Ashtavakra Mahageeta (Day 10)

20 सितंबर, 1976
ओशो आश्रम, कोरेगांव पार्क,
पूना।

पहला प्रश्न : आपने कल बताया कि तप्क्षण संबोधिसडन एनलाइटेनमेंट किसी भी कार्य— कारण के नियम से बंधा हुआ नहीं हैलेकिन यदि अस्तित्व में कुछ भी अकस्मातदुर्धटना की तरह नहीं घटतातो संबोधि जैसी महानतम घटना कैसे इस तरह घट सकती है?

स्तित्व में कुछ भी अकारण नहीं घटता,
यह सच हैलेकिन अस्तित्व स्वयं अकारण है। परमात्मा स्वयं अकारण हैउसका कोई कारण नहीं है। संबोधि यानी परमात्मा। संबोधि यानी अस्तित्व। फिर और सब घटता हैपरमात्मा घटता नहीं—है। ऐसा कोई क्षण न थाजब नहीं थाऐसा कोई क्षण नहीं होगाजब नहीं होगा। और सब घटता है—आदमी घटता हैवृक्ष घटते हैंपशु—पक्षी घटते हैंपरमात्मा घटता नहीं—परमात्मा है। संबोधि घटती नहीं। संबोधि घटना नहीं हैअन्यथा अकारण घटतीतो दुर्घटना हो जाती। संबोधि घटती नहीं हैसंबोधि तुम्हारा स्वभाव हैसंबोधि तुम हो। इसलिए तत्क्षण घट सकती हैऔर अकारण घट सकती है।


