Ashtavakr Mahageeta (Day 61)



इन छोटी सी दो पंक्तियों में ज्ञान की परम व्याख्या समाहित है। इन दो पंक्तियों को भी कोई जान ले और जी ले तो सब हो गया। शेष करने को कुछ बचता नहीं। अष्टावक्र के सूत्र ऐसे नहीं हैं कि पूरा शास्त्र समझें तो काम के होंगे, एक सूत्र भी पकड़ लिया तो पर्याप्त है। एक एक सूत्र अपने में पूरा शास्त्र है। इस छोटे से लेकिन अपूर्व सूत्र को समझने की कोशिश करें। वासनामुक्त स्वतंत्र स्वछन्दचारी और बंधन रहित पुरुष प्रारब्ध रूपी हवा से प्रेरित हो कर शुष्क पत्ते कीभांति व्यवहार करता है। 
लाओ-सू  के जीवन में उल्लेख है कि वर्षों तक खोज में लगा रह कर भी सत्य की कोई झलक न पा सका। सब चेष्टाएँ की, सब प्रयास सब उपाय सब निष्फल गए।थक कर हारा पराजित एक दिन बैठा है पतझड़ के दिन हैं, वृक्ष के नीचे।अब न कहीं जाना है न कुछ पाना है,  हार पूरी हो गयी। आशा भी नहीं बची है, आशा का कोई तंतुजाल नहीं जिसके सहारे भविष्य को फैलाया जा सके अतीत व्यर्थ हुआ भविष्य भी व्यर्थ हो गया यही क्षण बस काफी है। इसके पार वासना के कोई पंख नहीं कि उड़े। संसार तो व्यर्थ हुआ ही मोक्ष सत्य परमातमा भी व्यर्थ हो गए। ऐसा बैठा है चुपचाप कुछ करने को नहीं है। कुछ करने जैसा नहीं है। और तभी एक पत्ता सूखा वृक्ष से  गिरा।  देखता रहा गिरते पत्ते को।धीरे धीरे हवा पर  डोलता वृक्ष का पत्ता नीचे गिर गया। हवा का आया अंधड़ फिर उठ गया पत्ता ऊपर फिर गिरा पूरब गयी हवा तो पूरब गया, पश्चिम गयी तो पश्चिम गया। और कहते हैं वहीँ उस सूखे पत्ते को देखकर लाओ-सू समाधि को उपलब्ध हुआ। सूखे पत्ते के व्यवहार में ज्ञान की किरण मिल गयी। लाओ-सू  ने कहा बस ऐसा ही मैं  भी हो रहूँ । जहां ले जाएँ हवाएँ  चला जाऊं, जो करवाए प्रकृति कर लूँ। अपनी मर्जी न रखूँ।अपनी आकांक्षा न थोपूं। मेरी निजी कोई आकांक्षा ही  न हो। यह जो विराट का खेल चलता है , इस विराट के खेल में मैं एक तरंग मात्र की भांति सम्मिलित हो जाऊं। विराट की योजना ही में मेरी योजना हो और विराट का संकल्प ही  मेरा संकल्प। और जहां जाता हो यह अनंत वहीं मैं भी चल पडूं , उससे अन्यथा मेरी कोई मन्ज़िल नहीं। डुबाये तो डूबूं उबारे तो उबरूं। डुबाये तो डूबना ही  मंज़िल और जहां डुबादे  वहीं किनारा। और कहते हैं लाओ-सू उसी क्षण परम ज्ञान को उपलब्ध हो गया।ये सूत्र पहला सूत्र अष्टावक्र का निर्वासनो। हिंदी में अनुवाद किया गया वासना मुक्त उतना ठीक नहीं।  निर्वासना का अर्थ होता है - वासना शून्य, वासना मुक्त नहीं। क्योंकि मुक्त में तो फिर भाव आ गया कि जैसे कुछ चेष्टा हुई है, मुक्त में तो भाव आ गया जैसे कुछ संयम साधा है मुक्त में तो भाव आ गया अनुशासन का योग का विधि विधान का मुक्त का तो अर्थ हुआ जैसे कि बंधन थे और उनको तोडा है  जैसे की काराग्रह वास्तविक था और हम बाहर निकले। नहीं वासनाशून्य निर्वासनो वासना रहित मुक्त नहीं वासनाशून्य
 जिसने वासना को गौर से देखा और पाया  कि वासना है ही नहीं ऐसे वासना के आभाव को जिसने अनुभव कर लिया है फर्क को समझ लेना फर्क बारीक है यहीं योग और सांख्य का भेद है यहीं साधक और सिद्ध का भेद है साधक कहता है साधूंगा चेष्टा करूंगा बंधन है गिराऊँगा काटूंगा लडूंगा उपाय से होगा विधि विधान यम नियम ध्यान धारणा विस्तार है प्रक्रिया का उससे तोड़ दूंगा बंधन को। सिद्ध की घोषणा है कि  बंधन है नहीं उपाय की जरूरत नहीं आँख खोलके  देखना भर पर्याप्त है जो नहीं है उसे काटोगे कैसे तो दुनिया में दो तरह  के लोग हैं एक संसार में  बंधन है ऐसा मान के तड़फ रहे है एक संसार का बंधन तोडना है  ऐसा मान के लड़ रहे हैं और बंधन नहीं है ऐसा समझो कि रात के अँधेरे में राह पर  पड़ी रस्सी  को सांप समझ लिया है एक है जो भाग रहा है  पसीना पसीना छाती धड़क रही है घबरा रहा है कि सांप है  भागो बचो और दूसरा कहता है गभराओ मत लकड़ियाँ लाओ मारो एक भाग रहा है  एक सांप को मार रहा है दोनों ही भ्रांन्ति में हैं क्योंकि सांप है नहीं  सिर्फ दिया जलाने की बात है न भागना है न मारना है रौशनी में दिख जाए कि रस्सी पड़ी है तो तुम हसोगे। अष्टावक्र की सारी चेष्टा तीसरी है रौशनी आँख खोल के देख लो थोड़े शांत बैठ के देख लो  थोड़े निस्चल मन होके  देख लो कहीं कुछ बंधन नहीं है वासना है नहीं प्रतीत होती है फिर प्रतीति को अगर सच मान लिया तो दो उपाय हैं संसारी हो जाओ य योगी हो जाओ। भोगी हो जाओ य योगी हो जाओ। भोगी हो गए तो भागो सांप को मानकर तड़फ़ो योगी हो गए तो लड़ो। अष्टावक्र कहते हैं इन दोनों के बीचमें  एक तीसरा ही मार्ग है एक अनूठा ही मार्ग है न भोग का न त्याग  का, देखने का दृष्टा का  साक्षी का जागो इसलिए मैं निर्वासना का अनुवाद वासनामुक्त न करूंगा निर्वासना में जो व्यक्ति है वो वासनमुक्त है यह सच है लेकिन अनुवाद वासना मुक्त करना ठीक नहीं है क्योंकि वो भाषा योगी की है वासनामुक्त वासनशून्य वासनारिक्त निर्वासनो जिसने जान लिया कि वासना नहीं है जाग कर देखा और पाया कि कारागृह नहीं है नहीं था नहीं हो सकता है जैसे रात सपना देखा था पड़े थे कारागृह में हथकड़ियां पड़ी थी और सुबह आँख खुली जाना की झूट था सब जाना कि सपना था अपना ही माना था अपना ही  निर्मित किया था लेकिन लोग सपनों में खो जाते हैं अपने सपनो की तो छोड़ो दूसरों के सपने में खो जाते हैं अपना पागलपन प्रभावित करता है ये तो ठीक ही है दूसरा भी पागल हो रहा हो तो तुम  आवेष्टित हो  जाते हो। मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुदीन अपने एक मित्र के साथ कड़ी धूप है
और वृक्ष की छाया में बैठा है झटके से उठ के बैठ गया और कहने लगा कि प्रभु करें कभी वो दिन भी आएंगे जरूर।  देर है अंधेर तो नहीं जब अपना भी महल होगा सुन्दर झील होगी घने वृक्षों की छाया होगी विश्राम करेंगे वृक्षों की छाया में झील पर तैरेंगे और ढेर की ढेर आइसक्रीम।  मित्र भी उठ के बैठ गया उसने कहा एक बात बड़े मियां अगर मैं आऊं तो आइस क्रीम में मुझे भी भागीदार बनाओगे य नहीं। मुल्ला ने कहा इतना ही कह सकते हैं  की अभी कुछ न कह सकेंगे, अभी कुछ नहीं कह सकते अभी तुम बात न उठाओ। उस आदमी ने कहा छोड़ो आइसक्रीम वृक्ष की छाया में तो विश्राम  करने दोगे झील में तो तैरने दोगे। मुल्ला सोच में पड़ गया उसने कहा कि अभी तो इतना ही कह सकते की अभी कुछ नहीं कह सकते। वो आदमी बोला  अरे हद हो गयी वृक्षों की छाया में विश्राम  भी न करने दोगे नसरुद्दीन  ने कहा आदमी कैसे हो आलस्य की भी सीमा होती है अरे अपनी कल्पना के घोड़े दौड़ाओ मेरे घोड़ों पे क्यों सवार होते हो। न कोई महल है न कोई झील है अपने घोड़े भी नहीं दौड़ा सकते। इसमें भी उधारी इसमें भी तुम मेरे घोड़ों पर सवार हो रहे आदमी पर खुद की  कल्पना तो चढ़ ही जाती है दूसरों की भी चढ़ जाती है आदमी इतना बेहोश है तुम पर अपनी महत्वकांक्षा तो चढ़ ही जाती है दूसरे  की महत्वकांक्षा भी चढ़ जाती है।  महत्वकांक्षी के पास बैठो कि तुम्हारे भीतर भी महत्वकांक्षा सरसरी लेने लगेगी। संक्रामक है हम बेहोश हैं निर्वासना का अर्थ होता है अब कल्पना के रंग चढ़ते नहीं अब आकांक्षाएँ प्रभावित नहीं करती अब महत्वकांक्षाओं के झूठे सतरंगे महल प्रभाव नहीं लाते टूट गए वे  इंद्रधनुष कितने ही  रंगीन हों जान लिए गए पहचान लिए गए झूठे थे अपनी ही आँखों का फैलाव थे अपनी ही वासना  की तरेंगे थे कहीं थे नहीं । और हम नाहक ही उनके कारण सुखी और दुखी होते थे निर्वासना का अर्थ है  वासना नग्न देख ली गयी और पायी नहीं गयी।  शून्य हो गया चित्त। निर्वासनो निरालम्बा  । निरालम्ब के लिए हिंदी में अनुवाद किया जाता है स्वतंत्र, वह भी ठीक नहीं।
