Asthavakra Mahageeta Day 17

सू?

इहामुत्र विरक्तस्थ नित्यानित्यविवेकिन:।
आश्चर्य मोक्षकामस्य मोक्षादेव विभीषिका।। 53।।
धीरस्तु भोज्यमानोउयि यीड्यमानोऽपि सर्वदा।
आत्मानं केवलं पश्यन् न तुष्यति न कुष्यति।।54।।
चेष्टमानं शरीरं स्व पश्यत्यन्यशरीरवत्।
संस्तवे चापि निदाया कथं मुध्येत् महाशय:।।55।।
मायामात्रमिद विश्व पश्यन् विगतकौतुक।
अपि सन्निहिते मृत्यौ कथं त्रस्यति धीरधी।! 56।।
निस्थृहं मानस यस्य नैराश्येउयि महात्मन:।
तस्यात्म ज्ञानतृप्तस्थ तुलना केन जायते।।57।।
स्वभावादेव जानानो झयमेतब्र किंचन।
हद ग्राह्यमिदं त्याज्य स किं पश्यति धीरधी।। 58।।
अन्तस्लक्तकषायस्थ निर्द्वन्द्वस्थ निराशिष।
यद्वच्छयागतो भोगो न दुःखाय न तुष्टतेये।। 59।।


क फूल का खिल जाना ही,
उपवन का मधुमास नहीं है।
बाहर घर का जगमग करना,
भीतर का उल्लास नहीं है।


            ऊपर से हम खुशी मनाते,
पर पीड़ा न जाती घर से।
अमराई के लहराने पर भी,
सुलगा करते हैं भीतर से।
रेतीले कण की तृप्ति से,
बुझती अपनी प्यास नहीं है।
एक फूल का खिल जाना ही,
उपवन का मधुमास नहीं है।

            इधर गरजता काला बादल,
आग उगलता सागर गहरा।
कुटि पुरानी सन्यासिन पर,
अवसादों का निशि—दिन पहरा।
इक पहरे का सो जाना ही,
मुक्ति का आभास नहीं है।
एक फूल का खिल जाना ही,
उपवन का मधुमास नहीं है।

 खतरा इसका है कि एक फूल के खिल जाने को कोई समझ ले वसंत का आगमन हो गया! जब तक कि पूरे प्राण ही न खिल जाएंजब तक कि पूरी चेतना ही कमलों से न ढक जाएजब तक कि सारा अंतस्तल प्रकाश से मंडित न हो जाए..।
एक किरण के उतर लेने को सूर्य का आगमन मत मान लेनाऔर एक फूल के खिल जाने को मधुमास मत मान लेना। इसलिए गुरु के द्वारा परीक्षा जरूरी है। हम इतने अंधेरे में रहे हैंइतने जन्मोंजीवनोंकि जरा—सी भी तृप्ति की झलक—और हमें लगता है आ गया मोक्ष का द्वार! जरा—सी सुगंध—लगता है पहुंच गए उस महा उपवन में। आंख में प्रकाश का सपना भी डोल जाए तो लगता है —हो गया सूर्योदय।
हमारा लगना भी ठीक हैक्योंकि हमने कभी दुख के सिवाय कुछ जाना नहीं। सुख की जरा—सी पुलकसिहरनजरा—सा रोमांच हमें आह्लादित कर जाता है। हम नर्क में ही जीए हैंस्वर्ग का स्वप्न भी हमें तृप्ति देता मालूम पड़ता है।
लेकिन गुरु की जरूरत ही यही है कि वह हमें जगाए जाएवह कहेअभी बहुत फूल खिलने को हैंवह हमें रुकने न देवह हमें बढ़ाए चलेवह कहे चले. और आगेऔर आगे.! वह तब तक हमें न ठहरने देजब तक कि समस्त जीवन सुगंध से न भर जाएजब तक कि प्राणों का कोना—कोना ही प्रकाश से आच्छादित न हो जाएजब तक कि हम स्वयं प्रकाश—रूप न हो जाएंहमारे भीतर सिवाय प्रकाश के और कुछ भी न बचे। तभी जानना कि हुआ वसंत का आगमन।
एक फूल का खिल जाना ही
उपवन का मधुमास नहीं है।
और एक पहरे का सो जाना ही
मुक्ति का आभास नहीं है।
इसलिए जनक का यह जो आनंद हैइसको अष्टावक्र ने चुपचाप स्वीकार नहीं कर लिया। इसकी वे बड़ी कसौटी करने लगे। कहीं ऐसा तो नहीं है कि बहुत दिन का भूखा—प्यासा रूखी—सूखी रोटी पा गया है और समझ रहा है कि मिल गया अंतिम ? ऐसा तो नहीं है कि बहुत थका—मादा धूप काजरा—सी छाया में बैठ गया है—चाहे खजूर के वृक्ष की छाया ही क्यों न हो—और सोचता हैआ गया कल्पवृक्ष के नीचे न: क्योंकि हम जो भी देखते हैंवह हमारे अतीत अनुभव से देखते हैं।
एक गरीब आदमी को एक रुपया पड़ा हुआ मिल जाए तो आह्लादित हो जाता है। अमीर को एक रुपया पड़ा हुआ मिलेतो कुछ भी पड़ा हुआ नहीं मिला। रुपया वही हैलेकिन गरीब अपने अतीत से तौलता हैअमीर अपने अतीत से तौलता है। बहुत है उसके पासउसमें एक रुपये के जुड्ने से कुछ भी नहीं जुड़ता। गरीब के पास कुछ भी नहीं हैउसमें एक रुपये का जुड़ जानाजैसे सारे जगत की संपदा का जुड़ जाना है। रुपया तो वही हैलेकिन हमारी प्रतीति तुलनात्मक और सापेंक्ष होती है। हम अपने ही अनुभव से देखते हैं।
मैं कल एक छोटी—सी कहानी पढ़ता था। एक भूतपूर्व महाराजा ने अपने संस्मरणों में लिखी हैकि उन्होंने एक नए नौकर को नौकरी पर रखा। और उसे हुक्म दिया : झिनकु पीकदान उठा कर ला। झिनकू की समझ में नहीं आया। पीकदान शब्द उसने कभी सुना ही नहीं था। थूकने के लिए भी स्वर्णपात्र होते हैंयह उसका अनुभव न था। कोने में ही रखा है स्वर्णपात्र—हीरे—जवाहरातो  से जड़ा। सम्राट ने फिर कहा कि समझ में नहीं आया रेअबेवह कोने में जो स्वर्णपात्र रखा हैउसे उठा
कर ला।
झिनकू ने पीकदान में झांक कर देखा और बोला. तनिक रुको हजूर! एह में कौन्हों मूरख यूकी मरा है। मेहंतरवा बुलाई...।
पीकदान गरीब का अनुभव नहीं है! वह तो कहीं भी थूकता रहता हैसारी पृथ्वी पीकदान है। और स्वर्णपात्र! यूकने के लिए सोने का पात्र!
हम अपने अनुभव से तौलते हैं। हम जो भी व्याख्या करते हैं जीवन कीवह व्याख्या हमसे आती
तो अष्टावक्र सोचते हैं. जनक ने कभी जाना नहीं यह अहोभावयह आश्चर्ययह अपूर्व घटना कभी घटी नहीं—कहीं ऐसा तो नहीं हैएक फूल के खिल जाने को मधुमास का आगमन समझ बैठा हो?
जिसने फूल देखे ही नहींजो मरुस्थलों में ही जीया होवह एक फूल के आगमन को भी मधुमास समझ सकता है। उसके भीतर की भूख धोखा दे सकती है। इसी तरह तो मृग—मरीचिका पैदा होती है। मरुस्थल में जब कोई भटक जाता हैघंटों और दिनों की प्यास से जब घिर जाता हैतो मृग—मरीचिका पैदा होती है। यही आदमी अगर तृप्त होइसके पास जल की बोतल होसुराही हो और जब प्यास लगेतब यह अपना जल पी ले—तो मृग—मरीचिका नहीं होती। लेकिन जब प्यास बहुत हो जाती है और प्राण तड़पने लगते हैंऔर मरुस्थल में कहीं कोई उपाय नहीं देखता कि कहीं कोई जलधार हैकि कोई मरूद्यान हैफिर भ्रम होने शुरू होते हैं। फिर किरणों के ही नियम के आधार पर इसे दूर मरूद्यान दिखाई पड़ने लगता है। मरूद्यान का धोखा किरणों के कारण जितना होता हैउससे भी ज्यादा प्यास के कारण होता है। प्यास इतनी है कि जो नहीं हैउसे भी देख लेने की आकांक्षा होने लगती है। प्यास इतनी है कि जो नहीं हैउसका भी स्वप्न हम साकार कर लेते हैं।
प्यासे को मृग—मरीचिका का भ्रम हो जाता है। भयभीत को रस्सी में सांप दिख जाता है। रस्सी में सांप नहीं होता—भय में होता है। अगर बहुत बार सांप से मुकाबला हुआ हो और बहुत बार सांप का दंश झेला हो और सांप की घबड़ाहट प्राणों में बैठ गई होतो रस्सी में सांप दिख जाएइसमें आश्चर्य नहीं। रस्सी में सांप नहीं होता—देखने वाले की आंख और उसके भय में होता हैउसे आरोपित कर लेता है।
तो अष्टावक्र परीक्षा ले रहे हैं इसीलिए। हो भी सकता है सूर्योदय हुआ होऔर हो भी सकता है सिर्फ अंधेरे में रहने के कारण प्रकाश का सपना देखा हो।
फिर दूसरी बात—इसके पहले कि हम सूत्र में उतरें—जिसके अनुभव में आता हैअनुभव तो सत्य है। जैसे मैंने जाना तो वह मेरे लिए सत्य है—तुमसे कहा,वह असत्य होना शुरू हो गया। सत्य कहते ही असत्य होना शुरू हो जाता है। जब तक मैंने अपने भीतर रखा—जो मैंने जाना—तब तक वह सत्य हैक्योंकि मैंने जानाअनुभव कियावह मेरी प्रतीति हैमेरा साक्षात्कार है। जैसे ही तुमसे कहाशब्द बनाएव्यवस्था दीसंवाद कियातुम तक पहुंचाया—वह असत्य होना शुरू हो गया। पहले तो जब मैंने शब्दों में बांधा निःशब्द कोतब बहुत कुछ टूट गया। जब मैंने विराट को भरा छोटे —से आंगन मेंतब बहुत कुछ छूट गया। जब सुबह की ताजगी को शब्दों की मंजूषा में कैद किया,
तब कुछ मर गया। जैसे सुबह का सूरज निकला हैनाचती किरणें हरे वृक्षों को पार करती हैंवृक्ष मस्ती में मदमाते हैंसुबह की हवा आनंद से नाचती— भागती हैखिलखिलातीठिठलाती है—इस सबको तुम एक छोटी—सी पेटी में बंद कर लो। तुम जाओ उस जगह जहां सूरज की किरणें वृक्ष से छन—छन कर जमीन पर गिर रही हैं और हवा ने जहां पत्तों के साथ रास रचाया हैऔर जहां गंध है और जहां सुबह का ताजा माधुर्य है—तुम इसे एक पेटी में बंद कर लो। पेटी तुम उठा कर ले आओ —खाली पेटी ही आती है! शायद थोड़ी—बहुत भनक आ जाए सुगंध की। लेकिन कैसे बाधोगे प्रकाश कोऔर सुगंध भी पेटी में बंद होते ही जल्दी ही दुर्गंध हो जाएगी।
जो जाना जाता हैवह तो है शून्य मेंमौन मेंप्रगाढ़ निःशब्द मेंफिर जैसे ही शब्द में रखा— अस्तव्यस्त हुआ। फिर कठिनाई यही नहीं है। शब्द में रखने से आधा सत्य तो मर जाता हैआधा भी बच जाए तो बहुतयह कहने वाले की कुशलता पर निर्भर है।
इसलिए दुनिया में ज्ञानी तो बहुत होते हैंसदगुरु बहुत नहीं। सदगुरु का अर्थ है : जिसने जाना और जो ऐसी कुशलता से कह देता है कि सत्य का कुछ अंश तो पहुंच ही जाए तुम तक। शिष्य तक कुछ पहुंच जाएऐसी कुशलता का नाम सदगुरु है। ज्ञानी तो बहुत होते हैं।
बुद्ध को किसी ने पूछा है एक दिन कि ये दस हजार भिक्षु हैं तुम्हारेवर्षों से तुम्हारे साथ हैंजीवन अर्पित किया हैसाधना की हैसाधना में लगे हैंइनमें से कितने बुद्धत्व को उपलब्ध हुएबुद्ध ने कहा : इनमें से बहुत उपलब्ध हुए हैंबहुत उपलब्ध हो रहे हैंबहुत उपलब्ध होने के मार्ग पर हैं। कुछ चल पड़े हैंकुछ पहुंचने के करीब हैंकुछ पहुंच भी गए हैं।
पूछने वाले ने कहाइस पर भरोसा नहीं आताक्योंकि इनमें से आप जैसा तो कोई भी नहीं दिखता। बुद्ध हंसने लगे। उन्होंने कहा : यह सच है। बुद्ध होने से ही कोई दिखाई नहीं पड़ताजब तक कि बुद्धत्व को अभिव्यक्ति न देजब तक कि बुद्धत्व को बोले नजब तक कि बुद्धत्व को गुनगुनाए नहींगीत न बनाएजब तक कि बुद्धत्व को बांधे नहीं छंद और मात्रा मेंजब तक कि बुद्धत्व को दूसरे तक पहुंचाए नहीं। जब तक बुद्धत्व सवांदित न होतब तक पता कैसे चलेऔर जब तक मैं जीवित हूं तब तक ये बोलेंगे भी नहीं। क्योंकि ये कहते हैंजब आप मौजूद हैं तो हम बोलें क्याआपकी मौजूदगी में क्या बोलें?  इनमें बहुत पहुंच गए हैं। बहुत तो बोलेंगे भी नहींक्योंकि बोलना एक अलग कुशलता है।
पा लेना एक बात हैबोलना बड़ी दूसरी बात है। पा लेने वाले को जैनशास्त्र कहते हैं : केवली जिन। और बता देने वाले को जैनशास्त्र कहते हैं : तीर्थंकर। हजारों 'केवलीहोते हैंतब कहीं एकाध तीर्थंकर होता है। तीर्थंकर का अर्थ है : जो खुद ही पार नहीं हुआबल्कि जिसने घाट बनायानाव बनाईऔरों को भी बिठाया नाव मेंघाट से उतारा और चलाया। तीर्थ यानी घाट। तीर्थंकर यानी घाट को बनाने वालाखुद तैर कर तो बहुत लोग पार हो जाते हैंलेकिन दूसरों को नाव पर ले जाने वाला। पर ध्यान रखनाजैसे ही—बडे से बड़ा तीर्थंकर होबड़ा से बड़ा सदगुरु हो—जैसे ही शब्द देता अनुभव कोअनुभव झूठ होने लगता है। उसमें से कुछ तो तत्क्षण मरने लगता हैअंश ही पहुंचता है। फिर पहुंचने वाले पर निर्भर है कितना पहुंचेगा। पहले तो बोलने वाले पर निर्भर है कितना भर पाएगा;फिर सुनने वाले पर निर्भर है कितना खोल पाएगा!
