अपने शरीर पर गैरिक वस्त्र देख कर चकित हो उठता हूं। जीवन में मैंने अनगिनत स्वप्न देखेउनमें यह स्वप्न कहां था कि मैं संन्यासी भी होऊंगा! मैंने तो सदा साधु—संन्यासियों का मखौल ही उड़ाया किया। कहीं ऐसा तो नहीं है कि उनमें से किसी सच्चे संन्यासी ने मुझे यह वरद शाप दिया कि तुम्हारी देह पर भी गैरिक वस्त्र उतर जाएं?

 ब सपने आदमी देखता हैसंन्यास का सपना तो कभी नहीं देखता। क्योंकि संन्यास सपना नहीं—सपनों से जागना है। तुमने जो सपने देखे बहुतवे सपने ही जब हार गएथक गए और पराजित हो गएजब उन सपनों में से तुम कुछ भी न निचोड़ पाएतो संन्यास फलित हुआ।
संन्यास संसार की महत्वाकांक्षा की पराजय से फलित होता है। धन पाया तो व्यर्थनहीं पाया तो दुखदायी। पद पाया तो व्यर्थनहीं पाया तो दुखदायी। दौड़—दौड़ करकभी पा कर कभी न पा करहर हाल दुख पाया।
'मैत्रेयका प्रश्न है। मैत्रेय मुझे मिले तब वे पार्लियामेंट के सदस्य थेएम पी. थे। राजनिति में उनकी दौड़ थी। बने रहते वहां तो अभी कहीं न कहीं चीफ मिनिस्टर होते। बड़ी संभावना थी। जवाहर लाल के प्रिय पात्रों में से थे। तो मेरे चक्कर में न पड़तेतो या तो जेल में होते या चीफ मिनिस्टर होतेदो में से कुछ होते। क्योंकि जयप्रकाश के भी वे प्रिय पात्र थे। दोनों से बचा लिया मैंने उन्हें।
लेकिन मैं समझ पाता हूं उनका प्रश्न। उन्होंने कभी सपना भी नहीं देखा होगा। राजनीतिज्ञ कहीं सपना देखता है संन्यासी होने का!
राजनीति और धर्म बड़े विपरीत आयाम हैं। उनसे ज्यादा विपरीत और कुछ भी नहीं। राजनीति है महत्वाकांक्षाधर्म है महत्वाकांक्षा से शून्य हो जाना। राजनीति है पद—प्रतिष्ठा की दौड़दूसरों पर काबू पाने की दौड़और धर्म है अपने मालिक होने की आकांक्षा। ये बड़ी भिन्न बातें हैं। दूसरे के स्वामी होने की जो आकांक्षा हैवह राजनीतिअपने स्वामी होने की जो आकांक्षा हैवह धर्म।
इसलिए तो संन्यासियों को हम स्वामी कहते हैं। इससे तुम यह मत समझ लेना कि तुम किसी दूसरे के स्वामीमैं तुमको बना रहा हूं। ऐसी भ्रांति हो सकती है कि हमको स्वामी बना दियाअब हम सबके स्वामी हैं! ऐसा मत सोच लेना। अपने बसइतने हो गए तो काफी है। अपना ही कोई स्वामी हो जाए तो पर्याप्त है। और जो अपना स्वामी नहीं हैवह दूसरों के स्वामी होने की चेष्टा कर रहा हैउसकी यात्रा असफल होना निश्चित है। जो अभी अपना भी स्वामी नहीं हो पायावह किसका स्वामी हो पाएगा?