निरालंभ का अर्थ होता है निराधार स्वतंत्र में थोड़ी भनक है लेकिन सच नहीं पूरी पूरी नहीं। स्वतंत्र का अर्थ होता है अपने ही आधार पर अपने ही तंत्र पर निरालम्ब का अर्थ होता है जिसका कोई आधार नहीं न अपना न पराया आधार ही नहीं जो निराधार हुआ। अष्टावक्र कहते हैं कि जब तक कुछ भी आधार है तब तक डगमगाओगे।बुनियाद है तो भवन गिरेगा।देर से गिरे मजबूत होगी बुनियाद तो कमजोर होगी तो जल्दी गिरे लेकिन आधार है तो गिरेगा सिर्फ निराधार का भवन नहीं गिरता कैसे गिरेगा  आधार ही नहीं। आधार है तो आज नहीं कल पछताओगे साथ संग छूटेगा सिर्फ निराधार नहीं पछताता
है ही नहीं जिससे साथ छूट जाये संग छूट जाये कोई हाथ में ही हाथ नहीं परमात्मा तक का आधार मत लेना ऐसा  अष्टावक्र की देशना  है। क्योंकि परमात्मा की आधार भी तुम्हारी कल्पना के ही खेल हैं कैसा परमात्मा किसने देखा कब जाना तुम ही फैला लोगे पहले संसार का जाल बुनते रहे निष्णात (well versed) हो बड़ी कल्पना में फिर तुम परमात्मा की प्रतिमा  खड़ी कर लेते हो। पहले संसार में खोजते रहे संसार से चूक गए नहीं मिला नहीं मिला क्योंकि वो भी कल्पना का जाल था मिलता कैसे अब परमात्मा का कल्पना जाल फैलाते हो।अब तुम कृष्ण को सजा के खड़े हो अब उनके मुँह  पे बांसुरी रख दी है गीत तुम्हारा है ये कृष्ण भी तुम्हारे ये बांसुरी भी तुम्हारी ये गुनगुनाहट भी तुम्हारी ये मूर्ति तुम्हारी है और फिर इसी के सामने घुटने टेक के झुके हो ये शास्त्र तुमने रच लिए हैं और फिर इन शास्त्रों को छाती से लगाए बैठे हो ये स्वर्ग और नर्क और ये मोक्ष और ये इतने दूर दूर के  जो तुमने बड़े वेतांत ताने हैं  ये तुम्हारी ही आकांक्षाओं के खेल हैं संसार से थक गए लेकिन वस्तुतः वासना से नहीं थके यहाँ से तम्बू उखाड दिया  तो मोक्ष में  लगा दिया  स्त्री के सौंदर्य से ऊब गए पुरुष के सौंदर्य से ऊब गए तो अप्सराओं के सौंदर्य देख रहे हो य राम की कृष्ण की मूर्ति को सजा के श्रृंगार कर रहे हो मगर खेल जारी है खिलोने बदल गए खेल जारी है खिलोने बदलने से कुछ भी नहीं होता खेल बंद होना चाहिए। अष्टावक्र कहते हैं निर्वासनो निरालम्बा। जिसकी वासना गिर गयी उसका आश्रय भी गिर गया अब आश्रय कहाँ खोजना है वो खड़े होने को जगह भी नहीं मांगता।वो इस अटल अस्तित्व में शून्यवत हो जाता है वो कहता है कि मुझे कोई आधार नहीं चाहिए आधार का अर्थ ही है कि मैं बचना चाहता हूँ मुझे सहारा चाहिए। ज्ञानी ने तो जान लिया कि मैं हूँ कहाँ जो है है ही उसके लिए कोई सहारे की जरूरत नहीं  ये जो मेरा मैं है इसको  सहारे की जरूरत है क्योंकि यह है नहीं बिना सहारे के न टिकेगा यह लंगड़ा लूला है इसे बैसाखी चाहिए  निरालंब का अर्थ होता है अब मुझे कोई बैसाखी नहीं चाहिए अब कहीं जाना ही नहीं है कोई मंज़िल न रही तो बैसाखी की जरूरत क्या पैर भी नहीं चाहिए अब कोई यान नहीं चाहिए अब तो डूबने की भी मेरी तैयारी है उतनी ही जितनी उभरने की अब तो जो करवा दे अस्तित्व वही करने को तैयार हूँ तो अब नाव भी नहीं चाहिए अब डूबते वक्त ऐसा थोड़ी की मैं चिल्लाऊँगा कि बचाओ ज्ञानी तो डूबेगा तो समग्र मन डूब जाए डूबते क्षण में एकक्षण को  भी ऐसा भाव न उठेगा कि  यह क्या  हो रहा है ऐसा नहीं होना चाहिए जो हो रहा है वही हो रहा है उससे अन्यथा न हो सकता है न होने की कोई आकांक्षा है  फिर आश्रय कैसा तुम परमात्मा का आश्रय किसलिए
 खोजते हो कभी तुमने ख्याल किया कभी विश्लेषण किया परमात्मा का भी आश्रय तुम किन्ही वासनाओं के लिए खोजते हो कुछ अधूरे रह गए हैं स्वपन तुमसे तो किये पूरे नहीं होते शायद परमात्मा के सहारे पूरे हो जाए तुम तो हार गए तो अब परमात्मा के कंधे पर बन्दूक रख के चलाने की योजना बनाते हो, तुम तो थक गए और गिरने लगे अब तुम  कहते हो कि प्रभु अब तू संभाल असहाय का सहारा है तू दीन का दयाल है तू पतित पावन है तू हम तो गिरे अब तू संभाल लेकिन अभी सँभलने की आकांक्षा बनी  है इसे अगर गौर से देखोगे तो इसका अर्थ हुआ तुम परमात्मा की भी  सेवा लेने के लिए तत्पर हो अब ये कोई प्रार्थना न हुई यह परमात्मा के शोषण का नया आयोजन हुआ  वासना तुम्हारी है वासना की तृप्ति की आकांक्षा तुम्हारी है अब तुम परमात्मा का भी सेवक की तरह उपयोग कर लेना चाहते हो अब तुम चाहते हो तू भी जुट जा मेरे इस रथ में मेरे खिंचे नहीं खिंचता अब तू भी जुट जा अब तू ही जुटे तो ही खिंचेगा  हालाँकि तुम कहते बड़े अच्छे शब्दों में हो लफ्फाजी सुन्दर है तुम्हारी प्रार्थनायें तुम्हारी स्तुतियाँ अगर गौर से खोजी जाएं तो  तुम्हारी वासनाओं के नए नए आडम्बर हैं मगर तुम मौजूद हो तुम्हारी स्तुति में तुम मौजूद हो और तुम्हारी स्तुति परमात्मा की स्तुति नहीं परमात्मा की खुशामद है ताकि किसी वासना में तुम उसे संलग्न कर लो ताकि उसके सहारे कुछ पूरा हो जाये जो अकेले अकेले नहीं हो सका ।
मेरे पास लोग आ जाते  हैं वो कहते हैं कि संस्यास दे दें। मैं पूछता हूँ किसलिए। वो कहते हैं अपने से तो कुछ नहीं पा सके अब आपके सहारे मगर पा के रहेंगे जीवन को ऐसे ही थोड़ी चले जाने देंगे।  पाने की दौड़ कायम है नहीं पा सके तो साधन  बदल लेंगे सिद्धांत बदल लेंगे शास्त्र बदल लेंगे लेकिन पा के रहेंगे हिन्दू मुसलमान हो जाते हैं मुस्सलमान ईसाई हो जाते हैं ईसाई बौद्ध हो जाते हैं पा के रहेंगे शास्त्र बदल लेंगे साधन  बदल लेंगे लेकिन पा के रहेंगे ज्ञानी वही है जिसने जाग कर देखा कि पाने को यहां कुछ नहीं जिसे हम पाने चले हैं वो पाया हुआ है फिर आश्रय की भी क्या खोज फिर आदमी निराश्रय निरालम्ब होने को तत्पर  हो जाता है उस निरालम्ब दशा का नाम ही संन्यास है। निर्वासनो निरालम्बा स्वछंदो। और जो स्वयं के  छंद को उपलब्ध हो गया है  । इस शब्द को खूब खूब समझ लेना क्योंकि इस शब्द के  साथ बड़ा अनाचार हुआ है। शब्द भी हैं संसार में जिनके साथ बड़ा अनाचार हो जाता है। स्वछंद उन शब्दों में से एक है जिसके साथ लोगों ने बड़ा दुर्व्यवहार किया है। स्वछन्द का लोग अर्थ ही करते हैं स्वेच्छाचारी। स्वछन्द का लोग ही अर्थ करते हैं उछंघल । ऐसा भाषाकोशों में देखोगे तो मिल जायेगा। स्वछंद बड़ा प्यारा शब्द है। इसका अर्थ उछंघल नहीं होता। इसका अर्थ इतना ही होता जिसने अपने भीतर के छंद को पा लिया, गीत को पा लिया। जो स्वयं के छंद को उपलब्ध हो गया। जो अब किसी और का गीत गाने में उत्सुक नहीं जो शरीर का गीत भी गाने में उत्सुक नहीं। मन का गीत भी गाने में भी उत्सुक नहीं। जिसने स्वयं के गीत को पा लिया।जिसने अपने अंतरतम  के गीत  को पा लिया। जिसे अंतरतम की लय उपलब्ध हो गयी। जो अब उस लय के साथ नाच रहा है। हममें से कुछ शरीर
