Asthavakra Mahageeta Day 18

पहला प्रश्न:

मनोवैज्ञानिक विक्टर ई. फ्रैंकल ने 'अहा—अनुभव' (Aha-Experience) एवं 'शिखर—अनुभव' (peakExperience) की चर्चा करके मनोविज्ञान को नया आयाम दिया है। क्या आप कृपा करके इसे अष्टावक्र एवं जनक के आश्चर्य—बोध के संदर्भ में हमें समझाएंगे?

 हली बात. जिसे फ्रैंकल ने 'अहा—अनुभवकहा हैवह अहा 'तो हैअनुभव बिलकुल नहीं। अनुभव का तो अर्थ होता है 'अहामर गई। अहा का अर्थ ही होता है कि तुम उसका अनुभव नहीं बना पा रहेकुछ ऐसा घटा हैजो तुम्हारे अतीत—ज्ञान से समझा नहीं जा सकताइसीलिए तो अहा का भाव पैदा होता हैकुछ ऐसा घटा है जो तुम्हारी अतीत— श्रृंखला से जुड़ता नहींश्रृंखला टूट गईअनहोना घटा हैअपरिचित घटा हैअसंभव घटा हैजिसे न तुमने कभी सोचा थान विचारा थान सपना देखा था—ऐसा घटा है।

परमात्मा जब तुम्हारे सामने खड़ा होगातो न तो वह कृष्ण की तरह होगा बांसुरी बजाता हुआ और न जीसस की तरह होगा सूली पर लटका हुआ और न राम की तरह होगा धनुष—बाण हाथ में लिए हुए। अगर राम की तरह धनुष—बाण हाथ में लिए खड़ा होतो तुम्हारे अनुभव से मेल खा जाएगा। तुम कहोगे. ठीक हैप्रभु द्वार आ गए। अहा पैदा नहीं होगाअनुभव बन जाएगातुम्हारी धारणा में बैठ जाएगा। थोड़े—बहुत चौंकोगेलेकिन चौंक इतनी गहरी न होगी कि तुम्हारे अतीत से तुम्हारे भविष्य को अलग तोड़ जाए।
अहा का अर्थ होता है ऐसी चौंक कि जैसे बिजली कौंध गई और एक क्षण में जो अतीत था वह मिट गयाउससे तुम्हारा कोई संबंध न रहा। कुछ ऐसा घटाजिसकी तुम्हें सपने में भी भनक न थी। असंभव घटा! अज्ञेय द्वार पर खड़ा हो गया! न जिसके लिए कोई धारणा थीन विचार थान सिद्धात थाजिसे समझने में तुम असमर्थ हो गए बिलकुलजिस पर तुम्हारी समझ का ढांचा न बैठ सकाजो तुम्हारी समझ के सारे ढांचे तोड़ गया—उसी अवस्था में ही अहा का भाव पैदा होता है।
इसलिए अहापहली तो बात खयाल रखनाअनुभव नहीं है। अनुभव का तो अर्थ होता है प्रत्यभिज्ञा हो गईरिकॅगनीशन हो गयातुम पहचान गए कि अरेयह गुलाब का फूल! लेकिन गुलाब के फूल की प्रत्यभिज्ञापहचान तभी हो सकती हैजब अतीत में देखे गए फूलों जैसा ही हो। अगर ऐसा हो जैसा कि अतीत में कभी जाना ही नहींतो तुम पहचान न सकोगेतुम ठगे खड़े रह जाओगेतुम्हारा मन एकदम स्तब्ध हो जाएगा। तुम्हारे मन की चलती विचारधारा एकदम खंडित हो जाएगी।
उस खंडित विचारधारा मेंउस निर्विचार— क्षण में जो घटता हैवही अहा हैवह अनुभव नहीं है। अनुभव तो सभी मन के हैं। वह अनुभवातीत अनुभव है। कहने को अनुभव कहोअनुभव नहीं है। उस अनुभवातीत अवस्था की तीन श्रेणियां हैं। पहली : जैसे ही किसी व्यक्ति को अनजान और अपरिचित की प्रतीति होती हैउसका सान्निध्य मिलता है—सबोधि कहोसमाधि कहोपरमात्मा कहो—जैसे ही तुम्हारे पास उस अनजान की तरंगें आती हैंतुम तरंगायित होते होतो जो पहला भाव उठता हैवह होता है. आह! मुझेऔर हुआ! इस पर भरोसा नहीं आता कि मुझेऔर हो सकता है! बुद्ध को हुआ होगाकृष्ण को हुआ होगाक्राइस्ट को हुआ होगा—मुझे! पहली असंभावना तो यह दिखती है कि मुझ पापी कोमुझ ना—कुछ कोमुझ गिरे हुए कोमुझे हुआ! आह!
तो पहला अनुभव तो यह होता है कि जैसे एक छाती में छुरी चुभ गई। तुमने कभी सोचा ही नहीं था कि तुम्हें हो सकता है।
तुमने कभी सोचापरमात्मा तुम्हें मिल सकता हैसदा किसी और को मिला है। तुमने न तो इतनी याद की है उसकी कभी कि तुम मान लो कि मुझे मिलेगान तुमने ऐसा कोई पुण्य— अर्जन किया है कि मान लो कि मुझे मिलेगा। तुम्हारे पास अर्जित क्या हैहजार—हजार भूलें की हैंहजार—हजार पाप किए हैंहजार—हजार नासमझिया की हैं—और की हैं ऐसा ही नहींअब भी जारी हैं।
तो जब पहली दफे परमात्मा उतरता है तो अपने पर भरोसा नहीं आता। तो पहली तो चोट उठती है आह! मुझे! नहींनहींऐसा कैसे हो सकता है! तुम यह मान ही नहीं पाते कि यह प्रसाद तुम पर भी बरस सकता है।
लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि यह सभी पर बरस सकता है। यह प्रसाद हैइसके पाने के लिए तुम्हें अर्जित करने की जरूरत ही नहीं। यह कुछ ऐसी चीज नहीं जिसे तुम मोल—तोल कर लोजिसे तुम खरीद लो—त्याग सेतपश्चर्या से। जो त्याग से मिलता हैवह कुछ और होगापरमात्मा नहीं। जो तपश्चर्या से मिलता हैवह कुछ और होगापरमात्मा नहीं। क्योंकि जो तुम्हारे करने से मिलता है वह तुमसे छोटा होगातुमसे बड़ा नहीं हो सकता। जो तुम्हारे कृत्य से मिलता हैजो तुम्हारी मुट्ठी में बंधा हैउसका मूल्य ही क्यावह विराट नहीं होगा। तुम्हारे कृत्य से जो मिलता हैवह कर्ता से तो बड़ा नहीं हो सकता। कर्ता तो अपने कृत्य से सदा बड़ा होता है।
तुम एक चित्र बनाते होकितना ही सुंदर चित्र होलेकिन चित्रकार से बड़ा तो नहीं हो सकता। चित्रकार से पैदा हुआ हैचित्रकार बड़ा होगा। तुमने एक गीत रचाकितना ही सुंदर होकितना ही मनमोहक होलेकिन गीतकार से बड़ा तो नहीं हो सकता। तुमने वीणा बजाईकैसी ही रस की धार बहेलेकिन वीणा—वादक से तो बड़ी नहीं हो सकतीजिससे बहती हैउससे तो छोटी ही होगी। अगर तुम्हारे कृत्य से परमात्मा मिलेतो तुमसे छोटा होगा। इसलिए तो लोगों को जो परमात्मा मिलते हैंवे बहुत परमात्मा नहीं हैंवे उनसे छोटे हैंवे उनके ही मन के खेल हैंउनकी ही आकांक्षाओंवासनाओं के रूप हैं। वे सपने की भांति हैंयथार्थ नहीं।
वास्तविक परमात्मा तो प्रसाद—रूप मिलता है। वहां तुम्हारा कृत्य होता ही नहींन तुम्हारा पुण्य होता हैन तुम्हारा ध्यानन तुम्हारा तप। वहा कुछ भी नहीं होता—वहां तुम भी नहीं होते। जब तुम मिटते होतब वह प्रसाद बरसता है। जब तुम सिंहासन खाली कर देते होतब वह राजा आता है।
तो पहली तो चोट लगती हैआह! तुम मान सकते थे कि किसी और को मिलाउसने बड़ी तपश्चर्या की थीजन्मों—जन्मों तक पुण्य अर्जन किया था। तुम्हें मिला! तो पहला अनुभव तो है : आह! जब तुम थोड़े सम्हलते होजब तुम सम्हल कर जो हो रहा है उसे देखते होजिसे हो रहा हैउसकी फिक्र छोड़ देते होक्योंकि अब तो यह हो ही गया इस पर रुकना क्याजो हो रहा हैजब तुम्हारी नजर उस पर जाती है—तो भाव उठता है......अहा! अपूर्व हो रहा हैअनिर्वचनीय हो रहा है!
'अहाशब्द बड़ा प्यारा है। यह किसी भाषा का शब्द नहीं है। हिंदी में कहो तो अहा हैअंग्रेजी में कहो तो अहा हैचीनी में कहो तो अहा हैजर्मन में कहो तो अहा है। यह किसी भाषा का शब्द नहीं है—यह भाषाओं से पार है। जिसको भी होगा... इकहार्ट को हो तो उसको भी निकलता है अहाऔर रिंझाई को हो तो उसको भी निकलता है अहाऔर कबीर को हो तो उसको भी। सारी दुनिया में जहां भी किसी ने परमात्मा का अनुभव किया हैवहीं अहा का उदघोष हुआ है।
लेकिन यह भी दूसरी सीढ़ी है। पहले तुम अपने पर चौंकते हो कि मुझे हुआफिर तुम इस पर चौंकते हो कि परमात्मा हुआ! फिर इन दोनों के पार एक तीसरा बोध हैजिसे हम कहें : अहो! वही जनक को हो रहा है। तीसरा बोध हैफिर न तो यह सवाल है कि मुझे हुआन यह सवाल है कि परमात्मा हुआ। फिर सब्जेक्ट और आब्जेक्टमैं और तू के पार हो गई बात। हुआयही आश्चर्य हैहोता हैयही आश्चर्य है।
तरतूलियन ने कहा है कि परमात्मा असंभव हैहो नहीं सकतालेकिन होता है। तब तीसरी बात उठती है. अहो!
ऐसा समझोआह—हृदय धक्क से रह गयाठिठक कर रह गयाअवाक! एक पूर्ण विराम आ गया। दौड़े चले जाते थेन मालूम कहां—कहां दौड़े चले जाते थेपैर ठिठक गएदौड़ बंद हो गईसब रुक गयाश्वास तक ठहर गई। आह..! जो श्वास आह में बाहर गईवह भीतर नहीं लौटती। थोड़ी देर सब शून्य हो गया। सम्हले—श्वास भीतर वापिस लौटी।
यह जो श्वास का भीतर लौटना हैयह बड़ा नया अनुभव है। क्योंकि तुम तो मिट गए आह मेंअब श्वास भीतर लौटती है एक शून्य—गृह मेंमंदिर में। और अब यह श्वास लौटती है—वह जो बाहर खड़ा है परमात्माउसकी सुगंध से भरी हुईउसकी गंध से आंदोलितउसकी शीतलताउसके प्रकाश की किरणों में नहाई हुईउसके प्रेम में पगी! जैसे ही यह श्वास भीतर जाती हैतो अहा! पहले तुम चौंक कर रह गए थेश्वास बाहर की बाहर रह गई थीअब श्वास भीतर आती है तो श्वास के बहाने परमात्मा भीतर आता है। तुम्हारा रोआं—रोआं खिल जाता हैकली—कली फूल बन जाती हैहजार—हजार कमल खिल जाते हैं तुम्हारे चैतन्य की झील पर। अहा!
और तब दोनों मिट जाते है—न तो तुम होन परमात्मा हैदोनों एक हो गएसीमाएं खो गईं। महामिलन होता है! जहां न मैं मैं हूं, न तू तू है—तब अहो! आह है : अवाक हो जाना। अहा है : अवाक+आश्चर्य। अहो है : आश्चर्य+अवाक+कृज्ञता।
तो आह तो घट सकती है नास्तिक को भी। आह तो घट सकती है वैज्ञानिक को भी। जब वैज्ञानिक भी कोई नई खोज कर लेता हैतो धक्क रह जाता है,भरोसा नहीं आताआह निकल जाती है। आह तो घट सकती है गणितज्ञ को भी। कोई सवाल जब बरसों तक उलझाए रहा होजब हल होता हैतो वर्षों तक उलझाए रहने के कारण इतना तनाव पैदा हो जाता है और जब हल होता है तो सारा तनाव गिर जाता हैबड़ी शांति मिलती है। इससे धर्म का अभी कोई संबंध नहीं है। आह तो घट सकती है गैर— धार्मिक को भी। जब हिलेरी एवरेस्ट पर पहुंचा तो आह निकल गई। इससे कुछ ईश्वर का लेना—देना नहीं है। कोई कभी नहीं पहुंच पाया था वहांऐसी अनहोनी घटना घटी थी। इससे हिलेरी का ईश्वरवादी होना जरूरी नहीं है।
जब पहली दफे आदमी चांद पर चला होगा तो आह निकल गई होगीभरोसा न आया होगा कि मैं चल रहा हूं चांद पर! सदियों—सदियों से आदमी ने सपना देखा.. हर बच्चा चांद को पकड़ने के लिए हाथ उठाए पैदा होता है। 'पहली दफा मैंपहुंच गया हूं चांद पर!लेकिन इससे भी ईश्वर का कोई लेना—देना नहीं है।
जब अहा पैदा होती हैतो अहा पैदा हो सकती है कवि कोचित्रकार कोमूर्तिकार को। आह तो पैदा हो सकती है—वैज्ञानिक कोगणितज्ञ को,तर्कशास्त्री को। अहा पैदा होती है—एक कदम और. अवाक+आश्चर्य—कवि कोमनीषी कोसंगीतज्ञ को। जब संगीतज्ञ किसी ऐसी धुन को उठा लेता हैजिसे कभी नहीं उठा पाया थाजब वह धुन बजने लगती हैजब वह धुन वास्तविक हो जाती हैसघन होने लगती हैजब धुन चारों तरफ बरसने लगती है! या कवि जब कोई गीत गुनगुना लेता हैजिसे गुनगुनाने को जीवन भर तड़पा थाशब्द नहीं मिलते थेभाव नहीं बंधते थेजब पंक्तियां बैठ जाती हैंजब लय और छंद पूरे हो जाते हैं...।
अहा थोड़ी रहस्यमय है। आह बहुत व्यवहारिक है। और अहो धार्मिक है। वह घटती है केवल रहस्यवादी समाधिस्थ व्यक्ति को। वह संबोधि में घटती है।
ये जो जनक के वचन हैंये अहो के वचन हैं। सम्हाले नहीं सम्हल रही है बात। हर वचन में कहे जाते हैं. अहो! अहो!! इसमें बड़ी कृतज्ञता का भाव हैबड़ा गहन धन्यवाद है। पहली दफा आस्था का जन्म हुआ हैपहली दफे अंधेरे में आस्था की किरण उतरी है। अब तक माना थासोचा थाविचारा था कि परमात्मा है—अब परमात्मा भीतर आ गया हैअब प्रत्यक्ष है!
रामकृष्ण से विवेकानंद ने पूछा कि मुझे परमात्मा को दिखाएंगेमुझे परमात्मा को सिद्ध करके बताएंगेमैं परमात्मा की खोज में हूं। मैं तर्क करने को तैयार हूं।
रामकृष्ण सुनते रहे। और रामकृष्ण ने कहा : तू अभी देखने को राजी है कि थोड़ी देर ठहरेगाअभी चाहिए?
थोड़े विवेकानंद चौंके। क्योंकि औरों से भी पूछा था—वे पूछते ही फिरते थे। बंगाल में जो भी मनीषी थेउनके पास जाते थे कि ईश्वर हैतो कोई सिद्ध करता थाप्रमाण देता था—वेद सेउपनिषद से। और यहां एक आदमी है अपढ़वह कह रहा है : अभी या थोड़ी देर रुकेगाजैसे कि घर में रखा होजैसे कि खीसे में पड़ा हो परमात्मा!
अभी! यह सोचा ही नहीं था विवेकानंद ने कि कोई ऐसा भी पूछने वाला कभी मिलेगा कि अभी। और इसके पहले कि वह कुछ कहेंरामकृष्ण खड़े हो गए। इसके पहले कि विवेकानंद उत्तर देतेउन्होंने अपना पैर विवेकानंद की छाती :से लगा दियाऔर विवेकानंद के मुंह से जोर की चीख निकली : आह! और वे गिर पड़े और कोई घंटे भर बेहोश रहे।
जब वह होश में आए तो आंखें आसुरों से भरी थीं, 'आह' 'अहाहो गई थी। जब उन्होंने रामकृष्ण की तरफ देखा तो 'अहोमें रूपांतरण हुआ अहाका। वे गदगद हो गए। उन्होंने पैर पकड़ लिए रामकृष्ण के और कहा : अब मुझे कभी छोड़ना मत! मैं नासमझ हूं! मैं कभी छोडूं भीभाग भीलेकिन मुझे तुम कभी मत छोड़ना! यह हुआ क्या?
विवेकानंद पूछने लगे : मुझे किस लोक में ले गएसब सीमाएं खो गईंमैं खो गयाअपूर्व शांति और आनंद की झलक मिली! तो परमात्मा है!
विचार ठिठक जाए—आह। भाव ठिठक जाए—अहा। तुम्हारी समग्र आत्मा ठिठक जाए—अहो।
फ्रैंकल ने महत्वपूर्ण काम किया है कि मनोविज्ञान में उसने अहा अनुभव की बात शुरू की। लेकिन फ्रैंकल कोई रहस्यवादी संत नहीं। उसे संबोधि का या ध्यान का कोई पता नहीं। इसलिए वह 'अहातक ही जा पाया, ' अहोकी बात नहीं कर पाया है। और उसकी 'अहाभी बहुत कुछ 'आहसे मिलती—जुलती है,क्योंकि उसके स्वयं के कोई अनुभव नहीं हैं। यह तर्क —सरणी सेविचार की प्रक्रिया से उसने सोचा है कि ऐसा भी अनुभव होता है। इकहार्ट हैंतरतूलियन हैं,कबीर हैंमीरा हैं—इनके संबंध में सोचा है। सोच—सोच कर उसने यह सिद्धात निर्धारित किया। लेकिन फिर भी सिद्धात मूल्यवान हैकम से कम किसी ने तर्क से भरे हुए खोपड़ियों मेंकुछ तो डाला कि इसके पार भी कुछ हो सकता है! लेकिन फ्रैंकल की बात प्राथमिक है। उसे खींच कर अहोतक ले जाने की जरूरत है,तभी उसमें दिव्य आयाम प्रविष्ट होता है।

