Ashtavakra Mahageeta Day 14

उद्देश्‍य—उसे जो भावे—प्रवचन—चौदहवां

24 सितंबर, 1976;
ओशो आश्रम, कोरेगांव पार्क,
पूना।

पहला प्रश्न :

मनोवैज्ञानिक सिग्मंड फ्रायड ने मृत्यु—एषणाथानाटोस की चर्चा की। आपने कल जीवेषणाईरोस की चर्चा की। फ्रायड की धारणा को क्या आप आधुनिक युग की आध्यात्मिक विकृति कहते हैंकृपा करके हमें समझाएं।

जीवन द्वंद्व है। और जो भी यहां है उससे विपरीत भी जरूर होगापता हो न पता हो। जहां प्रेम है वहां घृणा है। और जहां प्रकाश है वहां अंधकार है। और जहां परमात्मा है वहां पदार्थ है। तो जीवेषणा के भीतर भी छिपी हुई मृत्यु—एषणा भी होनी ही चाहिए।
आधुनिक युग की विकृति नहीं है फ्रायड का वक्तव्य। फ्रायड ने एक बहुत गहरी खोज की है। जीवेषणा की चर्चा तो सदा से होती रही। फ्रायड ने जो थोड़ा—सा अनुदान किया है जगत की प्रतिभा कोउस अनुदान में मृत्यु —एषणा की धारणा भी है। आदमी जीना चाहता हैयह तो सच हैलेकिन ऐसी घड़ियां भी होती हैं जब आदमी मरना चाहता हैयह भी उतना ही सच है।