तो सभी सुन रहे हो तुमलेकिन सभी उतना ही न खोल पाओगेएक जैसा न खोल पाओगे। कोई बहुत खोल लेगाकोई तुम्हारे पास में ही बैठा हुआ गदगद हो जाएगा और तुम चौंकोगे कि क्या यह आदमी पागल है! उसने कुछ तुमसे ज्यादा खोल लिया। उसके हृदय तक बात पहुंच गई। तुम्हारे शायद सिर में ही गूंजती रह गई। शायद तुम शब्दों का ही हिसाब बिठाते रहे। उस तक मर्म पहुंच गया। फिर तुम पर निर्भर है कि कितना तुम खोलोगे। लेकिन फिर कुछ सत्य मरेगा तुम्हारे खोलने में। जो बांधा गया है शब्दों मेंवह शब्दातीत है। फिर शब्द से तुम्हें शब्दातीत को छांटना होगाशब्द से फिर तुम्हें अर्थ को अलग करना होगाफिर शब्द की परिधि तोड़नी होगीसीमा तोड़नी होगीअसीम को फिर मुका करना होगा।
एक पक्षी कोअनंत के पक्षी को पिंजरे में रख कर मैं तुम्हें देता हूं। उनमें से बहुत से तो ऐसे हैं कि पिंजरे के सौंदर्य पर मोहित हो जाएंगेपक्षी को भूल जाएंगे। बहुत—से तो ऐसे हैंपिंजरे को सिर पर ले कर चलने लगेंगेपक्षी की उन्हें याद नहीं आएगीपहचान भी न होगी।
पिंजरे के लिए पिंजरा नहीं दिया थाभीतर एक जीवंत पक्षी हैउसके दिए दिया था। पिंजरा तो बनाया ही इसलिए था कि पक्षी तुम तक पहुंच जाएनहीं तो मेरे हाथ से उड़ेगा और तुम तक कभी पहुंचेगा नहीं।
इसलिए शब्द काशास्त्र का पिंजरा हैसिद्धात काभाषा का पिंजरा है। उसे जितना सुंदर बना सकेंबनाने की कोशिश की जाती हैताकि उसके सौंदर्य से तुम उसके भीतर प्रवेश पाने की आकांक्षा से भरोताकि तुममें प्यास उठे कि जो बाहर से इतना सुंदर है पिंजराभीतर भी देखें! लेकिन बहुत हैंजो पिंजरे को सम्हाल कर रख लेंगेवे पंडित हो जाएंगे। वे दोहराने लगेंगे मेरे शब्दों कोवे मेरे पिंजरे को ले कर घूमने लगेंगे और दिखाने लगेंगे लोगों को कि देखोकैसा सुंदर पिंजरा है! कैसा सुंदर दर्शनशास्त्रकैसा प्यारा सिद्धातकैसा हृदयग्राही मंतव्यकैसी बात कहीकैसी भा गई मन कोकैसी रच गईकैसी रंग से भरीकैसी इंद्रधनुषी! मगर भूल जाएंगे कि पिंजरे के लिए पिंजरा नहीं दिया था। कुछ उनमें से पिंजरे के भीतर छिपे पक्षी को भी पहचान लेंगेलेकिन उसे पिंजरे से मुक्त न कर पाएंगेवह पिंजरे में ही बंद रहेगा। अगर बहुत ज्यादा दिन बंद रह गयातो पक्षी की उड़ने की क्षमता खो जाएगी।
मुझसे शब्द मिलें तो देर मत करनाउसे जल्दी निःशब्द में खोल लेना। तुम मुझसे जो सुनोदेर मत करनाउसे ध्यान में जल्दी ही रूपांतरित कर लेना। क्योंकि जितनी देर हो जाएगीउतनी ही कठिनाई हो जाएगी। इधर सुनोउधर ध्यान में मुक्त कर लेना। इधर मैं पिंजरा तुम्हारे हाथ में दूं तुम रुकना मत! पिंजरा हाथ में लेते ही द्वार खोलनापक्षी को मुक्त कर लेना। अगर ज्यादा देर हो गईतुमने कहा कल करेंगेतुमने कहा परसों करेंगेतुमने कहा जब सुविधा होगी तब करेंगेअभी तो नोट—बुक में लिख लेंफिर पीछे अर्थ निकाल लेंगेफिर सोच लेंगेजल्दी क्या हैसुविधा सेमौके पर—तो तुम जब अर्थ निकालने जाओगेतब तक अर्थ मर चुका होगाशब्द ही रह जाएंगेपिंजरा ही रह जाएगा। तुमने अगर पक्षी मुक्त न कियातो पक्षी मर चुकेगा। फिर तुम जब खोलोगे भीतो लाश मिलेगीउसके प्राण तो जा चुके होंगेक्योंकि उसके प्राण तो अनंत के हैंउसके प्राण तो शून्य के हैंउसके प्राण तो आकाश के हैं। वह पक्षी पिंजरे में रहने को बना नहीं। देह पड़ी रह जाएगीप्राण का पखेरू तो उड़ जाएगा। फिर तुम उस देह की कितनी ही पूजा करोतो भी उसमें प्राण न आएंगे। ऐसे ही तो तुम पूजा कर रहे हो मंदिरों मेंमस्जिदों मेंगुरुद्वारों में—मरे पक्षियों की पूजा कर रहे हो! अब प्राण डाले नहीं जा सकते हैं। तुमने अवसर खो दिया।
सदगुरु से जब वचन निकले तो उसे तत्‍क्षण खोल लेनाउसमें एक क्षण की भी देरी खतरनाक हैजब वह गर्म —गर्म हो तभी खोल लेनाजब उसकी ऊष्मा समाप्त न हो गई हो…...
जब मैं तुम्हें दे रहा हूं कुछ तो वह गर्म हैताजा है। तुम उसे रख कर मत बैठ जाना। तुम जा कर अपने फ्रिज में मत रख देना कि जब सुविधा होगी तब खोल लेंगेजब जरूरत होगी तब निकाल लेंगे। वह मर जाएगाउसकी ऊष्मा खो जाएगीप्राण—पखेरू जा चुके होंगेदेह पड़ी रह जाएगी।
सत्य की पड़ी हुई देहों का नाम ही शास्त्र है। फिर तुम सिर पर रखो गीता और कुरान और बाइबिलऔर लाख करो पूजा और लाख पटको सिरचढाओ फूलअर्चना—सब व्यर्थ हैसब बिलकुल व्यर्थ है! इस आयोजन से अब कुछ होने वाला नहीं।
तो जब सदगुरु बोलेउसे तन्धण खोल लेना। इधर मैं बोलता जाऊंउधर तुम खोलते चले जाना। तुम शब्द में बहुत ज्यादा मत उलझनातुम अर्थ को मुक्त करते चले जाना। तुम फूल में मत उलझनातुम तो सुवास को मुक्त करते चले जाना। तुम तो पिंजरे को भूल ही जाना। तुम तो मेरे साथ उड़ना आकाश मेंतो ज्यादा पा सकोगे।
साधारणत: तो ऐसा नहीं होगा। तुम मुर्दा —मुर्दा पाओगे।
फिर अगर तुमने किसी दूसरे को कहाजो तुमने मुझसे सुनातब तो वह मरे से भी गया—बीता हैवह सड़ी हुई लाश है। और ऐसा ही हुआ है। ऐसे ही संप्रदाय बनते हैं। मैंने तुमसे कहातुम किसी और को कहोगेवह किसी और को कहेगापीढ़ियां दूसरी पीढ़ियों से कहेंगीएक समय दूसरे समय से कहेगा—उतरता चला जाता है। फिर सड़ती जाती है लाश। इसलिए तो धर्मों से इतनी दुर्गंध आती है और धर्मों के नाम पर इतने कल्ल होते हैं। और धर्मों से प्रेम नहीं फैला दुनिया मेंघृणा फैली है। और धर्मों से संघर्ष हुआहत्याएं हुईंयुद्ध हुएप्रार्थना नहीं उतरीपरमात्मा का द्वार नहीं खुला। धर्मों से शैतान की शक्ति बढ़ीपरमात्मा की शक्ति नहीं बढ़ी। क्योंकि तुम जिसे धर्म कहते होवह सड़ी हुई लाश है।
अष्टावक्र पूछने लगेबार—बार चोट करने लगे जनक को। क्योंकि जब गुरु देता हैतो वह यह जानना चाहता है कि तुम तक जीवित पहुंचाजीवंत पहुंचा? ऊष्ण था तभी पहुंचातुमने खोला ठीक—ठीक? कहीं तुम शब्द से तो आंदोलित नहीं हो गएकहीं यह जनक पिंजरा ही तो नहीं हिला रहा हैइसके भीतर पक्षी भी हैजीवित पक्षी हैउस जीवित पक्षी को मुक्त करने की चेष्टा इसने की है या केवल शब्द—जाल में पड़ गयाक्योंकि जो—जो अष्टावक्र ने कहा,वही—वही जनक ने दोहरा दिया है—सिर्फ 'आश्चर्यशब्द जोड़—जोड़ कर वही—वही दोहरा दिया है। तो कहीं यह पुनरुक्ति तो नहींकहीं यह यांत्रिक स्मृति तो नहींकहीं यह जनक बहुत स्मृतिवान व्यक्ति तो नहींयह वस्तुत: इसे हो रहा है जो यह कह रहा है?