कहा है कि 'संबोधि जैसी महानतम घटना कैसे इस तरह घट सकती है?'
महानतम है—इसीलिए। क्षुद्र तो सभी सकारण घटता है। अगर समाधि भी और ही वस्तुओं की तरह सकारण घटती होतीतो वह भी क्षुद्र और साधारण हो जाती। पानी को सौ डिग्री तक गर्म करोभाप बन जाता है—ऐसी ही अगर समाधि भी होती कि सौ डिग्री तक तपश्चर्या करो और समाधि घट जाती हैतो विज्ञान की प्रयोगशाला में पकड़ ली जायेगी फिर तुम्हारी समाधिफिर ज्यादा देर धर्म के बचने का कोई उपाय नहीं। क्योंकि जो भी सकारण घटता हैवह विज्ञान के हाथ के भीतर आ ही जायेगाजिसका कारण हैवह विज्ञान की सीमा में घिर जायेगा।
संबोधि अकारण है। इसलिए धर्मधर्म रहेगाविज्ञान उसे कभी भी आच्छादित न कर सकेगा। जो भी सकारण घटता हैसब धीरे—धीरे वैज्ञानिक हो जायेगासिर्फ एक चीज रह जायेगीजो कभी वैज्ञानिक न होगीवह स्वयं अस्तित्व है। क्योंकि अस्तित्व अकारण हैबस है। विज्ञान के पास उसका कोई उत्तर नहीं। विराटसमग्र का कारण हो भी कैसे सकता हैक्योंकि जो भी हैसब उसमें समाहित हैउसके बाहर तो कुछ भी नहीं। समाधि इसीलिए नहीं घटतीक्योंकि क्षुद्र नहीं हैविराट है।
तुमने पूछा है कि 'संबोधि जैसी महानतम घटना...।'
महानतम इसीलिए हैउसके महान होने का और कोई कारण नहीं कि तुम्हारे क्षुद्र कार्य—कारण के नियम के बाहर है। इतना पुण्य करो और समाधि घटती होइतना दान दो और समाधि घटती होइतना त्याग करो और समाधि घटती हो—तो समाधि गणित के भीतर आ जायेगीखाते—बही में आ जायेगीमहान न रह जायेगी। अकारण घटती है।
भक्त इसीलिए कहते हैं. प्रसाद—रूप घटती है। तुम्हारे घटाये नहीं घटती। बरसती है तुम पर—अनायासभेंट—रूपप्रसाद—रूप!
फिर श्रम और चेष्टाजो हम करते हैंउसका क्या परिणामअगर अष्टावक्र तुम्हें समझ में आ जाते होंतब तो तुम व्यर्थ ही श्रम करते होतब तो तुम व्यर्थ ही अनुष्ठान करते हो। अनुष्ठान की कोई भी जरूरत नहींसमझ पर्याप्त है। इतना समझ लेना कि परमात्मा तो है हीऔर उसकी खोज छोड़ देना। इतना समझ लेना कि जो हम हैं वह मूल से जुड़ा ही है इसलिए जोड़ने की चेष्टा और दौड़—धूप छोड़ देनी है—और मिलन घट जायेगा। मिलन घट जायेगा—मिलने के प्रयास से नहीं,मिलने के प्रयास को छोड़ देने से। मिलने के प्रयास से तो दूरी बढ़ रही है—जितनी तुम मिलन की आकांक्षा करते होउतना ही भेद बढ़ता जाता है। जितना तुम खोजने निकलते होउतने ही खोते चले जाते होक्योंकि जिसे तुम खोजने निकले होउसे खोजना ही नहीं है। जागकर देखना हैवह मौजूद हैवह द्वार पर खड़ा है,वह मंदिर के भीतरतुम्हारे भीतर विराजमान है। एक क्षण को उसने तुम्हें छोड़ा नहींएक क्षण को जुदा हुआ नहीं। जो जुदा नहीं हुआजिससे कभी विदाई नहीं हुई,जिससे विदाई हो ही नहीं सकतीउसे तुम खोज—खोजकर खो रहे हो।
तो तुम्हारे अनुष्ठानों का एक ही परिणाम हो सकता है कि तुम थक जाओकि तुम्हारी सारी चेष्टा एक दिन ऐसी जगह आ जाये कि चेष्टा कर—करके ही तुम ऊब जाओतुम उस ऊब के क्षण में चेष्टा छोड़ दोऔर तत्कण तुम्हें दिखाई पड़े. अरे! मैं भी कैसा पागल था!
कल मैं किसी की जीवनकथा पढ़ रहा था। उस व्यक्ति ने लिखा है कि वह एक अनजान नगर में यात्रा पर गया हुआ था और एक अनजान नगर में खो गया। वहां की भाषा उसे समझ में नहीं आती। तो वह बड़ा घबड़ा गया। और उस घबड़ाहट में उसे अपने होटल का नाम भी भूल गयाफोन नंबर भी भूल गया। तब तो उसकी घबड़ाहट और बढ़ गई कि अब मैं पूछूंगा कैसेतो वह बड़ी उत्सुकता से देख रहा है रास्ते पर चलते—चलते कि कोई आदमी दिखाई पड़ जाये जो मेरी भाषा समझता हो। पूरब का कोई देशसुदूर पूर्व काऔर यह अमरीकन! यह देख रहा है कि कोई सफेद चमड़ी का आदमी दिख जायेजो मेरी भाषा समझता हो,या किसी दुकान पर अंग्रेजी में नाम—पट्ट दिख जायेतो मैं वहा जाकर पूछ लूं। वह इतनी आतुरता से देखता चल रहा हैऔर पसीने—पसीने है कि उसे सुनाई ही न पड़ा कि उसके पीछे पुलिस की एक गाड़ी लगी हुई है और बार—बार हार्न बजा रही है। क्योंकि उस पुलिस की गाड़ी को भी शक हो गया है कि यह आदमी भटक गया है। दो मिनिट के बाद उसे हार्न सुनाई पड़ा। चौंक कर वह खड़ा हो गयापुलिस उतरी और उसने कहातुम होश में हो कि बेहोश होहम दो मिनिट से हार्न बजा रहे हैंहमें शक हो गया है कि तुम भटक गये होखो गए होबैठो गाड़ी में!
उसने कहायह भी खूब रही! मैं खोज रहा था कि कोई बताने वाला मिल जायेबताने वाले पीछे लगे थे। मगर मेरी खोज में मैं ऐसा तल्लीन था कि पीछे से कोई हार्न बजा रहा हैयह मुझे सुनाई ही न पड़ा। पीछे मैंने लौटकर ही न देखा।
जिसे तुम खोज रहे होवह तुम्हारे पीछे लगा है। निश्चित ही परमात्मा हार्न नहीं बजाताजोर से चिल्लाता भी नहींक्योंकि जोर से चिल्लाना तुम्हारी स्वतंत्रता पर बाधा हो जायेगी। फुसफुसाता हैकान में गुपचुप कुछ कहता है। मगर तुम इतने व्यस्त होकहां उसकी फुसफुसाहट तुम्हें सुनाई पड़े! तुम इतने शोरगुल से भरे होतुम्हारे मन में इतना ऊहापोह चल रहा हैतुम खोज में इस तरह संलग्न हो।
स्वामी रामतीर्थ ने कहा हैएक छोटी—सी कहानी कही कि एक प्रेमी दूर देश गया। वह लौटा नहीं वापिस। उसकी प्रेयसी राह देखती रहीदेखती—देखती थक गई। वह पत्र लिखता हैबार—बार कहता है. अब आता हूं तब आता हूंइस महीनेअगले महीने। वर्ष पर वर्ष बीतने लगेएक दिन वह प्रेयसी तो घबड़ा गई। प्रतीक्षा की भी एक सीमा होती है। उसने यात्रा की और वह परदेश के उस नगर पहुंच गईजहां उसका प्रेमी है। पूछताछ करके उसके घर पहुंच गई। द्वार खुला हैसांझ का वक्त हैसूरज ढल गया हैवह द्वार पर खड़े होकर देखने लगी। बहुत दिन से अपने प्यारे को देखा नहीं। वह बैठा है सामनेमगर किसी गहरी तल्लीनता में डूबा हैकुछ लिख रहा है! वह इतना तल्लीन है कि प्रेयसी को भी लगा कि थोड़ी देर रुकुं उसे बाधा न दूं र न मालूम किस विचार—तंतु में है.. कौन—सी बात खो जाए। वह ऐसा भाव—विभोर हैउसकी आंखों से आंसू बह रहे हैंऔर वह कुछ लिख रहा हैऔर वह लिखता ही चला जाता है। घड़ी बीत गईदो घड़ी बीत गईतब उसने आंख उठा कर देखाउसे भरोसा न आयावह घबड़ा गया।
वह अपनी प्रेयसी को ही पत्र लिख रहा था। इसी को पत्र लिख रहा थाजो दो घड़ी से उसके सामने बैठी थीऔर प्रतीक्षा कर रही थी कि तुम आंख उठाओ! उसे तो भरोसा न आयावह तो समझा कि कोई धोखा हो गयाकोई भ्रम हो गयाशायद कोई आत्म—सम्मोहन! मैं इतना ज्यादा भावातिरेक में भरा हुआ इस प्रेयसी के संबंध में सोच रहा थाशायद इसीलिए एक सपने की तरह वह दिखाई पड़ रही है। कोई भ्रम तो नहीं.। उसने आंखें पोंछीं। वह प्रेयसी हंसने लगी। उसने कहा कि क्या सोचते होमुझे क्या भ्रम समझते हो?
वह कैप गया। उसने कहातू लेकिन आई कैसे और मैं तुझी को पत्र लिख रहा था। पागलतूने रोका क्यों नहींतू सामने थी और मैं तुझी को पत्र लिख रहा था।
परमात्मा सामने है और हम उसी से प्रार्थना कर रहे हैं कि मिलोहे प्रभु तुम कहां होआंखों से आंसू बह रहे हैंलेकिन हमारी आंसुओ की दीवाल के कारणजो सामने हैदिखाई नहीं पड़ रहा है। हम उसी को तलाश रहे हैं। तलाश के कारण ही हम उसे खो रहे हैं।
अष्टावक्र की बात तो बड़ी सीधी—साफ है। वे कहते हैं. बंद करो यह लिखा—पढ़ी! बंद करो अनुष्ठान!
समाधि घटती नहीं। हीअगर समाधि भी एक घटना होतीतो फिर कार्य—कारण से घटती। कार्य—कारण से घटती तो बाजार की चीज हो जाती। समाधि अछूती और कुंआरी हैबाजार में बिकती नहीं। तुमने कभी खयाल कियातुम्हारा बाजारू दिमाग परमात्मा को भी बाजार में रख लेता है! तुम सोचते हो कि इतना करेंगे तो परमात्मा मिल जाएगाजैसे कोई सौदा है! पुण्य करेंगे तो परमात्मा मिल जाएगा। तुम्हारे तथाकथित साधु—संत भी तुमसे यही कहे चले जाते हैं : पुण्य करोअगर परमात्मा को पाना है। जैसे परमात्मा को पाने के लिए कुछ करना पड़ेगा! जैसे परमात्मा बिना किये मिला हुआ नहीं है! जैसे परमात्मा को खरीदना हैमूल्य चुकाना पड़ेगा। इतने पुण्य करोइतनी तपश्चर्याइतना ध्यानइतना मंत्रजपतप—तब मिलेगा! बाजार में रख लिया तुमने। बिकने वाली एक चीज बना दी। खरीददार खरीद लेंगे। जिनके पास है पुण्यवे खरीद लेंगे। जिनके पास पुण्य नहीं है वे वंचित रह जायेंगे। पुण्य के सिक्के चाहिएखनखनाओ पुण्य के सिक्केतो मिलेगा।
अष्टावक्र कह रहे हैं. क्या पागलों जैसी बात कर रहे होपुण्य से मिलेगा परमात्मातब तो खरीददारी हो गई। पूजा से मिलेगा परमात्मातो तुमने तो खरीद लिया। प्रसाद कहां रहाऔर जो कारण से मिलता हैवह कारण अगर खो जायेगातो फिर खो जायेगा। जो अगर कारण से मिलता होतो कारण के मिट जाने से फिर छूट जायेगा।
तुमने धन कमा लिया। तुमने खूब मेहनत कीतुमने खूब स्पर्धा की बाजार में—धन कमा लिया। लेकिन क्या तुम सोचते होधन कमाया हुआ टिकेगा?चोर इसे चुरा सकते हैं। चोर का मतलब हैजो तुमसे भी ज्यादा जीवन को दाव पर लगा देता है। दुकानदार भी मेहनत करता हैलेकिन चोर अपने जीवन को भी दाव पर लगा देता है। वह कहता हैलो हम मरने—मारने को तैयार हैंलेकिन लेकर जायेंगे। तो वह ले जाता है।
जो कारण से मिला हैवह तो छूट सकता है। परमात्मा अकारण मिलता है। लेकिन हमारा अहंकार मानता नहीं। हमारा अहंकार कहता हैअकारण मिलता हैतो इसका मतलब यह कि जिन्होंने कुछ भी नहीं कियाउनको भी मिल जायेगायह बात हमें बड़ी कष्टकर मालूम होती है कि जिन्होंने कुछ भी नहीं कियाउनको भी मिल जायेगा।
वहां सामने 'अरूपबैठे हंस रहे हैं। वे कल मुझसे कह रहे थे कि कुछ करने का मन नहीं होता। मैंने कहाचलो न करने में डूबो। परमात्मा को पाने के लिए करने की जरूरत क्या हैकहो भी तो भरोसा नहीं आता। क्योंकि हमारा मन कहता हैबिना कियेबिना किये तो क्षुद्र चीजें नहीं मिलतीं— मकान नहीं मिलता,कार नहीं मिलतीदुकान नहीं मिलतीधनपदप्रतिष्ठा नहीं मिलती—परमात्मा मिल जायेगा बिना कियेभरोसा नहीं आता। करना तो पड़ेगा ही। कोई तरकीब होगी इसमें। इस 'न करनेको भी करना पड़ेगा। इसलिए तो हम ऐसे—ऐसे शब्द बना लेते हैं—कर्म में अकर्मअकर्म में कर्म—मगर हम कर्म को डाल ही देते हैं।'अकर्म में कर्म'—करेंगे इस भांतिमगर करेंगे जरूर! बिना किये कहीं मिलेगा?
मैं तुमसे कहता हूं वही अष्टावक्र कह रहे हैं. मिला ही हुआ है। मिलने की भाषा ही गलत है। मिलने की भाषा में तो दूरी आ गईजैसे छूट गया। छूट जाये तो तुम क्षण भर जी सकते हो ई परमात्मा से छूट कर कैसे जीयोगेपरमात्मा से छूट कर तो तुम्हारी वही गति हो जायेगी जो मछली की सागर से छूट कर हो जाती है। फिर मछली तो सागर से छूट भी सकती हैक्योंकि सागर के अलावा कुछ और स्थान भी हैलेकिन तुम परमात्मा से कैसे छूटोगे—वही हैबस वही हैसब जगह वही हैसब जगह उसी में हैतुम छूटोगे कहांतुम जाओगे कहाकिनारा है कोई परमात्मा कासागर ही सागर है। उसके बाहर होने का उपाय नहीं है।
अष्टावक्र तुमसे कह रहे हैं कि तुम उससे कभी दूर गए ही नहीं होइसलिए घट सकता है अकारण। खोया ही न हो तो मिलना हो सकता है अकारण।
संबोधि कोई घटना नहीं हैस्वभाव है। लेकिनऐसा कहीं हो सकता है कि बिना किये प्रसाद बरस जाये?
हम बड़े दीन हो गए हैं। दीन हो गए हैं जीवन के अनुभव से। यहां तो कुछ भी नहीं मिलता बिना कियेतो हम बड़े दीन हो गए हैं। हम तो सोच भी नहीं सकते कि परमात्माऔर बिना किये मिल सकता है। हमारी दीनता सोच नहीं सकती।
हम दीन नहीं हैं। इसलिए तो जनक कहते हैं कि 'अहो! मैं आश्चर्य हूं! मुझको मेरा नमस्कार! मुझको मेरा नमस्कार! इसका अर्थ हुआ कि भक्त और भगवान दोनों मेरे भीतर हैं। दो कहना भी ठीक नहींएक ही मेरे भीतर हैभूल से उसे मैं भक्त समझता हूंजब भूल छूट जाती है तो उसे भगवान जान लेता हूं।
ऐसा ही समझो कि तुम्हारे कमरे में तुमने दो कुर्सियां ले जा कर रखींफिर और दो कुर्सियां ले जा कर रखींगलती से तुम ने जोड़ लीं पांचमगर कमरे में तो चार ही हैं। तुम चाहे गलती से पांच जोड़ो चाहे छहचाहे पचास जोड़ोतुम्हारे गलत जोड़ने से कमरे में कुर्सियां पांच नहीं होतींकुर्सियां तो चार ही हैंतुम चाहे तीन जोड़ो चाहे पांच जोड़ो। तुम्हारा तीन—पांच तुम जानोकुर्सियों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ताकुर्सियां तो चार ही हैं।
यह तुम जो सोच रहे हो कि परमात्मा को खोजना हैयह तुम्हारा तीन—पांच है। परमात्मा तो मिला ही हुआ हैकुर्सियां तो चार ही हैं। जब भी गणित ठीक बैठ जायेगातुम कहोगेअहो! पहले पांच कुर्सियां थींअब चार हो गईं—ऐसा तुम कहोगेतुम कहोगेबड़ी भूल हो रही थीकुर्सियां तो सदा से चार थींमैंने पांच जोड़ ली थीं। भूल सिर्फ जोड़ने की थी।
भूल अस्तित्व में नहीं है—भूल केवल स्मरण में है। भूल अस्तित्व में नहीं है—भूल केवल तुम्हारे गणित में है। भूल ज्ञान में है।
इसलिए अष्टावक्र कहते हैंकुछ करने का सवाल नहीं है। पांच कुर्सियों को चार करने के लिए एक कुर्सी बाहर नहीं ले जानी हैया तीन तुमने जोड़ी हैंतो चार करने को एक बाहर से नहीं लानी है—कुर्सियां तो चार ही हैं। सिर्फ भूल है जोड़—तोड़ की। जोड़—तोड़ ठीक बिठा लेना है। तो जब जोड़ ठीक बैठ जायेगा,तब तुम क्या कहोगे कि अकारण तीन से कुर्सियां चार हो गईंअकारण पांच से चार हो गईंनहींतब तुम हसोगे। तुम कहोगेहोने की तो बात ही नहींवे थीं ही;भूल सिर्फ हम सोचने की कर रहे थेसिर्फ भूल मन की थीअस्तित्व की नहीं थी।
भक्त तुम अपने को जानते हो—यह जोड़ की भूल। इसलिए तो जनक कह सके. अहो! मेरा मुझको नमस्कार! कैसा पागल मैं! कैसा आश्चर्य कि अपने ही माया—मोह में भटका रहा! जो सदा था उसे न जानाऔर जो कभी भी नहीं थाउसे जान लिया! रस्सी में सांप देखा! सीपी में चांदी देखी! किरणों के जाल से मरूद्यान के भ्रम में पड़ गयाजल देख लिया! जो नहीं थादेखा! जो थावह इस माया मेंझूठे भ्रम में छिप गया और दिखाई न पड़ा!
संबोधि महान घटना हैक्योंकि घटना ही नहीं है। संबोधि महान घटना हैक्योंकि कार्य—कारण के बाहर है। संबोधि घटी ही हुई है। तुम्हें जिस क्षण तैयारी आ जायेतुम्हें जिस क्षण हिम्मत आ जायेजिस क्षण तुम अपनी दीनता छोड़ने को तैयार हो जाओऔर जिस क्षण तुम अपना अहंकार छोड़ने को तैयार हो जाओ—उसी क्षण घट जायेगी। न तुम्हारे तप पर निर्भर हैन तुम्हारे जप पर निर्भर है। जप—तप में मत खोये रहना।
मैं एक घर में मेहमान हुआ एक बार। तो वह पूरा घर पुस्तकों से भरा था। मैंने पूछा कि बड़ा पुस्तकालय हैघर के मालिक ने कहाबड़ा पुस्तकालय नहीं हैबस इन सब किताबों में राम—राम लिखा है। बस मैं जनम भर से यही कर रहा हूं पुस्तकें खरीदता हूं,राम—राम—राम—राम दिन भर ल्रिखता रहता हूं। इतने करोड़ बार लिख चुका हूं! इसका कितना पुण्य होगाआप तो कुछ कहें।
इसका क्या पुण्य होगाइसमें पाप भला हो! इतनी कापियां बच्चों के काम आ जातीं स्कूल मेंतुमने खराब कर दीं—तुम पूछ रहे हो पुण्यतुम्हारा दिमाग खराब हैयह राम राम लिखने से किताबों में.!
उनको बड़ा धक्का लगाक्योंकि संत और भी उनके यहां आते रहते थेवे कहते थे. बड़े पुण्यशाली हो! इतनी बार राम लिख लियाइतनी बार माला जप लीइतनी बार राम का स्मरण कर लिया—अरे एक बार करने से आदमी स्वर्ग पहुंच जाता हैतुमने इतना कर लिया! मुझसे नाराज हुएतो फिर मुझे कभी दोबारा नहीं बुलाया—यह आदमी किस काम काजो कहता है पाप हो गयाउनको बड़ा धक्का लगा। उन्होंने कहा आप हमारे भाव को बड़ी चोट पहुंचाते हैं।
तुम्हारे भाव को चोट नहीं पहुंचातासिर्फ इतना ही कह रहा हूं कि यह क्या पागलपन हैराम—राम लिखने से क्या मतलबजो लिख रहा हैउसको पहचानोवह राम हैउसको कहां के काम में लगाए हुए होराम—राम लिखवा रहे हो! बोलोराम को फंसा दोबिठा दो कि लिखोछोड़ो धनुष—बाणपकड़ो कलमलिखो राम—रामयह कहां फिर रहे हो सीता की तलाश में और यह क्या कर रहे हो—तो पाप होगा कि पुण्यऔर रामचंद्र जी अगर भले आदमी मान लें कि चलो ठीक हैअब यह आदमी पीछे पड़ा हैन लिखें तो बुरा न मान जायेतो बैठ राम—राम लिख रहे हैं—तों उनका जीवन तुमने खराब किया।
तुम भी जब लिख रहे हो तो तुम राम से ही लिखवा रहे हो। यह कौन है जो लिख रहा हैइसे पहचानो। यह कौन है जो रटन लगाये हुए है राम—राम की?यह कहां उठ रही है रटउसी गहराई में उतरो। अष्टावक्र कहते हैंवहां तुम राम को पाओगे।