 दूसरा प्रश्न :

हम मनुष्यों ने किस महंत आकांक्षा के वश अपनी अनुपम आश्चर्यबोध क्षमता का त्याग कर दिया हैकृपा करके इसे समझाएं।

प्रत्येक बच्चा आश्चर्य की क्षमता से भरा हुआ पैदा होता है। प्रत्येक बच्चा कुतूहल और जिज्ञासा में जीता है। और प्रत्येक बच्चा छोटी —छोटी चीजों से ऐसा अह्लदित होता है कि हमें भरोसा नहीं आता है। नदी के किनारेकि सागर के किनारे सीपिया बीन लेता हैशंख बीन लेता है—और सोचता है हीरे—जवाहरात बीन रहा है! कंकड़ —पत्थर लाल—पीले —हरे इकट्ठे कर लेता है।
मां—बाप समझाते हैं कि फेंककहां बोझ ले जाएगावह छिपा लेता है अपने खीसों में। रात मां उसके बिस्तर में से पत्थर निकालती हैक्योंकि सब खीसे से पत्थर बिखर जाते हैं। वह छिपा—छिपा कर ले आता है।
हमें दिखाई पड़ते हैं पत्थरउसे दिखाई पड़ते हैं हीरे। अभी उसकी आश्चर्य की क्षमता मरी नहीं। अभी उसके प्राण पुलकित हैं। अभी परमात्मा के घर से नया—नयाताजा—ताजा आया है। अभी आंखें रंगों को देख पाती हैंअभी आंखें धूमिल नहीं हो गईंधुंधली नहीं हो गईं। अभी कान स्वरों को सुन पाते हैं। अभी हाथ स्पर्श करने से मर नहीं गए हैंअभी जीवंत चेतना हैअभी संवेदनशीलता है। इसलिए बच्चा छोटी—छोटी चीजों में किलकारी मारता है।
तुमने छोटे बच्चे को देखा?... अकारण!... इतनी छोटी बात में कि तुम्हें ही भरोसा नहीं आता कि कोई इतनी छोटी बात में इतना प्रसन्न कैसे हो सकता है! लेकिन धीरे— धीरे वह क्षमता मरने लगती हैहम उसे मारते हैंइसलिए मरने लगती है। बड़े —के बच्चे की जिज्ञासा में रस नहीं लेते। बड़े—बूढ़ों के लिए अड़चन है। बच्चे की जिज्ञासा उन्हें एक उपद्रव हैएक उत्पात है। पूछे ही चला जाता है। उनके पास उत्तर भी नहीं हैं। इसलिए बार—बार उसका पूछना उन्हें बेचैन भी करता हैक्योंकि उत्तर भी उनके पास नहीं हैं। या जो उत्तर उनके पास हैंउन्हें खुद भी पता हैवे थोथे हैं। और बच्चों को धोखा देना मुश्किल है।
बच्चा पूछता है : यह पृथ्वी किसने बनाई हैऔर तुम कहो : परमात्मा ने। तो वह पूछता है : परमात्मा को किसने बनायातुम डाटते—डपटते हो। डांटने—डपटने से तुम सिर्फ इतना कह रहे हो कि तुम्हारा उत्तर थोथा है। बच्चे ने तुम्हारा अज्ञान दिखा दिया। उसने कह दिया : पिताजीकिसको धोखा दे रहे होदुनिया भगवान ने बनाई! वह पूछता है. भगवान को किसने बनायातुम कहते हो : चुप रह नासमझजब बड़ा होगा तो जान लेगा।
तुमने बड़े हो कर जानालेकिन सिर्फ तुम टाल रहे हो। तुम छुटकारा कर रहे हो। तुम कह रहे हो : मुझे मत सतामुझे खुद ही पता नहीं। लेकिन इतना कहने की तुम्हारी हिम्मत नहीं कि मुझे पता नहीं है। जब बच्चे ने पूछापृथ्वी किसने बनाईसंसार किसने बनाया—काशतुम ईमानदार होते और कहते कि 'मैं भी खोज रहा हूं! पता चलेगा तो मैं तुझे कहूंगा। तुझे कभी पता चल जाए तो मुझे कह देना। मगर मुझे पता नहीं है। 'तो आश्चर्य की क्षमता मरती नहीं।
स्कूल जाता बच्चा और शिक्षकों से पूछतासंसार किसने बनाया—और वे कहते कि 'हमें पता नहींहम खोजते हैंलेकिन अभी तक कुछ पता नहीं चला,बड़ा रहस्य है। तुम भी खोजना। नहींलेकिन मुश्किल हैबाप का अहंकार है कि बापऔर न जाने! बाप यह बात मान ही नहीं सकता। बाप क्या हो गयासब बातों  का जानकार हो जाना चाहिए! कोई स्त्री मां क्या बन गईहर बात की जानकार हो गई! कोई आदमी प्राइमरी स्कूल में पढ़ाने क्या लगासौ रुपए की नौकरी क्या मिल गई—वह हर चीज का जानकार हो गया!
तो शिक्षक का अहंकार हैबाप का अहंकार हैमां का अहंकार हैबड़े भाइयों कापरिवार के लोगों कासमाज का अहंकार है—और छोटा—सा बच्चा इतने अहंकारों में तुम सोचते हो बच सकेगाअबोधउसका नाजुक आश्चर्य—तुम्हारे अहंकारों में दबेगापिस जाएगामर जाएगा। तुम