का  गीत गा रहे हैं।दुखी हम होंगे ही क्योंकि वो हमारा गीत नहीं। हममें  से कुछ शरीर की ही वासनाओं को पूरा करने में लगे हैं। वो कभी पूरी नहीं होती वो कभी पूरी हो नहीं सकती क्योंकि शरीर का स्वभाव क्षणभंगुर है।  आज भूख लगती है भरदो पेट कल फिर भूख लगेगी कोई एक दफा पेट भर देने से भूख थोड़ी मिट जाएगी। भूख तो फिर-फिर लगेगी। आज प्यास है पानी पी लो फिर घडी भर बाद प्यास लगेगी। आज काम वासना जगी है काम वासना में डूब लो फिर घडी भर बाद काम वासना जगेगी।शरीर का स्वाभाव क्षणभंगुर है। वहां तृप्ति कभी स्थिर हो नहीं सकती। अतृप्ति वहां बनी ही रहेगी। लाख तुम करो उपाय तुम्हारे उपाय से कुछ न होगा शरीर का  स्वाभाव नहीं  यह तो ऐसे ही जैसे कोई आदमी आग को ठंडा करने में लगा हो कि रेत से तेल निचुड़ने में लगा हो तुम कहोगे पागल है आग कहीं ठंडी हुई आग का  स्वभाव गर्म होना है। कि रेत से कहीं तेल निचुड़ा रेत में तेल है ही नहीं । पागल मत बनो शरीर से जो तृप्ति की आकांक्षा कर रहा है वो नासमझ है उसने शरीर के स्वाभाव में झाँक कर नहीं देखा। शरीर क्षणभंगुर है बना ही क्षणभंगुर से है भंगुरता शरीर का स्वाभाव है। जिन जिन चीज़ों से मिला है वे  सभी  चीज़ें बिखरने को तत्पर हैं बिखरेंगी।  शाश्वत जब तक न हो तब तक तृप्ति कहाँ। सनातन न मिले तब तक सुख कहाँ। नहीं शरीर के छंद को जिसने अपना छंद मान लिया जिसने ऐसा गलत तादात्म किया वो भटकेगा वो रोयेगा वो तड़फेगा और शरीर के छंद को अपना छंद मान लिया तो अपना छंद जो भीतर गूँज रहा है अहिरनिस  सुनाई ही न पड़ेगा। शरीर के नगाड़ों में बैंड बाजों में क्षणभंगुर की चीख पुकार में शोरगुल में बाजार में वो जो भीतर अहिरनिस बज रही वीणा स्वयं की वो सुनाई ही न पड़ेगी। वो सुर बड़ा धीमा है वो सुर शोरगुल वाला नहीं। उसे सुनने के लिए शांति चाहिए निश्चल  चित्त चाहिये मौन अवधारणा चाहिए। निकूर वासना शून्यता चाहिए आना जाना न हो आपा थापी न हो भाग दौड़ न हो बैठ गए हों कुछ करने को न हो ऐसी निष्क्रिय दशा में ऐसे शांत प्रवाह में उसका आविर्भाव  होता है फूटती है भीतर की किरण आती है सुगंध जब आती है तो खूब आती है एक बार द्वार दरवाज़ा खुल जाए तो रग रग रउआँ रउआँ आनंदित हो उठता है उस भीतर के गीत के फूटने  का नाम है स्वछंद।
स्वछंद का अर्थ है जो अपने गीत से जीता न तो समाज के गीत से जीता न राष्ट्र के गीत से जीता राष्ट्रगीत उसका गीत नहीं समाज का गीत उसका गीत नहीं सम्प्रदाय मंदिर मस्जिद पंडित पुरोहित उसका गीत नहीं यह तो दूर की बातें है अपने शरीर की भी लय में लय नहीं बांधता शरीर को कहता है तू ठीक तेरा काम ठीक भूख लगे रोटी ले प्यास लगे पानी ले लेकिन इतना मैनें  जान लिया की तेरे साथ शाश्वत का कोई सम्बन्ध नहीं है शरीर की भी छोड़ें मन का गीत भी नहीं गुनगुनाता क्योंकि देख लिया कि मन भी क्षण क्षण बदल रहा है एक क्षण ठैरता नहीं जो ठहरता ही नहीं वो सुख को कैसे उपलब्ध होगा बिना ठैराव के सुख कैसे संभव है जो रुकता ही नहीं जो भागा ही चला जाता है वो कैसे विश्रांति पायेगा। भागना जिसका गुण धर्म है मन का गुण धर्म भागना है। मन ठहरा की मरा। जब तक भागता है तभी  तक जीता है। मन तो साइकिल जैसा है बाय साइकिल पेडल मारते रहो चलती रहती है , पैडल रुकेकि  गिरे। मन दौड़ता रहे तो चलता रहता है रुके कि  गिरा । जो रुकने से मिट  जाता है वहां विश्राम कैसे होगा वहां विराम कैसे होगा। स्वछंद का अर्थ है अब मन का छंद भी अपना छंद नहीं। अब तो हम उस  छंद को गाते जो हमारे आत्यंतिक स्वाभाव से उठ रहा है वो ही है अनाहत नाद ओंकार। नाम उसे कुछ भी दो बुद्ध उसे निर्वाण कहते महावीर उसे कैवल्य दशा कहते अष्टावक्र का शब्द है स्वछंदता और बड़ा प्यारा शब्द है निर्वासनो  निरालम्बा स्वछंदो। स्वछंद को जो उपलब्ध हो गया मुक्तबन्धना वही केवल वही बंधन से मुक्त है इस बात को भी ख्याल में लेना बंधन मुक्ति कोई नकारात्मक बात नहीं है विधायक  बात है। स्वयं के छंद को जो उपलब्ध हो गया वही बंधन मुक्त है। बंधनमुक्ति जंजीरों का टूटना नहीं है मात्र क्योंकि ऐसा भी हो सकता है कि तुम किसी व्यक्ति को कारागृह से खींच के बाहर ले आओ जबरदस्ती खींच के बाहर ले आओ वो आना भी न चाहे और खींच कर  बाहर ले आओ उसकी जंजीरें तोड़ दो उसे धक्के दे कर कारागृह के  बाहर कर दो लेकिन क्या तुम सोचते हो इससे वो स्वतंत्रता को उपलब्ध हो गया मुक्त हो गया जो आना भी न चाहता था जो जंजीरें तोडना भी न चाहता था  जिसे काराग्रह के बाहर  लाने में भी धक्के देने पड़े ये तो कारागृह के बाहर लाना न हुआ क्योंकि जहां धक्के दे कर लाना पड़े उसी का नाम तो कारागृह है यह तो बड़ा कारागृह आ गया इसमें धक्के दे कर ले आये। पहले धक्के दे के छोटे कारागृह में लाये थे अब धक्के दे के जरा बड़े कारागृह में ले आये दीवारें जरा दूर है इससे क्या फर्क पड़ता है लेकिन जहां धक्के दे के लाना पड़ता है वही तो कारागृह है  जबरदस्ती में बंधन है अब तुम देखते हो कोई आदमी  जबरदस्ती उपवासकर रहा  है इससे थोड़ी स्वछंदता मिलेगी और जितना ही तडफता है भूख से उतनी ही जबर्दस्ती करता है  क्योंकि सोचता है लड़ रहा हूँ धक्के दे रहा हूँ आत्म ज्ञान की यात्रा कर रहा हूँ कोई आदमी काँटोंपर  लेटा है कोई कोड़े मार रहा है शरीर को कोई रात सोता नहीं जागा है खड़ा है धूप ताप में खड़ा है सता  रहा है अनाचार कर रहा है स्वयं को पीड़ा दे रहा है इस आशा में कि इसी तरह तो मुक्ति होगी, नहीं अष्टावक्र कहते हैं यह मुक्त होने का उपाय नहीं ये तो मुक्ति बंधन से भी बत्तर हो जाएगी जबरदस्ती कहीं मुक्ति हुई है तो मुक्ति नकारात्मक नहीं है मुक्ति बंधन के टूटने में ही नहीं है मुक्ति स्वातन्त्र  की उपलब्धि में है स्वछंदता की उपलब्धि में है जो स्वछन्द को उपलब्ध हो जाता है उसके बंधन  ऐसे ही गिर जाते हैं जैसे कभी थे ही नहीं। ठीक से समझें तो इसका अर्थ होता है कि हम बंधे है  क्योंकि हमें अपनी आंतरिक स्वतंत्रता का कोई पता नहीं आंतरिक स्वतंत्रता का पता चल जाये बंधन गिर जाते हैं बाँधा हमें किसी और ने नहीं है इसीलिए लड़ने का कोई सवाल नहीं बंधे है हम क्योंकि हमनें स्वयं को जाना नहीं हमनें अपने को ही बाँधा है किसी ने हमें बाँधा नहीं यह हमारी धारणा है। तुमने कभी देखा किसी  सम्मोहनविद्ध को किसी व्यक्ति को सम्मोहित करते सम्मोहनविद्ध  जब किसी व्यक्ति को सम्मोहित कर देता है तो उससे जैसा कह देता है  सम्मोहित व्यक्ति वैसा ही मान  लेता है अगर पुरुष को कह दे की तू स्त्री हो गया अब तू चल मंच पर तो वह स्त्री की तरह चलता है कठिन है स्त्री की तरह चलना, पुरुष स्त्री की तरह चले बहुत कठिन है क्योंकि स्त्री की तरह चलने के लिए भीतर पूरे शरीर की रचना भिन्न होनी चाहिए गर्भ गर्भाशय होना चाहिए तो ही स्त्री की तरह कोई चल सकता है नहीं तो बहुत मुश्किल है बड़े  अभ्यास की जरूरत है लेकिन यह आदमी तो कभी अभ्यास किया भी नहीं अचानक इसको सम्मोहित कर के कह दिया तू स्त्री है चल और वो स्त्री की तरह चलता है क्या हो गया एक मान्यता। तुम चकित होगे आधुनिक मनस्वित सम्मोहन पर बड़ी