दूसरा प्रश्न :

कल आपने कहा कि हृदय के भाव पर बुद्धि का अंकुश मत लगाओ। लेकिन मुझे तो भगवान श्रीआपके प्रवचन बहुत— बहुत तर्कपूर्ण लगते हैं। तो क्या तर्क की संतुष्टि से दिमाग की पुष्टि होती हैतो क्या मेरे लिए को दबा डालेयह खतरा नहीं है कि तर्क—पोषित दिमागदिल पर हावी हो जाये और भावों की अनुभूति कृपाकर मुझे राह बताएं।


मैं जो बोल रहा हूं वह निश्चित ही तर्कपूर्ण हैलेकिन सिर्फ तर्कपूर्ण ही नहीं हैथोड़ा ज्यादा भी है। तर्कपूर्ण बोलता हूं—तुम्हारे कारणथोड़ा ज्यादा जो है—वह मेरे कारण। तर्कपूर्ण न बोलूंगातुम समझ न पाओगे। वह जो तर्कातीत हैवह न बोलूंगातो बोलूंगा ही नहींबोलने में सार क्या फिर?
तो जब मैं बोल रहा हूं तो मेरे बोलने में दो हैंतुम हो और मैं हूंसुनने वाला भी है और बोलने वाला भी है।
अगर मेरा बस चलेतब तो मैं तर्कातीत ही बोलूं तर्क बिलकुल छोड़ दूंलेकिन तब तुम मुझे पागल समझोगे। तब तुम्हारी समझ में कुछ भी न आयेगा। तब तो तुम्हें लगेगायह तो तर्क—शून्य शोरगुल हो गया। तुम्हारी तर्क—सरणी में बैठ सकेइसलिए तर्कपूर्ण बोलता हूं। लेकिन अगर उतना ही तुम्हें समझ में आयेतो तुम बेकार आए और गए।
ऐसा समझो कि जैसे चम्मच में हम दवा भरते हैं और तुम्हारे मुंह में डाल देते हैं—चम्मच नहीं डाल देते। तर्क की चम्मच में जो तर्कातीत हैवह डाल रहा हूं। तुम चम्मच मत गटक जानानहीं तो और झंझट में पड़ जाओगे। चम्मच का उपयोग कर लो र लेकिन चम्मच में जो भरा हैउस रस को पीयो। तर्क की तो चम्मच है,तर्क का तो सहारा हैक्योंकि तुम अभी इतनी हिम्मत में नहीं हो कि तर्कातीत को सुन सको।
अगर तर्कातीत ही सुनना है तो पक्षियों के गीत सुन कर भी वही काम हो जायेगा जो अष्टावक्र की गीता सुनने से होता है! वे तर्कातीत हैं। हवाओं का वृक्षों से गुजरनासरसराहट की आवाजसूखे पत्तों का राह पर उड़नाखड़खड़ाहट की आवाजनदी की धारा में उठती आवाजआकाश में मेघों का गर्जन—वह सब तर्कातीत है। अष्टावक्र बोल रहे आठों दिशाओं सेसब ओर से! मगर वहां तुम्हें कुछ समझ में न आयेगा। यह चिड़ियों की चहचहाहटतुम कितनी देर सुन सकोगे?तुम कहोगेहो गई बकवासथोड़ा बहुत सुन लोठीक है—लेकिन इस चहचहाहट में कुछ अर्थ तो है ही नहीं! वह जो तर्कातीत हैवह तो चिड़ियों की चहचहाहट जैसा ही हैलेकिन तुम्हारे तक पहुंचाने के लिए सेतु बनाता हूं तर्क का।
अब अगर तुम सेतु को ही पकड़ लो और मंजिल को भूल जाओशब्द को ही पकड़ लोऔर शब्द से जो पहुंचाया था वह भूल जाओ—तो तुम कंकड़—पत्थर बीन कर चले गएजहां से हीरे— जवाहरात से झोली भर सकते थे।
मित्र ने पूछा है, 'हृदय के भाव पर बुद्धि का अंकुश मत लगाओऐसा आप कहते हैं।'
निश्चित। बुद्धि से समझोलेकिन हृदय को मालिक रहने दो। बुद्धि को गुलाम बनाओहृदय को मालिक के सिंहासन पर विराजमान करो। नौकर बहुत दिन सिंहासन पर बैठ चुका है। बुद्धि के लिये तुम नहीं जीते होजीते तो हृदय के लिए हो। इसलिए तो बुद्धि से कभी भराव नहीं आता। कितने ही बड़े गणितज्ञ हो जाओउससे थोड़े ही हृदय को शांति मिलेगी! और कितने ही बड़े तर्कनिष्ठ विचारक हो जाओउससे थोड़े ही प्रफुल्लता जगेगी! और कितना ही दर्शन—शास्त्र इकट्ठा कर लोउससे थोड़े ही समाधि बनेगी! हृदय मांगेगा प्रेमहृदय मांगेगा प्रार्थना। हृदय की अंतिम मांग तो समाधि की रहेगीकि लाओ समाधिलाओ समाधि! बुद्धि ज्यादा से ज्यादा समाधि के संबंध में तर्कजाल ला सकती हैसमाधि के संबंध में सिद्धात ला सकती हैलेकिन सिद्धातों से क्या होगा?
कोई भूखा बैठा हैतुम पाक—शास्त्र देते हो उसे कि इसमें सब लिखा हैपढ़ लोमजा करो! वह पढ़ता भी है कि भूख लगी हैचलो शायद यही काम करे। बड़े—बड़े सुस्वादु भोजनों की चर्चा है—कैसे बनाओकैसे तैयार करो—मगर इससे क्या होगावह पूछता है कि पाक—शास्त्र से क्या होगाभोजन चाहिए। भूखे को भोजन चाहिए। प्यासे को पानी चाहिए।
तुम प्यासे आदमी को लिख कर दे दो—उसको लगी है प्यास और तुम लिख कर दे दो 'एच टू ओं'—यह पानी का सूत्र! वह आदमी कागज लेकर बैठा रहेगाक्या होगाऐसे ही तो लोग राम—राम लिए बैठे हैं। सब मंत्र 'एच टू ओजैसे हैं। निश्चित ही पानी आक्सीजन और हाइड्रोजन से मिल कर बनता हैलेकिन कागज पर 'एच टू ओलिखने से प्यास नहीं बुझती।
तर्क से समझोहृदय से पीयो। तर्क का सहारा ले लोलेकिन बस सहारा ही समझनाउसी को सब कुछ मत मान लेना। मालिक हृदय को रहने दो। प्रेम और प्रार्थना मेंपूजा और अर्चना मेंध्यान और समाधि मेंबुद्धि बाधा न देइसका स्मरण रखना। सहयोगी जितनी बन सकेउतना शुभ है। इसलिए तो तर्क के सहारे तुमसे बोलता हूं कि तुम्हारी बुद्धि को फुसला लूं राजी कर लूं। तुम दो कदम राजी होकर हृदय की तरफ चले जाओ। वहां थोड़ा—सा भी स्वाद आ जायेगातो मगन हो जाओगे। फिर तुम खुद ही बुद्धि की चिंता छोड़ दोगे। स्वाद जब आ जाता है तो शब्दों की कौन फिक्र करता है!
'लेकिन मुझे तो भगवान श्रीआपके प्रवचन बहुत—बहुत तर्कपूर्ण लगते हैं। '
वे तर्कपूर्ण हैं। मेरी पूरी चेष्टा है कि तुम से जो कहूं वह तर्कपूर्ण होताकि तुम राजी हो सको मेरे साथ चलने को। एक बार राजी हो गएफिर तो गड्डे में गएफिर तो तुम्हारी पटरी उतार दूंगा! एक बार राजी भर हो जाओएक बार हाथ में हाथ आ जायेफिर कोई चिंता नहीं है। एक दफे तुम्हारा हाथ हाथ में आ गया तो तुम ज्यादा देर हाथ के बाहर न रहोगे। पहुंचा पकड़ाफिर कलाई पकड़ लीफिर... आदमी गया!
तो तर्क से तो पहला संबंध बनाता हूं क्योंकि वहा तुम जी रहे होवहीं से संबंध बन सकता हैवहां तुम हो। इसलिए मेरे पास नास्तिक भी आ जाते हैं;मुझसे नास्तिक भी राजी हो जाते हैं। मुझसे नास्तिक को कोई झगड़ा नहीं होताक्योंकि मैं नास्तिक की भाषा बोलता हूं। मगर वह तो जाल है। वह भाषा तो जाल है। वह तो ऐसे ही है जैसे हम मछली पकड़ने जाते हैंतो काटे पर आटा लगा देते हैं। वह तो आटा है। अगर बचना हो तो आटे ही से बच जानाक्योंकि आटा मुंह में लियातब पता चलेगा कि यह तो काटा था।
तर्क तो आटा हैतर्कातीत काटा है। तुम्हें फुसलाते हैंकड़वी भी दवा पिलानी हो तो शक्कर की पर्त चढ़ाते हैं। छोटे—छोटे बच्चों जैसी हालत है आदमी कीवह शक्कर के रस में कड़वी दवा भी गटक जाता है। जहर भी पी सकते हो तुम। लेकिन अगर सीधा ही तुम्हारे सामने तर्कातीत को खड़ा कर दिया जाये तो तुम भाग खड़े होओगे। तुम कहोगे, 'नहीं इस पर तो हमारी बुद्धि को भरोसा नहीं आता। तो मैं तुम्हारी बुद्धि को भरोसा लाना चाहता हूं। लेकिन अगर वहीं तुम रुक गए और तुमने सोचा कि आ गया बुद्धि को भरोसाअब घर जायें—तो तुम चूक गए। तो तुमने ऐसा समझो कि दवा के ऊपर तो चढ़ी शक्कर थीउसको तो उतार कर पी लिया और दवा को फेंक दिया।
'तर्क की संतुष्टि से क्या दिमाग की पुष्टि होती है?'
तुम पर निर्भर है। अगर सिर्फ तर्क ही तर्क को सुनोगेतो दिमाग की पुष्टि होगीलेकिन तर्कों के बीच में अगर तुमने अतर्क्य को भी थोड़ा—सा जाने दिया,बूंद—बूंद सहीतो वह बूंद तुम्हारे मस्तिष्क मेंहृदय की क्रांति को उपस्थित कर देगी।
यह तुम पर निर्भर है। कुछ लोग हैंजो सिर्फ तर्क ही तर्क को सुनते हैंजो—जो तर्क के बाहर पड़ता हैउसे वे हटा देते हैं। फिर वे मेरे पास आये ही नहीं,आये या न आयेबराबर। वे जैसे आये थेवैसे ही वापस गए—और मजबूत होकर गए। उन्होंने अपने—अपने हिसाब का चुन लियामतलब की बात चुन ली। जो उनके तर्क के साथ बैठती थीवह चुन लीजो नहीं बैठती थीवह छोड़ दी। जो नहीं बैठती थी तुम्हारे तर्क के साथवही तुम्हारे भीतर क्रांति की चिनगारी बनती। जो तुम्हारे तर्क के साथ बैठती थीवह तो तुम्हीं को मजबूत करेगी। तुम्हारी बीमारीतुम्हारी चिंतातुम्हारा संतापऔर मजबूत हो जाएगा। तुम्हारा अहंकार और मजबूत हो जाएगा।
तो थोड़ी कुशलता बरतना। इसलिए तो जनक कहते हैं अष्टावक्र से : कैसी कुशलता! कि क्षण में दिखाई पड़ गया! कैसी मेरी दक्षता! कैसी मेरी निपुणता!! उस निपुणता को ध्यान में रखनाउस दक्षता को ध्यान में रखना। तुम पर निर्भर है।