थोड़ा सोचोजवान हो तुमतो जीना चाहते हो। फिर एक दिन वृद्ध हुएशिथिल हुए गातअंग थकेजीवन में जो जानने योग्य था जान लियाकरने योग्य था कर लियाभोगने योग्य था भोग लियाअब सब विरस हुआअब किसी बात में कोई रस नहीं आताअब सब पुनरुक्ति मालूम होती हैऊब पैदा होती है—तो क्या तुम मरना न चाहोगेक्या अंतरतम में एक गहरी आवाज न उठने लगेगी कि अब बहुत हुआअब परदा गिरेअब नाटक समाप्त हो?
जिसे पूरब के मनीषियों ने वैराग्य कहा हैवह मृत्यु—एषणा की ही छाया है। जिसे बुद्ध ने निर्वाण कहा हैवह मृत्यु—एषणा की ही आत्यंतिक परिकल्पना है।
क्या है निर्वाण? हम कहते हैं कि इस देश में आवागमन से छुटकारा। क्या हुआ इसका अर्थइसका अर्थ हुआ. बहुत हो चुका जीवनअब हम लौट कर नहीं आना चाहतेबहुत हो चुकाएक सीमा हैअब हम थक गए हैं और हम परम विश्राम चाहते हैं। इसको ही फ्रायड मृत्यु—एषणा कहता है। शब्द से ही मत घबड़ा जाना। जीवेषणा है रागमृत्यु —एषणा है विराग। जीवेषणा तुम्हें बांधे रखती है माया सेमृत्यु —एषणा मुक्त करेगी। खुद फ्रायड को भी ठीक—ठीक साफ नहीं है कि उसने जो खोज लिया हैउसका पूरा —पूरा अर्थ क्या होगा! मृत्यु—एषणा की खोज उसने अपने जीवन के अंतिम चरण में कीशायद स्वयं भी मृत्यु —एषणा से भर गया होगातब की। स्वयं भी परेशान हो गयाक्योंकि जीवन भर तो लस्टलिबिडोजीवेषणावासना—इसका ही अनुसंधान किया और जीवन की अंतिम घड़ियों में मृत्यु—एषणा का भी पता चला। वह हैरान हुआक्योंकि वह तार्किक व्यक्ति था। उसे बड़ी बेचैनी हुई कि यहतो सारे जीवन में मैंने जो खोजा थाउसका विरोध हो जाएगा। मैंने तो सदा यही कहा था कि आदमी जीने के पागलपन से जी रहा है और कामवासना मनुष्य—जीवन का एकमात्र आधार हैईरोस। अब आज अचानक जीवन के अंतिम पहर में यह भी भीतर पता चला कि मरने की भी आकांक्षा है। फिर ईरोस का क्या हुआजीवेषणा का क्या हुआ?
फ्रायड कोई लाओत्सु का अनुयायी तो नहीं थाअरस्तु का अनुयायी था। विपरीत को मानने में उसे बड़ी अड़चन थी। वैज्ञानिक बुद्धि का व्यक्ति था। चाहता थाएक से ही सब सुलझा लूंएक ही धारणा से सब सुलझा लूं दूसरी कोई धारणा बीच में न लानी पड़े। और यह तो दूसरी धारणा थीन केवल दूसरी,सारे जीवन की खोज का विरोध थीऐंटी— थीसिस थीउसका प्रतिवाद थी। मगर आदमी ईमानदार था। उसने छिपाया न। थोड़ा कम ईमान का आदमी होता तो दूसरी बात को उठाता ही नहीं। जीवन के अंतिम क्षण में कौन अपने जीवन के किए को लीपता—पोतता है! चालीस वर्षों के अथक श्रम से जिसने सिद्ध किया था,उसके विपरीत एक धारणा को अंत में डाल जाना सारे विचार को अस्त—व्यस्त करना होगा। थोड़ा कम ईमान का आदमी होताथोड़ा कम प्रामाणिक होताताल जाता बात—मजबूरी कहां थी ई कहता न किसी सेचुपचाप बैठा रहता। नहींलेकिन आदमी ईमानदार था। उसने फिक्र न की। उसने जाना कि अगर मेरे जीवन का पूरा दृष्टिकोण भी गिरता होअगर मेरे वक्तव्य में विरोधाभास भी आता होतो आएलेकिन जो मैंने जाना हैजो मैंने देखा हैउसे कहूंगा। बड़े झिझकते मन से उसने मृत्यु—एषणा का सिद्धात प्रतिपादित किया।
और मेरे देखेउसके जीवन भर की खोज अधूरी रह जाती अगर यह दूसरी बात उसे पता न चलती।
जब तुम जीवेषणा में बहुत गहरे खोज करोगे तो वहीं तुम छिपा हुआ पाओगे विरोध भी। इसीलिए तो कहते हैं कि जैसे ही जन्म हुआवैसे ही मृत्यु भी होनी शुरू हो गई। जीवन में ही छिपा है मृत्यु का स्वर। बने नहींमिटना शुरू हो गया। जो भी बना हैमिटेगा। जो भी संगृहीत हैबिखरेगा।
तो यह जीवन जो हमारा हैइसके साथ—साथ मृत्यु की छाया भी चलती होगी। एक पैर जीवन कातो दूसरा पैर मृत्यु का—दोनों पर सधे हम चलते हैं।
तीसरी खोज भारत की है। वह भारत की खोज यह है कि न तो हम जीवन हैं और न हम मृत्यु हैंये दोनों हमारे पैर हैं। द्वंद्व इसलिए मालूम होता हैअगर हम तीसरे को न देख पाएं। अगर तीसरा दिखाई पड़ जाए...... सिंथीसिस।
ऐसा समझोईरोस की धारणाजीवेषणा की धारणा है. थीसिसएक वादएक सिद्धात। फिर थानाटोसमृत्यु—एषणा की धारणा है. प्रतिवादएंटी—थीसिस। अगर दो ही रहें तो विवाद ही होगाहल होना मुश्किल हो जाएगा।
फ्रायड अगर थोड़े दिन और जीता—नहीं जीयाकिसी अगले जन्म मेंकहीं और खोजबीन करते—सिंथीसिससंवाद भी घटित होगावह समन्वय की अंतिम दशा भी घटित होगीजब वह साक्षी को भी पकड़ लेगा। वह ठीक रास्ते पर थामंजिल अभी अधूरी थीमगर रास्ता गलत न था। अभी मंजिल आई न थी,यात्रा अधूरी थीलेकिन मार्ग ठीक थादिशा ठीक थी। जीवन से मृत्यु पर पहुंचा थाअब एक ही उपाय बचा था कि जीवन और मृत्यु दोनों का अतिक्रमण कर जाता।
उसी को अष्टावक्र ने साक्षी— भाव कहा है। न तुम जीवन होन तुम मृत्यु हो। जीवन और मृत्यु दोनों ही खेल हैंजो तुम चुनते हो। और एक को चुना तो दूसरा भी अनिवार्यत: चुनना होता है। जिसने जीवन को चुना उसे मृत्यु भी चुननी होगी। जिसने प्रेम को चुना उसे घृणा भी चुननी होगी। जिसने सम्मान चुना उसे अपमान भी स्वीकार कर लेना होगा। जिसने मुस्कुराहट चुनीवह आंसुओं से बच न सकेगा। वे साथ —साथ हैं। देर— अबेर हो सकती हैलेकिन द्वंद्व साथ—साथ है।
जब तक तुम चुनोगेतब तक विपरीत भी अपने —आप चुन लिया जाएगा। तुम चाहो न चाहोतुम्हारी चाह— अचाह का सवाल नहीं। तुमने सिक्के का एक पहलू चुनादूसरा पहलू तुम्हारे हाथ में अपने — आप आ गया। तुम देखो वर्षों बादइससे क्या फर्क पड़ता हैलेकिन आ गया। चुनो मतदोनों के साक्षी बनो—तो तुम दोनों के पार हो गए। आवागमन से मुक्तिजीवन—मृत्यु से मुक्तिजन्म—मरण से मुक्ति घट सकती है।
तीसरे तत्व की खोज करनी होगी। वह तीसरा ही महिमावान हैआत्यंतिक रूप से महिमावान है। उस तीसरे का ही महत्व है।
पूछते हो तुम, 'क्या यह आध्यात्मिक विकृति है आधुनिक युग की—मृत्यु—एषणा की खोज? नहींयह आधुनिक भाषा में विराग की खोज हैवैराग्य की खोज है। यह नया शब्द है। विरागी का अर्थ क्या होता हैविरागी का इतना ही अर्थ होता हैवह कहता हैअब मैं विदा होना चाहता हूं। विरागी का इतना ही अर्थ होता है राग—रंग टूट गयावीणा के तार उखड़ गएअब मैं विदा होना चाहता हूं। विरागी यही कहता है कि अब यहां घर बनाने योग्य कोई जगह नहीं मालूम होती,मुझे जाने दो। यह मरने की ही आकांक्षा है।
फ्रायड भी ठीक से नहीं समझा। उसने अपनी इस खोज के संदर्भ में ऐसा सोचा कि बुद्ध मृत्यु—एषणा से भरे हुए हैं। एक अर्थ में ठीक हैक्योंकि जीवेषणा अब नहीं हैअब जीने की कोई आकांक्षा नहीं है। वह तृष्णावह तन्हा गई। अब कोई वासना जीने की नहीं है।
इसलिए फ्रायड ने सोचा कि बुद्ध मृत्यु —एषणा से भरे हैं और यह बुद्ध का धर्म मरने वालों का धर्म हैनिराशाअवसादसंताप से भरे लोगों का धर्म है,नकारात्मक है। थोड़ी दूर चलालेकिन पूरी बात उसकी पकड़ में न आई।
बुद्ध का धर्म न तो राग का धर्म है न विराग का—वीतराग का धर्म है। परम संन्यासी वीतरागी है। वीतरागी का अर्थ हुआ : विराग से भी राग न रहा। वह आखिरी ऊंचाई है चैतन्य की। राग से राग न रहेतो विराग। फिर विराग से भी राग न रहेतो वीतराग। संसारी संसार से छूटने लगेतो संन्यासीफिर संन्यास के भी ऊपर उठने लगेतो वीतराग।