 खोजें कर रहे हैं अगर सम्मोहित व्यक्ति के हाथ में साधारण सा कंकर उठा के रख दिया जाये ठंडा कंकर और कह दिया जाय कि अंगारा है तो हाथ में फफोला आ जाता है  अंगारा तो रखा नहीं हैं फफोला आता कैसे है इसी सूत्र के आधार पर लंका में बौद्ध भिक्षु  अंगार पर चलते हैं इससे उल्टा सूत्र अगर तुमने मान रखा है कि अंगार नहीं जलाएगा तो नहीं जला सकेगा तुम्हारी मान्यता चीन की दीवार बन जाती है, तुमने अगर मान लिया है की कंकर भी  अंगारा है तो कंकर से भी फफोला आ जाता है तुम्हारी मान्यता। सूफियों में कहानी है कि बग़दाद के बाहर खलीफा ओमर शिकार को गया था और उसने एक बड़े अंधड़ की तरह एक काली छाया को आते देखा तो उसने रोका उसने  कहा रुक मैं खलीफा ओमर हूँ और बगदाद में प्रवेश के  पहले मेरी आज्ञा चाइये  तू है कौन उसने कहा क्षमा करें  मैं मृत्यु हूँ और पांच हज़ार लोगों को मरना है बगदाद में और मृत्यु किसी की आज्ञा नहीं मांगती खलीफा आप होंगे क्षमा करें पांच हज़ार लोग मरने को हैं इतना आपको कह देती हूँ महा प्लेग फैली और कहते हैं पचास हज़ार लोग मरे खलीफा बहुत नाराज हुआ वो बाहर राह देखता रहा जब प्लेग खत्म होने लगी और गांव से बीमारी  समाप्त होने लगी तो वो बाहर आकर खड़ा रहा फिर अंधड़ की तरह निकली मौत और उसने पुछा रुक आज्ञा न मान ठीक लेकिन मौत होके झूठ बोलना कब से सीखा तूने कहा पांच हज़ार मा रने हैं पचास हज़ार मर गए उसने कहा क्षमा करें मैनें पांच हज़ार ही मारे बाकी ४५००० अपने ही भय से मर गए मैंने उनको छुआ ही नहीं । आदमी की हज़ार बीमारियों में  ९९९ अपनी ही पैदा की होती हैं मान लेता है मान लेता है तो घटना घट जाती है तुम्हारी मान्यता छोटी मोटी बात नहीं है । नागार्जुन एक बौद्ध भिक्षु हुआ एक युवक ने आके नागार्जुन को  कहा कि मुझे भी कुछ मुक्ति का स्वाद दें तो नागार्जुन ने कहा इसके  पहले मुक्ति का स्वाद ले सको एक सत्य को जानना  पड़ेगा कि बंधन तुमने पैदा किये उसने कहामैं  और अपने बंधन करूंगा पैदा आप भी क्या बात करते हैं कोई अपने बंधन अपने हाथ से पैदा करता है यह बात तर्क युक्त नहीं बंधन कौन डालना चाहता है सब मुक्ति चाहते हैं नागार्जुन ने कहा तू भूल यह बात मेरे देखे मुक्ति शायद ही कोई चाहता है लोग बंधन ही चाहते हैं लोग बंधनों से प्रेम करते हैं पर वो युवक न माना तो नागार्जुन ने कहा फिर तू एक काम कर कि यह सामने गुफा है तू  इसमें भीतर चला  जा  और तीन दिन अब न तो पानी न भूख बस तीन दिन तूएक ही बात का  विचार करता रह कि तू आदमी नहीं है भैंस है उसने कहा इससे क्या होगा तीन दिन बाद नागार्जुन ने कहा हम देखेंगे अगर तीन दिन तू टिक गया तो बात हो जाएगी युवक जिद्दी था युवक था चला गया गुफा में लग गया रटन में न दिन देखा न रात न भूख देखी न प्यास बाहर आया नहीं आँख नहीं खोली दोहराता रहा कि मैं भैंस हूँ मैं भैंस हूँ पहले तो पागलपन लगा घंटे दो घंटे तो बिलकुल व्यर्थ की बकवास लगी लेकिन धीरे धीरे हैरान होना शुरू हुआ  भैंस भीतर से प्रकट होने लगी भाव आने लगा आंख खोल के देखी तो आदमी जैसा आदमी है आँख  बंद करे तो कुछ कुछ भैंस की धारणा  स्थूल देह वजन होने लगा तीन दिन पूरे होते होते तीसरे दिन सुबह जब नागार्जुन ने उसके पास जाकर  द्वार पे खड़े होके कहा की बाहर आ तो उसने निकलने की कोशिश की और कहा क्षमा करें सींग के कारण निकल नहीं सकता हूँ सींग अटकते हैं   नागार्जुन ने जोर से उसेचांटा मारा और कहा आँख खोल कैसे सींग आँख खोली तिलमिला के न कोई सींग हैं न कोई बात लेकिन क्षण भर पहले निकल नहीं पा रहा था नागार्जुन ने कहा मान्यता यह सम्मोहन का एक प्रयोग था हम अपने बंधन स्वयं  माने बैठे हैं मुक्त बंधन का अर्थ होता है हमने स्वयं के छंद को  अनुभव किया हमनें स्वतंत्रता का स्वाद और रस लिया रसलेते  ही फिर हम बंधन बनाने निर्मित नहीं करते कोई और तुम्हारा कारागृह नहीं बना रहा है तुम्ही अपने काराग्रह के निर्माता हो तुम ही कैदी हो तुम्ही जेलर  तुम ही पड़े हो शिक्षों के भीतर और शीक्षे तुमने ही ढाले हैं हत्कड़ियाँ बेड़ियाँ जरूर तुम्हारे पैरों पर हैं लेकिन किसी और के द्वारा निर्मित नहीं उन हत्कड़ीयों बेड़ियों पर  तुम्हारे ही हस्ताक्षर हैं।

एक बड़ी प्रसिद्ध सूफी कथा है कि एक बहुत बड़ा लोहार था बड़ा  प्रसिद्ध लोहार था वो जो भी बनाता था सारे संसार में उसकी बनाई गयी चीज़ों की ख्याति थी वो जो भी बनाता था उस पर अपने हस्ताक्षर कर देता था फिर एक बार उसकी राजधानी पर हमला हुआ वो पकड़ लिया गया गांव के सभी प्रमुख  प्रतिष्ठित लोग पकड़ लिए गए उनमें  वो भी पकड़ लिया गया  उसके हाथ में जंजीरें डाल दी गयीं पैर में बेड़ियाँ डाल दी गयीं और पहाड़ी खंदकों में उसे फिंकवा दिया गया और प्रतिष्ठित नागरिकों के साथ और सब तो बड़े रो रहे थे और घबरा रहे थे लेकिन वो निश्चिन्त था उस नगर के वजीर ने उससे कहा कि भाई हम  सब घबरा रहे हैं कि अब क्या होगा लेकिन  तू निश्चिन्त है उसने कहा मैं लोहार हूँ जीवन भर हथकड़ियां मैनें ढाल  लीं  तोड़ भी सकता हूँ यह हथकड़ियां मुझे कोई रोक न पाएंगी आप घबराएं मत अगर  मैनें अपनी हथकड़ियां तोड़ लीं तो तुम्हारी भी तोड़दूंगा  एक दफा इनको हमें फ़ेंक के  चले जाने दें वजीर भी हिम्मत से भर गया राजा भी हिम्मत से भर गया जब दुश्मनों ने खंदकों में फ़ेंक कर लौट गए तो वजीर ने कहा अब क्या विचार है लेकिन अचानक लौहार उदास हो गया और रोने लगा उसने कहा क्या मामला है तू अब  तक तो हिम्मत बांधे था अब क्या हुआ उसने कहा मुश्किल है मैनें हथकड़ी गौर से देखी इस पर तो मेरे हस्ताक्षर हैं ये  तो मेरी ही बनाई हुई है ये नहीं टूट सकती ये असंभव है मैंनें कमजोर चीज़ कभी बनाई ही नहीं मैं हमेशा मजबूत से मजबूत चीज़ ही बनाता रहा हूँ वही  मेरी ख्याति है ये किसी और की बनाई होती तो मैनें तोड़ दी होती अब ये टूटने वाली नहीं क्षमा करें इस पे मेरे हस्ताक्षर हैं।  मैं तुमसे कहता हूँ  तुम्हारी हर हत्कडी पर तुम्हारे हस्ताक्षर हैं कोई और तो ढालेगा भी  कैसे और मैं तुमसे ये कहना चाहता हूँ कि रोने की कोई ज़रुरत नहीं कितनी ही मजबूत हो तुम्हारी ही बनायी हुई है और बनाने वाले से बनायी गयी  चीज़ कभी भी बड़ी नहीं  होती हो नहीं सकती कितना ही बड़ा चित्र बनाये कोई चित्रकार लेकिन चित्रकार चित्र से बड़ा रहता है और कितना ही बड़ा गीत कोई गाये गीतकार लेकिन गायक गीत से बड़ा रहता है और कितना ही मधुर कोई नाचे नर्तक लेकिन नर्तक नृत्य से बड़ा रहता है इसीलिए तो परमात्मा संसार से बड़ा है और इसीलिए तो आत्मा शरीर से बड़ी है।  चिंता न लेना ये बात कि जीवन के  सारे बंधन हमारे ही बनाये हुए हैं घबराने वाली नहीं है मुक्तदायी है हम तोड़ सकते हैं  और मजा तो यह है कि बंधन काल्पनिक हैं वस्तुतः नहीं स्वपनवत हैं सम्मोहन के हैं।
निर्वासना निरलम्बा ...