तो अष्टावक्र सब तरफ से खोदने लगे। ये सूत्र उनकी खुदाई के हैं। इनमें बड़ी करुणा है और बड़ी कठोरता भी। कठोरताकि जनक तो अहोभाव की बात कर रहे हैं और अष्टावक्र परीक्षा लेने
लगे। करुणाक्योंकि परीक्षा अगर समय पर न ली जाए और समय खो जाएतो फिर बात बेमौसम की हो जाती हैफिर उसका कुछ अर्थ नहीं रह जाता। तो अभी— अभी ताजी—ताजी परीक्षा वे ले रहे हैं कि वह जो मैंने तुझे कहा है वह पहुंच गया तेरे हृदय तकबन गया तेरा रक्तमांस—मज्जातूने उसे रूपांतरित कर लिया अपने प्राणों मेंवह तेरे अस्तित्व का हिस्सा हो गयाया केवल बुद्धि में भटकती हुई बात हैकि बुद्धि में भटकते हुए शब्द और विचार हैंतू कहां से कह रहा हैतेरे भीतर हो गया—वहां से कह रहा हैया तूने मुझे सुन लिया और तू मेरे सामने ही मुझ ही को दोहरा रहा हैतू कहीं ग्रामोफोन का रिकार्ड तो नहीं?
इसका खतरा है ही। क्योंकि सदगुरुओं के वचनों की एक खूबी है कि वे बड़े प्यारे हैं। वे इतने प्यारे हैं कि उन पर भरोसा कर लेने का मन होता है। वे इतने प्यारे हैं कि उन पर विश्वास जगता है। यही खतरा है। अगर सत्य पर विश्वास जग गया तो खतरा है। खतरा यही है कि सत्य कभी विश्वास नहीं बन सकता। विश्वास तो सदा झूठ हो जाता है। विश्वासमात्र झूठ है। सत्य से कानी चाहिए श्रद्धाविश्वास नहीं।
मैंने तुम्हें एक बात कहीमैंने तुम्हें बड़ी प्यारी बात कही—तुम उससे मोहित हुए। तुमने मान ली कि बात इतनी प्यारी है कि सच होगी हीकि जिसने कही उससे तुम्हें प्यार हैतो झूठ कैसे होगीतो तुमने विवाद भी न कियातुमने तर्क भी न किया। तुमने चुपचाप स्वीकार कर लिया। तुमने एक विश्वास बनायातुम उस विश्वास के सहारे जीने लगे —तुम झूठ के सहारे जीने लगे। मैंने कही थीसच ही थीलेकिन तुमने विश्वास बनाया तो झूठ हो गईश्रद्धा बननी चाहिए।
क्या फर्क है श्रद्धा और विश्वास मेंजब हम दूसरे को बिना अपने किसी अनुभव की गवाही के मान लेते हैं तो विश्वास। जब हम दूसरे को अपने अनुभव की कसौटी पर कस कर मानते हैं तो श्रद्धा। श्रद्धा अनुभव है। विश्वास दूसरे का अनुभव हैतुम्हारा नहीं। इससे सावधान रहना।
तो यह जो जनक कह रहा है विश्वास है या श्रद्धाइसकी ही कसौटी अष्टावक्र करने लगे हैं। अष्टावक्र ने कहा :
इहामुत्र विरक्तस्य नित्यानित्यविवेकिन:।
आश्चर्य मोक्षकामस्य मोक्षादेव विभीषिका।।
'जो इहलोक और परलोक के भोग से विरक्त है जनकऔर जो नित्य और अनित्य का विवेक रखता हैऔर मोक्ष को चाहने वाला हैवह भी मोक्ष से भय करता है—यही तो आश्चर्य है!'
तेरे भीतर कहीं मोक्ष का भय तो नहीं बचा है?
इसे समझनायह बड़ा अदभुत सूत्र है! मोक्ष का भयतुम कहोगेमोक्ष का भयस्वतंत्रता का भयहम सभी स्वतंत्र होना चाहते हैं। यह बात क्या हुई कि स्वतंत्रता का भयस्वतंत्रता से कौन भयभीत है?
लेकिन तुम्हें पता नहीं। अष्टावक्र ठीक कह रहे हैं। इस जगत में बहुत कम लोग हैंजो स्वतंत्र होना चाहते हैं। सौ में निन्यानबे आदमी तो बातें करते हैं स्वतंत्रता कीलेकिन स्वतंत्र होना नहीं चाहते। परतंत्रता में बड़ी सुरक्षा है। मुक्त होने में बड़ा खतरा हैजोखिम! इसलिए लोग एक परतंत्रता से दूसरी परतंत्रता में उतर जाते हैं। बसपरतंत्रता बदल लेते हैंलेकिन स्वतंत्र कभी नहीं होते। पूंजीवाद साम्यवाद बन जाता हैलेकिन कुछ फर्क नहीं होता। परतंत्रता वहीं की वहीं। एक की गुलामी दूसरे की गुलामी से बदल जाती हैमगर फर्क कोई भी नहीं पड़ता। आदमी स्वतंत्र होना ही नहीं चाहता। तो इसे हम समझें। स्वतंत्रता का भय है। और मोक्ष तो परम स्वतंत्रता हैउसका तो बड़ा भय है। जो बात अष्टावक्र ने उठाई हैउसे पांच हजार साल के बाद पश्चिम में मनोविज्ञान अब समझ पा रहा है। पश्चिम के बहुत बड़े मनोवैज्ञानिकऐरिक फॉम ने इस पर बड़ा जोर दियाबड़ी खोज की है इस संबंध में—फीयर ऑफ फ्रीडमस्वतंत्रता का भय! हम चाहते हैं कि कोई हमें बांध ले। इसीलिए तो लोग हमें बांध पाते हैं। तुम सोचते हो लोग बांध लेते हैं इसलिए तुम बंधे होतो तुम गलती में हो। जो नहीं बंधना चाहताउसे कोई भी नहीं बांध सकता। तुम बंधना चाहते होइसलिए लोग बांध लेते हैं। तुम्हारे बंधने की चाह पहले हैबांधने वाला बाद में आता है। पहले मांगफिर पूर्ति। तुम पुकारते हो कि कोई बांध लेतो बांधने वाला आ जाता है। फिर तुम चीखते —चिल्लाते हो कि मुझे बांध लिया गया।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, 'बड़े बंधन में हैं! पत्नी हैबच्चे हैं!मगर किसने तुम्हें कहा था? कौन तुम्हारे पीछे पड़ा थाऔर लाख लोग पीछे पड़े थे,अगर तुम्हें नहीं बंधना था तो कौन बांध सकता था रू तुम भाग निकले होते। घर में आग लगी हो और तुम घर के भीतर बैठे होलाख तुम्हें लोग समझाएं कि अरे बैठे रहोकोई हर्जा नहीं—तुम बैठ न सकोगे। तुम कहोगे, 'हो गई समझदारी की बातेंमैं बाहर चला। तुम बैठो!तुम भाग खड़े होतेअगर तुम्हें बंधन दिखाई पड़ता। लेकिन बंधन तुम्हें दिखाई पड़ा नहीं था।
और मजा यह है कि अगर यह पत्नी मर जाए तो बहुत संभावना है कि जल्दी ही तुम दूसरा विवाह करोगे। पत्नी के मरने के बाद ज्यादा दिन याद न रख सकोगे। मन नई कल्पनाएं करने लगेगा। मन कहेगा, 'सभी स्त्रियां थोड़े ही एक जैसी होती हैं पू यह दुष्ट मिल गई थी तो भाग्य की बातअब सभी थोड़े ही दुष्ट मिल जाएंगीदुनिया में अच्छी स्त्रियां भी हैं। अपनी पत्नी को छोड़ कर सभी स्त्रियां अच्छी हैं ही। कोई अच्छी स्त्री मिल जाएगी तो जीवन में सुख हो जाएगा। फिर तुम खोजने लगे। देर नहीं लगेगीजल्दी ही तुम फिर बंधन में पड़ जाओगेफिर तुम चीखने—पुकारने लगोगे कि मैं बंधन में पड़ गया।
तुम्हीं बनाते हो अपने बंधनक्योंकि बिना बंधन के रहने के लिए बड़ा साहस चाहिए। अनबंधा रहने के लिए बड़ा साहस चाहिए। क्योंकि बिना बंधन के रहने का अर्थ हुआ कि न कोई सुरक्षा हैकल का पता नहीं क्या होगा! पत्नी तुम क्यों खोज लाए हो? —कल की व्यवस्था के लिए। कल अगर तुम्हारे जीवन में कामवासना उठेगी तो कौन तृप्त करेगातो तुमने पत्नी खोज ली हैजो कल भी मौजूद होगी। पत्नी ने पति खोज लिया हैक्योंकि कल की क्या सुरक्षा हैभोजन कौन देगामकान कौन देगावस्त्र कौन देगाअलंकरण कौन देगा! कल की सुरक्षा तुमने कर ली हैपरसों की सुरक्षा कर ली है। लोगों ने आगे तक की सुरक्षा कर रखी है। फिर उस सुरक्षा में बंध गए हैं।
तुमने एक मकान बना लियातुमने बैंक में बैलेंस इकट्ठा कर लियातुमने धन—प्रतिष्ठा बना ली—अब तुम कहते होबड़ा बंध गया हूं! लेकिन कौन तुम्हें बांधता हैतुम बंधे हो इसलिए कि बंधन में कुछ सुरक्षा है—कल अगर बीमार हुए तो क्या होगामरने लगे तो क्या होगा?
मुहम्मद के जीवन में उल्लेख हैउनको जो कुछ मिलता दिन भर मेंवे खाने—पीने के बाद जो बचता सांझ को बांट देतेरात भिखारी हो कर सो जाते। यह उनके जीवन भर की व्यवस्था थी। जिस रात मरेउनकी पत्नी ने यह सोच कर कि मौत करीब आती हैचिकित्सक कहते हैं बचने का अब कोई उपाय नहीं है,दवादारू की जरूरत पड़ेरात वैद्य बुलाना पड़ेहकीम बुलाना पड़े—तो उसने पांच रुपये बचा कर रख लिएपांच दीनार बचा कर रख लिए।
बारह बजे रात मुहम्मद बड़े तड़पने लगे। उन्होंने अपनी पत्नी को बुलाया और कहा कि देखमुझे लगता है कि मेरे जीवन भर का जो नियम थावह टूटा जा रहा है मरने का वक्त। मैंने कल के लिए कभी कोई व्यवस्था नहीं की। और मुझे आज डर लग रहा है कि घर में कुछ रुपये हैं। अगर होंतो जल्दी उन्हें तू बांट देनहीं तो परमात्मा के सामने आखिरी दिन लज्जित होना पड़ेगा। वह मुझसे पूछेगा : तो फिर आखिरी दिन तूने रुपये बचा लिए?
पत्नी तो घबड़ा गई कि इन्हें पता कैसे चला! उसने जल्दी से पांच दीनार जो बचाए थेनिकाल कर दे दिए कि क्षमा करेंमुझसे भूल हो गई! मैं तो यह सोच कर कि रात—बेरातआधी रात जरूरत पड़ सकती हैफिर मैं कहां मांगूगी?