विराग में भी थोड़ा राग तो रहता है—विराग से हो जाता है। कोई धन से राग करता हैकोई निर्धनता से राग करने लगता हैकोई कहता है निर्धनता में बड़ा सुख है। कुछ न हो पासतो बड़ा सुख है। कोई वस्त्रों से राग करताकोई कहता है नग्न होने में बड़ा सुख हैदिगंबर हो जाने में बड़ा सुख है। कोई कहता है स्त्रियां चाहिए तो सुख हैपुरुष चाहिए तो सुख हैसुंदर देह चाहिए तो सुख हैकोई कहता हैनहींस्त्रियों से दूरपुरुषों से दूरदेहों से दूरजंगल मेंएकांत मेंअकेले में,जहां कोई न बचे वहा सुख है। लेकिन ये एक ही सिक्के के पहलू हैंएक —दूसरे के विपरीत मालूम होते हैंपर एक—दूसरे के सहयोगी हैं।
वीतराग की दशा है दोनों के पारपूरा सिक्का छोड़ दिया हाथ से—कृष्णमूर्ति जिस अवस्था को च्चॉयसलेसनेस कहते हैंनिर्विकल्पताचुनाव का अभाव। फ्रायड उसके करीब आता जरूर। आदमी अनूठा था। लेकिन उसकी अपनी सीमाएं थीं। और पूरब के धर्मों से वह कभी ठीक से परिचित नहीं हुआ। उसके मन को ईसाइयत और यहूदी धर्मों ने बड़े विरोध से भर दिया था।
ईसाइयत और यहूदी धर्मधर्म की कोई बड़ी ऊंची अभिव्यक्तियां नहीं हैं। बड़ी साधारण अभिव्यक्तियां हैं। क्राइस्ट तो ठीक वहीं हैं जहा बुद्ध हैंलेकिन ईसाइयत उस ऊंचाई को नहीं पहुंच सकी जहां बुद्ध के अनुयायियों ने बुद्ध के विचार को पहुंचाया—उस परिशुद्धि कोउस प्रज्ञा को। मौजेज तो वहीं हैंजहां लाओत्सु हैलेकिन यहूदी मौजेज को वहां न उठा सके जहां लाओत्सु के शिष्यों ने लाओत्सु को उठायाऔर लाओत्सु के विचार पर आकाश में एक ताना—बाना बुना— अत्यंत परिशुद्ध!
ईसाइयत और यहूदीधर्म की बड़ी साधारण अभिव्यक्तियां हैंबड़ी प्राथमिकपरिष्कार नहीं हैराजनीति ज्यादा हैधर्म कम हैव्यवसाय ज्यादा हैधर्म कम हैधर्म औपचारिक मालूम होता है। रविवार को चर्च हो आता है आदमी और सोच लेता है बात पूरी हो गई। रविवारीय धर्म हैबाकी छह दिन कोई प्रयोजन नहीं है। थोड़ी—बहुत प्रार्थना को जगह हैध्यान के लिए कोई जगह नहीं हैसमाधि की कोई धारणा नहीं है। इसलिए बहुत ऊंचाई की बात नहीं थी।
फ्रायड सिर्फ इन दो धर्मों से परिचित था। पूरब के धर्म—उपनिषदताओ—तेह—किगझेनतंत्रतिलोपाबोधिधर्मनागार्जुनबसुबंधुधर्मकीर्ति—इनकी कोई पहचान उसे न थी। (रेसे कमल भी खिले हैंइसका उसे कुछ पता न था। इसलिए उसकी सीमाएं थीं। उसने पश्चिम के साधारण धर्मों को ही धर्म मान लिया।
धर्म की गहरी समझ चाहिए हो तो पूरब में डुबकी लगानी जरूरी हैजैसे विज्ञान की गहरी समझ चाहिए हो तो पश्चिम में डुबकी लगानी जरूरी हैपश्चिम की मौलिक प्रतिभा विज्ञान में प्रगट हुई है। पूरब की प्रतिभा धर्म में प्रगट हुई है। जैसे पूरब का वैज्ञानिक मध्य श्रेणी का होता है। जिसको तुम पूरब में वैज्ञानिक कहते हो वह कोई बड़े मूलन का नहीं होतातकनीशियन होता हैवैज्ञानिक नहीं होतापश्चिम से सीख कर आ जाता हैउधार उसका ज्ञान होता है। पूरब के पास विज्ञान की सीधी—सीधी प्रतिभा नहीं मालूम होतीक्योंकि विज्ञान की प्रतिभा के लिए तर्क चाहिए और विज्ञान की प्रतिभा के लिए गणित चाहिए—और पूरब की प्रतिभा काव्यात्मक हैरहस्यात्मक हैसंगीत में प्रगट हुई हैध्यान में प्रगट हुई है।
तो अगर किसी को भी धर्म का ठीक परिचय करना हो तो पूरब से ही परिचित होना होगा। विज्ञान पढ़ना हो तो ऑक्सफर्ड जाओकैम्बिज जाओहार्वर्ड जाओ। लेकिन अगर धर्म पढ़ना हो तो भटको कहीं पूरब के गली—कूचों मेंभटको पूरब की घाटियों—वादियोंपहाड़ों में। विज्ञान को समझना हो तो पश्चिम की धारा ने विज्ञान को ठीक—ठीक उसके निष्कर्ष पर पहुंचा दिया हैतर्क को उसकी आत्यंतिक निष्पत्ति दे दी है। अगर अतर्क्य हृदय कीअंतरतम की बात सुननी हो तो पूरब के सन्नाटे में सुनोउसकी गुनगुनाहटउसका नाद पूरब में है।
फ्रायड की सीमा थी वह पूरब से परिचित न था। वही सीमा मार्क्स की भी थीवह भी पूरब से परिचित न था। दोनों ने धर्म—विरोधी वक्तव्य दिए। उनके धर्म—विरोधी वक्तव्यों का बहुत मूल्य नहीं हैक्योंकि वे अपरिचित लोगों के वक्तव्य हैंवे परिचित लोगों के वक्तव्य नहीं हैं। उन्होंने कुछ जान कर नहीं कहा है;ऊपर—ऊपर सेजो सतही परिचय हो जाता हैउसके आधार पर कुछ कह दिया है। उन्होंने गहरी डुबकी न ली। वे पूरब की गहराई में उतर कर मोती न लाए। बुद्ध से उनका मिलन नहीं हुआ। लाओत्सु से साक्षात्कार नहीं हुआ। कृष्ण की बांसुरी उन्होंने नहीं सुनी।
ये सीमाएं थींअन्यथा शायद फ्रायड उस सिंथीसिस कोउस परम समन्वय को भी उपलब्ध हो जाताजो वीतरागता का है। पर जो बात उसने मृत्यु—एषणा के संबंध में कहीवह सच है। हम तो उसे जानते रहे हैं। हमने उसे मृत्यु—एषणा कभी नहीं कहा थायह बात भी सच है। हमने उसे कहा था वैराग्य— भाव।
मगर क्या अर्थ होता है वैराग्य—भाव काअगर राग का अर्थ होता है : और जीने की इच्छातो वैराग्य का अर्थ होता है : अब और न जीने की इच्छा—बहुत हुआपर्याप्त हो गयाहम भर गएअब हम विदा होना चाहते हैं।
नहींआधुनिक मन की कोई विकृति नहीं हैआधुनिक वैज्ञानिक पद्धति के द्वारा पुराने वैराग्य को नया नाम दिया गया है। शुभ है! मेरे लेखेफ्रायड की मृत्यु—एषणा का गहन अध्ययन होना चाहिए! वह उपेक्षित हैउसका बहुत अध्ययन नहीं किया गया। जैसे हम मृत्यु की उपेक्षा करते हैंवैसे ही हमने मृत्यु—एषणा के सिद्धात की भी उपेक्षा की है। तो फ्रायड के लिबिडोकामवासना का तो खूब अध्ययन हुआ हैबड़ी किताबें लिखी जाती हैंलेकिन मृत्यु—एषणा का बहुत कम अध्ययन हुआ है। बड़ी मूल्यवान खोज है वहऔर जीवन के अंतिम परिपक्व दिनों में उसने दी है—इसलिए मूल्य और भी गहन हो जाता है।
इतना ही स्मरण रखो कि जीवन में सब चीजें द्वंद्व हैं। द्वंद्व से चलता है जीवन। जिस दिन तुम द्वंद्व से जाग गएजीवन रुक जाता है। जिस दिन तुम द्वंद्व से जागेनिर्द्वंद्व हुएतब तुम भी कहोगे जनक जैसे : आश्चर्य कि मैं इतनी बार जन्मा और कभी नहीं जन्माऔर इतनी बार मरा और कभी नहीं मरा! आश्चर्य! मुझको मेरा नमस्कार! इतने जन्मइतनी मृत्युएं आईं और गईं और कोई रेखा भी मुझ पर नहीं छोड़ गईं! इतने पुण्य इतने पापइतने व्यवसाय इतने व्यापारआए और गए और सपनों की तरह चले गएपीछे पदचिह्न भी नहीं छोड़ गए! आश्चर्य मेरी इस आत्यंतिक शुद्धता का! आश्चर्य मेरे इस क्वांरेपन का। धन्यभाग! मेरा मुझको नमस्कार!
ऐसा किसी दिन तुम्हारे भीतर भीतुम्हारे अंतरतम में भी उठेगी सुगंध!
लेकिन ध्यान रखनाआना है निर्द्वंद्व पर। जहां तुम्हें द्वंद्व दिखाई पड़ेवहीं साक्षी साधना। द्वंद्व को तुम सूचना मान लेना कि साक्षी साधने की घड़ी आ गई,जहा द्वंद्व दिखाई पड़े—प्रेम और घृणा—तो तुम चुनना मतदोनों के साक्षी हो जाना। क्रोध और दया—तो तुम चुनना मतदोनों के साक्षी हो जाना। स्त्री और पुरुष—तो तुम चुनना मतदोनों के साक्षी हो जाना। सम्मान—अपमान— चुनना मतदोनों के साक्षी हो जाना। सुख—दुख—साक्षी हो जाना। जहां तुम्हें द्वंद्व दिखाई पड़ेवहीं साक्षी हो जाना।
अगर यह एक स्वर्ण-सूत्र तुमने पाल लियातो वीतराग की दशा बहुत दूर नहीं है। बूंद-बूंद घड़ा भर जाता हैऐसे ही बूंद-बूंद इस निर्विकल्पता को साधने से तुम्हारी समाधि का घड़ा भी भरेगाएक दिन तुम ऊपर से बहने लगोगे। न केवल तुम समाधिस्थ हो जाओगेतुम्हारे पास जो आएंगे उन्हें भी समाधि की सुवास मिलेगीवे भी भर उठेंगे किसी अलौकिक आनंद से।

दूसरा प्रश्न :

आपके कहे अनुसार और समस्त बद्ध-परुषों के कहे अनुसार अहंकार की सत्ता नहीं है- और फिर भी अहंकार के साक्षी होने को आप कहते हैं! कृपा करके इस अबूझ पहेली को हमें समझाएं।