वासना मुक्त वासना शून्य  स्वतंत्र निरालंब स्वयं के छंद को उपलब्ध बंधन रहित जो पुरुष है फिर अनुवाद में थोड़ी भूल है प्रारब्ध रूपी हवा से प्रेरित हो कर शुष्क पत्ते की भांति  व्यवहार करता है। मूल है संसारवातेन संसार की हवा से, प्रारब्ध का कोई सवाल नहीं, भाग्य का कोई सवाल नहीं, संसार की गति है उस संसार की गति में सूखे पत्ते की तरह हवा में जैसे सूखा पत्ता पूरब पश्चिम जाता ऊपर नीचे गिरता ऐसे ही पूर्ण ज्ञानी पुरुष बहुत से व्यवहारों में संलग्न होता मालूम पड़ता है लेकिन तुम यह नहीं कह सकते कि वो करता है जब सूखा पत्ता पूरब की तरफ जाता है तो तुम यह थोड़ी कहोगे  कि सूखा पत्ता पूरब की तरफ जा रहा है सूखा पत्ता तो कहीं नहीं जा रहा हवा पूरब की तरफ जा रही है हवा दिखाई नहीं पड़ती सूखा पत्ता दिखाई पड़ता है लेकिन सूखा पत्ता तो कहीं नहीं जा रहा हवा न चले सूखा पत्ता गिर जायेगा  ज्ञानी अपने को छोड़ देता है अस्तित्व के सागर में जहां ले जाए उसकी अपनी कोई निजी आकांक्षा नहीं है और इस सूत्र में समाधी का सारा सार है चलो उठो बैठो संसारवतेन तुम अपनी आकांक्षा से नहीं जो होता हो जैसा होता हो वैसा होने दो दूकान करते हो दूकान करते रहो युद्ध के मैदान में खड़े हो तो युद्ध के मैदान में जूझते रहो जैसे हो जहां हो छोड़ दो अपने को वहीं वहीं समर्पित हो जाओ बहने तो संसार की हवाएं तुम सूखे पत्ते हो जाओ। ... बस फिर सब अपने से हो जायेगा फिर कुछ करने को नहीं तुम सूखे पत्ते क्या हुए तुम्हारे जीवन में सारे अमृत की वर्षा हो जाएगी जहाँ अपनी कोई आकांशा नहीं रहती वहां कोई दुःख नहीं रह जाता वहां कोई पराज्य नहीं विषाद नहीं वहां कोई मान नहीं सम्मान नहीं अपमान नहीं वहां कोई हार नहीं जीत नहीं  क्षण क्षण वहां परमात्मा बरसता है उस परमात्मा का नाम ही स्वयं का छंद है वो  तुम्हारा ही गीत है जो तुम भूल बैठे गुनगुनाओगे फिर याद आ जायेगा। ... और जो सूखे पत्ते की भांति हो गया ऐसे जिसके भीतर संसार न रहा असंसारस्य ...  संसार मुक्त पुरुष को न तो कभी हर्ष है और न विषाद वह शान्त्मनः सदा  विदेह की भाँति  सोभता  है  अनुवाद में कुछ खो जाता है लगता है असंसारस्य अनुवाद में कहा है संसार मुक्त पुरुष को।
असंसारस्य का अर्थ होता है जिसके भीतर  संसार न रहा य जिसके लिए संसार न रहा संसार का अर्थ ही क्या है ये वृक्ष ये  चाँद तारे ये थोड़ी संसार है संसार का अर्थ है भीतर बसी वासनायें कामनाएं इच्छायें उनका जाल  कुछ पाने की इच्छा संसार है कुछ होने की इच्छा संसार है महत्वकांक्षा संसार है। असंसारस्य जिसके भीतर संसार न रहा जिसमे संसार न रहा य जो संसार में रह के भी अब संसार का नहीं है ऐसे व्यक्ति को कहाँ हर्ष कहाँ विषाद .... ऐसे पुरुष का मन हो गया शीतल शीतलमनः  इसे भी समझना जब तक जीवन  में हर्ष और विषाद है तब तक तुम शीतल न हो सकोगे क्योंकि हर्ष और विषाद सुख और दुःख सफलता असफलता ज्वर लाते हैं उत्तेजना लाते हैं उद्वेग लाते हैं जब तुम दुखी होते हो तब तो बीमार होते ही हो जब तुम सुखी होते हो तब भी बीमार होते हो सुख भी बीमारी है क्योंकि उत्तेजक है सुख में शान्ति कहाँ तुमने एक बात तो जान ली है कि दुःख में शान्ति कहाँ दूसरी बात जाननी है कि सुख में भी शान्ति कहाँ सुख में भी उत्तेजना हो जाती  है चित्त में खलल हो जाती है तुमनें देखा न आदमी दुःख में तो बच जाता कभी कभी सुख में मर जाता  है। मैनें सुना एक आदमी को दस लाख रुपये मिल गए लाटरी में।  खबर आयी तो पत्नी घबरा गयी। पत्नी ने कहा पति आते ही होंगे। दस लाख दस रुपये का नोट भी कभी इकठा उनके हाथ में नही  पड़ा। दस लाख सह न सकेंगे इस सुख को। बहुत डर गयी ईसाई थी पास में ही पादरी था। भागी गयी कहा की आप कुछ उपाय करिये। पति इसके  पहले आएं कुछ उपाय करिये।  दस लाख अचानक हृदय की गति बंद हो जायगी मेरे पति को बचाइए। पुरोहित ने कहा घबराओ मत पादरी ने कहा मैं आता हूँ सब संभाल लेंगे। पादरी आ के बैठ गया। आया पति घर तो पादरी ने हिसाब से बात की उसने कहा कि सुनो तुम्हे लाटरी मिली है एक लाख रुपये जीते। धीरे धीरे उसने सोचा ऐसा हिसाब करके धीरे धीरे कहेंगे  लाख से लेगा तो फिर लाख और बताएँगे फिर लाख से लेगा तो फिर लाख और बताएँगे  वह आदमी बड़ा  प्रसन्न हो गया अगर लाख मुझे मिले तो पचास हजार चर्च को दान करता हूँ। कहते हैं पादरी वहीँ गिर पड़ा हार्ट फ़ैल हो गया पचास हजार  कभी देखे नहीं सुने नहीं। सुख भी गहरी उत्तेजना लाता है सुख का भी ज्वर है दुःख का तो ज्वर है ही और दुःख को तो हम झेल भी लेते हैं क्योंकि दुःख के हम आदि हो गए हैं और सुख को तो हम झेल भी नहीं पाते क्योंकि सुख का हमें कोई अभ्यास भी नहीं मिलते ही कहाँ जो सुख का अभ्यास हो जाये तो न तो आदमी दुःख  को झेल पाता है न सुख  को झेल पाता है और दोनों ही स्थिति में आदमी का चित्त उत्तेजना से भर जाता है उत्तेजना यानी गर्मी शीतलता खो जाती है और शीतलता में शांति असंसारस्य ... और जो शीतल मन हो गया अब जहां सुख दुःख नहीं आते अब जहाँ सुख और दुःख के पक्षी  बसेरा नहीं करते। ऐसी जो अपनी स्वच्छंदता में शीतल हो गया है जिसके  भीतर बाहर से अब कोई उत्तेजना नहीं आती हार और जीत की कोई खबरें अब अर्थ नहीं रखतीं। सम्मान कोई करे और  अपमान कोई करे भीतर कुछ  अंतर  नहीं पड़ता। भीतर एक रस्ता बनी रहती है ऐसा जो शीतल मन हो गया है वह व्यक्ति शान्त्मनः सदा विदेह की भांति शोभता है। वो तो राज सिंहासन पर बैठ गया। ... वो तो देह नहीं रहा अब विदेह हो गया क्योंकि सुख और दुःख से जो प्रभावित नहीं होता वो देह के पार हो गया  सुख और दुःख से देह ही प्रभावित होती है यह सब देह के ही गुण धर्म हैं सुख और दुःख से आंदोलित हो जाना विदेह हो गया देह के पार हो गया अतिक्रमण हो गया। ...  आत्मा में रमण करने वाले और शीतल तथा शुद्ध चित्त वाले  धीर पुरुष के न कहीं  त्याग की इच्छा है और न कहीं पाने की इच्छा है अब न कुछ पकड़ना है न कुछ छोड़ना है अब तो उसे जान लिया जो है। पकड़ना छोड़ना तो तभी तक है  जब तक हमें अपना पता नहीं  अपना पता हो गया तो  क्या पकड़ना है क्या छोड़ना है  क्योंकि पकड़ने से अब कुछ बढ़ेगा नहीं और छोड़ने से अब कुछ घटेगा नहीं अब जिसे अपना पता हो गया उसे तो सब मिल गया अब सब पकड़ना छोड़ना व्यर्थ है अब तो ऐसा ही है जिसे सारे जगत का साम्राज्य मिल गया वो कंकड़ पत्थर बीनता फिरे जो सारे साम्राज्य का मालिक हो गया विराट के सिंघासन पर बैठ गया अब वो चुनाव में खड़ा हो जाये कि म्युनिसिपल में  मेम्बर बनना है बेमानी बातें हैं अब उसका कुछ अर्थ न रहा जिसे अंतर की प्रतिष्ठा मिल गयी अब वो किसी और की प्रतिष्ठा चाहे ये बात की ख़त्म हो गयी सच तो ये है दूसरे के द्वारा दी गयी  प्रतिष्ठा कोई प्रतिष्ठा थोड़ी है क्योंकि दूसरे के हाथ में है
जब चाहे तब खींच लेगा दूसरे के द्वारा मिली प्रतिष्ठा तो एक तरह की गुलामी है अगर तुमने मुझे प्रतिष्ठा दी तो मैं तुम्हारा गुलाम हुआ क्योंकि तुम किसी दिन खींच लोगे तो मैं क्या करूंगा तुम्हारी दी थी  तुम्हारा दान था मैं तो भिखारी था तुम्हारा दिल बदल गया तुम्हारा मन बदल गया हवा बदल गयी मौसम बदल गया तुम और ढंग से सोचने लगे। दूसरे के द्वारा दी गयी प्रतिष्ठा तो भीख है स्वछंद में जो जीता है उसकी एक और ही प्रतिष्ठा है वो एक और ही  सिंहासन है वो अपना ही सिंहासन है  उसे कोई छीन नहीं सकता उसे कोई चोर चुरा नहीं सकता डाकू लूट नहीं सकते आग जला नहीं सकती मृत्यु भी उसे नहीं छीन सकती औरों की तो बात ही क्या और ऐसा व्यक्ति आत्मा में रमन करने वाला हो जाता है  स्वछंद आत्मा में रमन करने वाला आत्मा रामस्य