तो मुहम्मद ने कहा : पागलजिसने हर बार दिया हैहर दिन दिया हैइतने दिन तक दिया। कभी हम भूखे मरेकभी जरूरत पूरी नहीं हुईऐसा हुआजो सुबह देता हैसांझ देता हैवह आधी रात न दे सकेगातू जरा दरवाजे पर तो जा कर देख!
वह पांच दीनार ले कर गईवहा एक भिखारी खड़ा हैवह कहता हैमुझे पांच दीनार की जरूरत है। वे पांच दीनार उस भिखारी को दे दिए गए।
मुहम्मद ने कहा. देखलेने भी वही आ जाता हैदेने भी वही आ जाता है। हम नाहक चिंता खड़ी कर लेते हैं। फिर चिंता में बंधते हैंफिर बंधन से पीड़ित होते हैं और चिल्लाते हैं। अब मैं निश्चित हुआ। अब मैं उसके सामने सिर उठा कर खड़ा हो सकूंगा कि तू ही मेरा एकमात्र भरोसा था। तेरे अलावा मैंने भरोसा और किसी चीज में न रखा।
जिसका परमात्मा में भरोसा हैउसको फिर कोई बंधन नहीं। लेकिन परमात्मा में हमारा भरोसा नहीं हैभरोसा हमारा हजार और चीजों में है—इश्योरेंस कंपनी में हैबैंक में हैस्त्री में हैपति में हैमित्रों मेंपरिवार मेंपिता मेंपुत्र मेंसरकार मेंऔर हमारे हजार भरोसे हैं!
नास्तिक भी जो अपने को कहता हैवह भी नास्तिक नहीं है। बैंक का जहां तक सवाल हैवह भी आस्तिक हैइंश्योरेंस कंपनी का जहां तक सवाल हैवह भी आस्तिक हैसिर्फ भगवान के संबंध में वह आस्तिक नहीं है।
आस्तिक का अर्थ है : जिसने अपना सारा भरोसा परमात्मा में रखाजिसने सारा भरोसा जीवन की ऊर्जा में रखाअस्तित्व में रखा।
जैसे ही रुपये बांट दिएमुहम्मद हंसे और उन्होंने कहा : अब शुभ हुआअब ठीक घड़ी आ गईअब मैं निश्चित जा सकता हूं। चादर उन्होंने अपने मुंह पर डाल ली और कहते हैंप्राण उड़ गए। पत्नी ने चादर उघाड़ीवहां तो लाश पड़ी थीमुहम्मद जा चुके थे। जैसे वे पांच दीनार अटकाए थे! जैसे उनके कारण वे बेचैन थेबोझ थाबंधन था!
हम कहते तो हैं कि हम स्वतंत्र होना चाहते हैंलेकिन स्वतंत्र होने के लिए हम जो व्यवस्था करते हैं वही हमें बांध लेती है।
तुमने देखाधन की आदमी आकांक्षा क्यों करता हैइसलिए ताकि स्वतंत्र हो। धन से स्वतंत्रता मिलती हैऐसा खयाल है। ऐसी भ्रांति है कि जितना धन होगाउतनी तुम्हारी स्वतंत्रता होगीजहां जाना होगा जा सकोगेजिस होटल में ठहरना होगाठहर सकोगेहवाई जहाज में उड़ना होगाहवाई जहाज में उड़ोगे;महल में रहना होगामहल में रहोगेजिस स्त्री को चाहोगे वह तुम्हारे पैर दाबेगीजो कुछ तुम करना चाहोगेकर सकोगे। धन स्वतंत्रता देता हैइस आशा में आदमी धन इकट्ठा करता है। लेकिन धन इकट्ठा करने में ही बंध जाता हैबुरी तरह बंध जाता है! धन का बोझ भारी हो जाता है और छाती उसके नीचे टूटने लगती है।
यह तो हमारी साधारण स्वतंत्रता है। फिर परम स्वतंत्रता का नाम मोक्ष है।
अष्टावक्र कहते हैं : 'सुन जनकजो इहलोक और परलोक के भोग से विरक्त है और जो नित्य और अनित्य का विवेक रखता है...। '
जैसा तेरी बातों  से लग रहा है। तेरी बातों  से ऐसा लग रहा है कि तू तो बिलकुल मुक्त हो गया! न इस लोक की तेरी कोई आकांक्षा हैन परलोक की तेरी कोई आकांक्षा है। न तू यहां कुछ चाहता हैन स्वर्ग में कुछ चाहता है। और ऐसा लगता है तेरी बातों  से कि तुझे तो विवेक उत्पन्न हो गया। तुझे तो पता है : अनित्य क्या हैनित्य क्या हैसार क्याअसार क्यातुझे तो दिखाई पड़ गया हैऐसा मालूम होता है। तुझे दर्शन हो गया हैऐसा मालूम होता है। लेकिन फिर भी मैं तुझसे पूछता हूं कि मोक्ष को चाहने वाला मोक्ष से ही भय करेइस आश्चर्य का तुझे पता हैकहीं तेरे भीतर मोक्ष से भी तो भय नहीं है अभी। अगर हैतो यह सब बातचीत हैजो तू कर रहा है। उस भय के कारण तू बंधा ही रहेगातू संसार निर्मित करता रहेगा।
हमने भय के कारण ही संसार निर्मित किया है। संसार यानी हमारे भय का विस्तार। और तब एक बड़े मजे की बातकि तुम्हारा भगवान भी तुम्हारे भय का विस्तारऔर तुम्हारा स्वर्ग भी तुम्हारे भय का विस्तारतुम्हारा पुण्य भी तुम्हारे भय का विस्तार। तुम अगर पुण्य भी करते हो तो इसी भय से कि कहीं नर्क न जाना पड़े। तुम अगर पाप भी नहीं करते तो इसी भय से कि कहीं नर्क न जाना पड़े। तुम अगर पुण्य करते हो तो इसी भय से कि कहीं स्वर्ग न खो जाएस्वर्ग की अप्सराएं और कल्पवृक्ष और शराब के बहते झरने न खो जाएं। तुम अगर मंदिर और मस्जिद में जा कर सिर टेक आते होतो सिर्फ इसीलिए कि परमात्मा अगर कहीं हो तो नाराज न हो जाए।
तुम्हारा धर्म तुम्हारे भय से निकलता है—अधर्म हो गया। इस जहर से अमृत न निकलेगाइससे तो जहर ही निकलता है। भय से जो निकलता हैवह संसार है। तुम उसे परमात्मा कहोस्वर्ग कहोबहिश्त कहोजो तुम कहना चाहोलेकिन एक बात याद रखनाभय से संसार के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं निकलता। भय से मोक्ष कैसे निकलेगायह तो ऐसा होगा जैसे रेत से कोई निचोड़ ले तेल को। नहींयह होता नहीं।
भय से मोक्ष नहीं निकलता। अभय से मोक्ष निकलता है। फिर मोक्ष का भय क्या हैअष्टावक्र क्यों कहते हैं कि देख ले तू अपने भीतर खोजबीन करके,कहीं मोक्ष का भय तो नहीं है?
मोक्ष का भय क्या हैमोक्ष का भय महामृत्यु का भय है। मोक्ष तुम्हारी मृत्यु है। तुम्हारे मुक्त होने का एक ही अर्थ है. तुम्हारा बिलकुल मिट जाना। तब जो शेष बचेगा वही मोक्ष हैतुम जहां बिलकुल न रहोगेतुम्हारी रूपरेखा भी न बचेगीतुम बिलकुल खो जाओगे जहां।
मृत्यु में तो आदमी बचता हैमोक्ष में बिलकुल नहीं बचता। मृत्यु में तो शरीर खोता हैमन बचता हैअहंकार बचता हैसंस्कार बचते हैंसब कुछ बच जाता हैसिर्फ शरीर बदल जाता है। मृत्यु में तो केवल वस्त्र बदलते हैंपुराने जीर्ण —शीर्ण वस्त्र छूट जाते हैंनए वस्त्र मिल जाते हैं। मोक्ष में शरीर भी गया,संस्कार भी गएअहंकार भी गयामन भी गयातुमने जो जानाअनुभव किया—सब गया। तुम गए! तुम पूरे के पूरे गएसमग्रता से गए! फिर जो शून्य बचता है,तुम्हारे अभाव मेंतुम्हारी गैर मौजूदगी में जो बचता है—वही मोक्ष हैवही परमात्मा हैवही सत्य है। तुम तो ऐसे चले जाओगे जैसे प्रकाश के आने पर अधंकार चला जाता है। मोक्ष के आने पर तुम न बचोगे —मोक्ष महामृत्यु है।
उपनिषद कहते हैंगुरु महामृत्यु है। क्योंकि गुरु के माध्यम से मोक्ष की तरफ चलना पड़ता है। गुरु सिखाता ही है मरने की कला।
अष्टावक्र ठीक कहते हैं
आश्चर्य मोक्षकामस्य मोक्षादेव विभीषिका।
मैंने देखा हैअष्टावक्र कहते हैं कि मोक्ष की कामना करने वाले लोग भी मोक्ष से ही डरे होते हैं। जनक तू जरा गौर से देख लेकहीं तेरे भीतर भी कोई भय की रेखा तो नहीं है। अगर हैतो फिर मोक्ष की ये बातें सब व्यर्थ हैंअनर्गल प्रलाप हैंपागल का प्रलाप हैं! इनमें फिर कुछ भी सार नहीं। मोक्ष का स्वर तो तुम्हारे भीतर तभी फूटता हैजब तुम्हारे सब स्वर बंद हो जाते हैं। जब तुम्हारी सब आवाज खो जाती हैतभी उस महासंगीत में तरोबोर होने की घड़ी आती है। तुम खाली करो सिंहासन! सिंहासन पर बैठे —बैठे मोक्ष नहीं है। जब तक तुम होतब तक मोक्ष नहीं है। जैसे ही तुम न हुएमिटेझुकेखोए—मोक्ष है! मोक्ष था ही सदा से—तुम्हारे कारण दिखाई न पड़ता थातुम ओट थेतुम पर्दा थेतुम ही अड़चन थेतुम ही बाधा थे।
अब बड़ी अड़चन उठी। मोक्ष का तो अर्थ ही यह है कि जिसने इस सचाई को पहचान लिया कि मैं ही रोग हूं। मोक्ष का अर्थ तुम्हारी मुक्ति नहीं हैमोक्ष का अर्थ है—तुमसे मुक्ति। जिसने पहचान लिया कि मैं ही रोग हूं सारे रोग का आधार मैं ही हूं और जिसने कहा कि ठीक अब मैं यह आधार छोड़ता हूं, अब मैं न होने की तैयारी दिखलाता हूं, अब मैं मरने को राजी हूंहो—हो कर देख लियाकुछ पाया नहींहो—हो कर देख लियासिवाय खोने के कुछ भी नहीं हुआहों—हों कर देख लियाअनेक बार हो कर देख लियाकितने जन्मों तक हो कर देख लियाकाफी देर हो चुकी है। तुम बहुत बार हो कर देख लिएहर होना खाली गया। अब जरा न हो कर देख लें। मोक्ष का मतलब इतना है : कि हो कर देख लियाअसफल हुएअब जरा न हो कर देख लें।
'जनककहीं तेरे भीतर कुछ भय तो नहीं है?'
मोक्षकामस्य मोक्षात् एव विभीषिका आश्चर्यम्!