इसलिए जिनको तुम राजनेता कहते होवे अपने अनुयायियों के भी अनुयायी होते हैंवे अपने गुलामों के भी गुलाम होते हैं। अखबारों में उनकी तस्वीरें देख कर बहुत चकित मत हो जाना। वे छोटे —छोटे लुच्चे—लफंगोंगुंडों से दुबे होते हैं। वे पीछे खड़े रहते हैं। उन गुंडों की कहीं अखबारों में तस्वीर नहीं छपती। लेकिन उनके इशारों पर चलते होते हैं। चलना ही पड़ेगा। जिसको तुम्हें अपने पीछे चलाना हैउसके इशारे पर चलना होगा।
तुम्हारे अनुभव में सिर्फ एक ही बात होगीक्योंकि तुम सभी राजनीतिज्ञ नहीं हो। पत्नी को तुम्हें अपने पीछे चलाना हो तो तुम्हें मालूम है पत्नी की एक—एक आकांक्षा पूरी करनी होती है तो ही वह तुम्हारे पीछे चलती है। वह कहती हैआप मालिकमैं दासी! मगर दासी होने का मतलब समझते हैंजब तक आप उसके दास न हो जाओवह दासी नहीं। लिखती है 'आपकी दासी', मगर मतलब साफ है। वह आपके पीछे—पीछे चलती हैजब भांवर पड़ती हैंलेकिन अगर उसको जिंदगी भर अपने पीछे चलाना हो तो बड़े छिपे रूप में आपको उसके पीछे चलना होता है। नहीं तो वह आपके पीछे नहीं चलेगी। यह तो साझेदारी है. तुम हमारे पीछे तो हम तुम्हारे पीछे। यह तो सांठ—गांठ है।
राजनेता जिनको अपने पीछे चला रहा हैराजनेता उनके पीछे चलता होता है। वह लौट—लौट कर देखता रहता हैलोग कहां जा रहे हैंउसी तरफ जाने लगता है। असली कुशल राजनीतिज्ञ का
अर्थ ही यही है।
कुछ कुशल राजनीतिज्ञ नहीं होते तो उनकी अकुशलता का कारण क्या होता है? इतना ही होता है—अकुशल राजनीतिज्ञ वही है कि जो यह सोचने लगता है दुनिया मेरे पीछे चल रही है। वह झंझट में पड़ता है। मोरारजी देसाई से पूछो! अकुशल राजनीतिज्ञ की अकुशलता यही है कि वह सोचता है सब मेरे पीछे चल रहे हैंमैं जहां जाऊंगा वहां दुनिया जाएगी। वह गलती में है। कुशल राजनीतिज्ञ वह है जो देख लेता हैलोग किस तरफ जा रहे हैंउसी तरफ उनके आगे—आगे चलने लगता। समाजवादसमाजवाद सही! यही तो हम भी चाहते हैं!
मुल्ला नसरुद्दीन अपने गधे पर भागा जा रहा था। एक बाजार में लोगों ने उसे रोक लिया और पूछा कि कहा जा रहे होउसने कहामुझसे मत पूछोमेरे गधे से पूछो! क्योंकि मैं राजनीतिज्ञ हूं। पहले मैंने बहुत कोशिश की इस गधे को चलाने कीमगर गधा है। हम बाएं चलाएंवह दाएं जाए। बीच बाजार में मखौल उड़े! भीड़ इकट्ठी हो जाए कि अरे नसरुद्दीनतुम्हारे गधे पर भी बस नहीं! क्या करेंफिर हमें समझ में आया कि गधे के साथ राजनीति करनी चाहिए। अब गधा जिस तरफ जाता है हम उसी तरफ जाते हैं। दुनिया यही समझती है कि हम गधे को चला रहे हैंमगर गधा हमको चला रहा है।
'मैत्रेय जीराजनीति में थे। उन्होंने कभी सपना नहीं देखा होगा संन्यासी होने कायह सच है। लेकिन रह कर राजनीति में कुछ भी न पाया। उस न पाने से संन्यास की तरफ वृत्ति हुई। उस न पाने से वे दूसरी दिशा में झुकना शुरू हुए। राजनीतिज्ञ तो थेलेकिन उनके पास राजनीतिज्ञ की प्रतिभा नहीं थीबेईमानी नहीं थी। बड़े सरल आदमी हैं। संन्यास उन्हें स्वाभाविक पड़ा। राजनीति में वे बड़ी उलझन में पड़े थे। राजनीति में बड़ी बेचैनी में थे। अड़चन थी। वह उनके अनुकूल न था। वह उतने ओछे और छोटे आदमी नहीं थे।