सब उसे पीस डालोगे। जहां जाएगावहीं डांट—डपट खाएगा। जहां जिज्ञासा उठाएगावहीं उसे ऐसा अनुभव होगा कि कुछ गलती कीक्योंकि जिससे भी जिज्ञासा करो वही कुछ ऐसे भाव से लेता है जैसे कोई भूल हो रही। जिससे प्रश्न पूछो वही नाराज हो जाता हैया ऐसा उत्तर देता है जिसमें कोई उत्तर नहीं है। अगर फिर उत्तर पूछो तो कहता हैनासमझी की बात है।
छोटे—मोटे लोगों की बात छोड़ दोजिनको तुम बड़े—बड़े ज्ञानी कहते हो उनकी भी यही हालत है। जनक ने एक दफा बड़े शास्त्रार्थ का आयोजन करवाया। उस समय के बड़े ज्ञानी याज्ञवल्‍लव भी उसमें शास्त्रार्थ में गए। जनक ने हजार गऊएं खड़ी रखी थीं महल के द्वार पर कि जो जीत जाएले जाए। याज्ञवल्ल महापंडित थे। उन्होंने अपने शिष्यों को कहा कि गऊएं धूप में खड़ी हैंतुम इनको ले जाओविवाद मैं पीछे कर लूंगा। इतना भरोसा रहा होगा अपने विवाद की क्षमता पर। बड़ा अहंकारी व्यक्तित्व रहा होगा। और सचमुचवे पंडित थेउन्होंने विवाद में सभी को हरा दिया। लेकिन वे जमाने भी अदभुत थे! एक स्त्री खड़ी हो गई विवाद करने को। गार्गी उसका नाम था। उसने याज्ञवल्लव को प्रश्न पूछेउसने मुश्किल में डाल दिया।
स्त्रीपुरुषों से ज्यादा बच्चों के करीब है। इसलिए तो स्त्री उम्र भी पा जाती है तो भी उसके चेहरे पर एक भोलापन और बचकानापन होता हैवही तो उसका सौंदर्य है। स्त्री बच्चों के करीब हैक्योंकि अभी भी रो सकती हैअभी भी हंस सकती है। पुरुष बिलकुल सूख गए होते हैं।
तो और तो सब पंडित थेउन सूखे पंडितो  को याज्ञवल्‍लव ने हरा दियाएक रसभरी स्त्री खड़ी हो गई। और उसने कहा कि सुनोमुझसे भी विवाद करो। वे दिन अच्छे थेतब तक स्त्रियां विवाद से वर्जित न की गई थीं। याज्ञवल्‍लव के बाद ही स्त्रियों को विवाद से वर्जित कर दिया गया और कहा गया कि वे वेद न पढ़ सकेंगी। यह महंत अनाचार हुआ। लेकिन इसके पीछे कारण था. गार्गी! गार्गी ने याज्ञवल्लव को पसीने—पसीने कर दिया। कोई भी बच्चा कर देताइसमें गार्गी की कोई खूबी न थी। खूबी इतनी ही थी कि अभी वह आश्चर्य— भाव से भरी थी। वह पूछने लगी प्रश्न। उसने सीधा—सा प्रश्न पूछा। पंडितो  ने तो बड़े जटिल प्रश्न पूछे थेउनके उत्तर भी याज्ञवल्ल ने दे दिए थे।
जटिल प्रश्न का उत्तर देना सदा आसान है। सरल प्रश्न का उत्तर देना सदा कठिन है। क्योंकि प्रश्न इतना सरल होता है कि उसमें उत्तर की गुंजाइश नहीं होती। जब प्रश्न बहुत कठिन हो तो उसमें बहुत गुंजाइश होती हैइस कोनेउस कोनेहजार रास्ते होते हैं। जब प्रश्न बिलकुल सीधा—सरल होजैसे कोई पूछ ले कि पीला रंग यानी क्यातुम क्या करोगेप्रश्न बिल्कुल सीधा सरल है। तुम कहोगे : पीला रंग यानी पीला रंग। वह कहे : यह भी कोई उत्तर हुआपीला रंग यानी क्यासमझाओ! अब पीला रंग इतनी सरल बात हैइसको समझाने का उपाय नहीं हैइसकी परिभाषा भी नहीं बना सकते। परिभाषा भी पुनरुक्ति होगी। अगर तुम कहो पीला रंग पीला रंगतो यह तो पुनरुक्ति हुई। यह कोई परिभाषा हुईयह तो तुमने वही बात फिर दोहरा दीबात तो वहीं की वहीं रहीप्रश्न अटका ही रहा।
गार्गी ने कोई बड़े कठिन प्रश्न नहीं पूछेसीधी—सादी स्त्री रही होगी। वहीं मुश्किल खड़ी हो गई। अगर वह भी उलझी स्त्री होती तो याज्ञवल्‍लव ने उसे हरा दिया होता। वह पूछने लगी. मुझे तो छोटे — छोटे प्रश्न पूछने हैं। यह पृथ्वी को किसने सम्हाला हुआ है?
याज्ञवल्ल तभी डरा होगा कि यह झंझट की बात हैयह कोई शास्त्रीय प्रश्न नहीं है। तो याज्ञवल्ल ने जो पौराणिक उत्तर था दिया कि कछुए ने सम्हाला हुआ हैकछुए के ऊपर पृथ्वी टिकी है। यह उत्तर बचकाना है। यह उत्तर बिलकुल झूठा है। गार्गी पूछने लगीऔर कछुआ किस पर टिका हैयह बच्चे का प्रश्न है। इसलिए मैं कहता हूं गार्गी ने उलझन खड़ी कर दीक्योंकि वह सीधी—सादीआश्चर्य से भरी हुई स्त्री रही होगी। कछुआ किस पर खड़ा है?
याज्ञवल्ल को घबराहट तो बढ़ने लगी होगीक्योंकि यह तो मुश्किल मामला है। यह तो अब पूछती ही चली जाएगी। तुम बताओहाथी पर खड़ा है। तो हाथी किस पर खड़ा हैतुम कहां तक जाओगेआखिर में यह तो हल नहीं होने वाला।
तो उसने सोचा कि इसे चुप ही कर देना उचित हैजैसा कि सभी पंडितसभी शिक्षकसभी मां—बाप बजाय उत्तर देने के चुप करने में उत्सुक हैं। किसी तरह मुंह बंद कर दो! तो उसने कहा. सब परमात्मा पर खड़ा हुआ हैसभी को उसने सम्हाला हुआ है।
गार्गी ने कहा : बस अब एक प्रश्न और पूछना हैपरमात्मा को किसने सम्हाला है?
इसलिए मैं कहता हूं यह बिलकुल बच्चों जैसा प्रश्न था—सीधा—सरल। बस याज्ञवल्ल क्रोध में आ गया। उसने कहायह अतिप्रश्न है गार्गी! अगर आगे पूछा तो सिर धड़ से गिरा दिया जाएगा! यह भी कोई उत्तर हुआमगर यही उत्तर सब बाप देते रहे हैं कि अगर ज्यादा पूछा तो पिटाई हो जाएगी! सिर धड़ से अलग कर दिया जाएगा! सिर गिर जाएगा गार्गीअगर और तूने पूछा आगे! यह अतिप्रश्न है।
अतिप्रश्न का क्या मतलब होता है ? कोई प्रश्न अतिप्रश्न हो सकता हैया तो सभी प्रश्न अतिप्रश्न हैं—तो  पूछो ही मतफिर उत्तर ही मत दो। या फिर किसी प्रश्न को अतिप्रश्न कहने का तो इतना ही अर्थ हुआ कि मुझे इसका उत्तर मालूम नहींयह मत पूछो। तुम्हें उत्तर मालूम नहीं हैइसलिए प्रश्न अति हो गया! इससे तुम नाराज हो गए!
और वह आखिरी दिन था भारत के इतिहास मेंउसके बाद फिर स्त्रियों को वेद पढ़ने की मनाही कर दी गईशास्त्र पढ़ने की मनाही कर दी गईक्योंकि स्त्रियां खतरनाक थीं। वे छोटे बच्चों की तरह थीं। वे झंझटें खड़ी करने लगीं पंडितो  को। भारत में एक अंधेरी रात शुरू हुई स्त्रियों के लिए। उनसे सारे सोच—विचार के उपाय छीन लिए गए।
यही हमने बच्चों के साथ किया है। तो बच्चा कब तक अपने आश्चर्य के भाव को बचा कर रखेदेर— अबेर समझ जाता है कि कोई मेरे प्रश्नों में उत्सुक नहीं हैकोई मेरे आश्चर्य का साथी नहीं हैऔर जहां—जहां मैं आश्चर्य भाव प्रगट करता हूं जहां—जहां मैं उत्सुकता लेता हूं हर आदमी ऐसा भाव प्रकट करता है कि मैं कोई पाप कर रहा हूं। बच्चा इन इशारों को समझ जाता है। वह अपने आश्चर्य को पीने लगता हैरोकने लगता हैदबाने लगता है। जिस दिन बच्चा अपने आश्चर्य को दबाता हैउसी दिन बचपन की मौत हो जाती है। उस दिन के बाद वह बूढ़ा होना शुरू हो जाता है। उस दिन के बाद फिर जीवन में विकास नहीं होता,सिर्फ मृत्यु घटती है।
पूछा है कि 'किस महंत आकांक्षा के वश हम अपनी अनुपम आश्चर्यबोध— क्षमता का त्याग कर देते हैं?'
महंत आकांक्षा है : लोग स्वीकार करें! बच्चा चाहता है. बाप स्वीकार करेमां स्वीकार करे। क्योंकि बच्चा उन पर निर्भर है। वह चाहता है कि मां प्रेम करे,बाप प्रेम करे—तो  ऐसा कोई काम न करूंजिससे बाप नाराज हो जाता है या बाप को बेचैनी होती हैअन्यथा प्रेम रुक जाएगा। ऐसी कोई बात न पूछुं जिससे मां नाराज होती है। ऐसी कोई बात न पूछूं जिससे शिक्षक नाराज होता है। धीरे— धीरे प्रेम पाऊंस्वीकार पाऊंदूसरे मेरे जीवन में सहयोगी बनें—इस आधार पर आश्चर्य की मृत्यु हो जाती है। बच्चा आश्चर्य को छोड़ देता हैअहंकार को पकड़ लेता है। यह सब अहंकार की आकांक्षा है कि लोगों में सम्मान मिलेअपमान न मिलेसभी लोग मुझे स्वीकार करेंसब लोग कहें कितना अच्छाकितना शातकितना सौम्य बच्चा है!
पूछने वाला उपद्रवी मालूम पड़ता है। सीमा से ज्यादा पूछने वाला विद्रोही मालूम पड़ने लगता है। अगर हर चीज पर पूछताछ करते चले जाओतो बड़ी अड़चन हो जाती है।