अष्टावक्र कहते हैं : तू आश्चर्य की बात करता हैसुनबड़े आश्चर्य मैं तुझे बताता हूं! बड़े से बड़ा आश्चर्य यह है कि मोक्ष की कामना करने वाला भी मरने से डरता है। और जो मरने से डरता हैवह मोक्ष को कैसे उपलब्ध होगा ? मोक्ष तो महामृत्यु है।
मुल्ला नसरुद्दीन और उसकी पत्नी खाना खा रहे थेतभी रेडियो पर राग मल्हार आने लगा। 'वाह—वाह!मुल्ला ने कहा, 'क्या प्यारी चीज है। '
'क्या?' पत्नी ने जरा जोर से पूछा।
'मैंने कहाक्या प्यारी चीज है!मुल्ला ने और जरा जोर से दोहराया।
पत्नी बोली, 'इस रेडियो को बंद करो तो कुछ सुनाई दे। इस बेसुरी आऽऽऽ आऽऽऽ के कारण तुम्हारी बात सुनाई ही नहीं दे रही है। '
मुल्ला उसी मल्हार राग की बात कर रहा हैजिसको पत्नी कह रही है यह बेसुरी आऽऽऽ आऽऽऽ इसके कारण तुम्हारी बात ही सुनाई नहीं दे रही।
वह जो मोक्ष का स्वर हैकिन्हीं को तो मल्हार राग मालूम होती हैकिन्हीं को सिर्फ आऽऽऽ आऽऽऽ..। क्या लगा रखा है शोरगुल! जो भयभीत हैंउन्हें तो वह व्यर्थ का शोरगुल मालूम होता है। क्योंकि उन्होंने व्यर्थ के शोरगुल को सार्थक समझ रखा हैइसलिए सार्थक उन्हें व्यर्थ मालूम होने लगा। वे उल्टे खड़े हैं,शीर्षासन कर रहे हैं। लेकिन जिन्होंने व्यर्थ को व्यर्थ जान लिया हैउन्हें तत्‍क्षण वह जो मोक्ष की ध्वनि हैजो तुम्हारी मृत्यु में थोड़ी—सी आती है—वह राग मल्हार हो जाती हैवह जीवन का महासंगीत हो जाता है।
अगर तुमने जीवन से कुछ भी समझा है तो एक बात तो समझो कि जीवन बिलकुल असार है। इसमें सार जैसा कुछ भी तो। नहीं है। दौड़ो—कोआपा— धापीखूब करो श्रम—हाथ कुछ भी लगता नहीं है। यह बड़ा आश्चर्य है! और फिर भी तुम मरना नहीं चाहते। फिर भी तुम मिटना नहीं चाहते। फिर भी तुम कहते हो,कोई तरकीब बताएं कि मैं सदा बना रहूं, सदा—सदा बना रहूं! क्या करोगे सदा बने रह कर?
कहते हैंजब सिकंदर पूरब आया तो उसके दरबारियों में से एक ज्ञानी ने उसे कहा कि तू पूरब जा रहा हैमार्ग में कहीं एक ऐसा स्थान हैजहां जल का एक झरना है मरुस्थल मेंउसे जो पी लेता है वह अमर हो जाता है। अब तू जा ही रहा हैतो उसकी भी खोज कर लेनाशायद मिल जाएशायद यह कथा ही न होसच हो।
सिकंदर ने अपने सैनिकों को सचेत कर दिया कि खोजबीन करते रहना। कहीं भी ऐसी जरा भी भनक पड़ेकान में अफवाह पड़ेमुझे खबर कर देना। खबर आ गई। बीच एक रेगिस्तान से गुजरते वक्त खबर आई कि यहीं है वह झरना। सिकंदर ने उसकी खोज कर ली। वह सारे सिपाहियों को बाहर छोड़ करसैनिकों को बाहर छोड़ कर उतरा उस गुफा मेंजहां वह झरना था। वह उतर गया गुफा मेंसीढ़ियों से उतर कर झरने में खड़ा हो गयाबड़ा आह्लादित था कि इस झरने के जल को पी कर अब मैं सदा—सदा के लिए अमर हो जाऊंगा। उसने चुल्ल भी भर ली। तभी एक कौआ बैठा है पास ही चट्टान पर। वह कहने लगा रुक! सिकंदर तो बहुत घबड़ाया कौए को बोलते सुन कर। उसने कहा : घबड़ा मतमेरी बात सुन ले इसके पहले कि तू पानी पीए क्योंकि मैं पी कर बड़ी झंझट में पड़ गया हूं।
सिकंदर ने कहा : क्या झंझटकौए ने कहा : मैंने भी इसकी बड़ी खोज कीबामुश्किल मैं आ पाया। मैं कौओं का राजा हूं जैसा तू आदमियों का राजा है। मैं कोई छोटा—मोटा कौआ नहीं हूं। तू शाही कौए से बात कर रहा है। बामुश्किल मैं खोज पायामैंने हजारों कौए इस खोज में लगा दिए थेआखिर इसका पता चल गयाआखिर मैं आ गया और मैंने यह पी भी लिया—पी कर मैं फंस गया। अब मैं मरना चाहता हूं, क्योंकि सदियां बीत गईं तब से मैं जिंदा हूं। अब मैं मरना चाहता हूं मर नहीं सकता। सिर पटकता हूं चट्टानों परकोई सार नहीं। जहर पी लेता हूं कुछ सार नहीं। गर्दन में फासी लटका कर लटक जाता हूं कुछ सार नहीं। कोई उपाय मेरे मरने का नहीं है। यह पानी बड़ा खतरनाक है सिकंदर!
सिकंदर ने पूछा. तू और मरना क्यों चाहता है?
उस कौए ने कहा : अब क्या करूंवही—वही रागवही—वही उपद्रवकब तक देखूंमिलता तो कुछ है ही नहीं—दौड़— धूपदौड़— धूपदौड़— धूप...! अब तो मैं उनसे ईर्ष्या करने लगा जो मर जाते हैंकम से कम शांति तो मिल जाती है। मुझसे ज्यादा अशात इस पृथ्वी पर कोई नहीं सिकंदर! फिर तेरी मर्जी!
कहते हैंसिकंदर ने हाथ से पानी नीचे गिरा दिया। सीढ़ियां चढ़ कर वापिस लौट आया। पानी उसने पीया नहीं।
कहानी सच हो या झूठीमगर कहानी बड़ी सार्थक है। तुम्हीं सोचोअगर तुम अमर हो जाओक्या करोगेयह पचास—साठ—सत्तर साल की जिंदगी तो किसी तरह कट जाती है। यह कोई बड़ी जिंदगी नहीं है। सत्तर साल आदमी जीता हैउसमें से बीस—पच्चीस साल तो सोने में निकल जाते हैंआठ घंटा रोज सोया तो एक तिहाई तो सोने में निकल गया। पंद्रह—बीस साल पढ़ने—लिखने मेंस्कूली उपद्रव में निकल गएतब कुछ होश ही नहीं था। बचे बीस—स्व साल—तो दफ्तरफैक्टरीदूकानमजदूरीपत्नीबच्चेहजार उपद्रव! मंदिरमस्जिद—इसमें निकल गए। तुम्हारे पास बचता क्या सत्तर साल मेंसात मिनट भी बचते हैं?
लेकिन तुम जरा सोचो कि अगर मरो ही नतो कैसी असुविधा न खड़ी हो जाएगीजिसको जीवन की यह व्यर्थता दिखाई पड़ती हैवह अमरत्व की आकांक्षा नहीं करता। वह कहता है : 'हे प्रभु! महामृत्यु घटित होऐसी मृत्यु घटित हो कि फिर जीवन न मिले। इसी को हम आवागमन से मुक्ति कहते हैं। यही तो पूरब की बड़ी से बड़ी निधि और खोज है। पश्चिम अभी बचकाना है। अभी पश्चिम जीवन से ऊबा नहीं। पूरब बड़ा प्राचीन हैबड़ा प्रौढ़ है—जीवन से ऊब गया। पश्चिम के तो विचारक सोच कर हैरान होते हैं कि यह मामला क्या हैबुद्धमहावीरपतंजलिअष्टावक्रलाओत्सु—ये सब यही एक बात करते हैं कि कैसे छुटकारा होयह मामला क्या हैअरे जीवन छूटने के लिए हैजीवन को थोड़ा लंबा करोनई औषधियां खोजोनए उपाय खोजोआदमी लंबा जीएखूब जीए! ये लोग क्या पागल हैंये सारे बुद्धपुरुषइनका दिमाग फिर गया हैये कहते हैं कि कैसे आवागमन से छुटकारा हो?
पश्चिम अभी बचकाना है। अभी पश्चिम को जीवन का अनुभव नहीं। पूरब ने जीवन का बड़ा लंबा अनुभव लिया है और पाया : यह बिलकुल ही असार है।'पानी केरा बुदबुदा!क्षणभंगुर है! और भीतर कुछ भी नहीं। फूटता है तो शून्य हाथ लगता है। प्याज की तरह है : पर्त —पर्त उघाडते चलो,
नई पर्तें निकलती आतीनिकलती आतीएक दिन शून्यकुछ हाथ नहीं लगता। दौड़ो— धापोकहीं पहुंचते नहींजहां के तहां खड़े—खड़े मर जाते हो। कहीं पहुंचे हो तुमचले तो हो—कोई तीस साल चल लियाकोई पचास साल चल लियाकोई साठ साल चल लिया—लेकिन कहीं पहुंचे होकहीं ऐसा लगता है कि कोई पहुंचना हुआकोई मंजिल आईमार्ग ही मार्ग.. .घूमते रहते! कहीं पहुंचना तो होता नहींतृप्ति तो कुछ होती नहीं। एक अतृप्ति दूसरी अतृप्ति में ले जाती हैदूसरी अतृप्ति तीसरी अतृप्ति में। दो अतृप्तियों के बीच थोड़ी—सी आशा रहती कि शायद तृप्ति होबाकी तृप्ति कभी होती नहींसंतोष कभी आता नहीं। संतुष्टि इस जगत में है ही नहीं।
जन्म—मरण से छुटकारे की आकांक्षा मोक्ष है।
अष्टावक्र ने कहा कि तू जरा गौर से देखजरा हाथ में खुर्दबीन ले कर देख जनक! कहीं भी भय तो नहीं है मरने कानहीं तो यह सब बातऊंची—ऊंची बातबात की बात रह जाएगी। अगर तेरे प्राण में यह उतर गई होतो तुझे मरने को राजी होना चाहिएतुझे महामृत्यु के लिए राजी होना चाहिए। तब तो तुझे अहोभाव से नाचता हुआ मृत्यु के स्वागत के लिए जाना चाहिए।
जो नाचता हुआगीत गुनगुनाता हुआ मृत्यु के स्वागत को गया हैउसी ने जीवन को जाना है। जो डरते और कंपते मृत्यु की तरफ जा रहे हैंवे जीवन को नहीं जानेनहीं पहचाने। और चूंकि जीवन को नहीं पहचानेइसलिए मृत्यु का अर्थ भी नहीं समझ पाते। मृत्यु तो छुटकारा है। मृत्यु तो विश्राम है। लेकिन अगर मरते समय तुम्हारे मन में यह कामना रही कि फिर हो जाऊंफिर हो जाऊंमरते वक्त अगर तुम्हारे मन में यह कामना रही कि अभी थोड़ी देर और जी जाताऔर जी जाता—तो तुम फिर लौट आओगेतुम्हारी वासना तुम्हें फिर खींच लाएगी। वासना के धागे फिर तुम्हें वापिस किसी गर्भ में ले आएंगे। मरते वक्त जो कहता है : अहो,धन्यभागी मैंआश्चर्य कि अब मैं जा रहा हूं और फिर कभी न आऊंगा!
बुद्ध ने ऐसी चेतना को अनागामिन कहा है —जो जाता है और फिर कभी नहीं आताफिर जिसका आगमन कभी नहीं होता। बुद्ध ने कहा : धन्य हैं वे जो अनागामिन हैं—मरते क्षण जो पूरे मर जाते हैं और जो कहते हैं यह यात्रा समाप्त हुईयह व्यर्थ की दौड़— धाप बंद हुईयह सपना अब और नहीं देखना है!