वहां सफलता उनकी है जो जितने ओछे हैंजितने छोटे हैं। वहां सफलता उनकी हैजो जितने नीचे उतर आएं। वहा कोई आदमी अगर सरल होसीधा—सादा होतो वहां सफलता नहीं है। वे गलत दिशा में पड़ गए थे। वह दिशा उनके लिए नहीं थी।
शायद संन्यासियों का मजाक भी वे इसीलिए उड़ाते रहे होंगेक्योंकि हम मजाक भी अकारण नहीं उड़ाते। अक्सर तो ऐसा होता है कि हम मजाक उन्हीं की उड़ाते हैं जिनसे हमारी ईर्ष्या होती है। जैसे तुम पाओगेसरदारों का मजाक पूरे मुल्क में उड़ाई जाता है। उसमें कुछ कारण है सरदारों से ईर्ष्या है। ईर्ष्या के कारण भी साफ हैं सरदार तुमसे ज्यादा मजबूत। गर्दन दबा दे तो तुम्हारी ची बोल जाए! तो पूरे भारत में सरदार पास में खड़ा हो तो तुम्हें बेचैनी तो होती हैकि यह आदमी ज्यादा ताकतवर हैअब इससे बदला कैसे लो! इससे झगड़ा—झांसा करने में सार नहीं है। तो हम मजाक उड़ाते हैंहम मखौल करते हैं। वह मखौल झूठ है। वह ईर्ष्या के कारण है।
पश्चिम में यहूदियों का मजाक उड़ाया जाता है। जितनी मजाके हैंयहूदियों के खिलाफ हैं। उसके भी पीछे कारण हैं। यहूदी की प्रतिभा से बड़ी ईर्ष्या है। जहां यहूदी पैर रख देवहां से दूसरों को हट जाना पड़ता है। जितनी नोबल प्राईज यहूदियों को मिलती उतनी दुनिया में किसी को नहीं मिलती। एक तरफ सारी दुनिया और एक तरफ यहूदी अकेले। उनकी संख्या ज्यादा नहीं हैलेकिन नोबल प्राईज वे इतनी मार ले जाते हैं कि चकित होना पड़ता है कि मामला क्या है!
इस सदी को जिन तीन लोगों ने प्रभावित किया हैवे तीनों के तीनों यहूदी थे—मार्क्सफ्रायडआइंस्टीन। यह सारी सदीबीसवीं सदीयहूदियों से प्रभावित है। यह सारी सदी यहूदियों के आधार से चल रही है। हिटलर इसीलिए कम्यूनिज्म के खिलाफ थाक्योंकि वह कहता था कि यह भी यहूदियों का षड्यंत्र है। यह जो मार्क्स हैयह इसने एक नई तरकीब निकाली है दुनिया पर कब्जा करने की। मगर आधी दुनिया पर कब्जा कर भी लिया है। फिर फ्रायड हैउसने सारे मनोविज्ञान पर कब्जा कर लिया है। आदमी के मनस के संबंध में मालिक हो गया है। उधर अलबर्ट आइंस्टीन हैउसने सारे विज्ञान पर कब्जा कर लिया है।
यहूदी जहां पैर रख दे—राजनीति में रखे तो राजनीति मेंबाजार में रखेधन की दौड़ में रखे तो धन में—वह सब जगह पराजित कर देता है लोगों को। उसके पास प्रतिभा है। उस प्रतिभा से बेचैनी होती हैईर्ष्या होती है। तो मजाक में बदला लेते हैं हम।
मजाक का खयाल रखना। तुम उसी का मजाक उड़ाते हो जिससे तुम्हारी ईर्ष्या होती है।
तो मैत्रेय से मैं कहता हूं. संन्यासियों का तुमने मखौल उड़ाया होगाक्योंकि संन्यासी से तुम्हारे भीतर मन में बड़ी ईर्ष्या रही होगी कि यह तुम्हें होना था और तुम नहीं हो पाए।