यहां जो मैं बोल रहा हूं बोलना मुझ पर निर्भर हैलेकिन सुनना तो तुम पर निर्भर है। बोलने के बाद तो फिर मैंने जो कहाउस पर मेरी कोई मालकियत नहीं रह जाती। इधर बोला कि वह मेरे हाथ के बाहर हुआ। छूटा तीर! फिर तो तुम्हारे हाथ में है कि कहां लगेगाकहां तुम लगने दोगेलगने दोगे कि बच जाओगेबुद्धि में लगने दोगे? —तो तुम यहां से और भी पंडित होकर लौट जाओगेऔर तर्क—कुशल हो जाओगेविवाद में और प्रवीण हो जाओगे। मगर चूक गए तुम। हृदय में लगने देते तो तुम और आनंदित होतेतुम और अहोभाव से भरतेतो धन्यता का द्वार खुलतातो प्रसाद की वर्षा की थोड़ी संभावना बढ़तीतो अमृत की तरफ तुम थोड़े सरकतेदो कदम तुमने उठाये होते उस अंतिम पड़ाव की तरफ।
पंडित होकर मत लौट जाना। थोड़े प्रेमी होकर लौटना।
      ढाई आखर प्रेम कापढ़े सो पंडित होय।
वे ढाई अक्षर जो प्रेम के हैंवह मत भूलना।
तो सुनो मेरे तर्क कोराजी होओ मेरे तर्क से—पर साधन की भांति। साध्य यही है कि एक दिन तुम हिम्मत जुटा लोगेऔर तर्कातीत में छलांग लगा दोगे। तर्क के माध्यम से तुम्हें वहां तक ले चलूंगाजहां तक तुम्हारी बुद्धि जा सकती हैफिर सीमांत आयेगाफिर सीमा आयेगीफिर तुम्हारे ऊपर निर्भर होगा। सीमा पर खड़े होकर तुम देख लेना—अपना अतीत और अपना भविष्य। फिर तुम देख लेना—पीछे जिस बुद्धि में तुम चल कर आये होवहऔर आगे जो संभावना खुलती हैवह। आगे की संभावना हृदय की है।
विचार से कभी कोई जीवन की संपदा को उपलब्ध नहीं हुआ ध्यान सेसाक्षी— भाव सेप्रेम सेप्रार्थना सेभक्ति के रस सेकोई उपलब्ध हुआ है। फिर तुम्हारे हाथ में हैअगर तुम्हें बंजर रेगिस्तान रह जाना होतुम्हारी मर्जीतुम मालिक हो अपने।
लेकिन एक बार तुम्हें मैं किनारे तक ले आऊंजहां से तुम्हें सुंदर उपवन दिखाई पड़ने लगेंहरियालियांघाटियां और वादियांऔर पहाड़हिम—शिखर! बस एक दफे तुम्हें दिखा देना है वहा तक लाकरफिर तुम्हारी मौज! फिर लौटना तो लौट जाना। लेकिन तब तुम जानोगे कि अपने ही कारण लौटे हो। तब उत्तरदायित्व तुम्हारा है।
तो तुम्हारे तर्क को मैं वहां तक ले चलता हूं जहां से तुम्हें पहली झलक मिल जाये स्वर्ण—शिखरों कीजहां से तुम्हें पहली दफा आकाश का थोड़ा—सा दर्शन हो जायेफिर वह दर्शन तुम्हारा पीछा करेगा। फिर वह मंडरायेगा तुम्हारे भीतर। फिर वह पुकार बढ़ती चली जायेगी। फिर धीरे—धीरे जो बूंद—बूंद गिरा था,वह बड़ी धार की तरह गिरने लगेगातुम बच नहीं सकोगे। क्योंकि एक बार हृदय की थोड़ी—सी भी झलक मिल जाये तो फिर बुद्धि कूड़ा—कचरा है। जब तक झलक नहीं मिलीतब तक कूडा—कचरा ही हीरा—जवाहरात मालूम होता है।
'क्या मेरे लिए यह खतरा नहीं है कि तर्क—पोषित दिमाग दिल पर हावी हो जाये?'
खतरा है। जरा सजगता रखना। हम चाहें तो राह में पड़े हुए पत्थर को बाधा बना सकते हैंऔर वहीं रुक जायेंऔर हम चाहें तो राह में पड़े पत्थर को सीढ़ी बना सकते हैंउस पर चढ़ जायें और पार हो जायें। तुम पर निर्भर है कि तुम तर्क—पोषित मस्तिष्क को बाधा बनाओगे कि सीढ़ी बनाओगे। जिन्होंने सीढ़ी बनाईवे महायात्रा पर निकल गएजिन्होंने बाधा बना लीवे डबरे बन कर रह गए।
नास्तिक एक डबरा है। आस्तिक सागर की तरफ दौड़ती हुई सरिता है। नास्तिक सड़ता है। जैसे ही पानी की धारा बहने से रुक जाती हैवैसे ही सड़ांध शुरू हो जाती है। पानी निर्मल होता हैजब बहता रहता है। लेकिन बहने के लिये तो सागर चाहिएनहीं तो बहोगे क्योंबहने के लिए परमात्मा चाहिएनहीं तो बहोगे क्योंकुछ है ही नहीं पाने कोकुछ है ही नहीं होने को—जो हो गयाबस वही काफी है...।
इसे खयाल रखनादुनिया में दो तरह के लोग हैंदुनिया दो तरह के वर्गों में विभाजित है। एक वर्ग हैजो बाहर की चीजों से कभी संतुष्ट नहीं—यह मकान,तो दूसरा चाहिएइतना धनतो और धन चाहिएयह स्त्रीतो और तरह की स्त्री चाहिए—जो बाहर की चीजों से कभी संतुष्ट नहींऔर भीतरजिसके भीतर कोई असंतोष नहीं। भीतरजिसके भीतर असंतोष उठता ही नहींबस बाहर ही बाहर असंतोष है। यह सांसारिक आदमी है। फिर एक और दूसरी तरह का आदमी हैजो बाहर जो भी हैउससे संतुष्ट हैलेकिन भीतर जो हैउससे संतुष्ट नहीं है। उसके भीतर एक ज्वाला है—एक दिव्य असंतोष। वह सतत प्रक्रिया मेंसतत रूपांतरण मेंसतत क्रांति में जीता है।
तर्क—निष्ठता तुम्हारी क्रांति में सहयोगी बनेतुम्हें रूपांतरित करे—इतना खयाल रखना। जहां तर्क पत्थर बनने लगे और क्रांति में रुकावट डालने लगेवहा तर्क को छोड़नाक्रांति को मत छोड़ना। मैं कह सकता हूं अंतिम निर्णय तुम्हारे हाथ में है।
      अक्ल की सतह से कुछ और उभर जाना था,
      इश्क को मंजिले—परस्ती से गुजर जाना था;
      ये तो क्या कहिएचला था मैं कहां से हमदम,
      मुझको ये भी न था मालूमकिधर जाना था।
बुद्धि को कुछ भी पता नहीं है कि कहां जाना है! इसलिए बुद्धि कहीं जाती ही नहींघूमती रहती है कोल्हू के बैल की तरह। कोल्हू का बैल देखाआंख पर पट्टी बंधी रहतीघूमता रहता है! आंख पर पट्टी बंधी होने से उसे लगता है कि चल रहे हैंकहीं जा रहे हैंकुछ हो रहा है।
तुमने देखातुम कैसे घूम रहे हो! वही सुबहवही उठनावही दिन का कामवही सांझवही रातवही सुबह फिरफिर वही सांझ—यूं ही उम्र तमाम होती हैफिर सुबह होती हैफिर शाम होती है! एक कोल्हू के बैल की तरह तुम घूमते चले जाते हो।
      ये तो क्या कहिएचला था मैं कहां से हमदम,
      मुझको ये भी न था मालूमकिधर जाना था।
      अक्ल की सतह से कुछ और उभर जाना था,
      इश्क को मंजिले—परस्ती से गुजर जाना था।
जब तुम बुद्धि की सतह से थोड़ा ऊपर उठते होतब आकाश में उठते होपृथ्वी छूटती हैसीमा छूटती हैअसीम आता हैबंधन गिरतेमोक्ष की थोड़ी झलक मिलती।
      इश्क को मंजिले—परस्ती से गुजर जाना था।
फिर एक ऐसी घड़ी भी आती है—पहले तो बुद्धि से तुम हृदय की तरफ आते हो—फिर एक ऐसी घड़ी आती हैहृदय से भी गहरे जाते हो।
      इश्क को मंजिले—परस्ती से गुजर जाना था।
फिर प्रेमप्रेम—पात्र से भी मुक्त हो जाता है। फिर भक्तभगवान से भी मुक्त हो जाता है। फिर पूजकपूजा से भी मुक्त हो जाता है।
तो पहले तो तर्क से चलना है प्रेम की तरफ और फिर प्रेम से चलना है शून्य की तरफ। उस महाशून्य में ही हमारा घर है।
बुद्धि में तुम होहृदय में तुम्हें होना है। इसलिए बुद्धि से मैं शुरू करता हूं हृदय की तरफ तुम्हें ले चलता हूं। जो हृदय में पहुंच गए हैंउनको वहां भी नहीं बैठने देता। उनको कहता हूं. चलो आगेऔर आगे!
      हर नये क्षण को पुराने की तरह
      एक परिचित प्रीति गाने की तरह
      वक्ष में भरतार पर तार बोते चलो!
      और बीती रागिनी रीते नहीं
      इस तरह हर तार के होते चलो!
नये कदम अज्ञात मेंअनजान मेंअपरिचित में उठाना है! परिचित में ही मत अटके रह जाना। बुद्धि का क्या अर्थ होता हैतुमने सोचा कभी? —जो तुम जानते हो उसका जोड़। बुद्धि का क्या अर्थ होता है? —इतना ही कि तुम्हारा अतीत का संग्रह। बुद्धि में वही तो संगृहीत है जो तुमने सुनापढ़ाजानाअनुभव किया;जो हो चुकावही तो संगृहीत है। जो अभी होने को हैउसका तो बुद्धि को कोई भी पता नहीं।
तो बुद्धि तो अतीत है—जा चुकामृत! बुद्धि तो राख है! बुद्धि में ही अटक गएतो तुम अतीत के ही रास्तों पर भटकते रहोगेज्ञात में ही चलते रहोगे। अज्ञात में गति हैज्ञात में गति नहीं हैकोल्हू के बैल की तरह भ्रमण है।
हृदय का अर्थ है. अज्ञातअनजानअपरिचितअभियान! पता नहीं क्या होगापक्का नहींक्योंकि जाना ही नहीं कभी तो पक्का कैसे होगानक्यग़ हाथ में नहींअज्ञात की यात्रा है। न मील के पत्थर हैं वहांन राह पर खड़े पुलिस के सिपाही हैं मार्ग बताने को।
लेकिन जो आदमी अज्ञात की तरफ यात्रा करता हैवही परमात्मा की तरफ यात्रा करता है। परमात्मा इस जगत में सबसे ज्यादा अज्ञात घटना है—जिसे हम जान कर भी कभी जान नहीं पातेजो सदा अनजाना ही रह जाता हैजानते जाओजानते जाओफिर भी अनजाना रह जाता है। जितना जानोउतना ही लगता हैऔर जानने को शेष है। चुनौती बढ़ती ही जाती है। शिखर पर नये शिखर उभरते ही आते हैं। एक शिखर पर चढ़ते वक्त लगता है कि आ गई मंजिलजब शिखर पर पहुंचते है, तो सिर्फ और बड़ा शिखर आगे दिखाई पड़ता है। एक द्वार से गुजरते हैंनये द्वार सामने आ जाते है।