मोक्षकामस्य मोक्षात् एव विभीषिका आश्चर्यम्।
तो तू जरा देखउस पर आश्चर्य कर अगर कहीं भय हो।
'धीर—पुरुष तो भोगता हुआ भी और पीड़ित होता हुआ भी नित्य केवल आत्मा को देखता हुआ न प्रसन्न होता है और न क्रुद्ध होता है। '
धीरस्तु भोज्यमानोउपि पीड्यमानोउपि सर्वदा।
आत्मानं केवलं पश्यन् न तुष्यति न कुप्यति।।
कहने लगे अष्टावक्र कि जनकदेखजो वस्तुत: ज्ञान को उपलब्ध हो गयाजो धीर—पुरुष हैवह फिर न तो प्रसन्न होता है और न क्रुद्ध होता है। हानि हो तो अप्रसन्न नहींलाभ हो तो प्रसन्न नहीं। मान हो तो प्रसन्न नहींअपमान हो तो क्रुद्ध नहीं। तू जरा भीतर देखअगर तेरा सम्मान होतो तू प्रसन्न होगाअगर तेरा अपमान होतो तू नाराज होगाअगर तू हारे जीवन में—आज तू सम्राट है कल भिखारी हो जाना पड़े—तो तेरे चित्त में कोई अंतर पड़ेगाअगर रेखा—मात्र का भी अंतर पड़ता होतो अभी जल्दी मत कर। यह घोषणा बड़ी है जो तू कर रहा हैयह घोषणा मत कर। फिर यह घोषणा अयोग्य है और खतरनाक हैक्योंकि कहीं इस घोषणा का तू भरोसा करने लगे कि यह सत्य हैतो फिर तू सत्य को कभी भी न पा सकेगा।
गुरु की यह सतत चेष्टा दिखाने कीकि कहीं तुम किसी भ्रांत धारणा को जो नहीं हुई हैऐसा मत मान लेना कि हो गई है। बड़ी अनिवार्य है गुरु की यह उपदेशनाबड़ी करुणामयी है! क्योंकि मन तो बड़े जल्दी मानने को होता है कि हो गया और जब बिना किए हो रहा हो तो दिक्कत ही क्यापतंजलि के साथ तो यह खतरा नहीं हैअष्टावक्र के साथ बहुत खतरा है। इसलिए पतंजलि कोई परीक्षा भी नहीं लेतेअष्टावक्र परीक्षा लेते हैं।
यह तुमने खयाल कियापतंजलि के साथ कोई खतरा नहीं हैवे एक—एक इंच बढ़ाते हैं। वे उतना ही बढ़ाते हैं जितना संभव है साधारण मनुष्य को बढ़ना। छलांग वहां नहीं है। और एक सीढ़ी चढ़ो तो ही दूसरी सीढ़ी पर चढ़ सकते हो। पहली सीढ़ी अगर नहीं चढ़ पाए तो दूसरी पर चढ़ ही न पाओगे। इसलिए पतंजलि परीक्षा की कोई व्यवस्था नहीं करते। लेकिन अष्टावक्र ने परीक्षा की व्यवस्था की—करनी ही पड़ी। क्योंकि अष्टावक्र तो कहते हैं कोई सीढ़ी नहींचाहो तो तत्‍क्षणअभी इसी क्षण मुक्त हो सकते हो! यह सुन कर कई पागल तल्लण घोषणा कर देंगे कि हम मुक्त हो गए। इन पागलों को खींच कर इनकी जगह लाना पड़ेगा। इनके लिए सूत्र दिए जा रहे हैं।
'जो अपने चेष्टारत शरीर को दूसरे के शरीर की भांति देखता हैवह महाशय पुरुष स्तुति और निंदा में भी कैसे क्षोभ को प्राप्त होगा?'
चेष्टमानं शरीरं स्वं पश्यत्यन्यशरीरवत्।
जो अपने शरीर को भी ऐसा देखता है जैसे किसी और का शरीर हैजो अपने शरीर को भी अपना नहीं मानताजिसने अपने शरीर से भी उतनी ही दूरी कर ली है जितनी दूसरे के शरीर से है। जैसे तुम्हारे शरीर को कोई चोट पहुंचाएतो मुझे चोट नहीं लगती—ऐसा ही मेरे शरीर को कोई चोट पहुंचाए और तब भी मैं जानता रहूं कि मुझे चोट नहीं लगतीजैसे यह किसी और का शरीर है। तो ही.।
'जो अपने चेष्टारत शरीर को दूसरे के शरीर की भांति देखता हैवह महाशय पुरुष स्तुति और निंदा में कैसे क्षोभ को प्राप्त होगा?
संस्तवे चापि निदाया कथं क्षुभ्येत् महाशय:।
यह 'महाशयशब्द बड़ा प्रिय है। बना है महा फ़ आशय से—जिसका आशय महान हो गयाजो क्षुद्र आशयों से नहीं बंधा हैशरीर के और मन केवृत्ति के और विचार के आशय जिसके जीवन में नहीं रहेजिसने अपने समस्त आशयअपनी समस्त आकांक्षाएं परमात्मा के चरणों मेंमहंत के चरणों में समर्पित कर दी हैं।
'महाशयबड़ा अनूठा शब्द है। हम तो साधारण उपयोग करते हैं। कोई घर आता है तो कहते हैं. आइए महाशयबैठिए! लेकिन उपयोग ठीक है। हमें यह मान कर चलना चाहिए कि दूसरा महाशय हैकिसी क्षुद्र प्रेरणा से नहीं आया होगाप्रभु—प्रेरणा से आया है। इसलिए तो हम अतिथि को देवता कहते हैं। अतिथि आया है तो प्रभु ही आया है। जो आया है वह महाशय है। चोर भी आया है तो भी किसी महाशय से आया होगा। ऐसी प्रतीति साधु—स्वभाव की होनी चाहिए।
कहते हैं. 'वह महाशय पुरुष स्तुति और निंदा में कैसे क्षोभ को प्राप्त होगा?' तो तू देख जनकतुझे क्षोभ होगातेरी स्तुति करूं तो तुझे प्रसन्नता होगी?
प्रसन्नता भी क्षोभ है। क्षोभ का मतलब होता है : तरंगें उठ आनाक्षुब्ध हो जाना। क्रोध तो क्षोभ है हीप्रसन्नता भी क्षोभ है। दुखी होना तो क्षोभ है ही,सुखी होना भी क्षोभ हैक्योंकि दोनों हालत में चित्त तरंगों से भर जाता हैक्षुब्ध हो जाता है। जो सुख और दुख के पार हैवही क्षुब्ध होने के पार है। उसे फिर कोई क्षुब्ध नहीं कर पाता।
तो वे कहते हैं कि अगर तेरा कोई अपमान करे जनकतो तू क्षुब्ध होगा? तेरा कोई सम्मान करे तो तू क्षुब्ध होगातुझमें कोई अंतर पड़ेगा—कोई भी अंतर पड़ेगाअंतर—मात्र पड़े तो तू जो अभी कह रहा हैवह तूने मेरी सुनी बात दोहरा दी। और सत्य को पुनरुक्त नहीं करना चाहिए। सत्य को अनुभव करना चाहिए।
'जो इस विश्व को माया—मात्र देखता है और जो कौतुक को पार कर गया हैवह धीरपुरुष मृत्यु के आने पर भी क्यों भयभीत होगा पू '
जिसकी जिज्ञासाकुतूहलअज्ञान सब बीत गएजिसको अब पूछने को कुछ नहीं बचा हैजो पूछने की यात्रा समाप्त कर चुकाजिसके सब प्रश्न गिर गए हैं।
विगतकौतुक!
यह शब्द प्यारा है। जिसके मन में अब पूछने के लिए कुछ भी नहीं हैप्रश्न ही नहीं है।
मायामात्रमिद विश्व पश्यन् विगतकौतुक:।
'जो इस विश्व को मायामात्र देखता है और जो कौतुक को पार कर गया है...।'
अपि सन्निहिते मृत्यौ कथं त्रस्यति धीरधी:।
'. …..क्या मृत्यु को पास आया हुआ देख कर वह भयभीत होगा?'
क्या जरा भी भय की रेखा उसमें उठेगीतू तो देखआ रही जैसे मृत्युखड़ी तेरे द्वार पर दस्तक दे रही मृत्युआ गए यमदूत अपने भैंसों पर सवार हो कर—तू उनका स्वागत करके उनके साथ जाने को तत्पर होगा कि जरा भी तेरा मन झिझकेगाअगर जरा भी झिझक रह गई होतो फिर तू अभी विगतकौतुक नहीं। अगर जरा भी झिझक रह गई होतो अभी श्रद्धा का जन्म नहीं हुआ। अगर जरा भी झिझक रह गई होतो अभी बहुत कुछ करने को बाकी हैक्रांति घटी नहीं। तू समझा बुद्धि सेअभी प्राणों से नहीं समझा। तूने जाना ऊपर सेअभी अंतरतम में प्रकाश का दीया नहीं जला।
'जिस महात्मा का मन मोक्ष में भी स्पृहा नहीं रखता और जो आत्मज्ञान से तृप्त हैउसकी तुलना किसके साथ हो सकती है?'
'जिस महात्मा का मन मोक्ष में भी स्पृहा नहीं रखता...।'
निस्पृह मानस यस्य नैराश्येउपि महात्मन:।
जो इतना ज्यादा वासना के पार हो गया कि मोक्ष की भी वासना नहीं है। हो तो होन हो तो न हो—यह आत्यंतिक स्थिति है। जब मोक्ष की भी वासना नहीं होतीतभी मोक्ष फलित होता है। यह मोक्ष का विरोधाभास है।
कल मैं एक सूफी फकीर का जीवन पढ़ता था। वह बड़ा धनपति था—फकीर होने के पहले। दमिश्क में रहता था। और दमिश्क की जो बड़ी प्रसिद्ध मस्जिद हैजगत—प्रसिद्ध मस्जिद हैउसके मन में यह आकांक्षा थी कि वह उस मस्जिद का व्यवस्थापक हो जाएवह उसके नियंत्रण में चले। वह बड़े सम्मान की बात थी। वह दमिश्क का सबसे ऊंचा पद था—उस मस्जिद का व्यवस्थापक हो जाना। तो वह धनी तो था हीसब काम छोड़ कर वह सुबह मस्जिद में प्रवेश करने वाला पहला व्यक्ति होता और सांझ मस्जिद को छोड़ने वाला आखिरी व्यक्ति होता। वह दिन भर नमाज में लीन रहता। वह चौबीस घंटे तन्मय हो कर प्रार्थना करता—इस आशय से भीतर कि जब लोग मुझे इतनी प्रार्थना में देखेंगेतो आज नहीं कलमस्जिद में आने वाले लोगों का यह भाव होगा ही कि इतने बड़े नमाजी के रहते हुए कोई और दूसरा व्यवस्थापक हो!
नमाज में उसका रस न था। रस तो इसमें था कि लोग देख लें। लोगों ने देखा भी। महीने बीतेसाल भी बीतने लगालेकिन कोई परिणाम दिखाई न पड़े। ईश्वर से तो कुछ उसे लेना—देना भी न थावह तो सिर्फ प्रदर्शन था। साल पूरा हो गया तो उसने कहायह तो फिजूल की बात है। अगर साल भर में गांव के लोगों को इतना भी पता नहीं.. .कि कोई आ कर कहता भी नहीं मुझसे कि तुम व्यवस्थापक हो जाओ। तो उस रात उसने कहा कि व्यर्थ है यह। बात छोड़ दी। उसने उस रात परमात्मा से प्रार्थना की कि मुझे क्षमा कर। मैंने भी कहां की व्यर्थ बात में साल भर गंवाया! साल भर अगर तेरे को पाने की प्रार्थना की होतीतो शायद तेरे ही दर्शन हो जाते। मगर इन मूढ़ों को कुछ अक्ल न आई। मगर मैं भी मूढ़ हूं मुझे क्षमा कर!
उस रात उसने बड़े निस्पृह मन से प्रार्थना कीउसमें कुछ मांग न थी! वह प्रार्थना करके उठ कर द्वार पर आया कि देखा कि गांव के लोग इकट्ठे हो रहे हैं। उसने पूछा : मामला क्या हैलोगों ने कहा. हम सबने मिल कर तय किया कि तुम उस मस्जिद के व्यवस्थापक हो जाओ। साल भर से हम देखते हैंतुम जैसा कोई नमाजी कभी हुआ!