किसी संन्यासी के वरद शाप के कारण नहीं—तुम्हारे भीतर ही संन्यासी में लगाव थारस था। तुम संन्यासी की उपेक्षा नहीं कर सकते थे। और तुम यह भी नहीं मान सकते थे कि संन्यासी सही हैक्योंकि अगर संन्यासी सही तो तुम गलत हो। तो मखौल उड़ाते थे। लेकिन कहीं तुम्हें लगता रहा होगा अचेतन मेंकि संन्यासी सही हैउसकी दिशा सही है। वह तुम्हारी आत्म—सुरक्षा (डिफेन्स) का उपाय था—मजाक।
अगर तुम मुझे मिले होतेकभी भी मिले होते तो तुम चक्कर में पड़ते। क्योंकि मैं कुछ ऐसा संन्यासी हूं जो संन्यासी जैसा है ही नहीं। इसलिए बहुत लोग मेरे चक्कर में पड़ जाते हैं। जो संन्यासियों के सदा खिलाफ रहे वे आ कर मेरे पास संन्यास ले लेते हैं। जो धर्म के सदा खिलाफ रहेवे मेरे पास आ कर ध्यान करने लगते हैं। मेरे पास नास्तिक आते हैं और कहते हैं, 'बड़ी मुश्किल और आस्तिकों से तो हम लड़ लेते हैंआपसे लड़ना नहीं हो पाता। मैं नास्तिकमहानास्तिक— मुझसे लड़ोगे कैसेतुम एक नास्तिक चाल चलोमैं दो नास्तिक चाल चलता हूं। मेरी आस्तिकतानास्तिकता के विपरीत नहीं है—नास्तिकता के ऊपर है। मैं नास्तिकता को सीढ़ी बना लेता हूं। मैं कहता हूंचलो यह खेल भी थोड़ी देर खेल लें। नास्तिक हो तो चलो नास्तिकता का खेल खेल लें। नास्तिकता मेरे लिए आस्तिकता की सीढ़ियां बन गई। संसार को मैंने संन्यास की सीढ़ी बनाया। इसलिए जो किसी भी प्राचीन परंपरागत संन्यासी से प्रभावित न होंगेवे मेरी प्रतीक्षा ही कर रहे हैं। वे जब भी मेरे संपर्क में आएंगेउनको डूब जाना पड़ेगा।
मैंने कुछ फूल चुने
मैंने कुछ गीत बुने
अपनी महफिल को सजाने के लिए
अपने जीवन को बिताने के लिए
खाए कितने ही फरेब
अपने मन को बहलाने को
कच्चे धागों से कई जाल बुने
मैंने कुछ फूल चुने।
आसपास अपने बुनी सपनों की ठंडी छाया
मन लुभाती रहीं सुंदर काया
फिर भी यह आस की माया
मैंने दिन—रैन कभी चैन नहीं क्यों पाया!
मैंने कुछ गीत बुने गीत सुने
जो सुने सर धुने
इन मधुर गीतो  की लय में खोकर
मुस्कुराते हुए भोले मन को
मैंने बहलाया है
रूप—रस पाने का भ्रम खाया है!
मैंने जो फूल चुने
मैंने जो गीत बुने
मन को उन फूलों ने
उन गीतो  ने गर्माया है
नौजवानी के हसी ख्वाबों ने
चंद रातो  मेंमुलाकातो  में
मुझको बहलाया है
रूप माया में मगर
सुख मेरे मन ने कहां पाया है!
तो 'मैत्रेय जीतुम्हारे सपने थे सबखूब तुमने बुने। वे सब सपने थेटूटने को ही थे। उनमें शांति न मिलीसुख न मिलाछाया न मिली। ज्वर मिला,बीमारी मिलीतनाव मिलासंताप मिला—शांति न मिली! संसार से थके —हारे कोमहत्वाकांक्षा से थके हारे कों—संन्यास के अतिरिक्त और शरण कहां। हारे को हरिनाम।

आखिरी प्रश्न :

मैं तेरे मैकदे के काबिल हूं?
यह हरगिज मैंने कहा नहीं।
इस्तिहां और भी बाकी हैं क्या,
क्या हैजो मैंने सहा नहीं?