इसलिए तो हम परमात्मा को अनंत रहस्य कहते हैं। रहस्य का अर्थ है. जिसे हम जान भी लेंगेफिर भी जान न पायेंगे। इसलिए तो हम कहते हैंपरमात्मा बुद्धि से कभी उपलब्ध नहीं होता। क्योंकि बुद्धि तो उसी को जान सकती हैजो जानने में चुक जाता हैपरमात्मा चुकता नहीं।
तो तुम चुक मत जाना बुद्धि के साथ। तुम मुर्दा अतीत के साथ बंधे मत रह जाना। तुम किसी लाश से अपने को बांध लोतो तुमको समझ में आयेगा कि बुद्धि की क्या हालत है। एक लाश से अपने शरीर को बांध लोतो वह लाश तो मरी हुई हैउसकी वजह से तुम भी न चल पाओगेउठ न पाओगेबैठ न पाओगे;क्योंकि वह लाश सड़ रही हैगल रही है और वह बोझ बनी है। बुद्धि लाश हैहृदय नया अंकुर है—नव अंकुर जीवन के! और जाना तो है हृदय के भी पार।
      हर नये क्षण को पुराने की तरह
      एक परिचित प्रीति गाने की तरह
      वक्ष में भरतार पर तार बोते चलो!
      और बीती रागिनी रीते नहीं
      इस तरह हर तार के होते चलो!
हर नये कदम के होते चलो। और हर आने वाली संभावनाओं के लिए वक्ष खुला रखो— स्वागतम! हृदय तैयार रखो!
अनजान जब पुकारे तो सकुचाना मत। अपरिचित जब बुलाये तो ठिठकना मत। अज्ञेय जब द्वार पर दस्तक दे तो भयभीत मत होनाचल पड़ना। यही धार्मिक व्यक्ति का लक्षण है।

तीसरा प्रश्न :

आपकी जय हो! मैं हजार जन्मों में भी इतना नहीं प्राप्त कर सकता थाजितना
आपने अनायास मुझे दे दिया है। मुझे अपने शिष्य के रूप में स्वीकार करें!