मैं छोटा था तो मेरे घर के लोग मुझे किसी सभा इत्यादि में नहीं जाने देते थेकि तुम्हारे पीछे हमारा तक नाम खराब होता हैक्योंकि मैं रुक ही नहीं सकता था। कोई स्वामी जी बोल रहे हैंमैं खड़ा हो जाऊंगा बीच में—और सारे लोग नाराजगी से देखेंगे कि यह बच्चा आ गया गड़बड़! मैं बिना पूछे रह ही नहीं सकता था। और ऐसा उत्तर मैंने कभी नहीं पायाजिसके आगे और प्रश्न करने की संभावना न हो। तो स्वाभाविक था कि स्वामी लोग नाराज हों। कॉलेज से मुझे निकाल दिया गयाक्योंकि मेरे शिक्षक ने कहा कि हम नौकरी छोड़ देंगे अगर तुम इस क्लास में.। या तो तुम छोड़ दो या हम छोड़ दें।
फिलॉसफी पढ़ने कॉलेज गया था और फिलॉसफी पढ़ाने वाला प्रोफेसर कहता है कि तुम अगर प्रश्न पूछोगे तो हम नौकरी छोड़ देंगे। तो हद हो गई! तो क्या खाक फिलॉसफी पढाओगेदर्शन— शास्त्र पढ़ाने बैठे होप्रश्न पूछने नहीं देते!
उनकी कठिनाई भी मैं समझता हूं —अब तो और अच्छी तरह समझता हूं उनकी कठिनाई! क्योंकि पढ़ना—लिखना हो ही नहीं सकता था। मेरे पूछने का अंत नहीं था और उनके पास इतनी हिम्मत न थी कि वे किसी प्रश्न पर कह दें कि मुझे इसका उत्तर नहीं मालूम—वह अड़चन थी। वह कुछ न कुछ उत्तर देते और मैं उनके उत्तर में से फिर भूल निकाल लेता।
ऐसा हुआ कि आठ महीने तक पहले पाठ से हम आगे बढ़े ही नहीं। तो उनकी घबड़ाहट भी मैं समझता हूं मगर एक छोटी—सी बात से हल हो जातावे कह देतेमुझे मालूम नहीं—बात खत्म हो जाती। मैं उनसे यही कहता कि आप इतना कह दो कि मुझे मालूम नहींफिर मैं आपको परेशान नहीं करूंगा। फिर बात खत्म हो गई। अगर आप कहते हो मुझे मालूम है तो यह विवाद चलेगाचाहे जिंदगी मेरी खराब हो जाए और आपकी खराब हो जाए।
आठ महीने बीत गए तो उनको लगायह तो अब मुश्किल मामला हैयह परीक्षा का वक्त आने लगाऔरों का क्या होगा?
धीरे—धीरे यह हालत हो गई कि और विद्यार्थियों ने तो आना ही बंद कर दिया क्लास में कि सार ही क्याये दो आदमी लड़ते हैंआगे तो बात बढ़ती ही नहीं! बढ़ सकती भी नहीं। क्योंकि ऐसा कोई भी उत्तर नहीं है जिसमें प्रश्न न पूछे जा सकें। हर उत्तर नए प्रश्न पैदा कर जाता है।
हीअगर उन्होंने जरा भी विनम्रता दिखाई होतीबात हल हो गई होती। मैंने उनसे बार—बार कहा कि आप एक दफे कह दो कि मुझे इसका उत्तर नहीं मालूमबात खत्म हो गईफिर अशिष्टता है आपसे पूछना। लेकिन आप कहते हो मालूम हैतो मजबूरी हैफिर मुझे पूछना ही पड़ेगा।
उन्होंने तो इस्तीफा दे दियावे तीन दिन छुट्टी ले कर घर बैठ गए। उन्होंने कहामैं तो आऊंगा ही तब जब यह विद्यार्थी वहा नहीं रहेगा!
आश्चर्य को तुम बचने नहीं देते। अब यह स्वाभाविक थाक्योंकि मेरी परीक्षा के पत्र उन्हीं के हाथ में थे। यह तो तय ही था कि मैं फेल होने वाला हूं। इसमें तो कोई शक—सुबहा नहीं था। उनको भी लगता था कि धीरे—धीरे मुझे समझ आ जाएगी कि परीक्षा करीब आ रही हैतो अब मुझे चुप हो जाना चाहिए। मैंने उनको कहापरीक्षा वगैरह की मुझे चिंता नहीं है। यह प्रश्न अगर हल हो गया तो सब हल हो गया।
अगर हम सम्मान चाहते हैं तो स्वभावत: हमें राजी होना होगा—लोग जो कहते हैं वही मान लेने को राजी हो जाना होगा।
तो तुमने पूछा है : 'किस कारण सेकिस महंत आकांक्षा से आश्चर्य मर जाता है?'
अहंकार की आकांक्षा से आश्चर्य मर जाता है। सफल होना है तो आश्चर्य से काम नहीं चलेगा। आश्चर्य से भरे हुए लोग असफल होंगे ही। वे कहीं भी सफल नहीं हो सकतेक्योंकि सफल होने के लिए दूसरों का साथ जरूरी है। सफल होने के लिए सम्मान पाना जरूरी है। सफल होने के लिए... दूसरों के बिना सफलता का उपाय कहां है?
अगर तुम असफल होने को राजी हो तो फिर तुम्हारे आश्चर्य को कोई भी मार नहीं सकता। लेकिन यह बड़ा कठिन है। असफल होने को कौन राजी होगा! अगर तुम ना—कुछ होने को राजी हो तो तुम्हारा आश्चर्य कोई भी मार नहीं सकता।
लेकिन अहंकार की स्वाभाविक आकांक्षा होती है : सर्टिफिकेट होंपुरस्कार मिलेंशिक्षक सम्मान करेंमां —बाप सम्मान करेंगांवनगरसमाज सम्मान करेलोग कहें कि देखोकैसा सुपुत्र हुआ! लेकिन तब आश्चर्य मरेगा। तुम्हारे भीतर का काव्य मर जाएगा। तुम्हारे भीतर का कुतूहल मर जाएगा। तुम्हारे भीतर की वह जो तरंगायितरहस्य अनुभव करने की क्षमता हैवह जड़ हो जाएगी! तुम पथरीले हो जाओगे। तुम्हारे जीवन की रसधार सूख जाएगी। तुम एक मरुस्थल हो जाओगे। सफल हो जाओगेलेकिन सफल होने में जीवन गंवा दोगेमरने के पहले मर जाओगे।
मैं तुमसे कहता हूं. असफल रहनाकोई फिक्र नहींआश्चर्य को मत मरने देना! क्योंकि आश्चर्य परमात्मा तक पहुंचने का द्वार है। भरो अपने को आश्चर्य से! जितना विराट तुम्हारा आश्चर्य होजितनी गहन तुम्हारी जिज्ञासा होउतनी ही बड़ी संभावना है तुम्हारे भीतर विराट के उतरने की। पूछोगेपुकारोगेखोजोगे—तो मिलेगा।
जीसस ने कहा है : खटखटाओतो द्वार खुलेंगे! पूछोतो उत्तर मिलेगा। मांगोतो भर दिए जाओगे!
लेकिन अगर तुम्हारे भीतर संवेदनशीलता ही नहींतुम पूछते ही नहींतुम खोजते ही नहींतुम यात्रा पर जाते ही नहींतुम बैठे हो गोबर—गणेश की तरह..। हालांकि सब तुम्हारी बड़ी प्रशंसा करते हैं कि देखोगणेशजी कितने अच्छे मालूम होते हैं!
अक्सर ऐसा होता है कि जितना गोबर—गणेश बच्चा होमां—बाप उसकी उतनी ही प्रशंसा करते हैं। बैठा रहे मिट्टी के लौंदे जैसातो कहते हैं देखो गणेशजी कैसे प्यारे! मगर यह तो मर गया बच्चापैदा होने के पहले मर गया। अगर बच्चा उपद्रवी है उपद्रवी का मतलब ही यह होता है कि मां—बाप की धारणाओं को तोड़ता है। उपद्रवी का अर्थ ही होता है कि ऐसे प्रश्न उठाता है जिनके उत्तर मां —बाप के पास नहींऐसी जीवन—शैली सीखता हैजिसकी स्वीकार की क्षमता और हिम्मत मां—बाप में नहीं। अगर मां—बाप आस्तिक हैं तो बच्चा ऐसे प्रश्न उठाता है जिनसे नास्तिकता की गंध आती है। अगर मां —बाप परंपरावादी हैं तो बच्चा ऐसी बातें उठाता हैजिनसे लीक टूटतीपरंपरा टूटती। बच्चा लकीर का फकीर नहीं है।
तो सारा समाजइतना बड़ा समाजराज्यपुलिसअदालतें—सब आश्चर्य की हत्या करने को बैठे हैं। जब तुम्हारा आश्चर्य मर गया तब तुम यंत्रवत हो गए,फिर तुम योग्य हो गएकाम के हो गए कुशल हो गए। फिर तुम पूछोगे नहींतुम प्रश्न नहीं उठाओगेतुम चुपचाप जो कहा जाएगाकरोगे। देखामिलिट्री में यही करते हैं वे! मिलिट्री में घंटों कवायद करवाते रहते हैं। कहते हैं. बाएं घूमदाएं घूम! कोई पूछे कि तीन—तीन चार—चार घंटेबाएं—दाएं घूम क्यों करवा रहे हो?उसके पीछे बड़ा मनोवैज्ञानिक कारण है। वे व्यक्ति के भीतर व्यक्तित्व को मारना चाहते हैं। वे कहते हैं : जब हम कहें बाएं घूम तो तुम बाएं घूमो। तुम्हारे भीतर ऐसा प्रश्न नहीं उठना चाहिए. क्यों?
किसी साधारण आदमी से सड़क पर खड़े हो कर कहो कि बाएं घूम तो वह कहेगा : क्योंस्वाभाविक हैकिसलिए बाएं घूमेंअब कोई कारण हो तो बाएं घूमेंलेकिन मिलिट्री में अगर तुम कहो कि किसलिए बाएं घूमेंक्या कारण है—तो तुम गलत बात पूछ रहे हो। कारण पूछने का सवाल नहीं—आज्ञा मानना है। तुम्हारे मस्तिष्क को इस तरह से ढालना है कि तुमसे जो कहा जाएतुम बिना सोचे कर सको—यही कुशलता हैएफीसिएंसी। क्योंकि सोचने में तो समय लगता है। तुमसे कहाबाएं घूमोतुम सोचने लगे कि घूमें कि न घूमें कि फायदा क्या कि मतलब क्याऔर फिर दाएं घूमना पड़ेगा और फिर यहीं आना पड़ेगातो थोड़ी देर में घूम कर लोग यहीं आ जाएंगेहम यहीं खड़े रहेंसार क्या है—तो तुम सैनिक नहीं बन सकते।
सैनिक बनने का अर्थ ही यही है कि तुम्हारे भीतर विचार की कोई भी ऊर्मि न रह जाएविचार की कोई तरंग न रह जाएतुम बिलकुल जड़वत हो जाओ;जब कहा बाएं घूमतो तुम ऐसे यंत्रवत घूम जाओ कि तुम चाहो भी अपने को रोकना तो न रोक सको।