मैं तेरे मैकदे के काबिल हूं यह हरगिज मैंने कहा नहीं।
इसीलिए तुम मेरे मैकदे के काबिल हो। जिसने यह कहा कि मैं काबिल हूं वह नाकाबिल है। जिसने कहामेरी कोई योग्यता नहींउसे मैं अपनी मधुशाला में भरती कर लेता हूं। योग्यों की यहां कोई जगह नहीं। अहंकारियों के लिए यहां कोई उपाय नहीं।
'मैं तेरे मैकदे के काबिल हूं
यह हरगिज मैंने कहा नहीं। '
ठीक इसीलिएबिलकुल ठीक इसीलिएमेरे द्वार तुम्हारे लिए खुले हैं। यह मेरी मधुशाला तुम्हारा मंदिर है। यहां न ज्ञानियों की जरूरत हैन पंडितो  की। यहां न पुण्यात्माओं की जरूरत हैन साधु—महात्माओं की। यहां तो उनकी जरूरत है जो विनम्र हैं और झुकने की जिनकी तैयारी है।
'इस्तिहां और भी बाकी हैं क्या,
क्या हैजो मैंने सहा नहीं?'
कोई इस्तिहां बाकी नहीं है। अगर तुमने जो सहा हैउसे मूर्च्छा में नहीं सहा है तो फिर कोई इस्तिहां बाकी नहीं है। तुमने जो सहा हैअगर होशपूर्वक सह लिया है तो तुम आ गए हो साक्षी के किनारेवह घटना घटने के ही करीब हैकिसी भी क्षण घट सकती है। लेकिन अगर मूर्च्छा में सहा है तो एक इस्तिहान बाकी है। और वह है जागने का। जो—जो मूर्च्छा में सहा हैअब उसे जाग कर सह लो। जो भी तुम जाग कर सह लोगे उससे तुम मुक्त हो जाओगे।
जब से तेरी लगन लगी है हमें
हम परीदा—हवास रहते हैं।
दिल की दूरी अगर न हायल हो
पास ही तेरे दास रहते हैं।
जब से तेरी लगन लगी है हमें
हम परीदा—हवास रहते हैं।
तब से हमारी बुद्धि का होश उड़ गया! जिनकी बुद्धि का होश उड़ गया हैवही मेरे काम के हैं। जब से तेरी लगन लगी है हमें
हम परीदा—हवास रहते हैं।
दिल की दूरी अगर न हायल हो
पास ही तेरे दास रहते हैं।
बस जरा—सी दूरी रह गई है। वह दूरी है तुम्हारे मूर्च्छित हृदय की। वहा थोड़ा जागरण का दीया जल जाएफिर कोई दूरी नहीं। और वही मूर्च्छा सब दुखों का कारण है।
बेहिस वीरानी छाई है
अलबेले अरमां रूठे
अक्ल ने कैसी बेदर्दी से
दिल की बस्ती लूटी है!
बुद्धि ने तुम्हें लूटा है। तुम बुद्धि के हाथों लूटे गए हो।
बेहिस वीरानी छाई है
अलबेले अरमां रूठे
अक्ल ने कैसी बेदर्दी से
दिल की बस्ती लूटी है!
गुमसुम रहते हैं दुख सहते
हाले—दिल किससे कहते?
अपने— आप से छूट गए हम
तेरी गली क्या छूटी है!
वह जो प्रभु की गली है—प्रेमगली अति सीकरी तामें दो न समाय—वह जो प्रभु की गली है जहां केवल एक ही समा सकता हैवह छूट गई उसी दिन,जिस दिन तुम हुए।

गुमसुम रहते हैं दुख सहते
हाले —दिल किससे कहते?
अपने— आप से छूट गए हम
तेरी गली क्या छूटी है!

अगर उस गली में फिरअगर उस वृंदावन की गली में फिर प्रवेश करना हो—तब अपने को छोड़ो! उतनी—सी दूरी है। बस तुम्हारे 'मैंकी दूरी ही एकमात्र दूरी है। एक ही कदम उठाना है—'मैंसे 'न—मैंमेंअहंकार से निरहंकार में—और शेष सब अपने से हो जाता है। मधुशाला के द्वार खुले हैं। तुम 'मैंको बाहर रख कर आ सकी तो यह मैकदा तुम्हारा है।

 हरि ओंम तत्सत्!