लिया तुमनेतो शिष्य हो गये। शिष्य का होना मेरी स्वीकृति पर निर्भर नहीं हैशिष्य का होना तुम्हारी स्वीकृति पर निर्भर है। शिष्य का अर्थ होता है : जो सीखने को तैयार है। शिष्य का अर्थ होता है : जो झुकने कोझोली भरने को राजी है। शिष्य का अर्थ होता है : विनम्रता से सुनने कोशांत भाव से मनन करने कोध्यान करने को उत्सुक।
तुम शिष्य हो गए—अगर तुमने लियातो लेने में ही तुम शिष्य हो गए।
शिष्य का होना मेरी स्वीकृति पर निर्भर नहीं होता। मैं स्वीकार भी कर लूं और तुम अगर न लोतो मैं क्या करूंगामैं स्वीकार न भी करूं और तुम लेते चले जाओतो मैं क्या करूंगा?
शिष्यत्व तुम्हारी स्वतंत्रता है। यह किसी का दान नहीं है। शिष्यत्व तुम्हारी गरिमा है। इसके लिए किसी प्रमाण—पत्र की जरूरत नहीं है। इसलिए तो एकलव्य जंगल में भी जाकर बैठ गया था। देखा! द्रोणाचार्य ने तो इनकार भी कर दिया थाफिर भी उसने फिक्र न की। गुरु ने तो इनकार ही कर दियालेकिन शिष्यशिष्य बनने को राजी थातो गुरु क्या कर सकाएक दिन गुरु ने पाया कि गुरु को हरा दिया शिष्य ने। एकलव्य तो मिट्टी की मूर्ति बनाकर बैठ गयाउसी के सामने अभ्यास करने लगाउसी की आज्ञा मानने लगाउसी के चरण छूने लगा।
जब द्रोण को खबर लगी कि एकलव्य बहुत निष्णात हो गया है तो वे देखने गए। चकित हो गएचकित ही न हुएघबड़ा भी गए। इतने घबड़ा गए,क्योंकि एकलव्य ने इस तरह साधा था कि अर्जुन फीका पड़ता था। द्रोण कोई बहुत बड़े गुरु न रहे होंगेएकलव्य बहुत बड़ा शिष्य था। द्रोण तो साधारण गुरु रहे होंगे—अति साधारण! गुरु कहे जा सकेंऐसे गुरु नहीं। कुशल होंगेपारंगत होंगेलेकिन गुरुत्व की बात नहीं थी कुछ भी। पहले तो इसलिए इनकार कर दिया कि वह शूद्र था। यह भी कोई गुरु की बात हुईअभी भी गुरु को ब्राह्मण और शूद्र दिखाई पड़ते हैं! नहींदुकानदार रहे होंगेबाजारी बुद्धि रही होगी। क्षत्रियों के गुरु,शूद्र को कैसे स्वीकार करें! समाज से बहुत घबड़ाये हुए रहे होंगे। समाज—पोषकऔर समाज के नियंत्रण में रहे होंगे। क्षुद्र बुद्धि के रहे होंगे।
जिस दिन द्रोण ने एकलव्य को इनकार किया कि वह शूद्र थाउसी दिन द्रोण शूद्र हो गए। यह कोई बात हुईलेकिन अदभुत था एकलव्य! गुरु के इनकार की भी फिक्र न की। उसने तो मान लिया था हृदय में गुरु—बात हो गई थी। गुरु के इनकार ने भी उसकी गुरु की प्रतिमा खंडित न की। अनूठा शिष्य रहा होगा।
और फिर बेईमानी की हद हो गई एकलव्य को जब प्रतिष्ठा मिल गई और जब उसकी कुशलता का आविर्भाव हुआतो द्रोण कैप गएक्योंकि वे चाहते थेउनका शिष्य अर्जुन जगत में ख्यातिलब्ध हो। यह भी उनका ही शिष्य थालेकिन उनकी अस्वीकृति से थाइसमें तो गुरु की बड़ी हार थी। गुरु जिसको सिखा—सिखा करप्राणपण लगाकरसारी चेष्टा में संलग्न थेवह भी फीका पड़ रहा था इस आदमी के सामने—जिसने सिर्फ मिट्टी की अनगढ़ प्रतिमा बना ली थी अपने ही हाथों से और उसी के सामने अभ्यास कर—करके कुशलता को उपलब्ध हुआ था। उससे अंगूठा मांग लिया।
बड़ी आश्चर्य की बात है दीक्षा देने को तैयार न हुए थेदक्षिणा लेने पहुंच गए! लेकिन अदभुत शिष्य रहा होगा एकलव्य. जिसने दीक्षा देने से इनकार कर दिया थाउसको उसने दक्षिणा देने से इनकार न किया। एकलव्य जैसा शिष्य ही शिष्य है। उसने तत्क्षण अपना अंगूठा काट कर दे दिया। दाये हाथ का अंगूठा मांगा था—चालबाजी थीराजनीति थी कि अंगूठा कट जायेगातो एकलव्य की धनुर्विद्या व्यर्थ हो जायेगी।
ये द्रोण निश्चित ही दुष्ट प्रकृति के व्यक्ति रहे होंगे। गुरु तो दूरइनको सज्जन कहना भी कठिन है। यह भी क्या चाल खेली और भोले — भाले शिष्य से खेली! और फिर भी हिंदू द्रोण को गुरु माने चले जाते हैंगुरु कहे चले जाते हैं। सिर्फ ब्राह्मण होने से थोड़े ही कोई ब्राह्मण होता है?
ब्राह्मण था एकलव्य और द्रोण शूद्र थे। उनकी वृत्ति शूद्र की है। उस ब्राह्मण एकलव्य ने काट कर दे दिया अपना अंगूठाजरा भी ना—नुच न की। यह भी न कहा कि यह क्या मांगते हैं आपदेते वक्त इनकार किया था। तुमसे मैंने कुछ सीखा भी नहीं है।
नहींलेकिन यह बात ही गलत थी। यह तो उसके मन में भी न उठी। उसने तो कहासीखा तुम्हीं से है। तुम्हारे इनकार करने से क्या फर्क पड़ता हैसीखा तो तुम्हीं से है! तुम इनकार करते रहेफिर भी तुम्हीं से सीखा। देखो तुम्हारी प्रतिमा बनाये बैठा हूं तो तुम्हारा ऋणी हूं। अंगूठा मांगते होअंगूठा तो क्या प्राण भी मांगो तो दे दूंगा। अंगूठा दे दिया।
शिष्य होना तुम पर निर्भर है। यह किसी की स्वीकृति—अस्वीकृति की बात नहीं। तो अगर तुम्हें लगता है कि खूब तुम्हें मिलातो बात हो गई। इसी भाव में गहरे बने रहना। शिष्य का भाव कभी खोना मततो अपूर्व तुम्हारा विकास होगामिलता ही चला जायेगा। शिष्यत्व तो सीखने की कला है।

चौथा प्रश्न :

सुना था कि शराब कड़वी होती है और सीने को जलाती हैपर आपकी शराब का स्वाद ही कुछ और है।