विलियम जेम्स ने उल्लेख किया है कि पहले महायुद्ध के वक्त वह एक होटल में बैठा हुआ है। अपने मित्रों से बात कर रहा है। तभी बाहर से एक युद्ध से रिटायर सैनिक अंडों की एक टोकरी लिए सिर पर जा रहा है। उसने मजाक मेंसिर्फ यह दिखाने के लिए कि आदमी कैसा यांत्रिक हो जा सकता हैहोटल में जोर से कहा. अटेंशन! वह जो सैनिक बाहर जा रहा था अंडे की टोकरी लिएवह अटेंशन में खड़ा हो गया। उसको नौकरी छोड़े भी दस साल हो गए हैं! वे सारे अंडे सड़क पर गिर करबिखर कर टूट गए। वह बड़ा नाराज हुआ। उसने कहा : यह किस नासमझ ने अटेंशन कहाविलियम जेम्स ने कहा कि तुम्हें मतलबहम अटेंशन कहने के हकदार हैंतुम मत होओ अटेंशन!
उसने कहा. यह भी हो सकता हैतीस साल तकअटेंशन यानी अटेंशन—अब तो वह खून में समा गया है। ऐसी मजाक करनी ठीक नहीं।
यह यंत्रवतता सैनिक में पैदा करनी पड़ती है। तभी तो एक सैनिक को कहा—मारोगोली चलाओ! तो वह यह नहीं पूछता कि इस आदमी ने मेरा बिगाड़ा क्याजिस पर मैं गोली चलाऊवह यह नहीं सोचता कि इसकी पत्नी होगी घरइसके बच्चे होंगेजैसे मेरी पत्नी और मेरे बच्चे हैं। वह यह नहीं सोचता कि इसकी की मां होगीशायद इसी पर निर्भर होगी। वह यह नहीं सोचता कि इसका बूढ़ा बाप होगाशायद आंखें खो गई होंगीयही उसके जीवन की लकड़ी हैसहारा है। वह कुछ नहीं सोचता। 'गोली मार! '—तो वह गोली मारता हैक्योंकि वह यंत्रवत है।
जिस आदमी ने हिरोशिमा पर ऐटम बम गिराया और एक ऐटम बम के द्वारा एक लाख आदमी दस मिनिट के भीतर राख हो गएवह वापिस लौट कर सो गया। जब सुबह उससे पत्रकारों ने पूछा कि तुम रात सो सकेउसने कहाक्योंखूब गहरी नींद सोया! आज्ञा पूरी कर दीबात खत्म हो गई। इससे मेरा लेना—देना ही क्या है कि कितने लोग मरे कि नहीं मरेयह तो जिन्होंने पॉलिसी बनाईवे जानेंमेरा क्यामुझे तो कहा गया कि जाओबम गिरा दो फलां जगह—मैंने गिरा दिया। काम पूरा हो गयामैं निश्चित भाव से आ कर सो गया।
एक लाख आदमी मर जाएं तुम्हारे हाथ से गिराए बम सेऔर तुम्हें रात नींद आ जाए— थोड़ा सोचोमतलब क्या हुआएक लाख आदमी! राख हो गए! इनमें से तुम किसी को जानते नहींकिसी ने तुम्हारा कुछ कभी बिगाड़ा नहींतुमसे किसी का कोई झगड़ा नहीं। इनमें छोटे बच्चे थे जो अभी दूध पीते थेजिन्होंने किसी का कुछ बिगाड़ना भी चाहा हो तो बिगाड़ नहीं सकते थे। इनमें गर्भ में पड़े हुए बच्चे थेमां के गर्भ में थेअभी पैदा भी न हुए थे—उन्होंने तो कैसे किसी का क्या बिगाड़ा होगा! एक छोटी बच्ची अपना होमवर्क करने सीढ़ियां चढ़ कर ऊपर जा रही थीवह वहीं की वहीं राख हो कर चिपट गई दीवाल से! उसका बस्ता,उसकी किताबें सब राख हो कर चिपट गए!
लाख आदमी राख हो गए और यह आदमी कहता हैमैं रात सो सका मजे से!
यह सैनिक है। सैनिक का मतलब इतना है कि वह आज्ञा का पालन करे। दुनिया में आज्ञापालन करने वालों के कारण जितना नुकसान हुआ हैआज्ञा न पालन करने वालों के कारण नहीं हुआ। और अगर एक अच्छी दुनिया बनानी हो तो हमें आज्ञा मानने की ऐसी अंधता तोड़नी पड़ेगी। हमें व्यक्ति को इतना विवेक देना चाहिए कि वह सोचे कि कब आज्ञा माननीकब नहीं माननी।
थोड़ा सोचोयह आदमी यह कह सकता था कि ठीक हैआप मुझे गोली मार देंलेकिन लाख आदमियों को मैं मारने नहीं जाऊंगा। अगर मेरे मरने से लाख आदमी बचते हैं तो आप मुझे गोली मार दें। थोड़ा सोचो कि जिस सैनिक को भी कहा जाता कि हिरोशिमा पर बम गिराओऐटमवह कह देता मुझे गोली मार देमैं तैयार हूं मगर मैं गिराने नहीं जाता—दुनिया में एक क्रांति हो जाती।
क्या आदमी ने इतना बल खो दिया हैविचार की इतनी क्षमता खो दी हैमगर इसी के लिए कवायद करवानी पड़ती हैताकि धीरे — धीरेधीरे— धीरे विचार की क्षमता खो जाए।
सैनिक और संन्यासी दो छोर हैं। संन्यासी का अर्थ है. जो ठीक उसे लगता है वही करेगाचाहे परिणाम कुछ भी हो। और सैनिक का अर्थ है : जो कहा जाता है वही करेगाचाहे परिणाम कुछ भी
हो। संन्यासी बगावती होगा हीबुनियादी रूप से होगा। इसलिए मैं कहता हूं : धार्मिक आदमी विद्रोही
होगा ही। अगर कोई आदमी धार्मिक हो और विद्रोही न होतो समझना कि धार्मिक नहीं है। उसने सैनिक होने को संन्यासी होना समझ लिया है। वह मंदिर भी जाता हैपूजा कर आता हैलेकिन उसकी पूजा कवायद का ही एक रूप है। उसे कहा गया है कि ऐसी पूजा करो तो वह कर आता हैघंटी ऐसी बजाओ तो बजा आता हैपानी छिडकोगंगाजल डालोतिलक—टीका लगाओ—वह कर आता हैलेकिन यह सब कवायद है। यह आदमी धार्मिक नहीं हैक्योंकि धार्मिक आदमी तो वही है जो अपने अंतरविवेक से जीता है।
यह दुनिया धर्म के बड़े विपरीत है। यहां तीन सौ धर्म हैं जमीन परमगर यह दुनिया धर्म के बड़े विपरीत है। ये तीन सौ धर्म सभी धर्म के हत्यारे हैं। इन्होंने सब धर्म को मिटा डाला है और मिटाने की पूरी चेष्टा है। धर्म मिट जाता हैअगर तुम आज्ञाकारी हो जाओ। मैं तुमसे यह नहीं कहता कि अनाज्ञाकारी हो जाओ,खयाल रखना। मेरी बात का गलत अर्थ मत समझ लेना। मैं तुमसे कहता हूं. विवेकपूर्ण..। फिर जो ठीक लगे आज्ञा मेंबराबर करोऔर जो ठीक न लगेफिर चाहे कोई भी परिणाम भुगतना पड़ेकभी मत करो। तब तुम्हारे जीवन में फिर से आश्चर्य का उदभव होगा। फिर से तुम्हारे प्राणों पर जम गई राख झड़ेगी और अंगारा निखरेगा और दमकेगा। उस दमक में ही कोई परमात्मा तक पहुंचता है।
परमात्मा तक पहुंचने का मार्ग सैनिक होना नहीं है—परमात्मा तक पहुंचने का मार्ग संन्यासी होना है। और संन्यासी का अर्थ है : जिसने निर्णय किया कि सब जोखिम उठा लेगालेकिन अपने विवेक को न बेचेगासब जोखिम उठा लेगाअगर जीवन भी जाता हो तो गंवाने को तैयार रहेगालेकिन अपनी अंतस—स्वतंत्रता को न बेचेगा।
स्वतंत्रता का अर्थ स्वच्छंदता नहीं है। स्वतंत्रता का अर्थ विवेक है। स्वतंत्रता का अर्थ परम दायित्व है कि मैं अपना उत्तरदायित्व समझ कर स्वयं जीऊंगा,अपने ही प्रकाश में जीऊं—गाउधारपरंपरागतलकीर का फकीर हो कर नहीं। क्योंकि दुनिया की स्थितियां बदलती जाती हैं और लकीरें नहीं बदलतीं। दुनिया रोज बदलती जाती हैनक्‍शे पुराने बने रहते हैं। दुनिया रोज बदलती जाती हैआदेश पुराने हैं। अब तुम वेद से आदेश लोगेभटकोगे नहीं तो क्या होगा? तुम कुरान से आदेश लोगेगीता से आदेश लोगेभटकोगे नहीं तो क्या होगापढ़ो गीतासमझो गीतालेकिन आदेश सदा स्वयं की आत्मा से लेना। उपदेश ले लेना जहां से भी लेना होआदेश कहीं से भी मत लेना। उपदेश और आदेश का यही फर्क है।
उपदेश का अर्थ है : जहां भी शुभ बात सुनाई पड़ेसुन लेनागुन लेनासमझ लेना। लेकिन आदेश कहीं से मत लेना। आदेश के लिए तो तुम्हारे भीतर बैठा परमात्मा हैउसी से लेना।
आश्चर्य की क्षमता मर गई हैक्योंकि तुमने अहंकार को चाहाअहंकार की आकांक्षा में मर गई है। अगर तुम चाहते हो आश्चर्य फिर से जागेतो अहंकार की चट्टानों को हटाओ—बहेगा झरना आश्चर्य का। और वह आश्चर्य तुम्हें ताजा कर जाएगाकुंआरा कर जाएगानया कर जाएगा। फिर से तुम देखोगे दुनिया को जैसा कि देखना चाहिए। ये हरे वृक्ष कुछ और ही ढंग से हरे हो जाएंगे। ये गुलाब के फूल किसी और ढंग से गुलाबी हो जाएंगे।
यह जगत बड़ा सुंदर हैलेकिन तुम्हारी आंखों का आश्चर्य खो गया हैतुम्हारी आंखों पर पत्थर जम गए हैं। यह जगत अपूर्व हैक्योंकि प्रभु मौजूद है यहां,यह प्रभु से व्याप्त है! यहां पत्थर—पत्थर में परमात्मा छिपा हैइसलिए कोई पत्थर पत्थर नहीं हैयहां सिर्फ कोहिनूर ही कोहिनूर हैं। हर पत्थर से उसी का नूर प्रगट हो रहा हैउसी की रोशनी है। मगर तुम्हारे पास आश्चर्य की आंख चाहिए। इसलिए तो जीसस ने कहा है : धन्य हैं वे जो छोटे बच्चों की भांति हैंक्योंकि वे ही मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश पा सकेंगे। यहां वे आश्चर्य के संबंध में ही इंगित कर रहे हैं।