हम सब दूसरे में रमन कर रहे हैं। कोई धन में रमन कर रहा है सोचता है और लाख और दस लाख और करोड़ हो जाएं उसका रमन धन में चल रहा है। कोई पद में रमन कर रहा है इससे बड़ी कुर्सी उससे बड़ी कुर्सी कुर्सियों पे कुर्सियां चढ़ता चला जाता है। अलग अलग तरह के लोग हैं लेकिन एक बात में समान है कि रमन अपने से बाहर हो रहा है परसम्भोग यह संसारी का लक्षण है  स्वसंभोग आत्मरति आत्मा में रमन यह धार्मिक का लक्षण है धार्मिक वही है जिसे यह कला आ गयी कि अपना रस अपने भीतर है और जो अपने ही रस को चूसने लगा। अब ये बड़े मजे की बात है की जब हम दूसरे का रस भी  चूसते हैं तब भी वस्तुतः हम दूसरे का रस नहीं चूसते तब भी रस तो अपना ही होता है जैसे कुत्ता सूखी हड्डी चूसता है और बड़ा प्रसन्न होता है तुम हड्डी छुड़ाओ छोड़ेगा  नहीं हालाँकि हड्डी में कुछ भी नहीं रस तो है ही नहीं  हड्डी में रस कहाँ लेकिन कुत्ते हो कुछ मिलता ज़रूर है मिलता यह है कि सूखी हड्डी उसके मुंह में घाव बना देती है खुद का ही खून बहने लगता है खुद का ही खून का स्वाद आने लगता है वो ही खुद का खून कंठ में उतरने लगता है  कुत्ता सोचता है रस हड्डी से आ रहा है। सब रस तुमने जो अब तक जाने हैं तुमसे ही आये हैं और हड्डी के कारण नाहक तुमने घाव बनाये है हड्डी छोड़ दो घाव से छुटकारा हो जायेगा रस तो तुम्हारा  है रस बाहर से आता ही नहीं।एक अमीर आदमी अपनी तिजोरी में सोने की ईंटें रखे  था रोज खोल के  देख लेता था अम्बार लगा रखा था सोने की ईंटों का फिर बंद कर देता था बड़ा प्रसन्न होता था उसका बेटा यह देखता था सारा घर परेशान था लोग जरूरत की चीज़ें भी पा नहीं सकते थे और वो ईंटें जमाए बैठा था घर के लोग ही दरिद्रता में जी रहे थे आखिर बेटे ने धीरे धीरे कर के एक एक ईंटें खिसकानी शुरू  कर दी और ईंट की जगह पीतल की ईंटें रखता गया सोने की ईंट की जगह बाप की प्रसन्नता जारी रही धीरे धीरे सब ईंटें नदारत हो गयी लेकिन बाप रोज़ खोल लेता तिजोरी देखता ईंटें रखी हैं प्रसन्न हो के ताला बंद कर देता जिस दिन मर रहा था उस दिन बेटे ने कहा एक बात आप से कहनी है ये मज़ा आप भीतर ही भीतर का ले रहे हैं ईंटें वहां है नहीं क्योंकि ईंटें तो  हम खिसका चुके हैं बहुत पहले तत्क्षण बाप दुखी हो गया छाती पीटने लगा जिंदगी गुज़र गयी मजे में वे मरते वक़्त  दुखी हो गया सोने की ईंट में थोड़ी ही सुख है तुम्हारी मान्यता कि सोने की ईंट है बहुमूल्य है अपनी है मैं मालिक अपने पास है इसमे सुख है सुख तो तुम्हारा भीतर है हड्डी तुम कोई भी चुन लो। धार्मिक व्यक्ति वही है जिसने हड्डी छोड़ दी क्योंकि हड्डी के कारण घाव बनते हैं और जिसने कहा कि जब सुख भीतर ही है तो सीधा सीधा ही क्यों न ले लें बैठेंगे आँख बंद करके डूबेंगे नाचेंगे भीतर बजाएंगे वीणा भीतर की गुनगुनायेंगे भीतर डुबकी लेंगे प्रेममें डूबेंगे भीतर रस में इतना ही फर्क है संसारी और असंसारी में संसारी सोचता बाहर कहीं है जब तुम किसी सुन्दर स्त्री को देख कर प्रसन्न होते हो  तब भी प्रसन्ता तुम्हारे भीतर से ही आती है और जब तुम लोग तुम्हें फूल मालायें पहनाते हैं तब तुम प्रसन्न होते हो तब भी प्रसन्नता तुम्हारे भीतर से ही आती है और जब कोई तुम्हें किसी भी तरह का सुख देता है तब जरा गौर से देखना कि सुख वहां से आता है कि कहीं  भीतर से ही झरता है । बाहर तो निमित हैं स्त्रोत्र भीतर है। बाहर तो बहाने हैं मूल स्त्रोत्र भीतर है। बहानो से मुक्त  हो कर जो व्यक्ति रस लेने लगता है उसको अष्टावक्र कहते हैं आत्मारामस्य आत्मा में ही अब अपना रस लेने लगा अब इसके ऊपर कोई बंधन न रहा अब दुनिया में कोई इसे दुखी नहीं कर सकता । और अब इसकी सारी भ्रांतियां टूट गयीं इसने मूल स्त्रोत्र को पा लिया।
 यह स्त्रोत भीतर है। हम जरा चक्कर लगाके  पाते हैं और चक्कर लगाने के कारण बहुत सी  उलझनें खड़ी  कर लेते हैं कभी कभी तो ऐसा हो जाता है कि  जिन निमितों  के कारण हम सुख को पाना चाहते हैं  वो निमित ही इतनी बड़ी बाधक  बन जाते हैं कि हम इस तक पहुँच ही नहीं पाते ... स्वाभाविक रूप से जो शून्य चित्त है और सहज रूप से कर्म करता है उस धीर पुरुष के सामान्य जन की तरह न मान है और  न अपमान है स्वाभाविक रूप से जो शून्य चित्त है क्या अर्थ हुआ स्वाभाविक रूप से जो शून्य चित्त चेष्टा से नहीं प्रयास से नहीं अभ्यास से नहीं यत्न से नहीं स्वभावतः समझ से बोध से जागरूकता से। जिसने इस सत्य को समझा कि  सुख मेरे भीतर है इसे तुम देखो  इसे तुम पहचानो इसे तुम जगह जगह जांचो परखो इसके लिए कसौटी सजग रखो देखा तुमने रात पूर्णिमा का चाँद है  तुम बैठे हो बड़ा सुख मिल रहा है तुम जरा आँख बंद करके ख्याल करो चाँद निमित है य चाँद से सुख आ रहा है  क्योंकि तुम्हारे पड़ोस में ही दूसरा आदमी भी बैठा है और उसको  चाँद से  बिलकुल सुख नहीं मिल रहा है उसकी पत्नी मर गयी है वो रो रहा है। चाँद को देख कर उसे क्रोध आ रहा है  सुख नहीं आ रहा चाँद पर उसे  नाराजगी आ रही है वो कह रहा है आज ही पूर्णिमा होनी थी।यह भी कोई बात हुई  इधर  मेरी पत्नी मरी और आज ही तुम्हे पूरा होना था और आज ही रात ऐसी चांदनी से भरनी थी यह व्यंग्य हो रहा है मेरे ऊपर यह मजाक हो रहा है मेरे ऊपर यह कोई वक़्त था चार दिन रुक जाते तो कुछ हर्ज था। जिसकी प्रियसी मिल गयी  है उसको अमावस की रात में भी पूर्णिमा मालूम पड़ती है और जिसकी प्रियसी खो गयी है पूर्णिमा की रात भी अमावस हो जाती है। कहते हैं भूखा आदमी अगर देखता हो आकाश में तो चाँद भी रोटी जैसा लगता है । जैसे रोटी तैर रही है। जर्मनी के बहुत बड़े कवि  हेनरिक हें ने लिखा है वो तीन के लिए  जंगल में खो गया एक बार इतना भूखा इतना भूखा कि जब पूर्णिमा का चाँद निकला तो उसे लगा कि रोटी तैर रही है वो बड़ा हैरान हुआ उसने कवितायेँ पहले बहुत लिखी हैं लिखी थीं कभी भी नहीं सोचा था कि चाँद में रोटी दिखाई पड़ेगी हमेशा किसी सुंदरी का मुख दिखाई पड़ता था आज एकदम रोटी दिखाई पड़ने लगी  उसने बहुत चेष्ठा भी की सुंदरी का मुख देखे लेकिन जब पेट भूखा हो तीन दिन से भूखा हो पाँव में छाले पड़े हों और जान जोखिम में हो कहाँ की सुन्दरी  स्त्री ये सब तो सुख सुविधा की बातें हैं चाँद दिखता है कि रोटी तैर रही है आकाश में रोटी तैर रही है तुम्हे बाहर से जो मिलता है वो भीतर का ही प्रक्षेपण है। रस भीतर है। जीवन का सारा सार भीतर है स्वाभाविक रूप से जो शून्य चित्त है ...  और जबरदस्ती चेष्टा मत करना।जबरदस्ती की चेष्टा काम नहीं आती तुम जबरदस्ती अपने को बैठा लो पदमासन लगा के आंख बंद करके पत्थर की तरह मूर्ति बन के बैठ जाओ उससे कुछ भी न होगा तुम भीतर उबलते रहोगे आग जलती रहेगी भाग दौड़ जारी रहेगी वासना का तूफ़ान उठेगा अंधड़ उठेंगे कुछ भी बदलेगा नहीं। ...  तुम्हें धीरे-धीरे समझपूर्वक चेष्टा से नहीं जबरदस्ती आरोपण से नहीं । कबीर कहते हैं साधो सहज समाधी भली सहजता से समझो जीवन को देखो जहां जहां सुख मिलता हो वहां वहां आँख बंद कर के गौर से देखो भीतर से आ रहा है बाहर से तुम सदा पाओगे भीतर से आ रहा और जहां जहां  जीवन में दुःख मिलता हो वहां भी गौर से देखना तुम सदा पाओगे दुख का इतना ही अर्थ होता है कि भीतर से सम्बन्ध छूट गया  सुख का इतना ही अर्थ होता है कि भीतर से सम्बन्ध जुड़ गया।किस बहाने जुड़ता है यह बात महत्वपूर्ण नहीं है  भीतर से जब भी सम्बन्ध जुड़ जाता है सुख मिलता है और भीतर से जब भी सम्बन्ध छूट जाता दुःख मिलता है।