तो जिस शराब से तुम परिचित रहेवह शराब न रही होगीक्योंकि शराब न तो कड़वी होती और न सीने को जलाती। और जो सीने को जलाती है और कड़वी हैवह शराब का धोखा हैशराब नहीं। तो तुम्हें शराब का पहली दफे ही स्वाद आया।
अब झूठी शराब में मत उलझना। अब तुम पहली दफा मधुशाला में प्रविष्ट हुए। अब अपने हृदय को पात्र बनाना और जी भर कर पी लेनाक्योंकि इसी पीने से क्रांति होगी। यह शराब विस्मरण नहीं लायेगीयह शराब स्मरण लायेगी। वह शराब भी क्या जो बेहोश बना देशराब तो वहीजो होश में ला दे। यह शराब तुम्हें जगायेगी। यह शराब तुम्हें उससे परिचित करायेगीजो तुम्हारे भीतर छिपा बैठा है। यह शराब तुम्हें तुम बनायेगी।
बाहर से शायद तुम दूसरे लोगों को पियक्कड़ मालूम पड़ो—घबड़ाना मत! तुम्हारी मस्ती शायद बाहर के लोग गलत भी समझेंपागल समझेंबेहोश समझें—तुम फिक्र मत करनाकसौटी तुम्हारे भीतर है। अगर तुम्हारा होश बढ़ रहा हो तो दुनिया कुछ भी समझेतुम फिक्र मत करना।
मजाज की कुछ पंक्तियां हैं—
      मेरी बातों में मसीहाई है
      लोग कहते हैं कि बीमार हूं मैं
      खूब पहचान लो असरार हूं मैं
      जिन्से—उल्फत का तलबगार हूं मैं
      इश्क ही इश्क है दुनिया मेरी
      फितना—ए—अक्ल से बेजार हूं मैं
      ऐब जो हाफिज—ओ—खय्याम में था
      हीकुछ उसका भी गुनहगार हूं मैं
      जिंदगी क्या है गुनाहे—आदम
      जिंदगी है तो गुनहगार हूं मैं
      मेरी बातों में मसीहाई है
      लोग कहते हैं कि बीमार हूं मैं!
जीसस को भी लोग बीमार ही कहते थेमसीहा तो बड़ी मुश्किल से कहा। सुकरात को भी लोग पागल ही कहते थेतभी तो जहर दिया। मैसूर को लोगों ने बुद्धिमान थोड़े ही मानाअन्यथा फासी लगातेऔर अष्टावक्र की कथा तो मैंने तुमसे कही : खुद बाप ही इतने नाराज हो गए कि अभिशाप दे दियाकि आठ अंगों से तिरछा हो जा।
जीसस तो तैंतीस साल जमीन पर रहे तब सूली लगीसुकरात तो बूढ़ा होकर मरातब जहर दिया गयामहावीर और बुद्ध पर पत्थर फेंके गएठीक—लेकिन अष्टावक्र की तो पूछो : अभी जन्मा भी नहीं और अभिशाप मिलाअभी गर्भ में ही था कि जीवन विकृत कर दिया गया। और किसी दूसरे ने किया होता तो भी ठीक थाक्षमा—योग्य था—खुद अपने ही बाप ने कर दियाजो जन्म देने जा रहा था वही नाराज हो गया।
ज्ञान की बात लोगों को जमती नहीं। ज्ञान की बात लोगों को कष्ट देती है। मस्ती में आया हुआ आदमी लोगों को बेचैनी से भरता है। तुम दुखी होकिसी को कोई अड़चन नहींमजे से दुखी रहो। लोग कहते हैं : दिल खोल कर दुखी रहोकोई हर्जा नहीं। बिलकुल जैसा होना चाहिए वैसा हो रहा है! तुम हैंसे कि लोग बेचैन हुए। हंसी स्वीकृत नहीं है। लोगों को शक होता है कि पागल हुए! कहीं होशियार आदमी हंसते हैंकहीं समझदार आदमी हंसते देखेकहीं बुद्धिमान आदमियों को नाचते देखागीत गुनगुनाते देखाबुद्धिमान आदमी गंभीर होतेलंबे उनके चेहरे होतेउदास उनकी वृत्ति होती। उनको हम साधु—संत कहतेमहात्मा कहते। जितना रुग्ण आदमी होउतना बड़ा महात्मा हो जाता है। मुर्दे की तरह कोई बैठ जायेरुग्णदीन—हीन—लोग कहते हैंकैसी तपश्चर्या! कैसा त्याग!!   एक गांव में मैं गया था। कुछ लोग एक महात्मा को ले आये मुझसे मिलाने। वे कहने लगेबड़े अदभुत हैंभोजन तो कभी—कभार लेते हैंसोते भी ज्यादा नहीं। बड़े शांत हैं। बोलते—करते भी ज्यादा नहीं। और तपश्चर्या का ऐसा प्रभाव कि चेहरा कुंदन जैसा निखर आया हैस्वर्ण जैसा!
जब वे लाये तो मैंने कहाइस आदमी को क्यों तुम परेशान किये होयह बीमार है। यह चेहरा कुंदन जैसा नहीं हैयह केवल भूखा—प्यासा आदमी है—चेहरा पीला पड़ गया हैअनीमिया हो गया है। तुम महात्मा समझ रहे होऔर यह बोले क्या खाक! इसमें बोलने की शक्ति भी नहीं है। यह आदमी थोड़ा मूढ़ प्रवृत्ति का मालूम होता है। आंखों में कोई तेज नहीं हैकोई व्यक्तित्व नहीं हैकोई उमंग नहीं है। हो भी कैसेन सोता है ठीक सेन खाता—पीता है ठीक से। और तुम इसकी पूजा कर रहे हो! बस इसको एक ही रस आ गया है कि यह जो काम कर रहा हैउससे इसे पूजा मिलती है। बस उसी पूजा की खातिर यह किये चला जा रहा है।
तुम जरा पूजा देना बंद करो। और तुम पाओगे तुम्हारे सौ में से निन्यानबे प्रतिशत महात्मा विदा हो गएउसी रात विदा हो गएतुम पूजा देना बंद करो। क्योंकि वे पूजा की खातिर सब तरह की नासमझिया कर रहे हैंतुम जो करवाओ वही कर रहें हैं। तुम कहोबाल लोचोतो वे बाल लोच रहे हैंकेश—लुंच कर रहे हैं। तुम कहोनंगे रहोतो वे नंगे खड़े हैं। तुम कहोभूखे रहोतो वे भूखे हैं। एक बात भर तुम पूरी करो कि तुम सम्मान दोउनके अहंकार को पुष्ट करो।
वास्तविक धर्म तो सदा हंसता हुआ है। वास्तविक धर्म तो सदा स्वस्थ हैप्रफुल्लित हैजीवन— स्वीकार का है। वास्तविक धर्म तो फूलों जैसा हैउदासी वहां नहीं है। उदासी को लोग शांति समझते हैं! उदासी शांति नहीं है। शांति तो बड़ी गुनगुनाती होती है। शांति तो बड़ी मगन होती है। शांति तो बड़ी शराबी है—पैर लड़खड़ाते हैंएक मस्ती घेरे रहती हैचलते जमीन पर हैंऔर जमीन पर नहीं चलतेआकाश में चलते हैंजैसे पंख उग आते हैंअब उड़े तब उड़े की हालत होती है।
ठीक हुआअगर मेरी शराब का स्वाद आ जायेतो असली शराब का स्वाद आ गयाअब किसी और मधुशाला में जाने की जरूरत न पड़ेगी।
      खूब पहचान लो असरार हूं मैं,
      जिन्से—उल्फत का तलबगार हूं मैं।
बस एक ही प्यास रखो—जिन्से—उल्फत—प्रेम नाम की वस्तु की। बस एक ही मांग रखो— प्रेम नाम की वस्तु!
      जिन्से—उल्फत का तलबगार हूं मैं।
      इश्क ही इश्क है दुनिया मेरी।
और तुम्हारी सारी दुनियाऔर तुम्हारा सारा अस्तित्व प्रेममय हो जायेबस काफी है।
      फितना—ए—अक्ल से बेजार हूं मैं।
और बुद्धि के उपद्रव को छोड़ोउतरो प्रेम की छाया में।
      इश्क ही इश्क है दुनिया मेरी
      फितना—ए—अक्ल से बेजार हूं मैं
      ऐब जो हाफिज—ओ—खय्याम में था
      हांकुछ उसका भी गुनहगार हूं मैं
ऐब जोजो बुराई हाफिज और खय्याम में थीउमरखय्याम में.......।
उमरखय्याम को समझा नहीं गया। उमरखय्याम के साथ बड़ी ज्यादती हुई है। एक दिन बंबई में मैं निकल रहा था एक जगह सेहोटल पर लिखा हुआ था.'उमरखय्याम'। उमरखय्याम के साथ बड़ी ज्यादती हुई है। फिट्जराल्ड ने जब उमरखय्याम का अंग्रेजी में अनुवाद किया तो बड़ी भूल—चूक हो गई। फिट्जराल्ड समझ नहीं सका उमरखय्याम को। समझ भी नहीं सकता थाक्योंकि उमरखय्याम को समझने के लिए सूफियों की मस्ती चाहिएसूफियों की समाधि चाहिए। उमरखय्याम एक सूफी संत है। थोड़े—से पहुंचे हुए महापुरुषों में एकबुद्ध और अष्टावक्र और कृष्ण और जरथुस्त्र की कोटि का आदमी!
उसने जिस शराब की बात की हैवह परमात्मा की शराब है। उसने जिस हुस्न की चर्चा की हैवह परमात्मा का हुस्न है। लेकिन फिट्जराल्ड नहीं समझा। पश्चिमी बुद्धि का आदमीउसने समझा. शराब यानी शराब। उसने अनुवाद कर दिया। फिट्जराल्ड का अनुवाद खूब प्रसिद्ध हुआ। अनुवाद बड़ा सुंदर हैकाव्य बड़ा सुंदर है। फिट्जराल्ड निश्चित बड़ा कवि है। लेकिन वह समझ नहीं पाया। सूफियों की जो खूबी थीवह खो गई कविता में से। और उमरखय्याम जाना गया फिट्जराल्ड के माध्‍यम से।
तो उमरखय्याम के संबंध में बड़ी भूल हो गई। उमरखय्याम ने शराब कभी पी ही नहींकिसी मधुशाला में कभी गया नहींलेकिन उसने कोई एक शराब जरूर पीजिसको पी लेने के बाद और सब शराबें फीकी पड़ जाती हैं। गया एक मधुशाला मेंजिसको हम मंदिर कहेंजिसको हम प्रभु का
      ऐब जो हाफिज—ओ—खय्याम में था
      हांकुछ उसका भी गुनहगार हूं मैं।
'मजाजखुद भीजिनकी ये पंक्तियां हैंउमरखय्याम को गलत समझा। वह भी यही समझा कि शराब यानी शराब। मजाज शराब पी—पी कर मरा। जिस शराब की तुम बात कर रहे हो कि जो हृदय को जलातीऔर कड्वी और तिक्त होती हैमजाज उसी को पी—पीकर जवानी में मरा। बुरी तरह मरा! बड़ी बुरी मौत हुई!
मैं जिस शराब की बात कर रहा हूं कहीं गलती से तुम कुछ और मत समझ लेना। जो भूल उमरखय्याम के साथ हुई वह मेरे साथ मत कर लेना। उसकी संभावना है।
मैं तुमसे कहता हूं : भोगो जीवन को साक्षी— भाव से। साक्षी— भाव को छोड़ देने का मन होता हैभोगने की बात पकड़ में आ जाती है। भोगो जीवन को;लेकिन अगर बिना साक्षी— भाव के भोगा तो भोगा ही नहीं। साक्षी— भाव से भोगातो ही भोगा। पीयो शराब लेकिन अगर होश खो गया तो पी ही नहीं शराब। अगर पी—पी कर होश बढ़ा तो ही पी। तो समाधि के अतिरिक्त कोई शराब नहीं है।
मेरे देखेमनुष्य—जाति में तब तक शराब का असर रहेगाजब तक समाधि का असर नहीं बढ़ता। जब तक असली शराब उपलब्ध नहीं है लोगों कोतब तक लोग नकली शराब पीते रहेंगे। नकली सिक्के तभी तक चलते हैंजब तक असली सिक्के उपलब्ध न हों। सारी दुनिया की सरकारें कोशिश करती हैं कि शराब बंद हो जायेयह होगा नहीं। यह तो सदा से वे कोशिश कर रहे हैं। साधु—महात्मा सरकारों के पीछे पड़े रहते हैं कि शराबबंदी करोअनशन कर देंगेयह कर देंगे,वह कर देंगेशराब बंद होनी चाहिए! लेकिन कोई शराब बंद कर नहीं पाया। अलग— अलग नामों सेअलग— अलग ढंगों से आदमी मादक द्रव्यों को खोजता रहा है।
मेरे देखेसरकारों के बस के बाहर है कि शराब बंद हो सके। लेकिन अगर समाधि की शराब जरा फैलनी शुरू हो जायेअसली सिक्का उतर आये पृथ्वी परतो नकली बंद हो जाये। अगर हम मंदिरों को मधुशालाएं बना लेंऔर वहां मस्ती और गीत और आनंद और उत्सव होने लगेंऔर अगर हम जीवन को गलत धारणाओं से न जीयेस्वस्थ धारणाओं से जीयेऔर जीवन एक अहोभाग्य हो जाये—तो शराब अपने —आप खो जाएगी।
आदमी शराब पीता है दुख के कारण। दुख कम हो जायेतो शराब कम हो जाये। आदमी शराब पीता है अपने को भुलाने के लिएक्योंकि इतनी चिंताएं हैंइतनी तकलीफें हैंइतनी पीड़ा है—न भुलाये तो क्या करेंअगर चिंतादुखपीड़ा कम हो जाये तो आदमी की शराब कम हो जाये।
और एक अनूठी घटना मैंने घटते देखीकई बार कुछ शराबियों ने आकर मुझसे संन्यास ले लिया। फंस गए भूल में। सोच कर यह आये कि यह आदमी तो कुछ मना करता ही नहीं हैकि पीओ कि न पीओकि खाओकि यह न खाओवह न खाओकोई हर्जा नहीं। वे बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा कि आप की बात हमें बिलकुल जंचती हैयह किसी ने बताई ही नहीं। लेकिन जैसे—जैसे ध्यान बढ़ाजैसे—जैसे संन्यास का रंग छायावैसे—वैसे उनके पैर मधुशाला की तरफ जाने बंद होने लगेदूसरी मधुशाला पुकारने लगी।
एक शराबी ने छह महीने ध्यान करने के बाद मुझे कहा कि पहले मैं शराब पीता था क्योंकि मैं दुखी थातो दुख भूल जाता थाअब मैं थोड़ा सुखी हूं शराब पीता हूंतो सुख भूल जाता है। अब बड़ी मुश्किल हो गई। सुख तो कोई भुलाना नहीं चाहता। यह आपने क्या कर दिया?
मैंने कहाअब तुम चुन लो।
वह कहने लगा कि अब शराब पी लेता हूं,तो ध्यान खराब हो जाता हैनहीं तो ध्यान की धीमी— धीमी धारा भीतर बहती रहती हैशीतल—शीतलमंद—मंद बयार बहती रहती है। शराब पी लेता हूं तो दो—चार दिन के लिए ध्यान की धारा अस्तव्यस्त हो जाती हैफिर बामुश्किल सम्हाल पाता हूं। अब बड़ी मुश्किल हो गई है।
तो मैंने कहाअब तुम चुन लोतुम्हारे सामने है। ध्यान छोड़ना हैध्यान छोड़ दोशराब छोड़नी हैशराब छोड़ दो। दोनों साथ तो चलते नहींतुम्हें दोनों साथ चलाना होसाथ चला लो।
उसने कहाअब मुश्किल है। क्योंकि ध्यान से जो रसधार बह रही हैवह इतनी पावन है और वह मुझे ऐसी ऊंचाइयों पर ले जा रही हैजिनका मुझे कभी भरोसा न था कि मुझ जैसा पापी और कभी ऐसे अनुभव कर पायेगा! आपको छोड़ कर किसी दूसरे को तो मैं कहता ही नहींक्योंकि मैं दूसरों को कहता हूं तो वे समझते हैं कि शराबी हैज्यादा पी गया होगा। वे कहते हैं. होश में आओहोश की बातें करो। मैं भीतर के भाव की बात करता हूं तो वे समझते हैं कि ज्यादा पी गया होगा। उन्हें भरोसा नहीं आता। मेरी पत्नी तक को भरोसा नहीं आता। वह कहती है कि बकवास बंद करो। तुम ये ज्ञान—वान की बातें नहींतुम ज्यादा पी गए हो। मैं कहता हूं,मैंने आज महीने भर से छुई नहीं है।
तो आप से ही कह सकता हूं वह शराबी कहने लगाआप ही समझेंगे। और अब छोड़ना मुश्किल है ध्यान।
जीवन को विधायक दृष्टि से लो। तुम सुखी होने लगोतो जो चीजें तुमने दुख के कारण पकड़ रखी थींवे अपने— आप छूट जायेंगी। ध्यान आये तो शराब छूट जाती है। ध्यान आये तो मासाहार छूट जाता है। ध्यान आये तो धीरे — धीरे काम—ऊर्जा ब्रह्मचर्य में रूपांतरित होने लगती है। बस ध्यान आये। तो मैं ध्यान की शराब पीने को तुमसे कहता हूंसमाधि की मधुशाला में पियक्कड़ों की जमात में सम्मिलित हो जाने को कहता हूं।
      सुख की यह घड़ीएक तो जी लेने दो
      चादर यह फटी स्वप्न कीसी लेने दो
      ऐसी तो घटाफिर न कभी छाएगी,
      प्याला न सहीआंख से पी लेने दो।
इस सत्संग में तुम पीयो—प्याला न सहीआंख से! इस सत्संग में तुम पीयोइस सत्संग से तुम मदहोश होकर लौटो। लेकिन यह जो मदहोशपन हैइसमें तुम्हारा होश न खोये। मस्ती होऔर भीतर होश का दीया जला हो।
      ऐसी तो घटाफिर न कभी छाएगी;
      प्याला न सहीआंख से पी लेने दो।

पांचवां प्रश्न :

क्या धारणा और स्व—सुझाव या आटो—सजेशन एक ही हैंधारणा और स्वभाव या बोध में क्या भेद हैरामकृष्ण परमहंस की काली क्या सर्वथा धारणा की बात थीया उनका अपना अस्तित्व हैविभूति या भगवान के साथ संवाद क्या संभव नहीं है?