तो अबूझ हैन पहेली है। सीधी-सी बात है : तुम अंधेरे को देख पाते हो या नहींऔर अंधेरे की कोई सत्ता नहीं है। अंधेरा मात्र अभाव है। फिर भी अंधेरे को तुम देख पाते हो या नहींदेख तो पाते हो। तुम्हारे देखने से ही अंधेरे की सत्ता थोड़े ही सिद्ध होती है। जब तुम अंधेरा देखते हो तो तुम वस्तुत: यही देखते हो कि प्रकाश नहीं है-और क्या देखते होजब तुम अंधेरा देखते हो तो तुम अंधेरा थोड़े ही देखते होप्रकाश का अभाव देखते हो। अंधेरा तो है ही नहीं-काटो तो काट नहीं सकतेबांधो तो बांध नहीं सकतेधकाओ तो धका नहीं सकतेजलाओ तो जला नहीं सकतेमिटाओ तो मिटा नहीं सकते। अंधेरा हो कैसे सकता हैकुछ तो कर सकते। जब कोई चीज होती है तो उसके साथ हम कुछ कर सकते हैं। होने का प्रमाण क्याउसके साथ कुछ किया जा सकता है। न होने का प्रमाण क्याउसके साथ कुछ भी नहीं किया जा सकता।
अंधेरा भरा है तुम्हारे कमरे मेंले आओ तलवारेंकाटोधक्के दोबुला लो पहलवानों कोमार-काट मचाओ-तुम्हीं थक कर गिरोगेतुम्हीं को चोटें लग जाएंगीअंधेरा अपनी जगह रहेगा। अंधेरे का तुम कुछ भी नहीं कर सकतेक्योंकि अंधेरा अभाव है।
हौरोशनी के साथ तुम बहुत कुछ कर सकते हो। दीया जलता होबुझा दो फूंक कर-गई रोशनी। बुझा दीया होजला दो-हो गई रोशनी। इस कमरे में न होदूसरे कमरे से ले आओ। अपने घर में न होपड़ोसी से मांग लो। प्रकाश के साथ तुम हजार काम कर सकते हो।
खयाल कियाअंधेरे के साथ कुछ करना हो तो भी प्रकाश के साथ कुछ करना पड़ता है। अंधेरे को हटाना हैजलाओ प्रकाश कोलेकिन जलाते प्रकाश को हो। अंधेरे को लाना हैबुझाओ प्रकाश कोलेकिन बुझाते प्रकाश को हो। जो हैउसके साथ कुछ किया जा सकता है। लेकिन फिर भी अंधेरा दिखाई तो पड़ता है।
ऐसा ही अहंकार है। उसकी कोई सत्ता नहीं। वह आत्मा का अभाव है। तुम्हें अपना पता नहीं इसलिए अहंकार मालूम होता है। जिस दिन तुम्हें अपना पता चल जाएगाउसी दिन अहंकार मालूम न होगा। आत्मभाव में कोई अहंकार नहीं रह जाता। और यूंइक तुम अपने को भुला बैठेविस्मरण हो गयातुम्हें याद न रही कि तुम कौन हो-तो बिना कुछ प्रतिमा के बनाए काम नहीं चल सकतातो एक कल्पित प्रतिमा बना ली है अहंकार कीकि मैं यह हूं : मेरे पिता का नामघर का नाममेरा पता-ठिकानाकितनी डिग्रियांकितने प्रमाण-पत्रलोग क्या कहते हैं मेरे बाबत-तुमने एक फाइल बना ली। इससे तुम किसी तरह इस जिंदगी में अपने संबंध में कुछ भान पैदा कर लेते होएक रूप बना लेते हो-जिसके सहारे काम चल जाता हैअन्यथा बड़ी मुश्किल हो जाएगी।
कोई तुमसे पूछे कि तुम कौन हो और अगर तुम सच्चा उत्तर देना चाहोतो तुम खड़े रह जाओगे। वह आदमी फिर पूछे कि भाई बोलते नहीं तुम कौन हो,और तुम कंधे बिचकाओ। यही सच्चा होगा उत्तरक्योंकि पता तो तुमको भी नहीं है कि तुम कौन होतो वह आदमी तुम्हें पागल समझेगा। कहां से आ रहे हो-तुम कोई उत्तर नहीं दे सकते हो। दे सकते नहींक्योंकि तुम्हें पता नहीं कहां से आ रहे हो। कहा जा रहे होकुछ पता नहीं। तो तुम पागल ही समझे जाओगे।
बड़ी मुश्किल हो जाएगी अगर सभी लोग इस तरह करने लगें। अगर सभी लोग छोड़ दें झूठी मान्यताएं अपने संबंध मेंतो बड़ी कठिनाई खड़ी हो जाएगी। झूठी मान्यताएं इस झूठे समाज में उपयोगी हैं। इस झूठे माया के लोक में झूठी मान्यताएं उपयोगी हैं। उनसे काम चल जाता है। वे सच हैं या झूठइससे कोई प्रयोजन नहीं है। उनसे काम चल जाता हैवे उपयोगी हैं।
इसीलिए तो लोग जब स्वयं की खोज पर निकलते हैं तो बड़ी घबड़ाहट पकड़ती हैक्योंकि ये सब झूठी मान्यताएं हटानी होती हैं। जिनको सदा-सदा से माना कि मेरा यह नाम हैमेरा यह पता-ठिकानामेरी यह देहमैं देहमेरा यह मनमेरे ये विचारमेरा यह धर्ममेरा यह देश-सब खोने लगते हैं। इन सबके साथ ही मेरा 'मैंभी बिखरने लगता हैपिघलने लगता हैतिरोहित होने लगता है। एक घड़ी आती है कि तुम शून्य सन्नाटे में रह जाते होजहां तुम्हें पता ही नहीं होता कि तुम कौन हो।
उस घड़ी को जीने का नाम तपश्चर्या खै। वह घड़ी बड़ी तप की हैजब तुम्हें बिलकुल पता नहीं रहता कि मैं कौन हूं। जब तुम्हारे सब धारणा के बनाए हुए महल भूमिसात हो जाते हैंजब तुम निबिड़ अंधकार मेंशून्य में खड़े हो जाते होप्रकाश की एक किरण नहीं मालूम होती कि मैं कौन हूं-ईसाई फकीरों ने इसके लिए ठीक नाम दिया है डार्क नाइट आफ द सोलआत्मा की अंधेरी रात। और इसी अंधेरी रात के बाद सुबह है। जो इससे गुजरने से डरा वह सुबह तक कभी नहीं पहुंच पाता।
तो पहले तो झूठी धारणा छोड़नी होगीझूठा तादात्म्य छोड़ना होगा। एक घड़ी आएगी कि तुम सब भूल जाओगे कि तुम कौन होबिलकुल पागल जैसी दशा होगी। अगर तुम हिम्मतवर रहे और इस घड़ी से गुजर गए तो एक घड़ी फिर से आएगीजब सुबह का सूरज निकलेगापहली दफा तुम्हें पता चलेगा तुम कौन हो। जब तुम्हें पता चलता है कि वस्तुत: तुम कौन होयथार्थत: तुम कौन हो,
परमार्थत: तुम कौन हो—तब तुम जानते हो कि अहंकार एक व्यावहारिक सत्य था।
यह बात समझ लेनी चाहिए। व्यावहारिक सत्य और पारमार्थिक सत्य के बीच का भेद समझ लेना चाहिए। एक कागज का टुकड़ा मैं तुम्हें देता हूं और कहता हूं यह सौ रुपये का नोट हैतुम कहते होयह कागज का टुकड़ा है। मैं तुम्हें सौ रुपये का नोट देता हूं और कहता हूं यह कागज का टुकड़ा हैतुम कहते हो,नहीं यह सौ रुपए का नोट है। दोनों कागज के टुकड़े हैं। जिसको तुम सौ रुपये का नोट कह रहे हो वह व्यावहारिक सत्य हैपारमार्थिक नहीं। अगर सरकार बदल जाए या सरकार का दिमाग बदल जाए और वह आज सुबह घोषणा कर दे कि सौ रुपये के नोट अब सौ रुपये के नोट नहींअब नहीं चलेंगेचलन के बाहर हो गए—तो तत्‍क्षण सौ रुपये का नोट कागज का टुकड़ा हो जाएगा। लोग निकाल कर घूरों पर फेंक आएंगे कि क्या करेंगे। कल तक इतना सम्हाल—सम्हाल कर रखते थेअब बच्चों को खेलने को दे देंगे कि खेलोकागज की नाव बना कर नदी में चला दो। क्या करोगेव्यावहारिक सत्य थामाना हुआ सत्य था। माना था,इसलिए सत्य था। सबने मिल कर माना थाइसलिए सत्य था। सबने इंकार कर दियाबात खत्म हो गई।
अहंकार व्यावहारिक सत्य है—सौ रुपए का करेंसी नोट है। मानो तो है। और जिंदगी के लिए जरूरी भी है। मैं तुमसे यह नहीं कह रहा हूं कि तुम अहंकार को छोड़ कर जिंदगी में अड़चन बन जाओ। मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि अहंकार से जाग जाओइतना समझ लो कि यह व्यावहारिक सत्य हैपारमार्थिक नहीं। इसका उपयोग करो—भरपूर! करना ही होगा। लेकिन इसे सच्चाई मत मानो। सच्चाई मानने से बड़ी अड़चन हो जाती है। हम जो मान लेते हैं वैसा दिखाई पड़ने लगता है। कल मैं एक घटना पढ़ रहा था—एक प्रयोग। हार्वर्ड विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान—विभाग ने एक प्रयोग किया। एक बड़ा मनोवैज्ञानिकजिसकी ख्याति सारे मुल्क और मुल्क के बाहर हैउसको उन्होंने कहा कि हम एक प्रयोग करना चाहते हैंआप सहयोग दें। एक आदमी पागल हैदिमाग उसका खराब है और वह घोषणा करता है कि वह बड़ा भारी मनोवैज्ञानिक है। एक दूसरे विश्वविद्यालय के मनोवैज्ञानिक का वह नाम लेता है कि मैं वही हूं। आप उसका इलाज करें। और आप जो एक—दूसरे के साथ बात करेंगेवह हम सब उसकी फिल्म लेना चाहते हैंताकि हम उसका अध्ययन कर सकें बाद में। वह मनोवैज्ञानिक राजी हो गया।
वे दूसरे आदमी के पास गए—मनोवैज्ञानिक के पासदूसरे विश्वविद्यालय के। और उससे कहा कि एक पागल हैवह अपने को बड़ा मनोवैज्ञानिक समझता है। आप उसका इलाज करेंगेहम फिल्म लेना चाहते हैं। वह भी राजी हो गया।
ये दोनों बड़े मनोवैज्ञानिकइन दोनों को वे एक कमरे में लायेपर दोनों एक—दूसरे को मान रहे हैं कि दूसरा पागल है और गलती सेभ्रांति से घोषणा कर रहा है कि मैं बड़ा मनोवैज्ञानिक हूं। उन्होंने पूछाआप कौनदोनों ने उत्तर दिया। दोनों ने वही उत्तर दिया जो सही था—उनके लिण्र सही था। लेकिन दूसरा मुस्कुराया—उसने कहा, 'तो अच्छा तो बिलकुल दिमाग इसका खराब ही हैयह अपने को क्या समझ रहा है?' दोनों एक—दूसरे के इलाज का उपाय करने लगे। और जितना वह पागल— क्योंकि दोनों एक—दूसरे को पागल समझते हैं—जितना एक—दूसरे का उपाय करने लगा इलाज कावह दूसरा भी चकित हुआ कि हद हो गयीपागलपन की भी सीमा है! न केवल यह पागल हैबल्कि मुझे पागल समझ रहा हैमुझे ठीक करने का उपाय कर रहा है।
दस मिनट तक बड़ी अदभुत स्थिति रही होगी। दस मिनट के बाद एक को याद आया कि यह चेहरा तो पहचाना—सा मालूम पड़ता है। अखबारों में फोटो देखे मालूम पड़ते हैंहो न हो यह आदमी सच में ही तो वही नहीं है जिसका यह दावा कर रहा है!