किसी ने गाली दे दी दुःख मिलता है लेकिन तुम समझना गाली केवल इतना ही करती है तुम भूल जाते हो अपने को तुम्हारा भीतर से सम्बन्ध छूट जाता है  गाली तुम्हें इतना उत्तेजित कर देती है कि तुम्हें याद ही नहीं रह जाती कि तुम कौन हो एक क्षण में तुम बावले हो जाते हो उद्विग्न विक्षिप्त टूट गया सम्बन्ध भीतर से। मित्र आ गया बहुत दिन का बिछड़ा वर्षों की याद हाथ में हाथ ले लिया गले से गले लग  गए। एक क्षण को भीतर से सम्बन्ध जुड़ गया । इस मधुर क्षण में इस मित्र की मौजूदगी में तुम अपने से जुड़ गए एक क्षण को भूल गईं  चिंताएं दिन के भार दिन के बोझ खो गए एक क्षण को तुम अपने में डूब गए यह मित्र केवल बहाना है। यह केवल निमित हो गया। जिस घडी में भी तुम अपने से जुड़ जाते हो सुख बरस जाता है जिस घडी तुम अपने से टूट जाते हो दुःख बरस जाता है इस सत्य को धीरे धीरे पहचानने लगता है जब कोई तो धीरे धीरे निमित को त्यागने  लगता है फिर बैठ जाता है अकेला  इसी का नाम ध्यान है। फिर वो यह फिक्र नहीं करता कि मित्र आए तब सुखी होंगे ऐसे रोज़ मित्र आते नहीं और रोज़ आने लगें तो सुख भी न आएगा वो कभी कभी आतें हैं तो ही  आता है ऐसे घर में ही ठहर जाएँ तो फिर बिलकुल न  आएगा फिर ऐसा व्यक्ति इसकी चिंता नहीं करता कि चाँद जब निकलेगा तब सुखी होंगे कि जब बसंत आएगा और फूल खिलेंगे तब सुखी होंगे ऐसी भी क्या कंजूसी। जब सुख भीतर ही है तो धीरे धीरे बिना निमित के व्यक्ति अपने को अपने से जोड़ने लगता है इसी का नाम ध्यान है । ऐसे बैठ जाता है शांत अपने से जोड़ लेता है बिना निमित के निमित्शून्यता में अपने से जोड़ लेता है और जब कभी एक बार भी बिना निमित के तुम  अपने से जुड़ जाते हो  तो घटना घट गयी कुंजी मिल गयी । अब तुम जानते हो अब किसी पे निर्भर रहने की जरूरत नहीं जब चाहो तब ताला खुलेगा जब चाहो तब भीतर का द्वार उपलब्ध है। बीच बाजार में तुम आँख बंद करके खड़े हो सकते हो और डूब जा सकते हो अपने में  । फिर धीरे धीरे आँख बंद करने की भी जरूरत नहीं रह जाती  क्योंकि वो भी निमित ही है फिर आँख खुली रखे तुम अपने में डूब जाते हो  फिर तुम काम करते करते भी डूब जाते हो।फिर ऐसा भी नहीं कि पद्मासन में ही बैठना पड़े  कि पूजागृह में बैठना पड़े कि मंदिर मस्जिद  में बैठना पड़े फिर तुम बाज़ार में खेत में खलियान में काम करते करते भी अपने में डूब जाते हो धीरे धीरे यह तुम्हारा इतना सहज भाव हो जाता है कि इसमे बाहर आना भीतर आना जरा भी अर्चन नहीं देता एक घडी ऐसी आती है कि  तुम अपने भीतर के स्त्रोत्र में डूबे ही रहते हो, करते रहते हो काम चलता रहता है बाजार दूकान भी चलती है गाहक  से बात भी चलती है  खेत खलियान भी चलता है  गड्ढा भी खोदते हो ज़मीन में बीज भी बोते फसल भी काटते बात भी करते चीत भी सुनते सब चलता रहता और तुम अपने में डूबे खड़े रहते हो ऐसे रसलीन जो हो गया वो ही सिद्धपुरुष है।
स्वाभाविक रूप से जो शून्यचित्त है और सहज रूप से कर्म करता है उस धीर पुरुष के सामान्य जन की तरह न मान है न अपमान है   । ... यह कर्म शरीर से किया गया है मुझ शुद्ध स्वरुप द्वारा नहीं ऐसी चिंतना का जो अनुगमन करता है वह कर्म करता हुआ भी  नहीं करता और अब तो जब तुम अपने स्वरुप में डूब जाते हो तुम्हें पता चलता है जो हो रहा है य तो शरीर का है य मन का है य शरीर और मन के बाहर फैली प्रकृति का है  मेरा किया हुआ कुछ भी नहीं  मैं अकर्ता हूँ। मैं केवल साक्षी मात्र हूँ ऐसी चिंता की धारा तुम्हारे भीतर बह जाती है ऐसा सूत्र ऐसी चिंतामणि तुम्हारे हाथ लग जाती है जब तुम देखते हो कि भूख लगी तो शरीर में घटना घटती है और तुम देखने वाले ही बने रहते हो तुम्हारे सुखधार में जरा भी भेद नहीं पड़ता इसका ये अर्थ नहीं तुम भूखे मरते रहते हो तुम उठते हो तुम शरीर को कुछ भोजन का इंतज़ाम करते हो प्यास लगती है तो शरीर को पानी देते हो यह तुम्हारा मंदिर है इसमें तुम्हारे देवता बसे हैं तुम इसकी चिंता लेते फिक्र लेते लेकिन अब तुम तादात्म्य नहीं करते अब तुम ऐसा नहीं कहते की मुझे भूख लगी अब तुम कहते हो शरीर को भूख लगी अब तुम चिंता करते हो लेकिन चिंता का रूप बदल गया अब शरीर तृप्त हो जाता तो तुम कहते हो शरीर तृप्त हुआ शरीर को प्यास लगी पानी दिया शरीर को नींद आ गयी शरीर को विश्राम दिया लेकिन तुम अलिप्त अलग अलग दूर दूर पार पार रहते हो तुम फिक्र कर लेते हो जैसे कोई अपने घर की फिक्र करता है  जिस घर में तुम रहते हो स्वच्छ भी करते हो कभी रंग रोगन भी करते हो दिवाली पर सफेदा भी पुतवाते हो कपडे भी धुलवाते हो परदे भी साफ़ करते हो फर्नीचर भी बदल लेते हो लेकिन इससे तुम यह भ्रान्ति नहीं लेते कि मैं मकान हूँ तुम मकान के मालिक ही रहते हो निवास करते हो तुम कभी इसके साथ इतने ज़्यादा संयुक्त नहीं हो जाते कि मकान गिर जाए तो तुम समझो कि मैं मर गया कि छप्पर गिर जाए तो समझो कि अपने प्राण गए कि मकान में आग लग जाए तो तुम चिल्लाओ कि मैं जला ऐसी ही घटना घटती है ज्ञानी की जैसे जैसे भीतर का रस स्पष्ट होता है भीतर का साक्षी जगता है वैसे देह तुम्हारा ग्रह रह जाती है अगर ठीक से समझो तो गृहस्थ  का ये ही अर्थ है जिसने देह को अपना होना समझ लिया वो गृहस्थ और जिसने देह हो देह समझा अपने को पृथक समझा वोही सन्यस्थ। यह कर्म शरीर से किया गया मुझ शुद्ध स्वरूप द्वारा नहीं ऐसी चिंतना का जो अनुगमन करता वह कर्म करता हुआ भी नहीं करता है और यह महाघोष कि फिर उस व्यक्ति के कोई कर्म नहीं उसे कोई कर्म छूता नहीं वो अकर्ता हो गया। करते हुए अकर्ता हो गया। जीवनमुक्त उस सामान्य जन की तरह ही कर्म करता है जो कहता कुछ है और करता कुछ और है इस सूत्र को समझ लें तो भी वह मूड़ नहीं होता है और वह सुखी श्रीमान संसार में रह कर भी शोभायमान होता है  ... यह सूत्र थोड़ा जटिल है फिर से सुने जीवनमुक्त उस सामान्य जन की तरह ही कर्म करता है जो कहता कुछ है और करता कुछ है सामान्य आदमी का क्या लक्षण है हम कहते हैं बेईमान है कहता कुछ करता कुछ अष्टावक्र कहते हैं यही हालत मुक्त पुरुष की भी है कहता कुछ करता कुछ  मगर एक बड़ा फर्क है और फर्क बड़ा बुनियादी है अज्ञानी कहता कुछ करता कुछ अज्ञानी जो करता वही उसकी सच्चाई है जो कहता वो झूट फर्क समझ लेना अज्ञानी जो कहता है वो झूठ वो धोखा दे रहा है कहने में मामला उसका सच नहीं  वो झूट बोल रहा है जो करता है वोही उसकी सच्चाई है तुम उसके कर्म से ही उसे पहचानना ज्ञानी के मामले में सिक्का बिलकुल उल्टा है ज्ञानी जो कहता बिलकुल सच जो करता वो झूठ फर्क ख्याल में आया ज्ञानी जो कहने में बिलकुल भूल चूक नहीं होती लेकिन जो करता है उसपे तुम ज्यादा जोर मत देना क्योंकि भूख लगेगी तो वो भी भोजन करेगा आग लगेगी मकान में तो वो भी निकल के बाहर आएगा वो भी कुछ कहेगा और करेगा कुछ पूछने जाओगे तो वो कहेगा कि मैं कहाँ जल सकता। ... कहाँ आग जला सकती और कहाँ शस्त्र मुझे छेद सकते लेकिन मकान में आग लगेगी तुम उसको भागते बाहर देखोगे इससे तुम ये मत सोचना कि यह आदमी बेईमान है वो जो कहता है सच कहता है उसके करने पे ध्यान मत देना उसके कहने पर ध्यान देना यह सच है वो जो कह रहा है की मुझे कौन जला सकता है उसे कोई जलाता भी नहीं  देह जलेगी वो नहीं जलेगा लेकिन देह में जब तक तुम हो देह तुम्हारा मंदिर है तुम्हारे देवता का आवास है उसकी चिंता लेना अज्ञानी की हालत भी ऐसी ही लगती है कि कुछ कहता कुछ करता लेकिन उसके करने पे ध्यान देना वो जो करता है वो ही उसकी सच्चाई है वो कहे कुछ भी उसके करने में तुम सत्य को पाओगे ज्ञानी के ज्ञान में तुम सत्य को पाओगे। ज्ञानी ज्ञान में जीता कर्म में नहीं अज्ञानी कर्म में जीता है ज्ञान में नहीं।  