वह तो बड़ा हैरान हुआ कि आज तो मैंने छोड़ी आकांक्षा और आज ही आकांक्षा पूरे होने का दिन आ गया! लेकिन तब उसे होश भी आया। उसने कहा कि क्षमा करो मित्रोसाल भर तो मैं आकांक्षा करता थातब तुम कहां थेअब तुम आए हो जबकि मैं आकांक्षा छोड़ चुका। जब आकांक्षा छोड़ने से ऐसा फल मिलता है तो अब आकांक्षा न करूंगाअब तुम व्यवस्थापक किसी और को बना लो। और उसे इतना बोध हुआ इस घटना से कि वह सब छोड़—छाड़ कर फकीर हो गया।'मलिक बिन दीनारउसका नाम था। कहते हैं कि उसने मोक्ष की भी आकांक्षा नहीं की फिर। स्वर्ग की आकांक्षा का तो सवाल ही नहींउसने आकांक्षा ही नहीं की। जब मरा तो किसी बुजुर्ग को सपने में दिखाई दिया और बुजुर्ग ने पूछा क्या खबर हैवहा कैसा हुआ?
क्योंकि जिस दिन मलिक बिन दीनार मराउसी दिन एक और फकीर मरा—हसन नाम का एक फकीर मरा। दोनों की बड़ी ख्याति थी। तो पूछा बुजुर्ग ने कि तुम दोनों साथ—साथ मरेएक ही समय मरेतो मोक्ष के दरवाजे पर एक साथ पहुंचे होओगेपहले प्रवेश किसको मिला?
मलिक बिन दीनार ने कहा कि मैं भी बड़ा चकित हूं, पहले प्रवेश मुझको मिला। और मैंने पूछा प्रभु को कि मुझे प्रवेश पहले देने का क्या कारण है?क्योंकि हसन मुझसे ज्यादा बुद्धिमान है। हसन
मुझसे ज्यादा ज्ञानी है। हसन के पास तो मैं भी सीखने जाता था। तो प्रभु ने कहा. तुझसे ज्यादा ज्ञानी हैवह तुझसे ज्यादा त्यागी हैलेकिन उसके मन में मोक्ष की आकांक्षा थी और तेरे मन में मोक्ष की आकांक्षा न थी! तू पहले प्रवेश का हकदार है।
मोक्ष की आकांक्षा भी जिसकी छूट गई होजिस महात्मा का मन मोक्ष की भी स्पृहा न करता हो और जो आत्मज्ञान से तृप्त हैऔर जो अपने होने से तृप्त हैजिसकी तुष्टि अपने में हैजो अब कुछ भी नहीं मांगताजो कहता है मेरा होना काफी हैकाफी से ज्यादा हैऔर मुझे चाहिए क्या—जो ऐसा कहता है! जो कहता हैमैंने अपने को जान लियाभर पायाखूब पायामिल गया सबअब मुझे कुछ भी नहीं चाहिए!
'आत्मशान से जो तृप्त है.......। '
तस्यात्म ज्ञानतृप्तस्य तुलना केन जायते।
'…….उसकी तुलना किसी से भी नहीं हो सकती। '
तो हे जनकतेरे मन में मोक्ष की स्पृहा तो नहीं हैअभी भी तेरे मन में मुक्त होने की आकांक्षा तो नहीं हैतुझे जो यह आत्मज्ञान हुआ हैजैसा तू कह रहा है कि हो गयाइससे परितृप्त हो गया तूअब और तो कुछ नहीं चाहिएतेरी तृप्ति पूरी हो गईअब तू कुछ और तो न मांगेगाअगर प्रभु तेरे सामने आ जाए और कहे कि सुन जनकतुझे क्या चाहिएमैं देने को तैयार हूं —तो तेरे पास मांगने को कुछ होगाया तू सिर्फ धन्यवाद देगातू कुछ मांगेगा या धन्यवाद देगातू यह कहेगा कि आपने दे दिया सबअब मुझे कुछ चाहिए नहीं। अब तो कुछ भी नहीं चाहिएऐसा तू कह सकेगा बिना किसी अड़चन केजरा—सी भी भीतर द्वंद्व की स्थिति न बनेगीमन तेरा न कहेगा कि अरेअब प्रभु कहते हैं तो थोड़ा कुछ मांग ही लोजन्मों —जन्मों तक आकांक्षा कीअब घड़ी आईशुभ घड़ी कि परमात्मा स्वयं कहता है कुछ मांग लोमेरे वरदहस्त आज तुम्हें लुटाने को तैयार हैंखड़े हैं तुम्हारी झोली भरने को—तो तेरा मन झोली फैला तो न देगा?
ये सारी बातें अष्टावक्र कहने लगेताकि जनक अपने को देख ले कहां है।
'जो जानता है कि यह दृश्य स्वभाव से ही कुछ भी नहीं हैवह धीरबुद्धि कैसे देख सकता है कि यह ग्रहण करने योग्य है और यह त्यागने योग्य?'
यह बड़े महत्व का सूत्र है इन सब सूत्रों में महत्व का सूत्र है। इस सूत्र का अर्थ है कि अष्टावक्र कहते हैं कि जनक देखइन सारी बातों  को सुन कर—मैंने कहा कि धीरपुरुष धन में आकांक्षा न रखेगामैंने कहा कि धीरपुरुष मोक्ष में भी आकांक्षा न रखेगामैंने कहाधीर—पुरुष साम्राज्य मेंमहल मेंसंपत्ति के विस्तार में आकांक्षा न रखेगा—इससे ऐसा तो नहीं होता कि तेरे मन में एक सवाल उठ रहा हो : तो मैं इस सबका त्याग कर दूंयह बड़ी बारीक बात है। मेरी ये बातें सुन कर तेरे मन में ऐसा तो नहीं हो रहा है कि इस सबका त्याग कर दूंक्योंकि धीरपुरुष तो धन की आकांक्षा नहीं रखतामहल की आकांक्षा नहीं रखतासुख—सुविधा की आकांक्षा नहीं रखतातो मैं इन सबको छोडूं और जंगल चला जाऊं—अगर तेरे मन में ऐसा हो रहा होतो अभी तू धीरपुरुष नहीं। क्योंकि धीरपुरुष न तो वस्तु की आकांक्षा करता हैन वस्तु के त्याग की आकांक्षा करता है। तो तेरे भीतर कहीं भोग बचा हैइसके लिए अब तक के सूत्र कहे कि अगर कहीं भी भोग की आकांक्षा बची है तो खोज ले।
अब यह बड़ा सूत्रउससे भी बड़ा सूत्र है कि वे कहते हैं. अब मैं तुझसे यह पूछता हूं कि हो सकता है भोग न बचा होत्याग की आकांक्षा तो नहीं है कहीं?
क्योंकि त्याग की आकांक्षा भोग का ही दूसरा रूप है। त्याग की आकांक्षा भोग ही है—सिर के बल खड़ाकुछ फर्क नहीं। भोग कहता है पकड़ोत्याग कहता है छोड़ोलेकिन पकड़ने और छोड़ने में जिस पर ध्यान होता हैवह तो एक ही चीज है—धनकामिनी या काचन। भोग कहता है : और स्त्रियां। त्याग कहता है. 'बिलकुल नहीं। 'लेकिन दोनों की नजर तो स्त्री पर होती है या पुरुष पर होती है। भोग कहता है. 'और— और धन!त्याग कहता है. 'बिलकुल नहीं; .और—और त्याग!लेकिन दोनों के मन में अभी औरतो होता है।
न भोगी को तुम तृप्त पाओगेन त्यागी को। क्योंकि त्यागी सोचता है अभी और त्याग करना हैऔर भोगी सोचता है अभी और भोग करना है। बड़े मजे की बात हैदोनों की दृष्टि औरपर लगी है—और! इस औरको ठीक से समझनाइस औरमें ही सारा संसार समाया है।
तुम भोगी को भी बेचैन पाओगे। वह कहता है कि हैकार तो हैलेकिन और बड़ी चाहिएमकान हैलेकिन और बड़ा चाहिए। तुम त्यागी के भीतर खोजो। त्यागी कहता हैकिए तो उपवासलेकिन और! त्याग किया तोलेकिन और! अभी और बहुत कुछ छोड़ने को है। क्रोध छोड़ामाया छोड़ीमोह छोड़ना हैप्रतिष्ठा छोड़नी हैअहंकार छोड़ना है। लेकिन 'औरकी दौड़ तो बराबर जारी है। न भोगी तृप्त हैन त्यागी तृप्त है।
स्वभावादेव शानानो दृश्यमेतन किंचन।
इदं ग्राह्यमिदं त्याज्य स किं पश्यति धीरधी:।।
जो वस्तुत: धीर हो गयाजो वस्तुत: धैर्य को उपलब्ध हो गयाजो वस्तुत: शात हो गया और जिसने वस्तुत: जान लिया कि ये सब दृश्य स्वभाव से ही कुछ भी नहीं हैं—उसके मन में न तो ग्रहण करने की कोई वासना उठतीऔर न त्याग की कोई वासना उठती है।
भोगी और योगी में बहुत अंतर नहीं हैवे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। भोगी और त्यागी में कोई भेद नहीं हैवे एक ही तर्क की दो व्याख्याएं हैं। मगर तर्क एक ही है। वास्तविक धीर तो वही है जो दोनों के पार हो गया।
देखते हैंपरीक्षा कैसी कठिन होती जाती है! जनक को कैसे कसते जाते हैं सब तरफ सेभागने की कोई जगह नहीं दे रहे हैं! अभी तक भोग का खंडन किया थातो एक उपाय था जनक को भागने काकि जनक सोचता कि ठीक हैअष्टावक्र कहते हैं कि यह सब ज्ञानी नहीं करता—धनमायामदपदव्यवस्था,साम्राज्यमहलयह सब नहीं करता। तो एक छुटकारे की जगह थी—तो ठीक हैसब छोड़ दूंगा।
अहंकार शान के दावे में छोड़ भी सकता है। अगर इस पर ही कसौटी हो जाए कि तुमने जो वक्तव्य दिया है जनककि मैं जाग गयायह वक्तव्य तभी सही सिद्ध होगाजब तुम यह सब छोड़ दोक्योंकि जागा हुआ आदमी इन सब चीजों में नहीं होता—तो  अहंकार की यह खूबी हैसूक्ष्म खूबी कि अहंकार इसके लिए भी राजी हो जाएगा। जनक कहता. अच्छाअगर यही कसौटी हैहम पूरी किए देते हैं! मैं जाता यह सब छोड़ कर! यह रहा पड़ा साम्राज्यमैं चला!
लेकिन उससे कुछ सिद्ध न होता। उससे यह बिलकुल भी सिद्ध न होता कि साम्राज्य स्वन्नवत हुआ। क्योंकि स्वप्न न तो पकड़े जा सकते हैं और न छोड़े जा सकते हैं। जब तुमसे कोई कहे कि मैंने लाखों रुपये त्याग कर दिए तो समझ लेना कि त्याग नहीं हुआहिसाब जारी है। तब तुम पक्का समझ लेना कि यह आदमी अभी भी हिसाब कर रहा है कि इसने कितने रुपये छोड़ दिएरुपये अभी भी बहुत वास्तविक हैं।
मेरे एक मित्र हैंउन्होंने लाखों रुपये छोड़े हैं। मुझसे बुजुर्ग हैं। कई वर्ष हो गएतब उन्होंने छोड़ेमगर जब भी मैं उनसे मिलने जाता था तो वे किसी न किसी बहाने यह बात निकाल ही देते कि मैंने लाखों रुपयों पर लात मार दी। एक दफा सुना मैंनेदो दफे सुनातीसरी दफे मैंने उनसे कहा कि सुनेंनाराज न हों। यह लात आपने कब मारी थी?
कहने लगेकोई तीस—पैंतीस साल पहले की बात हैलाखों पर लात मार दी!