और जैसे ही उसे याद आया तो सारी बात याद आ गई। उसने उस आदमी की किताबें भी पढ़ी हैंवह जो बोल रहा हैउसमें उसके शब्द भी उसकी पहचान में आने लगे। तब वह चौंका। तब वह समझा जाल क्या है। यह एक प्रयोग था जिसमें मान्यता के आधार परहम जो मान लेते हैंवही सत्य प्रतीत होने लगता है। तब वे दोनों हंसे खिलखिला कर। तब दोनों ने असली स्थिति पहचान ली। तब कोई भी पागल न रहा। मगर दस मिनट तक दोनों पागल थे और प्रत्येक सोच रहा था दूसरा पागल है। दस मिनट तक जो स्थिति थीवह व्यावहारिक सत्य थीपारमार्थिक नहीं। उखड़ गई। जैसे ही सच्चाई की याद आईटूट गई।
एक और प्रयोग मैं पढ़ रहा था। एक दूसरे विश्वविद्यालय में एक बड़ा जर्मन संगीतज्ञ आया। वह सिर्फ जर्मन भाषा जानता हैअंग्रेजी के दो चार शब्द बोल लेता है। उसके एक विद्यार्थी ने आ कर पहले परिचय दिया श्रोताओं को। और जैसा वह संगीत बजाने जा रहा हैउसके संबंध में परिचय दिया कि बहुत अनूठी कृति हैशायद मनुष्य—जाति के इतिहास में ऐसी कोई दूसरी संगीत की कृति नहीं। इसकी खूबी यह है कि संगीतज्ञ तो पूरा गंभीर रहता हैलेकिन यह एक बड़ा गहरा व्यंग्य है। और आप अभागे हैं कि आपको जर्मन नहीं आती और आप पूरा न समझ पाएंगेलेकिन जर्मनी में जहां भी उसने अपने इस संगीत का प्रदर्शन किया है वहां लोग लोट—पोट हो जाते हैंहंसी के फव्वारे छूट जाते हैंलोग पेट पकड़ लेते हैंलोगों के पेट में दर्द होने लगता है। और खूबी यह है इस संगीतज्ञ की कि वह लेकिन अपनी गंभीरतागुरु—गंभीरता बनाए रखता हैमुस्कुराहट भी नहीं आती। जैसे— जैसे लोग हंसते हैंवह और भी गंभीर होता जाता है। यही तो उसकी खूबी है। और इसी से वह हंसी और भी बढ़ती चली जाती है। वह नाराज तक होने लगता है। वह चिल्लाने तक लगता है कि यह तुम क्या कर रहे होमगर वह सारे व्यंग्य का हिस्सा है कि वह अपनी गंभीरता को गहन रखता है! और गंभीरता के गहन रखने के कारण पृष्ठभूमि में व्यंग्य और भी प्रगाढ़ हो जाता हैपैना हो जाता है।
फिर संगीतज्ञ आया। उसने अपना संगीत का प्रदर्शन शुरू किया। वह विद्यार्थी उसके पीछे खड़ा हो गया। अब लोग भाषा नहीं जानतेमगर तैयारी है उनकी। कोई धीरे से खिलखिलायाकोई हंसाफिर हंसी फैलने लगी। फिर सब लोगों ने नजर उस विद्यार्थी पर रखी जो पीछे खड़ा है। वह कई दफे ऐसा हंसता है,पेट पकड़ लेता हैधीरे — धीरे लोग उसकी नकल करने लगे—उस विद्यार्थी की— क्योंकि जब वह हंस रहा है तो कोई बात हंसी की हो ही रही होगी। फिर थोड़ा— थोड़ा लोग अपनी तरफ से भी करने लगे। और वह संगीतज्ञ नाराज होने लगा। और वह चीखने—चिल्लाने लगा। गालियां बकने की नौबत आ गई। वह छोड़ कर खड़ा हो गया और जो दो —चार शब्द उसे अंग्रेजी के आते थेउसने उससे समझाया कि यह क्या नालायकी हैयह मैं एक गंभीरअति गंभीर संगीत पेश कर रहा हूं। और यह क्या पागलपन हैतुम्हें भाषा भी समझ में नहीं आती और तुम लोट—पोट हुए जा रहे हो!
तब लोगों ने निवेदन किया कि हमको पहले बताया गया है। उन्होंने इधर—उधर देखावह विद्यार्थी नदारद हैवह जा चुका है। वह प्रयोग पूरा हो गया। वहा कुछ भी हंसी जैसी बात न थी। वह जो गा रहा था गीतवह बड़ा दुखांत था। लेकिन धारणा अगर पकड़ जाए तो व्यावहारिक रूप से सत्य मालूम होने लगती है।
अहंकार एक धारणा शै। सभी को पकड़ी है। और खूब उस धारणा के नीचे सभी की छातियां दबी हैं! लेकिन है केवल व्यावहारिक सत्य। उपयोगी है निश्चितयथार्थ नहीं है। उपयोग खूब करोलेकिन भूल कर भी अपने को अहंकार मत समझ बैठना। काम ले लोलेकिन अहंकार के वशीभूत मत हो जाना। इतना ही प्रयोजन है साक्षी— भाव का कि तुम साक्षी— भाव से देखो कि क्या व्यावहारिक हैक्या पारमार्थिक हैक्या वस्तुत: है और क्या है केवल मान्यता के आधार पर।
एक सूफी कथा है। एक आदमी था। उसे अपनी परछाईं सै घृणा हो गई। न केवल परछाईं से घृणा हो गईउसे अपने पद—चिह्नों से भी घृणा हो गई। उस आदमी को अपने से ही घृणा थी। जब अपने से घृणा थी तो अपने पद—चिह्नों से भी घृणा हो गई। और जब अपने सै घृणा थी तो अपनी छाया. से भी घृणा हो गई। वह बचना चाहता था। वह चाहता था कि यह छाया मिट जाए। और वह चाहता था कि मैं कोई पद—चिह्न पृथ्वी पर न छोडूंमेरी कोई याद न रह जाए,मैं इस तरह मिट जाऊं कि जैसे मैं कभी हुआ ही नहीं। वह भागने लगा—छाया और पद—चिह्नों से बचने को। वह खूब दूर मीलों भागने लगा। लेकिन जितना ही वह भागताछाया उसी के साथ घसिटती हुई भागती। वह जितना भागताउतने ही पद—चिह्न बनते। आखिर उसकी बुद्धि ने कहा कि तुम ठीक से नहीं भाग रहेतुम तेजी से नहीं भाग रहे हो। उसके तर्क ने कहा कि इस तरह काम न चलेगाऐसे तो तुम भागते रहोगेछाया साथ लगी है। तुम्हारे दौड़ने में जितनी गति होनी चाहिए उतनी गति नहीं है। गति से दौड़ो! तुम जितनी तेजी से दौड़ रहे हौउतनी तेजी से तो छाया भी दौड़ रही है। इसलिए छाया भी उतना. दौड़ सकती है। इतने दौड़ो कि छाया न दौड़ सकेतो संबंध टूट जाए। तो वह इतना ही दौड़ा और कहते हैंगिरा और मर गया।
सूफी इस कहानी की व्याख्या करते हैं। वे कहते हैंऐसी ही आदमी की दशा है। कुछ हैं यहांजो छाया को भरने में लगे हैंजो छाया पर हीरे—मोती लगा रहे हैंजो छाया को सोने से मढ़ रहे हैं। वे कहते हैंयह हमारी छाया हैइसे हम सजाएंगेइसे हम रूपवान बनाएंगेइस पर हम इत्र छिड़केगेइस पर हम मखमल बिछाएगे। यह हमारी छाया हैयह किसी गरीब—गुरबेकिसी भिखमंगे की छाया नहीं। यह ऐसे सड़क के कंकड़—पत्थरों पर न पड़ेगीयह सिंहासनों पर पड़ेगी;यह स्वर्ण—पटे मार्गों पर पड़ेगी।
राजाओं को चलते देखा हैजब वे चलते हैं तो आगे उनके मखमल बिछाई जाती है। उनके पदचिह्न मखमल पर पड़ते हैं। ये कोई साधारण आदमी थोड़े ही हैं कि मिट्टी पर. साधारण मिट्टी पर तो सभी के पदचिह्न पड़ते हैं।
एक हैंजो इस छाया को सजाने में लगे हैं। यह एक तरह का पागलपन है। फिर दूसरे हैंजो इस छाया से भयभीत हो गए हैं—भगोड़ेतथाकथित साधु—संत। संसारी छाया को सजाने में लगे हैंछाया के आस—पास महल बना रहे हैं। और जिनको तुम गैर—संसारी कहते होविरागी कहते होवै भाग खड़े हुएवे भाग रहे हैं कि छाया से दूर निकल जाएं। और छाया है नहीं। सजाओ तो भ्रांति हैभागों तो भ्रांति है। दोनों हालत में तुम मरोगे। कुछ सजाते—सजाते गिर पड़ेंगेकुछ भागते— भागते गिर पड़ेंगे। सूफी कहते हैंकाश उस पागल आदमी को इतनी अक्ल होती कि मैं छाया में जा कर बैठ जाऊं किसी वृक्ष कीतो छाया मिट जाती। छाया बनती है जब तुम सूरज के सामने खड़े होते होसूरज के नीचे खड़े होते हो। छाया बनती है जब तुम धूप में खड़े होते होप्रकाश में खड़े होते हो। छाया बनती है जब तुम अहंकार की घोषणा करते होजब तुम कहते हो. 'देख दुनिया मुझे! पहचाने दुनिया मुझे! पड़े प्रकाश सारी दुनिया का मुझ पर!जब तुम सम्मान चाहते होसफलता चाहते होतब छाया बनती है। सूरज की रोशनी में।
सूफी कहते हैंकाश यह पागल आदमी हट गया होताकिसी छप्पर के नीचे शांति से बैठ गया होताछाया मिट गई होती!
जो सम्मान नहीं चाहतेजो पद—प्रतिष्ठा नहीं चाहतेजो यश—गौरव नहीं चाहतेउनकी छाया मिट जाती है। वे छाया में खुद ही बैठ गएअब छाया बनेगी कैसेकाश यह आदमी बैठ जाता तो पदचिह्न बनने बंद हो जाते। भागने से कहीं पद—चिह्न बनने बंद होंगेऔर बनेंगेऔर ज्यादा बनेंगे। तुमने देखायहां सांसारिक लोगों को चाहे लोग भूल भी जाएंसंतों को नहीं भूल पाते। सांसारिक आदमी के पद—चिह्न तो जल्दी ही मिट जाते हैंक्योंकि वहां बड़ी भीड़ चल रही है। वहा करोड़ों लोग चल रहे हैंकौन तुम्हारे पदचिह्नों की चिंता करेगातुम निकल भी न पाओगे कि तुम्हारे पदचिह्न रौंद दिए जाएंगे। लेकिन साधु—संतों के पदचिह्न बनते हैं। वहां कोई भी नहीं चलता। वहां ज्यादा संघर्ष और प्रतियोगिता ही नहीं है। साधु—संत बड़े अकेले चलते हैं। उनके पदचिह्न सादेयों तक बने रहते हैं।
काश! वह आदमी सिर्फ बैठ जाता विश्राम में—जिसको अष्टावक्र ने कहाकाश उसने अपनी चेतना में विश्राम कर लिया होता—तो न पद—चिह्न बनतेन पृथ्वी विकृत होतीन छाया बनतीन छाया से बचने का उपाय करना पड़तान वह आदमी इस बुरी मौत मरताइस कुत्ते को मौत मरता।       अहंकार कुछ है नहीं,जिससे छूटना है। सिर्फ जाग कर देखना है कि कुछ भी नहीं हैछाया—मात्र है। तुम व्यर्थ ही भागे जा रहे होव्यर्थ ही परेशान हो रहे हो। बैठ जाओकुछ भी नहीं है। एक व्यावहारिक उपयोगिता हैउपयोगिता कर लो। बोलोगे तो कहना पड़ेगामैं। मैं भी बोलता हूं तो कहता हूं —मैं। बुद्ध भी बोलते हैं तो कहते हैं मैं। कृष्ण भी बोलते हैं तो कहते हैं मैं। लेकिन वहां मैं जैसा कोई भी नहीं। वे जानते हैं कि मैं सिर्फ एक भाषागत उपयोगिता हैएक व्यवहारगत उपयोगिता है। संवाद की जरूरत है। कहनी पड़ती है। मानी हुई बात हैसत्य नहीं।
साक्षी होने का इतना ही अर्थ है कि तुम गौर से देख लो जो भी तुम्हारी दशा है। उस गौर से देखने में तुम्हें पता चल जाएगा क्या है और क्या नहीं हैजो है,वही है आत्मा। जो नहीं हैवही है अहंकार।