जो धीर पुरुष अनेक प्रकार के विचारों से थक कर शान्ति को उपलब्ध होता है वह न कल्पना करता है न जानता है न सुनता है न देखता है।... जो धीर पुरुष अनेक प्रकार के विचारों से थक कर शान्ति को उपलब्ध होता है।और जल्दी मत करना जल्दबाजी खतरनाक है महंगी है अधेरी मत करना अगर अभी विचारों में रस हो तो विचार खूब कर लेना थक जाना अगर संसार में रस हो तो जल्दी नहीं है कुछ परमात्मा प्रतीक्षा कर सकता है अनंतकाल तक घबराओ मत जल्दी मत करना संसार में रस हो तो थका लेना रस को अगर बिना थके संसार से आ गए  भाग के और छिप गए संन्यास में तो मन दौड़ता रहेगा। शांति न मिलेगी अगर विचारों में मन अभी लगा था और मन डावांडोल होता था और तुमने किसी तरह बाँध के ले आये जबरदस्ती तो भाग भाग जायेगा सपने उठेंगे कल्पना जाल उठेगा मोह फिर पैदा होंगे नए नए ढंगों से पुरानी विकृतियां फिर वापस आएँगी पीछे के दरवाज़ों से आ जाएगी।बाहर के दरवाज़े बंद कर आओगे तो ।इससे कुछ लाभ न होगा अष्टावक्र कहते हैं जीवन को ठीक ठीक जान लो थक जाओ जहां जहां रस हो वहां वहां थक जाओ गहनता से जाओ। भय की कोई जरूरत नहीं खोना कुछ संभव नहीं तुम कुछ खो सकते नहीं जो तुम्हारा है सदा तुम्हारा है तुम कितने ही गहन संसार में उतर जाओ तुम्हारी आत्मा अलिप्त रहेगी जाओ खोज लो अँधेरी रात को इसमें रस है इसे  पूरा कर लो इसे विरस हो जाने दो तुम्हारे होंठ ही तुमसे कह दें तुम्हारी जीभ तुमसे कह दे बस तृप्त हो गया स्वाद किसी और की सुन के मत भाग खड़े होना कोई बुद्धपुरुष मिल जाये और कह दे कि संसार सब असार है और जब बुद्धपुरुष कहते हैं तो उनकी बात में बल तो होता ही है उनकी बात में चमत्कार तो होता ही है उनकी बात के पीछे उनके प्राण तो होते हैं उनकी बात के पीछे उनकी पूरी ऊर्जा होती है जीवन का अनुभव होता है तो जब कोई बुद्ध पुरुष कुछ कहता है तो उसके वचन तीर की तरह चले जाते हैं मगर इससे काम न होगा तुम किसी बुद्ध पुरुष के मान के पीछे मत चले जाना नहीं तो तुम भटकोगे पछताओगे फिर फिर लौटोगे इस संसार की प्रक्रिया को ठीक से थका ही डालो जहां तुम्हारा रस हो वहां चले ही जाओ। उसे भोग ही लो। जब विचार स्वयं थक जाते हैं और मन स्वयं ही थक कर क्षीण होने लगता है तभी जो धीर पुरुष अनेक प्रकार के विचारों से थक कर थक कर ख्याल रखना शांति को उपलब्ध होता है वह न कल्पना करता है न जानता न सुनता है न देखता है फिर कोई अर्चन नहीं रहती। जो थक कर आया है वो बैठते ही शांत हो जाता है। जिसका रस अभी कहीं अटका रह गया है वो शांत नहीं हो पाता वो मंदिर में भी चला जाएगा तो दूकान की सोचेगा। वो प्रार्थना भी करेगा पूजा भी करेगा तो दूसरे विचारों की तरंगे आती रहेंगी। ऊपर ऊपर होगी प्रार्थना भीतर भीतर होगी वासना। ऊपर ऊपर होगा राम भीतर भीतर होगा काम। उससे कुछ लाभ न होगा क्योंकि जो भीतर है वो ही सच है। जो ऊपर है उसका कोई मूल्य नहीं दो कौड़ी उसका मूल्य है तुम कितना भी राम राम दोहराओ उससे कुछ नहीं होता तुम्हारे दोहराने का सवाल नहीं है तुम्हारे अनुभव का अनुभवसिक्त हो जाने का। ... तभी मिलती है विश्रांति विराम जब नाना विचारों में दौड़ कर थक गए तुम जीवन का अनुभव लेकर लौट आये घर बाजार दूकान व्यर्थ सबको खोज डाला कहीं पाया नहीं सब तरह  से हार कर  लौटे हारे को हरि नाम।और तब हरि का जो नाम उठता है जो हरि  कीर्तन उठता है उसकी सुगंध और उसकी सुवास और जब तक हार न  गए हो आधी यात्रा से मत लौट आना नहीं तो मन तो यात्रा करता ही रहेगा इस जीवन में बड़े से बड़े संकटों में एक संकट है अपरिपक्व अवस्था में ध्यान समाधि धर्म में उत्सुक हो जाना ऐसा जैसे कच्चा फल कोई तोड़ ले पका नहीं था अभी । जब पक जाता है फल तो अपने से गिरता है उसमे एक सौंदर्य है एक लालित्य है एक प्रसाद है न तो वृक्ष को पता चलता है कि कब फल गिर गया न फल को पता चलता है कि कब गिर गया न कोई चोट फल को लगती है न वृक्ष को लगती चुपचाप अलग हो जाता  है बिना किसी संघर्ष के अलग हो जाता है। सहज प्रकत्या  चुप चाप अलग हो जाता है पको पक के ही गिरो और इसलिए मेरा जोर इस बात पर है कि संसार से भागो ही मत क्योंकि भागने में बड़ा आकर्षण है क्योंकि संसार में दुःख है ये सच है संसार में सुख भी है यह भी सच है  । दुःख देख के तुम भाग जाओगे लेकिन जब कुटी में बैठोगे जंगल की तो सुख याद आएगा।

बड़ी पुरानी कथा है ईश्वर ने आदमी को बनाया आदमी अकेला था उसने प्रार्थना की कि मैं अकेला हूँ मन नहीं लगता तो ईश्वर ने स्त्री को बनाया सब काम पूरा हो चुका था ईश्वर सारी बनावट पूरी कर चुका था सामान बचा नहीं था बनाने को तो उसने कई कई जगह से सामान लिया थोड़ी चांदनी चाँद से ले ली थोड़ी रौशनी सूरज से ले ली थोड़े रंग मोर से ले लिए थोड़ी तेजी सिंह से ले ली। ऐसा सामान चारों तरफ से सब तरफ से इक्कठा कर के उसने स्त्री बनायीं क्योंकि सब काम पूरा हो चूका था वो आदमी बना चुका था तब आखिर में ये सज्जन आये कहने लगे अकेले में मन नहीं लगता तो स्त्री बना दी उसने लेकिन स्त्री उपद्रव थी क्योंकि कभी कभी वो गीत गाती तो कोयल जैसा कभी कभी सिंघनी जैसे दहाड़ती भी कभी कभी चाँद जैसी शीतल और कभी कभी सूरज जैसी उत्तप्त हो जाती जब क्रोध में होती तो सूरज हो जाती जो प्रेम में होती तो चाँदनी  हो जाती तीन दिन में आदमी थक गया उसने कहा ये तो मुसीबत है इससे तो अकेले बेहतर था तीन दिन स्त्री के साथ रह कर पता चला कि एकांत में बड़ा मजा है एकांत का मजा ही बिना स्त्री के चलते ही नहीं पता ब्रह्मचर्य का आनंद गृहस्थ हुए बिना पता चलता ही नहीं वो भागा वापस गया उसने ईश्वर से कहा क्षमा करें भूल हो गयी मैनें जो माँगा गलती हो गयी आप ये स्त्री वापस ले लें मुझे नहीं चाहिए ये तो बड़ा उपद्रव है और ये तो मुझे पागल कर छोड़ेगी और यह भरोसे योग्य नहीं है कभी गाती है और कभी क्रोधित हो जाती है और कब कैसे बदल जाती है ये कुछ  समझ नहीं आती ।  यह तर्क है यह आप ही संभालें । ईश्वर ने कहा जैसी मर्जी तीन दिन छोड़ गया ईश्वर के पास स्त्री को घर जाके लेटा  बिस्तर पे पड़ा याद आने लगी उसके मधुर गीत उसके गले में गले में  हाथ डाल के झूलना ।  उसकी सुन्दर आंखें तीन दिन बाद भागा पहुंचा। उसने कहा क्षमा करें वो स्त्री मुझे वापस दे दें। सुन्दर थी गीत गाती थी घर में थोड़ी गुन गुन थी सब उदास हो गया  अब जंगल से लौटता हूँ हारा थका लकड़ी काट के जानवर मार के कोई स्वागत करने को नहीं घर थी तो चाय कॉफ़ी तैयार रखती थी द्वार पर खड़ी मिलती थी प्रतीक्षा करती थी नहीं बड़ा  उदासी लगती है क्षमा करें भूल हो गयी मुझे वापस वापिस दे दें ईश्वर ने कहा जैसी तुम्हारी मर्ज़ी तीन दिन में फिर हालत ख़राब हो गयी तीन दिन बाद वो फिर आ गया ईश्वर ने कहा बकवास बंद। तुम न स्त्री के बिना रह सकते हो न स्त्री साथ रह सकते हो तो अब जैसे भी हो गुजारो। तब से आदमी जैसे भी हो वैसे गुजार रहा है। तुम अगर बाजार में हो तो आश्रम बड़ा प्रीतिकर लगेगा अगर तुम आश्रम में हो तो बाजार की याद आने लगेगी । अगर तुम बम्बई में हो तो कश्मीर अगर कश्मीर में हो तो बम्बई। संसार में सुख और दुःख मिश्रित हैं वहां चाँद भी है और सूरज भी और मोर भी नाचते हैं और सिंह भी दहाड़ते हैं तो जब तुम मौजूद  होते हो संसार में तो सब उसका दुःख दिखाई पड़ता है वो उभर के आ जाता है। जब तुम दूर हटते हो तो सब याद आती है सुख की बातें। इसलिए मैं कहता हूँ अपने सन्यासियों को भागना मत वहीँ रहना पकना  भागना मत पकना  पक कर गिरना थक जाने देना अपने से होने देना तुम जल्दी मत करना जो सहज हो जाये वो ही सुन्दर है।
साधो सहज समाधी भली।