धारणा और सुझावआटो—सजेशनएक ही बात हैं। आटो—सजेशन वैज्ञानिक नाम है धारणा का दोनों में कोई भेद नहीं। और स्वभाव और धारणा बड़ी भिन्न बात है। स्वभाव तो वही हैजो सभी धारणाओं के छूट जाने पर प्रगट होता है। स्वभाव तो वही हैजब तुम्हारे मन से सभी विचार और सभी धारणाएं तिरोहित हो जाती हैंतब उसका दर्शन होता है। स्वभाव की धारणा नहीं करनी होती।
एक संन्यासी मेरे घर मेहमान हुए। तो वे सुबह—सांझ बैठ कर बस एक ही धारणा करते—अहं ब्रह्मास्मि मैं ब्रह्म हूं मैं देह नहींमैं मन नहींमैं ब्रह्म हूं—ऐसा दो—चार दिन मैंने उन्हें सुना। मैंने कहा कि अगर तुम होतो होयह बार—बार क्या दोहराते होअगर नहीं होतो बार—बार दोहराने से क्या होगाभ्रांति हो सकती है। बार—बार पुनरुक्ति करने से 'अहं ब्रह्मास्मि, ' ऐसा पुनरुक्ति करते रहोकरते रहो तो भ्रांति हो सकती है कि हो गए ब्रह्मलेकिन यह भ्रांति स्वभाव का दर्शन नहीं है। अगर तुम्हें पता है कि तुम ब्रह्म होतो दोहरा क्या रहे होअगर कोई पुरुष रास्ते पर दोहराता चले कि मैं पुरुष हूं मैं पुरुष हूं तो सभी को शक हो जायेगा कि कुछ गड़बड़ है! लोग कहेंगे : रुकोकुछ गड़बड़ है! यह क्या दोहरा रहे होअगर हो तो बात खत्म हो गई। शक है तुम्हें कुछ?
अहं ब्रह्मास्मिइसको दोहराना थोड़े ही है! यह तो एक बार का उदघोष है। यह तो बोध की एक बार उठी उदघोषणा है। बात खत्म हो गई। यह कोई मंत्र थोड़े ही है। मंत्र तो सुझाव ही है। मंत्र शब्द का अर्थ भी सुझाव होता है। इसलिए तो हम सलाह देने वाले कोसुझाव देने वाले को मंत्री कहते हैं। मंत्र यानी सुझाव,बार—बार दोहराना। बार—बार दोहराने से मन पर एक लकीर खिंचती जाती है। और उस लकीर के कारण हमें भ्रांतियां होने लगती हैं।
'रामकृष्ण को जो काली के दर्शन हुएक्या सर्वथा धारणा की बात थी?'
सर्वथा धारणा की बात थी। न कहीं कोई काली हैन कहीं कोई पीली। सब मन की धारणा है। और सब धारणायें गिरनी चाहिए। इसलिए तो जब रामकृष्ण की काली की धारणा गिर गई तो उन्होंने कहा : अंतिम बाधा गिर गई। अपनी ही धारणा थी। और जब रामकृष्ण ने तलवार उठाकर अपनी काली की धारणा को काटातो क्या तुम सोचते हो खून वगैरह निकलाकुछ नहीं निकला। धारणा भी झूठी थीतलवार भी झूठी थीझूठ से झूठ की टकराहट हुईकुछ और हुआ नहीं।
'विभूति या भगवान के साथ संवाद क्या संभव नहीं है?'
नहीं! जो भी संवाद तुम करोगेवह कल्पना होगी। क्योंकि जब तक तुम होतब तक भगवान नहींऔर जब भगवान हैतब तुम नहीं—संवाद कैसे होगा?संवाद के लिए तो दो चाहिए। तुम और भगवान साथ—साथ खड़े होओतो संवाद हो सकता है। जब तक तुम होतब तक कहां भगवानऔर जब भगवान हैतब तुम कहां?
प्रेम—गली अति सीकरी तामें दो न समाये। उस गली में दो तो नहीं समाते एक ही बचता हैसंवाद कैसासंवाद के लिए तो दो चाहिएकम से कम दो तो चाहिए ही।
तो तुम जिससे बातें कर रहे होवह तुम्हारी ही कल्पना का जाल हैवह वास्तविक भगवत्ता नहीं। भगवत्ता जब घटती है तो संवाद नहीं होतानिनाद होता हैसंवाद नहीं। एकजिसको पूरब के मनीषियों ने अनाहत—नाद कहा हैवह होता है। एक गुनगुनाहट! पर एक में ही होती है वह गुनगुनाहटकोई दूसरे से बातचीत नहीं हो रही है। वह ओंकार की ध्वनि का उठना है। लेकिन वह किसी दूसरे से बातचीत नहीं हो रही हैदूसरा तो कोई बचता नहीं।
कभी किसी भक्त ने भगवान का दर्शन नहीं किया। जब तक भगवान का दर्शन होता रहता हैतब तक भक्त भी मौजूद हैतब तक कल्पना का ही दर्शन है। इसलिए तो ईसाई जीसस से मिल लेता हैजैन महावीर से मिल लेता हैहिंदू राम से मिल लेता है। तुमने कभी हिंदू को जीसस से मिलते देखा? — भूल—चूक से कहीं रास्ते पर जीसस मिल जाये मिलते ही नहीं। जो अपनी धारणा में नहीं हैवह मिलेगा कैसेतुमने कभी ईसाई को कहते देखा कि बैठे थे ध्यान करने और बुद्ध भगवान प्रगट हो गएवे होते ही नहीं। वे होंगे कैसेजिसका बीज धारणा में नहीं हैवह कल्पना में कैसे होगाजो तुम्हारी धारणा हैउसी का कल्पना—विस्तार हो जाता है।
अष्टावक्र का सूत्र तो यही है कि तुम सब धारणाओंसब मान्यताओंसब कल्पनाओंसब प्रक्षेपों से मुक्त हो जाओसब अनुष्ठान—मात्र से! अनुष्ठान—मात्र बंधन है। जब कोई भी नहीं बचता तुम्हारे भीतर—न भक्तन भगवान—एक शून्य विराजमान होता है। उस शून्य में अहर्निश एक आनंद की वर्षा होती है। उस घड़ी कैसा संवादकैसा विवादनहींसब संवाद कल्पना के ही हैं। कभी रात मुझे घेरती है
      कभी मैं दिन को टेरता हूं
      कभी एक प्रभा मुझे हेरती है
      कभी मैं प्रकाश—कण बिखेरता हूं
      कैसे पहचानूं कब प्राण—स्वर मुखर है
      कब मन बोलता है?
मैं तुमसे कहूंगापहचान सीधी है. जब भी कुछ बोलेमन ही बोलता है। जब भी कुछ दिखाई पड़ेमन ही दिखाई पड़ता है। जब कुछ भी दिखाई न पड़े,कुछ भी न बोले—तब जो बचावही अ—मन हैवही समाधि है। जब तक अनुभव होतब तक मन है।
इसलिए परमात्मा का अनुभवये शब्द ठीक नहींक्योंकि अनुभव—मात्र तो मन के होते हैं। अनुभव—मात्र तो द्वंद्व और द्वैत के होते हैंद्वि के होते हैं। जब अद्वैत बचातो कैसा अनुभवइसलिए 'आध्यात्मिक अनुभवयह शब्द ठीक नहीं है।
जहां सब अनुभव समाप्त हो जाते हैंवहा अध्यात्म है। नहीं तो तुम खेल खेलते रह सकते हो। यह खेल धूप—छाया का खेल है।
      जो तुम श्रद्धा नमन बनो तो
      मैं सुरभित चंदन बन जाऊं
      यदि तुम पावन प्रतिमा हो तो
      मैं जीवन का अर्ध्य चढ़ाऊं

      तुम तो छिपे सीप—मोती—से
      मैं सागर का ज्वार बन गया
      जो तुम स्वाति—बूंद बन बरसों
      मैं सौ—सौ सावन पी जाऊं

      अंजुरी भर सपनों की आशा
      खोज रही जीवन—परिभाषा
      जो तुम मंगल—दीप बनो तो
      मैं जीवन की ज्योति जलाऊ

      मौन साध आतुर अभिलाषा
      खोल रही नैनों की भाषा
      जो तुम चरण धरो धरणी पर
      मैं मोतिन से हंस काऊ

      कस्तूरी मृग की सी छलना
      झुला रही मायावी पलना
      जो तुम मानस—दीप धरो तो
      मैं सौ—सौ बदन बन जाऊं!

 पर यह सब कल्पना का खेल है। खेलना होखेलो। सुखद कल्पना का खेल हैबड़ा प्रतिकरबड़ा रसभरा—पर है कल्पना का खेल! इसे सत्य मत मान लेना। सत्य तो वहा है जहां न मैंन तू। सत्य तो वहां है जहां द्वि गईद्वंद्व गयाद्वैत गयाबचा एक—एक ओंकार सतनाम।

आखिरी प्रश्न :

भगवान श्रीकोटि—कोटि नमन! आबू की पावन पहाड़ी परआपके वरदहस्त की छाया में आने का सौभाग्य हुआतब से कितना खोया हैकितना पाया हैउसका हिसाब नहीं है। धन्य— धन्य हो गया है जीवन! प्रश्न बनता नहींजबर्दस्ती बना रहा हूं। आपके मुखारविंद से शिविर—समापन के दिन दो शब्द सुनने के लिए बेचैन हो रहा हूंभिक्षा—पात्र में दो फूल डालने की अनुकंपा आज जरूर करें!

 दो क्योंतीन सही— 

हरि ओंम तत्सत्!