तीसरा प्रश्न :

आपने उस रोज कहातुम किसी अंश में नहींपूरे के पूरे गलत हो। जो भी हो, गलत ही हो। इसका क्या कारण हैअहंकार या अज्ञान दर्प या भ्रांतिऔर क्या अहंकार और अज्ञान अन्योन्याश्रित हैं?
हली बातये सब नाम ही हैं एक ही बीमारी के अलग—अलग। जैसे कि तुम्हें कोई बीमारी होतुम आयुवेदिक चिकित्सक के पास जाओ और वह कोई नाम बताएवह कहे कि तुम्हें दमा हो गया। और तुम जाओ एलोपैथिक चिकित्सक के पास और वह कहे कि तुम्हें अस्थमा हो गया। तो तुम इस चिंता में मत पड़ना कि तुम्हें दो बीमारियां हो गई हैंकि तुम बड़ी मुश्किल में पड़े—दमा भी हो गयाअस्थमा भी हो गया। फिर तुम जाओ और किसी यूनानी हकीम के पासऔर किसी होमियोपैथ के पास और वे अलग—अलग नाम देंगेक्योंकि अलग—अलग भाषाएं हैं उनकीअलग पारिभाषिक शब्द हैं।
आदमी की बीमारी तो एक है—कहो अज्ञानकहो अहंकार कहो मायाकहो भ्रांतिकहो बेहोशीमूर्च्छाप्रमादपापविस्मरण—जों तुम कहना चाहो। बीमारी एक हैनाम हजार हैं।
तो पहली बात तो यह स्मरण रखना कि तुम्हारी बीमारियां बहुत नहीं हैंइससे भी मन हलका हो जाएगा कि एक ही बीमारी है। और तुम्हें हजारों बीमारियों का इलाज भी नहीं करना हैनहीं तो बीमारी तो बीमारीइलाज मार डालेंगे। बीमारी तो एक तरफ रहेगीऔषधियां मार डालेंगी।
तुम्हारी बहुत बीमारियां नहीं हैं। मायामत्सरलोभमोहक्रोध—ये सब अलग—अलग बीमारियां नहीं हैंये एक ही बीमारी की अलग—अलग अभिव्यक्तियां हैंअलग—अलग रूप—रंग हैं। ये एक ही बीमारी के अलग—अलग नाम हैं।
अहंकार बिलकुल ठीक है नाममुझे पसंद है। क्योंकि इस 'मैं'— भाव से ही सब पैदा होता है।  'मैं'— भाव से 'मेरापैदा होता, 'मेरेसे सारा माया—मोह बनता है। 'मैंभाव से जरा—जरा में क्रोध आता है। जरा चोट लग जाए तो क्रोध आ जाता है। 'मैं'— भाव से दूसरों के प्रति दूसरों के प्रति निंदा पैदा होती हैअपने को ऊंचा करने कीदूसरों को नीचा करने की आकांक्षा पैदा होती है। 'मैं'— भाव से प्रतिस्पर्धागला—घोंट प्रतिस्पर्धा शुरू होती है कि सब को पछाड़ देना हैहरा देना हैपराजित कर देना हैमुझे जीत की घोषणा करनी है कि मैं कौन हूं। 'मैंसे संघर्ष पैदा होता हैविरोध पैदा होता हैयुद्ध पैदा होता हैहिंसा पैदा होती है। और जितना ही यह 'मैंमें तुम डूबने लगते होउतनी ही बेहोशी बढ़ती जाती है। यह गहरा नशा हो जाता है।
तुमने देखाअहंकारी को चलते हुएजैसे हमेशा शराब पीये हुए है! उसको हमने अहंकार का मद इसीलिए तो कहा है। उसके पैर जमीन पर ही नहीं पड़ते और वह तत्‍क्षण उलझने को तैयार है। वह खोज ही रहा है कि कोई मिल जाएजिसके सामने वह अपने अहंकार को टकरा लेक्योंकि अहंकार का पता ही टकराहट में चलता है। जैसी टकराहटउतना ही अहंकार का पता चलता है। बड़ी टकराहटतो बड़ा पता चलता है। छोटी—मोटी टकराहटतो छोटा—मोटा पता चलता है। तो अहंकार शत्रु की तलाश करता है। एक ही नाम काफी है—अहंकार।
दूसरी बातमैंने निश्चित कहा कि तुम किसी अंश में नहींपूरे के पूरे गलत हो। यह अहंकार की एक बड़ी बुनियशदीत व्यवस्था है कि अहंकार तुमसे कहता है कि तुम गलत हो मानालेकिन अंश में गलत होअंश सभी गलत होते हैं। थोड़ी गलती किसमें नहीं हैथोड़ी गलती हैसुधार लेंगे। इससे तुम्हारे जीवन में एक तरह का सुधारवाद चलता हैक्रांति नहीं हो पाती। अहंकार कहता हैयह गलत हैइस को सुधार लोयहां पलस्तर उखड़ गया हैपलस्तर कर दोयहां जमीन में गड्डा हो गया हैपाट दोयहां की दीवाल गिरने लगी हैसंभाल दोयहां खंभा लगा दोयहां नए खपड़े बिछा दो। अहंकार कहता हैमकान तो बिलकुल ठीक है;जरा—जरा कहीं गड़बड़ होती हैउसको ठीक करते जाओएक दिन सब ठीक हो जाएगा। तो कभी ठीक न होगा। यह अहंकार के बचाव की बुनियबादी तरकीब है कि वह कहता है कि थोड़ी—सी गलती हैबाकी तो सब ठीक है।
तुमसे कहना चाहता हूं जब तक अहंकार है तब तक सभी गलत है। ऐसा थोड़े ही होता है कि कमरे एक कोने में प्रकाश है और पूरे कमरे में अंधकार है। ऐसा थोड़े ही होता है कि कमरे के जरा—से हिस्से में अंधकार है और बाकी प्रकाश है। प्रकाश होता है तो पूरे कमरे में हो जाता है। प्रकाश नहीं होता तो पूरे कमरे में नहीं होता।
साक्षी जब जागता है तो सर्वांश में जागता है। ऐसा नहीं कि थोड़ा— थोड़ा जग गएथोड़ा— थोड़ा सोए। जब तुम्हारा ध्यान फलता है तो समग्ररूपेण फलता है।
इस अहंकार की तरकीब से बचनानहीं तो तुम एक सुधारवादीएक रिफार्मिस्ट हो जाओगे। और तुम्हारे जीवन में वह महाक्रांति न हो पाएगीजो महाक्रांति इस महागीता में जनक के जीवन में हुई। वह क्षण में हो गईक्योंकि जनक ने देख लिया कि मैं पूरा का पूरा गलत था।
इसे मैं फिर दोहराऊं कि या तो तुम पूरे गलत होते होया तुम पूरे सही होते होदोनों के बीच में कोई पडाव नहीं है। अहंकार को यह बात माननी बहुत कठिन है कि पूरा का पूरा गलत हूं। अहंकार कहता हैंहोऊंगा गलतलेकिन कुछ तो सही होऊंगा। जिंदगी पूरी की पूरी गलत मेरी?
मगर यहीं से क्रांति की शुरुआत होती है।
एक बड़ी प्राचीन कथा है कि एक ब्राह्मण सदा लोगों को समझाता कि जो कुछ करता है परमात्मा करता हैहम तो साक्षी हैंकर्ता नहीं। परमात्मा ने उसकी परीक्षा लेनी चाही। वह गाय बन कर उसकी बगिया में घुस गया और उसके सब वृक्ष उखाड़ डाले और फूल चर डाले और घास खराब कर दी और उसकी सारी बगिया उजाड़ डाली। जब वह ब्राह्मण अपनी पूजा—पाठ से उठ कर बाहर आया— पूजा—पाठ में वह यही कह रहा था कि तू ही है कर्ताहम तो कुछ भी नहीं हैंहम तो द्रष्टा—मात्र हैं— बाहर आया तो द्रष्टा वगैरह सब भूल गया। वह बगिया उजाड़ डाली थीवह उसने बड़ी मेहनत से बनाई थीउसका उसे बड़ा गौरव था। सम्राट भी उसके बगीचे को देखने आता था। उसके फूलों का कोई मुकाबला न थासब प्रतियोगिताओं में जीतते थे। वह भूल ही गया सब पूजा—पाठसब साक्षी इत्यादि उसने उठाया एक डंडा और पीटना शुरू किया गाय को। उसने इतना पीटा कि वह गाय मर गई। तब वह थोड़ा घबड़ाया कि यह मैंने क्या कर दिया! गौ—हत्या ब्राह्मण कर देऔर ब्राह्मणों की जो संहिता हैमनुस्मृतिवह कहती हैयह तो महापाप है। इससे बड़ा तो कोई पाप ही नहीं है। गौ—हत्या! वह कंपने लगा। लेकिन तभी उसके शान ने उसे सहारा दिया। उसने कहा, 'अरे नासमझ!
सदा तू कहता रहा है कि हम तो साक्षी हैंयह भी परमात्मा ने ही किया। कर्ता तो वही है। यह कोई हमने थोड़े ही किया। वह फिर सम्हल गया। गांव के लोग आ गए। वे कहने लगेमहाराज! ब्राह्मण महाराजयह क्या कर डाला?
उसने कहामैं करने वाला कौन! करने वाला तो परमात्मा है। उसी ने जो चाहा वह हुआ। गाय को मरना होगाउसे मारना होगा। मैं तो निमित्त मात्र हूं।
बात तो बड़े ज्ञान की थी। ज्ञान की ओट में छिप गया अहंकार। ज्ञान की ओट में छिपा लिया उसने अपने सारे पाप को। कोई इसका खंडन भी न कर सका। लोगों ने कहाब्राह्मण देवता पहले से ही समझाते रहे हैं कि यह सब साक्षी हैतब यह भी बात ठीक ही हैवे क्या कर सकते हैं g:
परमात्मा दूसरे दिन फिर आयातब वह एक भिखारी ब्राह्मण की तरह आया। उसने आ कर कहा कि अरेबड़ा सुंदर बगीचा है तुम्हारा! बड़े सुंदर फूल खिले हैं। यह किसने लगाया?
उस ब्राह्मण ने कहाकिसने लगाया? अरेमैंने लगाया! वह उसे दिखाने लगा परमात्मा को ले जा ले जा कर—जो वृक्ष उसने लगाए थेसंवारे थेजो बड़े सुंदर थे। और बार—बार परमात्मा उससे पूछने लगाब्राह्मण देवताआपने ही लगाएसच कहते हैं? वह बार—बार कहने लगाहीमैंने ही लगाए हैं। और कौन लगाने वाला हैअरे और कौन है लगाने वाला ई मैं ही हूं लगाने वाला। यह मेरा बगीचा है।
विदा जब होने लगा वह ब्राह्मण—छिपा हुआ परमात्मा—तो उसने कहाब्राह्मण—देवताएक बात कहनी है मीठा—मीठा गप्पकडुवा—कडुवा यू!
उसने कहामतलब? ब्राह्मण ने पूछातुम्हारा मतलबमीठा—मीठा गप्पकडुवा—कडुवा यू! उसने कहाअब तुम सोच लेना। गाय मारी तो परमात्मा ने,तुम साक्षी थेऔर वृक्ष लगाए तुमने! परमात्मा साक्षी है!
अहंकार बड़ी तरकीबें करता है. मीठा—मीठा गप्पकडुवा—कडुवा धू! और वही उसके बचाव के उपाय हैं। क्रांति तो तब घटित होती है जब तुम जानते हो कि सर्वांश में मैं गलत थासमग्ररूपेण मैं गलत थामेरा अब तक का होना ही गलत था। उसमें प्रकाश की कोई किरण न थी। वह सब अंधकार था। ऐसे बोध के साथ ही क्रांति घटित होती है और तत्‍क्षण प्रकाश हो जाता है।
सुधारवादी मत बनना। सुधारवादी से ज्यादा से ज्यादा तुम सज्जन बन सकते हो। मैं तुम्हें क्रांतिकारी बनाना चाहता हूं। क्रांति तुम्हारे जीवन में संतत्व को लाएगी। तुम्हारे जो संत हैं वे सज्जन से ज्यादा नहीं हैं। वास्तविक संत तो परम विद्रोही होता है। विद्रोह—स्वयं के ही अतीत से। विद्रोह— अपने ही समस्त अतीत से। वह अपने को विच्छिन्न कर लेता है। वह तोड़ देता है सातत्य। वह कहता हैमेरा कोई नाता नहीं उस अतीत सेवह पूरा का पूरा गलत थामैं सोया था अब तकअब मैं जागा। जब तुम सोए थेतब तुम सोए थेतब सब गलत था। ऐसा थोड़े ही है कि सपने में कुछ चीजें सही थीं और कुछ चीजें गलत थींसपने में सभी चीजें सपना थीं। ऐसा थोड़े ही है कि सपने में से कुछ चीजें तुम बचा कर ले आओगे और कुछ चीजें खो जाएंगी। सपना पूरा का पूरा गलत है।
अहंकार एक मूर्च्छा हैएक सपना है। उसे तुम पूरा ही गलत देखना। यद्यपि अहंकार कोशिश करेगा कि कुछ तो बचा लोएकदम गलत नहीं हूं कई चीजें अच्छी हैं। अगर तुमने कुछ भी बचाया अहंकार सेअहंकार पूरा बच जाएगा। अगर सपने में से तुमने कुछ भी बचा लिया और तुम्हें लगता रहा कि यह सच है तो पूरा सपना बच जाएगा। क्योंकि जिसको सपने में अभी सच दिखाई पड़ रहा हैवह अभी जागा नहीं।
इसलिए मैं जोर दे कर बार—बार कहता हूं. तुम पूरे गलत हो। इससे तुम्हें बेचैनी होती है। तुम मुझसे कभी नाराज भी हो जाते हो कि पूरे गलत! ऐसा तो नहीं हो सकता कि हम बिलकुल ही गलत हों! तुम्हारे अहंकार को मैं कोई जगह बचने की नहीं देता। तुमसे कहता हूं तुम पूरे ही गलत हो। लेकिन इससे तुम उदास मत होनाक्योंकि इससे मैं एक और बात भी कह रहा है जो शायद तुम्हें सुनाई न पड़ रही होकि तुम चाहो तो पूरे के पूरे अभी सही हो सकते हो। उस आशा के दीप पर ध्यान दो। अगर पूरे गलत हो तो पूरे के पूरे सही हो सकते हो। अगर तुम थोड़े— थोड़े गलत होथोड़े— थोड़े सही हो—तो तुम थोड़े— थोड़े गलत और थोड़े — थोड़े सही ही रहोगे। तब तुम पूरे के पूरे सही न हो. सकोगे। तब तुम घसीटते रहोगे अपने अतीत को। तब तुम एक मिश्रित खिचड़ी रहोगे। और खिचड़ी होने में सुख नहीं। खिचड़ी होने में नर्क है।
तुम शुद्ध हो। तुम एक रोशनी से भरो। और उस रोशनी से भरने के लिए इतना ही जानना जरूरी है कि तुमने अभी तक अपने को जो माना हैवह तुम नहीं हो। तुम कोई और हो। कोई अज्ञात तुम्हारे भीतर छिपा है। कोई अज्ञात कमल तुम्हारे भीतर खिलने को राजी हैजरा मुड़ो भीतर की तरफ! 'जरा रुकोकिसी छाया में बैठो। धूप में मत भागो! विश्राम! और उसी विश्राम में ध्यान और समाधि है।