मैंने कहायह लात आपने मारीलेकिन लग नहीं पाई। इसको दोहराते क्यों हैंतीस—पैंतीस साल की बात गई—बीती हो गईइसको दोहराते क्यों हैं?वह लाखों का हिसाब अभी भी कायम हैपहले अकड़ कर चलते रहे होंगे कि मेरे पास लाखों हैंअब अगडु कर चलते हैं कि लाखों पर लात मार दी—अकड़ वहीं की वहीं है! पहली अकड़ से दूसरी अकड़ थोड़ी ज्यादा खतरनाक है। क्योंकि पहली अकड़ तो दिखाई भी पड़ जाती हैदूसरी दिखाई भी नहीं पड़तीअति सूक्ष्म है।
जनक के लिए वह दरवाजा खुला रखा था इतनी देर तक अष्टावक्र नेअब उसे भी बंद कर दिया। अब जनक को भागने की कोई जगह नहीं रही। अब तो जागने की ही जगह रहीभागने की कोई जगह नहीं रही। अब तो सीधे सत्य को स्वीकार करना होगा कि या तो हुआ है तो हुआ हैया नहीं हुआ है तो नहीं हुआ है। बचने का कोई उपाय नहीं है।'
स्वभावादेव ज्ञानानो दृश्यमेतव्र किंचन।
अरेजिसे सब माया दिखाई पड़ने लगीउसे कैसा छोड़नाकैसा पकड़ना!
इर्द ग्राह्यमिदं त्याज्य स किं पश्यति धीरधी:।
उसे तो कुछ दिखाई ही नहीं पड़ता कि इसमें पकड़ना और छोड़ना क्या?
धीर—पुरुष ऐसा नहीं कहता कि सोना मिट्टी है। धीर—पुरुष कहता है. सोना सोना हैमिट्टी मिट्टी हैपर दोनों अर्थहीनदोनों सारहीन। वह कहता है. महल में बैठो तोमहल के बाहर बैठो तो—सब बराबर हैंदोनों सपने हैं। अमीर का सपना हैगरीब का सपना हैसफल का सपना हैअसफल का सपना है—दोनों सपने हैं। सपने बदलने से कुछ भी न होगा। एक रात तुमने सपना देखा कि डाकू होदूसरी रात सपना देखा कि संत हों—दोनों सपने हैंदोनों का कोई मूल्य नहीं है। न तुम डाकू होन तुम साधु हो।
तुम जब तक अपने को कोई तादात्म्य देते हो तब तक भांति जारी रहेगी। तुम तो परम शून्य होतुम तो परम प्रज्ञा होतुम तो परम साक्षी हो।
त्याग भी तो कृत्य हुआ! जैसे भोग कृत्य हैवैसे त्याग भी कृत्य है। और अष्टावक्र का पूरा क्रांति—सूत्र यही है. कर्ता नहींभोक्ता नहीं—साक्षी। छोड़ावह भी कर्म हुआ। पकड़ावह भी कर्म हुआ। दोनों में तुम कर्ता हो गएदोनों में अहंकार निर्मित होगा। कृत्य से अहंकार निर्मित होता है। तुम
साक्षी हो जाओ।
'जिसने अंतःकरण के कषाय को त्याग दिया है और जो द्वंद्व—रहित और आशा—रहित हैऐसे पुरुष को दैवयोग से प्राप्त वस्तु से न दुख होता है और न सुख होता है।'
'जिसने अंतःकरण से कषाय को त्याग दिया,…..। '
अंतःकरण से कषाय को त्यागने का अर्थ है. जिसने जाग कर देख लिया कि कषाय मेरे नहींजिसने दीया जला कर देख लिया कि मैं तो सिर्फ प्रकाश हूं और मैं कोई भी नहीं। न क्रोध मेरान मोह मेरा। पकड़ने—छोड़ने की बात नहींइतना जानने की बात है कि दोनों मेरे नहीं। न भोग मेरान त्याग मेरा।
'जिसने अंतःकरण से कषाय को त्याग दिया है और जो द्वंद्व—रहित और आशा रहित है...।'
अब न तो कोई द्वंद्व है भीतरक्योंकि दो बचे नहींसिर्फ साक्षी बचा है। साक्षी सदा एक है। और यह शब्द बड़ा अदभुत है. निरद्वंद्वस्य निराशिषः। जो द्वंद्व से रहित और आशा से रहित है! अब जो कोई भी आशा नहीं करता कि ऐसा होवैसा होयह मिलेवह मिले—जिसके लिए कल समाप्त हो गया!
दो कल हैं हमारे आज के दोनों तरफ। एक कल है बीता हुआउससे द्वंद्व पैदा होता है। एक कल है आने वालाउससे आशा जगतीवासना जगती। जिसने अतीत के कल को छोड़ दियाजिसने कह दिया कि जो भी मैं अब तक थासब सपना था—वह मुक्त हुआ अतीत से। और जिसने सब आशा छोड़ दी,जिसने कहा जो मैं हूं वह काफी हूं अब मुझे कुछ और होना नहींकहीं और जाना नहींजहं। हूं वहीं मेरा घर हैजहां हूं वैसा होना ही मेरा स्वभाव हैजैसा हूं तैसा ही होना मेरा नियति हैअन्यथा की कोई चाह नहीं—उसने भविष्य को मिटा दिया। जिसने अतीत और भविष्य को पोंछ डालावह शाश्वत में प्रवेश कर जाता है।
अंतस्मक्तकषायस्य निर्द्वन्द्वस्य निराशिष:।
यदृच्छयागतो भोगो न दुखाय न तुष्टये।
उसे जो मिल जाएवह दैवयोग सेभाग्य से—सुख मिले तोदुख मिले तो।
यह समझना। यह सूत्र याद रखनाभूलना मत। तुम कहते हो : जो मिलता हैअपने कृत्य सेकर्म से..। यह कर्म की फिलॉसफी नहीं है। यह साक्षी का दर्शन है। अष्टावक्र कहते हैं. उसे दुख मिलता है तो वह कहता है : दैवयोगप्रभु इच्छाअदृश्य की इच्छा! दुख मिलता तोसुख मिलता तो! न तो सुख में वह कहता है कि मेरे कारण मिलान दुख में कहता है मेरे कारण मिला। वह तो कहता हैमैं तो सिर्फ देखनेवाला हूंयह मिलना न मिलना उसकी लीला! फिर कैसा खेद! न तो फिर प्राप्त वस्तु में दुख है और न सुख है।
जीसस ने सूली पर आखिरी क्षण में कहा है : तेरी मर्जी पूरी हो! मेरी मर्जी मत सुन! मैं क्या कहता हूं इस पर ध्यान मत दे! तेरी मर्जी पूरी हो! क्योंकि मैं तो जो भी कहूंगा वह गलत होगा और तू जो भी कहेगावही ठीक है। मैं चाहूं या न चाहूं वही हो जो तेरी मर्जी है!
जब भी तुम प्रभु से प्रार्थना करते हो और कहते हो ऐसा कर देवैसा कर दे—तभी तुम्हारी प्रार्थना विकृत हो गईखंडित हो गईप्रार्थना न रही। तुम तो प्रभु को सुझाव देने लगे। तुम तो कहने लगे मैं तुझसे ज्यादा समझदारतू यह क्या कर रहा है?
एक सूफी फकीर हुआउसके दो बेटे थे—जुडवां बेटेबड़े प्यारे बेटे थे! और बड़ी देर से बुढ़ापे में पैदा हुए थे। उसका बड़ा मोह था उन पर। वह एक दिन मस्जिद में प्रवचन दे कर लौटाघर आया तो वह आते ही से रोज पूछता था कि आज बेटे कहां हैंअक्सर तो वे मस्जिद जाते थेआज नहीं गए थे सुनने। उसने पूछा पत्नी सेबेटे कहां हैं? उसने कहाआते होंगेकहीं खेलते होंगेतुम भोजन तो कर लो! उसने भोजन कर लिया। भोजन करके उसने फिर पूछा कि बेटे कहा हैं?क्योंकि ऐसा कभी न हुआ थावे भोजन उसके साथ ही करते थे। तो उसने कहाइसके पहले कि मैं बेटों के संबंध में कुछ कहूं एक बात तुमसे पूछती हूं। अगर कोई आदमी बीस साल पहले अमानत में कुछ मेरे पास रख गया थादो हीरे रख गया थाआज वह वापिस मांगने आयातो मैं उसे लौटा दूं कि नहीं?
फकीर ने कहायह भी कोई पूछने की बात हैयह भी तू पूछने योग्य सोचती हैलौटा ही देने थेमेरे से पूछने की क्या बात थीउसके हीरे उसे वापिस कर देने थेइसमें हमारा क्या लेना—देना हैतू मुझसे पूछने को क्यों रुकी?
उसने कहाबसठीक हो गया। पूछने को रुक गई थीअब आप आ जाएं!
वह कमरे में ले गईदोनों बेटे मुर्दा पड़े थे। पास के एक मकान में खेल रहे थे और छत गिर गई। फकीर ने देखाबात को समझाहंसने लगा। कहा. तूने भी ठीक किया। ठीक हैबीस साल पहले कोई हमें दे गया थाअदृश्यदैवयोगपरमात्मा या जो नाम पसंद हो—आज ले गयाहम बीच में कौनजब ये बेटे नहीं थे,तब भी हम मजे में थेअब ये बेटे नहीं हैं तो हम फिर वैसे हो गए जैसे हम पहले थे। इनके आने—जाने से क्या भेद पड़ता है! तूने ठीक किया। तूने मुझे ठीक जगाया। जो भी हो रहा हैवह मेरे कारण हो रहा है—इससे ही 'मैंकी भ्रांति पैदा होती है। जो हो रहा हैवह समस्त के कारण हो रहा हैमैं सिर्फ द्रष्टा—मात्र हूं—ऐसी समझ प्रगाढ़ हो जाएऐसी ज्योति जले अकंपनिर्धूमतो साक्षी का जन्म होता है।
अष्टावक्र ने जनक को कहा. तू देख ले अपने को इन सब बातों  पर कस कर। अगर इन सब बातों पर ठीक उतर जाता होतो तूने जो घोषणा कीवह परम घोषणा है। अगर इन बातों  पर ठीक न उतरता होतो अपनी घोषणा वापिस ले ले। क्योंकि झूठी घोषणाएं खतरनाक हैं। तू मुझे सुन कर विश्वास मत बनातू मुझे सुन कर श्रद्धा को जगा! तू सत्य में स्वयं जाग। मेरी जाग तेरी जाग नहीं हो सकती और मेरी रोशनी तेरी रोशनी नहीं हो सकती। मेरी आंखें मेरे काम आएंगी और मेरे पैर से मैं चलूंगा। तुझे तेरे पैर चाहिए और तेरी आंखें चाहिए और तेरी रोशनी चाहिए। तू ठीक से पहचान ले तू मुझसे प्रभावित तो नहीं हो गया है?
कृष्णमूर्ति निरंतर कहते हैं किसी से प्रभावित मत होना। वे ठीक कहते हैं। वह अष्टावक्र का ही सूत्र है। किसी से प्रभावित मत होना। जागोअनुकरण में मत पड़ जाना। अनुकरण तो सिर्फ नाटक हैअभिनय हैजीवन का उससे कुछ लेना—देना नहीं।
यही मैं तुमसे भी कहता हूं। मुझे सुनोलेकिन सुन लेना काफी नहीं है। सुनते—सुनते जागो! जो सुनोउसको पकड़ कर मत बैठ जाना। नहीं तो पिंजरा हाथ लगेगापक्षी उड़ जाएगा या मर जाएगा। जो सुनोउसे जल्दी खोल लेनागुन लेना। जो सुनोउसे जल्दी रूपांतरित करनापचानानहीं तो अपच हो जाएगा। उसे पचाना! वह तुम्हारा खून बनेतुम्हारे खून में बहेतुम्हारी हड्डी बनेतुम्हारी

 मज्जा बनेतुम्हारा प्राण बने—तो  श्रद्धा!
श्रद्धा का अर्थ है : पचाया हुआ। विश्वास का अर्थ है : अनपचा।

विश्वास बोझ हो जाता हैश्रद्धा मुक्ति लाती है!