 तीसरा प्रश्न :

गुरु शिष्यों के साथ क्या कभी छिया —छी का खेल भी खेलता हैकृपा करके कहें।

छिया—छी ही तो पूरा का पूरा संबंध है गुरु और शिष्य का। कभी—कभी खेलता हैऐसा नहींबस वही तो संबंध है। और न केवल गुरु और शिष्य के बीच वैसा संबंध हैपरमात्मा और सृष्टि के साथ भी वैसा ही संबंध है। गुरु और शिष्य तो उसी विराट खेल को छोटे पैमाने पर खेलते हैं जिसे बड़े पैमाने पर परमात्मा सृष्टि के साथ खेल रहा है।
यहां परमात्मा सब जगह छिपा हैपुकार रहा है जगह—जगह से : आओमुझे छुओखोजो!जिस दिन तुम उसकी पुकार सुन लोगे और तुम उसे खोजने लगोगेउस दिन तुम पाओगे कि खोजने में इतना आनंद है कि तुम शायद कहने लगो कि जल्दी मत करना प्रगट हो जाने की।
तुम कभी छोटे थेजब तुमने खेला बच्चों का खेल छिया—छी का। एक ही कमरे में बच्चे खड़े हो जाते हैं छिप करकोई बिस्तर के नीचे दब गया हैकोई कुर्सी के पीछे छिप गया है—और सबको पता है कि कौन कहां हैक्योंकि सभी धीरे — धीरे आंख खोल कर देख रहे हैं कि कौन कहां हैफिर भी खेल चलता है। जिसने देख लिया हैवह भी इधर—उधर दौड़ता हैवहां नहीं आता जहां कि तुम छिपे होक्योंकि खेल तो खेलना हैनहीं तो अगर सीधे चले आएजहां तुम छिपे हो तो खेल खत्म हो गया। तुम्हें भी पता है कि वह कहां से आ रहा है। तुम भी देख रहे होवह भी देख रहा हैफिर भी खेल चल रहा है।
आत्यंतिक अर्थों में यही अर्थ है लीला का। परमात्मा ऐसा नहीं छिपा है कि मिले नहींऐसा छिपा है कि तुम हाथ बढ़ाओ और मिल जाए। लेकिन जिस दिन तुम समझोगे कि इतने पास छिपा हैतुम कहोगे जरा खेल चलने दो।
चुभते ही तेरा अरुण बाण
बहते कण—कण से फूट—फूट
मधु के निर्झर से सजल गान
मेरे छोटे जीवन में
देना न तृप्ति का कणभर
रहने दो प्यासी आंखें
भरती आंसू के सागर
तुम मानस में बस जाओ
छिप दुख की अवगुंठन से
मैं तुम्हें ढूंढने के
मिस
परिचित हो लूं कण—कण से
तुम रहो सजल आंखों की
सित— असित मुकुरता बन कर
मैं सब कुछ तुमसे देखूं
तुमको न देख पाऊं पर।
भक्त कहता है सब तुमसे देखूंतुम मेरी आंखों में छिप जाओमैं तुम्हारे द्वारा ही सब देखूं— फिर भी तुम्हें न देख पाऊं। और यह खेल चलता रहे।
तुम मानस में बस जाओ
छिप दुख की अवगुंठन से
मैं तुम्हें ढूंढने के
मिस
परिचित हो लूं कण—कण से
ढूंढता फिरूं तुम्हें! और तुम्हें ढूंढने के बहाने...
मैं तुम्हें ढूंढने के मिस
तुम्हें ढूंढने के बहाने
परिचित हो लूं कण—कण से!
खोजता फिरूंएक—एक कण में तुम्हें पुकारता फिरूं! लहर—लहर में तुम्हें झाकता फिरूं—और इस बहाने सारे अस्तित्व से परिचित हो लूं!
शायद परमात्मा के छिपने का राज और रहस्य भी वही है कि तुम उसे खोजने के बहाने इस अस्तित्व के महारहस्य से परिचित हो जाओ। वह तब तक छिपा ही रहेगा जब तक कि इस जगत के समग्र रहस्य से तुम परिचित नहीं हो जाते। तुम एक जगह उसे खोज लोगेवह दूसरी जगह छिप जाएगा कि चलो अब दूसरी जगह से भी परिचित हो लो। तुम यहां उसे खोज लोगेवह वहा छिप जाएगाताकि तुम वहा से भी परिचित हो लो। ऐसे वह तुम्हें लिए चलता हैतुम्हें अपने पीछे दौड़ाए
चलता है।
जब भक्त समझ पाता है ठीक से कि यह खेल हैचिंता मिट जाती है उसी क्षण। फिर खोजना एक तनाव नहीं रह जाताएक आनंद हो जाता है। फिर खोजने में कोई अधैर्य भी नहीं होता।
मेरे छोटे जीवन में
देना न तृप्ति का कणभर!
फिर तो भक्त कहता हैमुझे तृप्त मत कर देनाक्योंकि मैं तृप्त हो गया तो फिर तुम्हें न खोजूंगा। तुम्हें खोजना—इसके मुकाबले क्या तृप्ति में रस हो सकता हैतुम्हारी प्रतीक्षातुम्हारा इंतजार— इससे ज्यादा और रस कहां हो सकता है?
मेरे छोटे जीवन में
देना न तृप्ति का कणभर
रहने दो प्यासी आंखें
भरती आंसू के सागर
तुम फिक्र मत करनातुम ज्यादा परेशान मत हो जाना कि मेरी आंख के आंसू सागर बनाए दे रहे हैं। तुम फिक्र मत करना। इसमें मुझे आनंद आ रहा है। मैं रसमग्न हूं। यह मैं दुख से नहीं रो रहा हूं! भक्त आनंद से रोने लगता हैंअहोभाव से रोने लगता है। उसके आसुओ में फूल हैंकांटे नहींशिकायत नहींशिकवा नहींप्रार्थना हैकृतज्ञता—ज्ञापन हैआभार हैशुक्रिया है!
जो बड़े पैमाने पर परमात्मा और सृष्टि के बीच हो रहा हैएक छोटे पैमाने पर वही खेल गुरु और शिष्य के बीच है। और छोटे पैमाने पर तुम खेलना सीख जाओ तो फिर बड़े पैमाने पर खेल सकोगेइतना ही उपयोग है।
जैसे एक आदमी तैरना सीखने जाता है तो नदी के किनारे तैरना सीखता हैएकदम से नदी की गहराइयों में नहीं चला जाताडूबेगा नहीं तो। किनारे पर,जहां उथला—उथला जल हैजहां गले—गले जल हैवहां तैरना सीखता हैफिर धीरे — धीरे गहराई में जाना शुरू होता है।
गुरुजैसे किनारा है परमात्मा कावहां तुम थोड़ा खेल सीख लोवहां तुम थोड़ी क्रीड़ा कर लो। फिर जब तुम कुशल हो जाओ तैरने में और तुम जब खेल के नियम सीख जाओ और लीला का अर्थ समझ जाओ—तो फिर जाना गहन मेंगहरे में! फिर उतरना सागरों में।
तो गुरु तो केवल पाठ है परमात्मा में उतरने का। इसलिए जो बड़े पैमाने पर सृष्टि में हो रहा है वही छोटे पैमाने पर गुरु और शिष्य के बीच घटता है।
ठीक तुमने पूछाछिया—छी का खेल ही घटता है।
एक बात गुरु तुमसे कहता हैतुम उसे पूरी करने लगते होवह तत्क्षण दूसरी कहने लगता है। तुम एक बात मानने—मानने के करीब आते कि वह सब उखाड़ डालता है। तुम घर बनाने को होते कि वह आधार गिरा देता है। तुम जल्दी में हो कि किसी तरह हल हो जाएगुरु इतनी जल्दी में नहीं है। गुरु कहता है कि जो जल्दी हल हो जाएगावह कोई हल न हुआ। यह जीवन का ऐसा प्रगाढ़ रहस्य है कि यह जल्दी हल नहीं हो सकता। ये कोई मौसमी फूल के पौधे नहीं हैं। ये बड़े दरख्त हैं जो आकाश को छूते हैंजो हजारों साल जीते हैंजो चांद—तारों से बात करते हैंइनमें प्रतीक्षा..!
मैंने सुना हैमहर्षि कश्यप की पत्नी को बड़ी आकांक्षा थी कि एक ऐसा पुत्र हो जो महासत्व हो। साधारण पुत्र की आकांक्षा नहीं थी। कश्यप की पत्नी थीसाधारण पुत्र की आकांक्षा भी क्या करती! कम से कम कश्यप जैसा तो हो। कश्यप से बड़ा होऐसी आकांक्षा थी। महासत्व होबोधिसत्व होबुद्ध जैसा हो! तो उसने बड़ी प्रार्थनाएं कीं। कहते हैंईश्वर उस पर प्रसन्न हुआ। और विनीता उसका नाम थाउसे एक डिम्ब दिया गया कि उससे महासत्व संतान होगी। लेकिन वह बड़ी हैरान हुई। जैसा नियम होना चाहिए कि नौ महीने में बच्चा पैदा होबच्चे की कोई खबर ही नहीं। नौ महीने क्यासालों बीतने लगे। वह बड़ी परेशान हुई। वह जल्दी में थी कि बच्चा होना चाहिए। वह के होने के करीब आ गई तो उसने डिम्ब फोड़ डाला। बच्चा निकलालेकिन आधा निकला। जो बच्चा पैदा हुआ,पुराणों में उसी का नाम अरुण है। वही बच्चा बाद में सूर्य का सारथी बना।
अरुण जब पैदा हुआ तो उसने बड़े क्रोध से अपनी मां से कहा कि सुनतू महासत्व संतान चाहती हैलेकिन महाप्रतीक्षा करने की तेरी कुशलता और क्षमता नहीं है। तूने बीच में ही अंडा फोड़ दिया! मैं अभी आधा ही बढ़ पाया हूं।
पर मां ने कहाप्रतीक्षा हो गईसालों बीत गए। तो उस बेटे ने कहा फिर महासत्व संतान की आकांक्षा नहीं करनी चाहिए। फिर साधारण बच्चा चाहिए तो नौ महीने में मिल जाता है। महासत्व चाहिए तो महाप्रतीक्षा चाहिए।
शिष्य तो बड़ी जल्दी में होते हैं। उन्हें तो लगता हैअभी हो जाएकोई दे दे तो झंझट मिटे। तुम्हें रस नहीं है खोज का। गुरु जानता है कि खोज में रस इतना हो जाए जब कि तुम यह भी कह सको कि अब न भी मिलेगा तो चलेगाखोज ही इतनी रसपूर्ण हैकौन फिक्र करता है! उसी दिन मिलता है। इसे तुम खयाल में रख लेना गांठ बांध कर।
मैं फिर से दोहरा दूं. जिस दिन तुम यह कहने में समर्थ हो जाओगे कि अब तू जानमिलने—जुलने की हमें फिक्र नहींलेकिन खोज इतनी आनदपूर्ण है,हम खोज करते रहेंगेतू छिपता रह। उसी दिन खोज व्यर्थ हो गईउसी दिन छिपने का कोई अर्थ न रहा। जब खोज ही मिलन का आनंद बन गई और जब मार्ग ही मंजिल मालूम होने लगातो फिर मंजिल छिप नहीं सकतीउसी दिन मिलन घटता है। महाप्रतीक्षा चाहिए।