चौथा प्रश्न :

कल आपने कहा कि धार्मिक व्यक्ति सदा विद्रोही होता है। तो क्या विद्रोही व्यक्ति सहज हो सकता है

मैं ने निश्चित कहा कि धार्मिक व्यक्ति सदा विद्रोही होता हैलेकिन मैंने यह नहीं कहा कि सभी विद्रोही व्यक्ति धार्मिक होते हैं। विद्रोही कोई हो सकता है बिना धार्मिक हुएलेकिन धार्मिक कोई नहीं हो सकता बिना विद्रोही हुए।
तो फिर धार्मिक विद्रोही और विद्रोही में क्या फर्क होगाजो साधारण विद्रोही हैजिसमें धर्म नहीं हैराजनीतिकसामाजिक विद्रोही हैउस विद्रोही का जीवन कभी सहज नहीं हो सकता। वहां तो बड़ा तनाव होगा। वहां तो चौबीस घंटे चिंता और बेचैनी होगी।
धार्मिक विद्रोही का अर्थ है. सहज। विद्रोह करने के लिए विद्रोह नहींकिसी के खिलाफ विद्रोह नहीं—अपनी सहजता में रहने की आकांक्षा है धार्मिक व्यक्ति का विद्रोह। वह स्वयं में जीना चाहता है। इस स्वयं में जीने में जो चीजें भी बाधा डालती हैंवह उन्हें स्वीकार नहीं करता। उसकी तोड़ने की कोई आकांक्षा नहीं। वह किसी के विरोध में भी नहीं जाना चाहता। वह इतना ही चाहता है कि उसकी स्वतंत्रता में कोई बाधा न बने। न तो वह किसी की स्वतंत्रता में बाधा बनना चाहता हैन किसी को अपनी स्वतंत्रता में बाधा बनने देना चाहता है।
धार्मिक विद्रोही प्रतिक्रियावादी नहीं है। वह किसी के विरोध में नहीं हैवह सिर्फ अपने पक्ष में है। इस बात को तुम खयाल में ले लेना। राजनीतिक विद्रोही को अपना तो कुछ पता ही नहीं हैवह किसी के विरोध में हैजो भी सत्ता में हैउसके विरोध में हैजिसके हाथ में भी ताकत हैउसके विरोध में है। क्योंकि ताकत उसके हाथ में होनी चाहिएअपने हाथ में होनी चाहिएदूसरे हाथ में है तो गलत है।
राजनीतिक विद्रोही अहंकार का विद्रोह है। धार्मिक विद्रोही अहंकार का विसर्जन है और सहज—स्वभाव में जीने की प्रक्रिया है। इसका यह अर्थ नहीं होता कि धार्मिक व्यक्ति अकारण बाधाएं खड़ी करेगा। नियम है कि बाएं चलो तो वह दाएं चलेगा—ऐसा नहीं है। धार्मिक व्यक्ति तो भूल कर भी यह झंझट न लेगा दाएं चलने कीक्योंकि दाएं चलो कि बाएं चलोसब बराबर है। इसमें झगड़ा क्या हैवह बाएं ही चलेगा।
तुम धार्मिक विद्रोही के जीवन में कोई अकारण झंझट न देखोगे। वह सौ में निन्यानबे मौकों पर समाज के साथ ही होगा। समाज के साथ किसी भय के कारण नहीं होगायह समझ कर होगा कि कुछ चीजें तो औपचारिक हैंइनमें अर्थ ही क्या हैइनमें झगड़ा क्या करनालेकिन एक मुद्दे परजहां भी आत्मा बेचने का सवाल होगावह सब कुछ दाव पर लगा देगा। बाएं—दाएं चलने में उसे कोई अड़चन नहीं है। नियम पालन करने में उसे कोई अड़चन नहीं है। लेकिन जहा नियम आत्मघाती होने लगेगावहां वह बगावत करेगावहां वह राजी नहीं होगावहा वह मर जाना पसंद करेगाऐसे जीने के मुकाबले जहां आत्मा खो देनी पड़ती हो।
धार्मिक व्यक्ति में बड़ी सहजता होगी। तनाव तो पैदा होता है जब हम किसी से संघर्ष करते हैं। धार्मिक व्यक्ति का किसी से कोई संघर्ष नहीं है। धार्मिक व्यक्ति का तो अपने में रस है। वह अपने रस के उद्रेक में जीना चाहता है और वह नहीं चाहता कि कोई उसे बाधा देवह नहीं चाहता कि वह किसी को बाधा दे। वह चुपचाप अपने में डूबना चाहता है। बस इस बात में अगर कोई अड़चन डाली जाए तो वह इंकार करेगातो वह सूली चढ़ने को राजी रहेगा।
लेकिन तुम चकित होओगे यह जान कर कि तुम्हारी अंतरात्मा में बाधा कोई देता नहीं। लोगों को अंतरात्मा का पता ही नहींबाधा देने का सवाल ही कहालोग तो ऊपर—ऊपर की बातों में चलते हैं। मैं तुम्हें एक घटना कहूं। रामकृष्ण के बचपन की घटना है। रामकृष्ण बचपन से ही भक्त थेभजन करते—करते बेहोश हो जाते थे। गदाधर उनका नाम था। मां—बाप थोड़े चिंतित हुएजैसे कि सभी मां—बाप चिंतित हो जाते हैं कि यह लड़का कुछ सामान्य नहीं मालूम होता। कोई कहता कि मिरगी
आती हैकोई कहता कि मूर्च्छा आरती हैकोई कहता कि इसको समाधि लग जाती है। अलग—अलग लोगअलग—अलग व्याख्यायें थी। और इस लड़के की सामान्य रुचियां भी न थीन तो यह खेलता बच्चों के साथन इसको स्कूल में पढ्ने—लिखने में कोई रुचि थी। दूसरी क्लास से आगे रामकृष्ण कभी गए नहीं। जंगल में चला जाता। नदी—पोखर के पास बैठ जाता। और कभी छोटी—छोटी घटनाएं.. एक सुबह पोखर के किनारे बैठे—बैठे बगुलों की एक कतार आकाश से उड़ीरामकृष्ण की समाधि लग गई। काली घटाओं में उड़ते हुए सफेद बगुलों की पंक्ति. पर्याप्त थी। किसी और लोक की याद आ गई। रामकृष्ण का हंस उड़ चला! चले मानसरोवर! छूट गई देह जैसे यहीं! उड़ चले आकाश में! घंटों बेहोश रहे। मां—बाप को लोग सलाह देने लगेइसकी शादी कर दो। लोग एक ही उपाय जानते हैं : जरा कुछ गड़बड़ दिखाई पड़ेशादी कर दो। सब रोगों की एक दवा : झंझट में डाल दो। तो लोगों ने कहाजरा झंझट में डालोयह कोई झंझट में नहीं हैन स्कूल जाता हैन कोई काम—धाम करता हैगीत— भजनसाधु—सत्संग—अभी से बिगाड़ रहे होअभी बांध दो पैर में झंझट। पर उन्होंने कहायह करेगा शादी? क्योंकि यह दिखता नहीं शादी करने वाला जैसा।
तो रामकृष्ण से डरते—डरते पिता ने पूछा कि बेटा! तू शादी करेगातो रामकृष्ण ने कहाजरूर करेंगे। पिता भी थोड़े चौंके कि यह क्या मामला हैउनको भी थोड़ा धक्का लगा। सोचते तो यही थे कि यह इंकार करेगा। इंकार करता तो भी धक्का लगता। तो शायद समझाने—बुझाने की कोशिश करतेलेकिन इसने इंकार की कोई बात ही न उठाई। इसने कहाकरेंगेकिससे करनी है?
जल्दी ही इंतजाम किया गया। एक लड़की खोजी गई। रामकृष्ण उसको देखने गए दूल्हा बन करसज—संवर कर। बड़े प्रसन्न थे। मां ने ग्यारह रुपए खीसे में रख दिए थेउनको बार—बार गिन लेते थेफिर रख लेते थे। छोटी उम्र थीशायद ग्यारह साल से ज्यादा नहीं थी। फिर गए तो भोजन परोसने लड़की आई। उसकी उम्र सात साल से ज्यादा की नहीं थी—शारदा की उस समय। जब वह भोजन परोसने आई तो ग्यारह रुपए निकाल कर उसके पैर में रख कर उन्होंने उसके पैर छू लिए। अब और एक मुसीबत हो गई।
बाप कहानासमझ! यह क्या करता हैपहली तो यह नासमझी कि शादी करने को तैयार हो गया अब यह क्या किया?
उसने कहा कि मुझे तो बिलकुल मां का स्वरूप मालूम पड़ता है। यह मेरी मां है। शादी तो करेंगेमगर यह है मेरी मां।
शादी भी हुई—और शारदा मां ही रही। यह सहजता हैइसमें कहीं कोई बगावत नहीं है। शादी से इंकार भी न किया। शादी भी कर ली। पिता को भी प्रसन्न कर दियामां को भी प्रसन्न कर दिया। कहाबंधन डालते होअच्छा बंधन डाल दो। फिर बंधन को चरण छू कर नमस्कार करके मां भी बना लिया। ऐसे कारागृह को ही मंदिर बना लिया। ऐसे बंधन ही मुक्ति हो गई।
धार्मिक व्यक्ति अकारण उपद्रव में नहीं पड़ेगा। कोई कारण नहीं है। राजनीतिक व्यक्ति विक्षिप्त है। राजनीति एक तरह की न्यूरोसिस हैएक तरह का उन्माद है। तो राजनीतिक व्यक्ति तो झगड़े की तलाश में हैजब झगड़ा नही होता तब वह बड़ा बेचैन होता है किअब क्या करें।
अभी जैसे भारत में अनुशासन—पर्व चल रहा हैतो राजनीतिक व्यक्ति बड़े बेचैन हैं! कुछ तो भीतर जेल के बंद हैंतो थोड़ी हालत उनकी ठीक भी है कि कम से कम चलो जेल में तो बंद हैंकर भी क्या सकते हैंलेकिन जो बाहर हैंतुम्हें उनका पता नहींवे बड़े कसमसा रहे हैं। वे भीतर ही भीतर डावाडोल हो रहे हैं कि न हड़ताल हो रही हैन नारेबाजीन झंडा ऊंचा रहे हमारा! कुछ भी नहीं हो रहा। सब जिंदगी बेकार मालूम होती है। तुम्हें पता नहीं कि सब राजनीतिक लोगों की हालत कैसी बुरी है! कुछ करने जैसा नहीं लगता। कोई उपद्रवकोई उत्पात! वही उत्पात उनका भोजन है।    राजनीतिक व्यक्ति उत्पात में रस रखता है। उत्पात करने के लिए वह कारण खोजता हैबड़े सुंदर कारण खोजता है कभी गरीब के बहानेकभी स्वतंत्रता के बहानेकभी प्रजातंत्र— लोकतंत्र के बहानेकभी यह कभी वहलेकिन वह हमेशा कारण खोज लेता है। कोई न कोई कारण खोज लेता है कि उपद्रव चाहिएक्योंकि उपद्रव के बिना वह रह नहीं सकता। राजनीतिक व्यक्ति एक तरह की बेचैनी है। और बेचैनी मार्ग खोजती है बहने का। उसके लिए कैथार्सिस चाहिएरेचन चाहिए।
धार्मिक व्यक्ति एक सहज शांति है। सौ में से निन्यानबे मौकों पर तो तुम उसे कभी विरोध में न पाओगे। हीएक मौके पर वह 'नहींकहेगाजरूर कहेगा। और उस मौके पर जब वह 'नहींकहेगा तो वह 'नहींनिरपेक्ष 'नहींहोगीउसमें कोई शर्त न होगीउसके 'हीमें बदलने का कोई उपाय नहीं है। तुम मार डाल सकते हो सुकरात को। तुम जीसस को सूली पर लटका सकते हो। तुम मैसूर का गला काट सकते हो। लेकिन उस एक मौके पर जब वह 'नहींकहता है तो उसकी 'नहीं'शाश्वत हैउसको तुम 'हीमें नहीं बदल सकते। क्योंकि वह उसी एक मौके पर 'नहींकहता है जहा उसकी आत्मा को खोने का सवाल हैअन्यथा तो उसके पास खोने को कुछ भी नहीं हैअन्यथा तो सब खेल है।

पांचवां प्रश्न :

आप तो सतत प्रभ—प्रसाद लटा रहे हैंप्रभु—कृपा की वर्षा हो रही हैपरंतु हम चूकते ही चले जाते हैं। पात्रता कैसे संभव होगी?

मुल्ला नसरुद्दीन से कोई पूछता था कि आपकी सफलता का रहस्य क्या है?  'सही निर्णय पर काम करना', मुल्ला नसरुद्दीन ने उत्तर दिया। 'लेकिन सही निर्णय किए कैसे जाते हैं?' उस आदमी ने पूछा। अनुभवों के आधार पर', मुल्ला ने कहा। 'और अनुभव किस प्रकार प्राप्त होते हैं?' उस आदमी ने फिर पूछा। मुल्ला ने कुछ सोचा और फिर कहा, 'गलत निर्णयों पर काम करके।'
मैं तुमसे कुछ कह रहा हूं अब तुम यह प्रतीक्षा मत करो कि जब सही निर्णय होगा तब कुछ करेंगे। सही—गलत की अभी फिक्र छोड़ो। निर्णय करके तुम कुछ करोगे तो निर्णय कभी होगा नहीं। कुछ करोउससे निर्णय होता है। तुम मुझे सुनते ही मत रहो। जो तुम्हें भा जाएजल्दी से उसे करो। उसे जीवन में उतारों। मैं सागर उड़ेल दूं तुम मेंतो किसी काम का नहींएक बूंद तुम उपयोग में ले आओ तो काम की सिद्ध होगी। वही तुम्हारा सागर बनेगी। सुनते ही मत रहो कि अभी तो गुनेंगेसुनेंगेसमझेंगेसोचेंगेऔरों से पूछेंगेतुलना करेंगेफिर निष्पत्तिया बनाएंगेफिर अनुभव में उतारेंगे—तों तुम चूक जाओगे। तो यह वर्षा हो कर भी चली जाएगीतुम खाली के खाली रह जाओगे। ये बादल आए और न आए बराबर हो जाएंगे।
कुछ करो। थोड़ी—सी बात जो तुम्हें भा जाए! मैं कहता हूं भा जाएमैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि तुम्हारी बुद्धि को तर्करूप से सही लगेमैं कहता हूं भा जाएतुम्हें पसंद आ जाएतुम्हारे भीतर गुनगुन होने लगे किसी बात सेकोई बात तुम्हारे मन में गुदगुदी ले आएकुछ गदगद कर जाए—उसे करो! जरूरी नहीं है कि वह सही ही हो। मैं कहता भी नहीं कि जरूरी है। पर इतना मैं कहता हूं, उसे करने से लाभ होगा। सही होगी तो पता चल जाएगा सही हैतो तुम और और उसे करना। अगर गलत होगी तो पता चल जाएगा कि गलत हैतो तुम उसे छोड़ देना। और उस तरह की बातों के भ्रम में दुबारा मत पड़ना। हर हालत में करना ही निर्णायक है।
जैसे मैं साक्षी की बात कह रहा हूं —साक्षी बनो! थोड़ी— थोड़ी साक्षी की तरफ जीवन—चेतना को दौड़ाओथोड़े झरोखे खोलो।
तुम कभी—कभी कुछ करते भी होऐसा भी नहीं कि तुम नहीं करतेमगर तुम जो करते होवहां भी भूल कर जाते हो। वह भूल ऐसी है. अगर तुम क्रोध से भरे हो और मुझे सुनने आते हो तो तुम सुनते वक्त यही तरकीब लगाए रखते हो कि कोई ऐसी कुंजी मिल जाए जिससे क्रोध अलग हो जाए। तो मैं जो कह रहा हूं वह तुम सुन ही नहीं पातेतुम अपनी कुंजी ही खोजते रहते हो। तुम अशांत हो तो तुम सुनते हो मेरी बातें—एक दृष्टि से कि शांति का कोई सूत्र मिल जाए शायद! तो बाकी सब सूत्र जो मैं लुटा रहा हूं वे खो जाते हैं। और उन्हीं सबको तुम समझते तो शांति का सूत्र भी समझ में आता।
और तुममैं जो कह रहा हूं, अगर अपने संदर्भ में उसको पकडोगे तो उसका अर्थ विकृत हो जाएगा। तो क्रोधी क्रोध का दमन करने लगेगा। मैं तो कह रहा हूं साक्षी बनोलेकिन तुम साक्षी के नाम पर दमन करने लगोगे। क्योंकि तुम्हारी मूल इच्छा साक्षी बनने की है ही नहींतुम्हारी मूल इच्छा तो इतनी ही थी कि क्रोध से छुटकारा हो जाए। तो तुम साक्षी का उपयोग भी इस तरह करोगे कि तुम क्रोध को दबा लोगे। वह साक्षी बनना न हुआवह फिर चूक हो गई।
ऐसा हुआ कि एक आदमी ने मुझे आ कर कहा कि कल रात सर्कस में बहुत भगदड़ मच गई। एक शेर पिंजड़े से निकल भागा। फिर क्या हुआमैंने पूछा। उसने कहाप्रत्येक व्यक्ति भाग खड़ा हुआ। लेकिन एक संत पुरुष वहां मौजूद थेवे बड़े हौसले में रहेवे जरा भी न डरेजरा भी भयभीत न हुए।
मैंने पूछाउन्होंने क्या किया? तो उसने कहा कि वे संत पुरुष तत्क्षण शेर के खाली पिंजड़े में जा कूदे और अंदर दरवाजा बंद गए
अब तुम भागो या पिंजड़े में कूद कर दरवाजा बंद करके बैठ जाओ—यें प्रक्रियाएं उल्टी दिखाई पड़ती हैं लेकिन उल्टी नहीं। वस्तुत: तो संत पुरुष ही ज्यादा कुशल आदमी है। क्योंकि एक बात पक्की है कि सिंह और कहीं जाएपिंजड़े में वापिस आने वाला नहीं हैअपने से तो आने वाला नहीं है। सब जगह खतरा हैसिर्फ पिंजड़े में खतरा नहीं है।
मैं तुम्हें ऐसे संत पुरुष नहीं बनाना चाहता हूं। लोग संसार से भाग कर पिंजड़ों में बंद हो जाते हैं। मंदिरमस्जिदगुरुद्वारे पिंजड़े हैं। वहां सीखचों में बैठ जाते हैं। वहा कोई सिंह इत्यादि नहीं आते। लेकिन वह भी बचाव हैजीवन—क्रांति नहींपलायन है।
तुम मुझे जब सुनो तो मुझे ऐसे सुनो जैसे कोई किसी गायक को सुनता है। तुम मुझे ऐसे सुनो जैसे कोई किसी कवि को सुनता है। तुम मुझे ऐसे सुनो कि जैसे कोई कभी पक्षियों के गीतो को सुनता हैया वृक्षों में हवा के झोकों को सुनता हैया पानी की मरमर को सुनता हैया वर्षा में गरजते मेघों को सुनता है। तुम मुझे ऐसे सुनो कि तुम उसमें अपना हिसाब मत रखो। तुम आनंद के लिए सुनो। तुम रस में डबो। तुम यहां दूकानदार की तरह मत आओ। तुम यहां बैठे—बैठे भीतर गणित मत बिठाओ कि क्या इसमें से चुन लें और क्या करें और क्या न करें। तुम सिर्फ मुझे आनंद—भाव से सुनो।
स्वांत: सुखाय रघुनाथ गाथा. स्वात: सुखाय तुश्लसी रघुनाथ गाथा!
स्वात: सुखाय! सुख के लिए सुनो। उस सुख सुनते—सुजनते जो चीज तुम्हें गदगद कर जाएउसमें फिर थोड़ी और डुबकी लगाओ। मेरा गीत सुनाउसमें कड़ी तुम्हें भा जाए फिर तुम उसे गुनगुनाओ। उसे तुम्हारा मंत्र बन जाने दो। धीरे—धीरे तुम पाओगे कि जीवन में बहुत कुछ बिना बड़ा आयोजन किए घटने लगा।
            हवा कहीं से उठी बही
            ऊपर ही ऊपर चली गई
            पथ सोया ही रहा
            किनारे के क्षुप चौके नहीं
            न कापी डाल
            न पत्ती कोई दरकी
            अंग लगी लघु ओस
            बूंद भी एक न ढरकी
            हवा कहीं से उठी बही
            ऊपर ही ऊपर चली गई।
            वनखंडी में सधे खडे पर
            अपनी ऊंचाई में खोंए,—से
            चीड़ जाग कर सिहर उठे
            सनसना गए
            एक स्वर नाम वही अनजाना
            साथ हवा के गा गए
            मैंने उठ कर
            खोल दिया वातायन
            और दुबारा चौंका
            वह सन्नाटा नहीं
            झरोखे के बाहर
            ईश्वर गाता था।
            हवा कहीं से उठी बही
            ऊपर ही ऊपर चली गई
            पथ सोया ही रहा।
      तुम पथ की तरह मत सोएरहनापत्थर की तरह मत सोएरहना!
            किनारे के कूप चौंके नहीं
            न कापी डाल
            न पत्ती कोई दरकी
            अंग लगी लघु ओस
            बूंद भी एक न ढरकी।
यह जो हवा मैं तुम्हारे आसपास उठा रहा हूं इसके लिए जरा तुम ऊंचे उठो। अगर तुम नीचे ही पड़े रहे तो ओस की एक बूंद भी तुमसे न ढरकेगीएक आंसू भी न बहेगा। तुम ऐसे ही अछूते पड़े रह जाओगे।
            वनखंडी में सधे खडे पर
            अपनी ऊंचाई में खोंए,—से
            चीड़ जाग कर सिहर उठे
            सनसना गए।
जरा ऊंचे उठो। मैं जहां की खबर लाया हूं वहाँ की खबर लेने के लिए चीड़ बनो। थोड़े सिर को उठाओ। थोड़े सधो।
            वनखंडी में सधे खडे पर
            अपनी ऊंचाई में खोंए,—से
            चीड़ जाग कर सिहर उठे
            सनसना गए।
            एक स्वर नाम अनजाना
            साथ हवा के गा गए।
मेरे साथ गुनगुना लो थोड़ा। जिस एक की मैं चर्चा कर रहा हू उस एक की गुनगुनाहट को तुममें भी गज जाने दो।
            एक स्वर नाम वही अनजाना
            साथ हवा के गा गए।
और तब तुम्हें पता चलेगा कि जैसे खुल गई कोई खिड़की। और जिसे तुमने समझा था सिर्फ एक विचारवह विचार न थावह ध्यान बन गया। और जिसे तुमने समझा था सिर्फ एक सिद्धातएक शास्त्रवह सिद्धात न थाशास्त्र न थावह सत्य बन गया।
            मैंने उठ कर खोल दिया वातायन
            और दुबारा चौंका
            वह सन्नाटा नहीं
            झरोखे के बाहर
            ईश्वर गाता था।
तो थोड़े उठो। थोड़े जागो। थोड़े सधो। और छोड़ो अपनी क्षुद्र चिंताएंउनका हिसाब—किताब मत बिठाओ मेरे पास। तुम मुझे पीयो। तुम मेरे पास ऐसे रहो जैसे कोई फूल के पास रहता है।
तुम इसमें से कुछ उपयोग की बातें निकालने की चिंता न करोक्योंकि उपयोगिता से ईश्वर का कोई संबंध नहीं है। ईश्वर से ज्यादा अनुपयोगी और कोई वस्तु जगत में नहीं है। क्या संबंध है ईश्वर का उपयोगिता सेबाजार में बेच न सकोगे। क्या उपयोग है ईश्वर काकिसी काम न आएगा। अर्थहीनप्रयोजन—शून्य!
मैं तुमसे जो कह रहा हूं तुमने अगर उसे उपयोगिता की दृष्टि से सुना तो तुम चूक जाओगे।       मैं कोई शिक्षक नहीं हूं। मैं तुम्हें कोई उपयोगी बातें नहीं सिखा रहा हू जौ तुम्हारी जिंदगी में काम आएंगी। मैं तुम्हें कुछ दर्शन कराना चाहता हूं जिसका कोई उपयोग नहीं है सिवाए इसके कि तुम सच्चिदानंद से भर जाओगे,सिवाए इसके कि तुम आनंद—मग्न हो जाओगेमदमस्त हो जाओगे। यह तो मस्ती की एक हवा यहां मैं फैलाता हूं। मगर तुम पर निर्भर है। तुम रास्ते पर पटे पत्थर की तरह पड़े रह सकते हों—हवा आएगीचली जाएगीतुम अछूते रह जाओगे। तुम्हारे कानों में भनक भी न पड़ेगी। या राह के किनारे छोटे —छोटे पौधों की तरह तुम रह जा सकते हो। उनके शिखर ही इतने ऊंचे नहीं कि आकाश की हवाएं उन्हें छू सकें। तो एक ओस की बूंद भी न ढरकेगी। एक आंसू भी न बहेगा.। तुम्हें पता भी न चलेगा कि हवा आई और चला गई।
बुद्ध आएकितनों को पता चला? थोड़े—से चीड़ जैसे उठे वृक्ष अपने में खोए—सेआकाश में खड़े—सेउतुंग उनके शिखर पर बुद्ध की हवा छुई। कृष्ण आएकिसने सुना न: कृष्ण की बांसुरी सभी तक तो नहीं पहुंची। अष्टावक्र ने कहाकोई जनक ने सुना। कोई चीड़ जैसे वृक्ष! उठो थोड़े ऊंचे!
और मुझे ऐसे सुनो जिसमें प्रयोजन का कोई भाव न हो। जो मुझे प्रयोजन से सुनेगावह चूकेगा। जो मुझे निष्प्रयोजनआनंद से सुनेगा—स्वात: सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा—वही पा लेगा। उसके जीवन में धीरे— धीरे क्रांति घटनी शुरू हो जाती है।

आखिरी प्रश्न :

मैं स्त्रैण—चित्त का आदमी हूं, संकल्प बिलकुल नहीं है। क्या संकल्प का विकास करना जरूरी है?
रा भी जरूरी नहीं है। समर्पण पर्याप्त है। अपने चित्त को पहचानो। कुछ भी थोपना आवश्यक नहीं है। चित्त जैसा हो उसी चित्त के सहारे परमात्मा तक पहुंचो।
परमात्मा तक स्त्रैण चित्त पहुंच जाते हैंपुरुष—चित्त पहुंच जाते हैं। परमात्मा तक तुम जहा होवहीं से पहुंचने का उपाय हैबदलने की कोई जरूरत नहीं है। और बदलने की झंझट में तुम पड़ना मतक्योंकि बदल तुम पाओगे न। अगर तुम्हारा चित्त भावपूर्ण है तो तुम लाख उपाय करोतुम उसे संकल्प से न भर पाओगे। अगर तुम्हारा चित्त हृदय से भरा है तो तुम बुद्धि का आयोजन न कर पाओगे। जरूरत भी नहीं है। ऐसी उलझन में पड़ना भी मत। अन्यथा तुम जो होवह भी न रह पाओगेऔर तुम जो होना चाहते हो वह तो तुम हो न सकोगे।
गुलाब का फूल गुलाब के फूल की तरह ही चढ़ेगा प्रभु के चरणों में। कमल का फूल कमल के फूल की तरह चढ़ेगा। तुम जैसे हो वैसे ही स्वीकार हो। तुम जैसे हो वैसा ही प्रभु ने तुम्हैं बनाया। तुम जैसे हो वैसा ही प्रभु ने तुम्हें चाहा। तुम अन्यथा होने की चेष्टा में विकृत मत हो जानाक्षत—विक्षत मत हो जाना। तुमसे मै एक छोटा—सा गीत कहता हूं.
            तू नहीं कहेगामैं फिर भी सुन ही लूंगा
            किरण भोर की पहलीभोलेपन से बतलावेगी
            झरना शिशु—सा अनजान उसे दोहरावेगा
            घोंघा गीली—पीली रेती पर धीरे — धीरे आकेगा
            पत्तों का मरमर कनबतियों में जहा—तहां फैलावेगा
            पंछी की तीखी कूक फरहरे मढ़े शल्य—सी आसमान पर टाकेगी
            फिर दिन सहसा खुल कर उसको सब पर प्रगटावेगा।
            तू नहीं कहेगामैं फिर भी सुन ही लूंगा
            मैं गुन ही लूंगा।
            तु नहीं कहेगा
            आस्‍था है।
            नहीं अनमना होऊंगा
            तब मैं सुन लूंगा।
            और दे भी क्या सकता हूं हवाला
            या प्रमाण अपनी बात का?
            अब से तेरा कर एक वही गह पाएगा।
            संभ्रम अवगुंठित अंगों को
            उसका मृदुतर कृत्हल
            प्रकाश की किरण छुआएगा।
            तुझसे रहस्य की बात निभृत में
            एक वही कर पाएगा।
            तू उतना वैसा समझेगी
            वह जैसा जो समझाएगा
            तेरा वह प्राप्य वरद कर
            तुम पर जो बरसाएगा
            उद्देश्यउसे जो भावे
            लक्ष्य वहीजिस ओर मोड़ दे वह
            तेरा पथ मुड़—मुड़ कर सीधा उस तक ही जाएगा।
            तू अपनी भी उतनी ही होगी जितना वह अपनाएगा
            ओ आत्मा री!
            तू गई वरी
            महाशून्य के साथ भांवरें तेरी रची गईं।
      उद्देश्यउसे जो भावेसमर्पण का यही अर्थ है।
            उद्देश्यउसे जो भावे
            लक्ष्य वहीजिस ओर मोड़ दे वह
            तेरा पथ मुड़—मुड़ कर सीधा उस तक ही जाएगा
            तू भी उतनी ही होगी
            जितना वह अपनाएगा
            ओ आत्मा री!
            तू गई वरी
            महाशून्य के साथ भांवरें तेरी रची गईं।
अगर तुम्हें लगता है कि स्त्रैण—चित्त है तुम्हारे पास—शुभ हैमंगल है। पुरुष—चित्त का कोई अपने—आप मूल्य नहीं। हो तो वह भी शुभ हैवह भी मंगल है।
परमात्मा ने दो ही तरह के चित्त बनाए : स्त्रैण और पुरुषसंकल्प और समर्पण। दो ही मार्ग हैं उस तक जाने के। तुम जहा हो वहीं से चलो। तुम जैसे हो वैसे ही चलो। प्रभु तुम्हें वैसा ही अंगीकार करेगा।

हरि ओंम तत्सत !