            तुम अमर प्रतिज्ञा हो,
मैं पग विरह पथिक का धीमा।
आते — जाते मिट जाऊं,
पाऊं न पंथ की सीमा।
पाने में तुमको खोऊं,
खोने में समझूं पाना।
यह चिर अतृप्ति हो जीवन,
चिर तृष्णा हो मिट जाना।
मेघों में विद्युत — सी छवि,
उनकी बन कर मिट जाती;
आंखों की चित्रपटी में
जिसमें मैं आंक न पाऊं।
वह आभा बन खो जाते
शशि किरणों की उलझन में
जिसमें उनको कण—कण में
ढूंढंअ पहचान न पाऊं।
एक अनंत प्रतीक्षा चाहिएमहंत प्रतीक्षा चाहिए।
तो गुरु कई बार तुमसे कहता है : अभी हुआ जाताअभी हुआ जाताबस होने को ही है! वह सिर्फ इसलिएताकि तुम खोज में लगे रहोताकि तुम्हारा धैर्य बंधा रहे। 'पहुंचेपहुंचे' —गुरु कहता जाता है—'देखो किनारा करीब आ रहा हैपक्षी उड़ते दिखाई पड़ने लगे! देखो दूर किनारे वृक्ष दिखाई पड़ने लगेअब हम पहुंचते हैं!ताकि तुम्हारी हिम्मत बंधी रहे।
तुम्हारी हिम्मत बड़ी कमजोर है। और जैसे ही तुम किसी स्थिति में थिर होने लगते होकिसी मकान के नीचे घर बनाने लगते हो और किसी पड़ाव को मंजिल समझने लगते हो—तत्त्वा गुरु डेरा उखाड़ देता है। वह कहता हैचलो बस हो गयाअभी मंजिल बहुत है। अभी बहुत दूर जाना है। अभी यहां घर नहीं बना लेना है। ऐसी छिया—छी चलती है। धीरे — धीरे तुम इस राज को समझने लगते हो। अनुभव से ही समझ में आता है। धीरे— धीरे तुम समझने लगते हो कि वास्तविक बात पाना नहीं हैखोजना है। वास्तविक बात पहुंच जाना नहीं हैपहुंचने की चेष्टा करते रहना है। वास्तविक बात यात्रा हैमंजिल नहीं। हालांकि मैं समझता हूं तुम्हारी बड़ी जल्दी है किसी तरह मंजिल मिल जाएकोई चोर—दरवाजा होवहा से पहुंच जाएं या कोई रिश्वत चलती हो तो किसी द्वारपाल को रिश्वत दे दें और अंदर हो जाएंया कोई शार्टकट! मगर न कोई शार्टकट हैन कोई चोर दरवाजा हैन रिश्वत चलती है। न तुम्हारे पुण्य से कुछ होगान तुम्हारी तपश्चर्या से कुछ होगा।
अनंत यात्रा है परमात्मा। परमात्मा मंजिल हैइस भाषा में सोचा कि तुम भूल में पड़ोगे। क्योंकि मंजिल का मतलब है : फिर उसके बाद बैठ गएफिर कुछ भी नहीं। परमात्मा सतत जीवन हैइसलिए बैठना तो घट ही नहीं सकतायात्रा होती रहेगी। परमात्मा प्रक्रिया है—वस्तु नहीं। वस्तु की तरह सोचोगे तो भांति होगीभूल होगी। परमात्मा प्रक्रिया है—चलते रहने मेंजीते रहने मेंबहते रहने में। जैसे नदी बही जाती है सागर की तरफ और सागर उडू—उडु कर नदी की तरफ बहता रहता है—ऐसे ही साधक खोजते रहते परमात्मा कोपरमात्मा साधकों को खोजता रहता है। यह खेल छिया—छी का है।
जिस दिन समझ में आ जाएगा कि यह खेल हैतनाव समाप्त हो जाएगाफिर खेल में पूरा मजा आएगा। हम तो ऐसे पागल हैं कि खेल में भी तनाव बना लेते हैं। तुमने देखा दो आदमी ताश खेल रहे होंकैसा सिर भारी कर लेते हैंलड़ने —मारने को उतारू हो जाते हैं! तलवारें खिंच जाती हैं शतरंज के खेलों में! लोगों ने एक—दूसरे की हत्या कर दी है शतरंज खेलते हुए। ऐसे पगला जाते हैं! और कुछ भी नहीं है वहां। न हाथी हैंन घोड़े हैंन राजा हैंन कुछ है—लकड़ी केया बहुत हुए हाथी—वत के। सब नकली हैंमगर ऐसा रस पैदा हो जाता है कि जी—जान की बाजी लग जाती है। लोग खेल में इतनी गंभीरता ले लेते हैं और साधक वही है जो गंभीरता में भी खेल ले ले।
संसारी वही है जो खेल को भी गंभीर बना लेता है। और संन्यासी वही है जो गंभीरता को भी खेल बना लेता है।
तुम अमर प्रतिज्ञा होमैं
पग विरह पथिक का धीमा!
सुनो—
तुम अमर प्रतिज्ञा होमैं
पग विरह पथिक का धीमा।
आते —जाते मिट जाऊं
पाऊं न पंथ की सीमा।
भक्त कहता है पंथ की सीमा कहा पानीकिसको पानीपा कर करना क्या?
आते —जाते मिट जाऊं
पाऊं न पंथ की सीमा।
पाने में तुमको खोऊं
खोने में समझूं पाना!
यही छिया—छी का अर्थ है।
यह चिर अतृप्ति हो जीवन
चिर तृष्णा हो मिट जाना!
तुम्हें खोजते —खोजते मिट जाऊं! तुम्हारी तृष्णा बनी ही रहे! तुम्हारी प्यास जलती ही रहे! मैं तुम्हें पा कर तृप्त नहीं हो जाना चाहता— भक्त कहता है। भक्त कहता हैतुम्हारी अतृप्ति इतनी प्यारी!
मेघों में विद्युत—सी छवि
उनकीबनकर मिट जाती।
कभी—कभी बनेगी परमात्मा की छविमिटेगी परमात्मा की छवि!
आंखों की चित्रपटी में
जिससे मैं आंक न पाऊं।
वह बनेगी और मिटेगी इतनी शीघ्रता से कि तुम्हारे मन में तुम उसको संजो न पाओगे। तुम मन में प्रतिमा न बना पाओगे। तुम्हारा अहोभाव अहोभाव ही रहेगा। तुम यह न कह पाओगे : मैंने जान लिया। इसलिए उपनिषद कहते हैं. जो कहता है मैंने जान लियाउसने नहीं जाना। और जो कहता है मुझे कुछ भी पता नहींशायद उसे पता हो।
मेघों में विद्युत—सी छवि
उनकीबन कर मिट जाती।
आंखों की चित्रपटी में
जिससे मैं आंक न पाऊं।
कोई प्रतिमा नहीं बन पाती। झलक आती और जाती—और इतनी त्वरा सेइतनी तीव्रता से कि तुम मुट्ठी नहीं बांध पाते। बाधोगे भी तो मुट्ठी खाली रह जाएगी। परमात्मा मुट्ठी में बांधा नहीं जा
सकता—न शब्दों मेंन सिद्धातो  मेंन शास्त्रों में। कहीं भी उसकी छवि तुम बांध न पाओगे। वह अरूप अरूप ही रहता। दर्शन भी हो जाते हैंफिर भी अरूप रहता। मिल भी जाताफिर भी पाने को सदा शेष रहता।
वह आभा बन खो जाते
शशि किरणों की उलझन में
जिसमें उनको कण—कण में
ढूंढंअ पहचान न पाऊं।
भक्त को जल्दी नहीं है। और जिसे जल्दी नहीं हैजल्दी ही घटना घट जाती है। और जिसे बहुत जल्दी हैउसे अनंत— अनंत काल तक भटकना पड़ता है और घटना नहीं घटती।
अगर तुम चाहते हो अभी मिल जाए परमात्मातो तुम अनंत प्रतीक्षा के लिए राजी हो जाओ। कह दो : जब मिलना हो मिल जानाकुछ जल्दी नहीं है। हम खोजते रहेंगेहम खोज में बहुत तृप्त हैं। हम अतृप्ति में भी बहुत तृप्त हैं। हमारे ये विरह के आंसू भी बड़े आनदपूर्ण हैं।

 आखिरी प्रश्न :

आप भीतर के प्रकाश की तनी बात करते हैंलेकिन मेरा अनुभव कुछ और है। जब भी ध्यान में मेरे विचार शांत होते हैं तो मेरे भीतर एक घना अंधकार घिरता हैजो ठंडा और प्रीतिकर लगता है। कृपापूर्वक समझाएं कि यह क्या है?

सुबह होने के पूर्व रात गहन रूप से अंधेरी हो जाती है। और अंधेरे के गर्भ से ही सुबह का जन्म होता है। तो जब मैं तुमसे निरंतर बात करता हूं प्रकाश कीतुम यह मत समझ लेना कि तुम भीतर जाओगे तो तत्‍क्षण प्रकाश मिल जाएगा। पहले तो गुजरना पड़ेगा गहन रात्रि से। उसी रात्रि के अंत पर सुबह हैप्रकाश है।
ईसाई फकीरों ने इस अवस्था को 'डार्क नाइट ऑफ द सोलकहा है—आत्मा की अंधेरी रात। सिर्फ ईसाई फकीरों ने ऐसा प्यारा नाम दिया हैकिसी और ने नहीं। और बड़ा ठीक किया है। क्योंकि सभी शास्त्रकुरानवेदउपनिषद परमात्मा के प्रकाश—रूप की बात करते है—वह आत्यंतिक बात है। लेकिन जब साधक भीतर उतरेगा तो प्रकाश एकदम से नहीं मिलता। और अगर एकदम से मिलता हो तो जरा संदेह करनाक्योंकि वह प्रकाश कल्पना का होगावास्तविक नहीं हो सकता। वह तुमने




सुन—सुन करशास्त्रों में पढ़—पढ़ कर कि परमात्मा प्रकाश—रूप हैप्रकाश रूप...। और कई तो ऐसे पागल हैं जिनका हिसाब नहीं!
चार—छ: दिन पहले एक व्यक्ति ने संन्यास लिया। उन्होंने कहा कि मैंने बालयोगेश्वर से दीक्षा ली हैतो उन्होंने मुझे समझाया था कि आंख को अंगूठों से दबाने से प्रकाश का अनुभव होता हैबड़ा अनुभव होता है। मैं दबाता हूं आंखबड़ा अनुभव होता है। तो वह मैं जारी रखूं कि बंद करूंअब क्या पागल होआंख को दबाओगे अंगूठे से तो तिलमिलाहट पैदा होने से रोशनी मालूम होती हैवह तो किसी को भी मालूम होती हैउससे अध्यात्म का कोई संबंध हैकोई भी आंख को जोर से दबाएगा तो तिलमिलाहट पैदा होती हैतिलमिलाहट से रोशनी मालूम होती है। वह रोशनी तो सिर्फ आंख के दबाने के कारण मालूम हो रही है। इसको तुम आध्यात्मिक प्रकाश समझ रहे होऔर वे दो साल से यही काम कर रहे हैं। उसमें उनकी आंखें भी खराब हो गई हैं। क्योंकि जब बहुत आंखों को दबाओगे...। और फिर धीरे— धीरे रस आने लगातो फिर और ज्यादा दबाने लगे। क्योंकि जितना दबाओ उतना प्रकाश दिखाई पड़ता हैगजब हो रहा है! इसको बालयोगेश्वर ज्ञान कहते हैं। आंख में दबाने से जो रोशनी पैदा होती है—यह शान है।
अब यह मामला ऐसा है कि किसी की भी आंख दबा दोउसको रोशनी दिखाई पड़ती हैवह भी चकित हो जाता है कि यह तो बात बिलकुल ठीक हो रही है! हमें पता ही नहीं थाबड़ा सीधा—सुगम उपाय मिल गया!
या फिर ऐसे लोग हैं जो कहते हैंरोशनी की भीतर धारणा करो। आंख बंद कर लोदोनों आंखों के मध्य में देखो कि एक दीये की ज्योति जल रही है या एक प्रकाश का बिंदुउस पर ध्यान रखो। अगर तुम ऐसी कल्पना करोगे तो धीरे — धीरे कल्पना प्रगाढ़ हो जाएगी। तुम्हें रोशनी दिखाई पड़ने लगेगीमगर यह झूठी रोशनी है।
धर्म ज्योति ने पूछा है यह प्रश्न। ठीक हो रहा है! अंधेरी रात से गुजर कर ही जो सुबह होगीजिस सुबह को तुम नहीं ला सकतेजो अपने—आप आती है सुबहवह अंधेरी रात से गुजर कर आती है। तुम अंधेरी रात में शांति से गुजरोजाओ। प्रकाश करीब आने से पहले रात बहुत अंधेरी हो जाएगी। मगर शुभ हो रहा हैक्योंकि अंधेरे के साथ एक ठंडा और प्रीतिकर भाव है। तो बिलकुल शुभ हो रहा है। भय न हो अंधेरे सेप्रेम हो अंधेरे सेतो सुबह ज्यादा दूर नहीं। अगर भय हो तो तुम भागने लगोगे। भागने लगे तो सुबह से दूर हो जाओगे। भागोगे तो अंधेरे सेदूर हो जाओगे सुबह से।
और ठंडाशीतल.. .बिलकुल शुभ हो रहा है। ठंडा और शीतल ही है अंधेरे का अनुभव। वह तो भय के कारण हम अनुभव नहीं कर पाते। बचपन से ही अंधेरे के संबंध में हमारी गलत धारणा हो जाती है। बच्चा डरता है अंधेरे सेक्योंकि अकेला रह जाता है। अंधेरे में घबराता है कि कोई आ न जाएकुछ मार न दे,कोई चोट न कर देकुछ गिर न पड़े। छोटा बच्चा! वह भय बैठ जाता है। और फिर मनुष्य—जाति के इतिहास में भी आज से कोई दस हजारबीस हजार साल पहले जब आदमी जंगलों में थागुफाओं में थाआग का आविष्कार न हुआ था—तो रात बड़ी घबराने वाली थी। क्योंकि रात को ही जंगली जानवर हमला करते थेदिन तो किसी तरह गुजर जाता थारात में हमला होता था। दिन में तो सूरज की रोशनी होती थीआदमी अपने को बचा लेताभाग जाता। रात
को सिंह गरजते और शिकार करते। और हजार तरह के जंगली जानवर थेउन सबके बीच बचना बड़ा कठिन था। तो रात के साथ उन सबका जोड़ हो गया।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि प्रत्येक मनुष्य के अचेतन मन में वह गुफा—मानव का अनुभव अभी तक पड़ा हैवह गया नहीं। वह शरीर की स्मृति में समाविष्ट हो गया है। तो इसलिए हम अंधेरे से डरते हैं। अब तो कोई कारण भी नहीं हैघर में बैठे हैंबिजली पास में हैजब बटन दबाओ रोशनी हो जाएकोई झंझट भी नहीं है ऐसी। देश में अनुशासन—पर्व चल रहा है—कोई उपद्रव नहीं हैकोई डर का कारण नहीं है। अपने कमरे में बैठे हैंतो भी अंधेरे से घबरा रहे हैं। वह बीस हजार साल पहले आदमी का जो अनुभव थावह तुम्हारी नस—नस में समाया हुआ है। तुम भी उसी आदमी से पैदा हुए हो। श्रृंखला उसी से बंधी है। वह बात भूली नहीं हैवह बहुत गहरे में पडी है। तो अंधेरे से डर लगता है। अंधेरे से आदमी भयभीत होता है।
लेकिन जो आदमी अंधेरे से भयभीत होता है और डरता हैवह भीतर जा ही न सकेगा। उसकी अंतर्यात्रा ही न हो सकेगी। अंतर्यात्रा में अंधेरे से तो पार होना ही पड़ेगा। अंतर्यात्रा अंतर्गुहा में प्रवेश है। शुभ हो रहा है। जाओ—आनंदपूर्वकशांतिपूर्वक! सुबह भी करीब है। अंधेरा बढ़ने लगेउतना ही भरोसा जगा लेना कि अब सुबह करीब आती हैअब करीब आती है।
एक ही बात ध्यान रखना इस अंधेरे से मोह मत बना लेना। एक तो खतरा है भय का कि आदमी घबड़ा कर भाग जाए। और दूसरा खतरा हैक्योंकि यह ठंडा और प्रीतिकर मालूम हो रहा हैइससे मोह मत बना लेनानहीं तो तुम सुबह को पैदा न होने दोगे। तुम्हारा मोह ऐसा हो जाएगा कि तुम इसको पकड़ोगे। तुम धीरे — धीरे मोह के कारण अंधेरे से जकड़ जाओगे।
बहुत लोग हैंजिन्होंने इसी तरह की जकड़ने पैदा कर ली हैं।
मेरे पास इतने लोग आते हैंमैं चकित होता हूं! देखता हूं कोई आदमी उदासी से पकड़े हुए है अपने कोजकड़े हुए है। वह कहता है कि मुझे उदासी नहीं चाहिएलेकिन सब उपाय करता है कि उदास हो जाए। बातें करता है कि मुझे उदासी से बाहर खींचोलेकिन जब मैं उसे समझा रहा होता हूं तब मैं देख रहा होता हूं कि वह सुन भी नहीं रहा है। वह शायद मेरी बातों  को सुन कर भी उदास हो जाएगा। ऐसे भी लोग मैंने देखेवे मुझे सुन कर कहने लगे कि हम पहले से ही उदास थेआपकी बातें सुन कर और उदास हो गए।
'मैंने तुम्हें कौन—सी बात कही?'
आपने प्रकाश की और आनंद की इतनी बात कही कि उससे हमें ऐसा लगने लगा कि अरेयह तो हम बड़े चूक रहे हैं! और उदासी आ गई। तो हमारा जीवन बेकार ही गया!
देखते हैंमैं प्रकाश की बात कर रहा हूं परमात्मा कीकि तुम उठोजागोखोजो। वे कहते हैंकि हम और सुस्त हो कर गिर पड़े कि मार डाला! हम तो सोचते थेसब ठीक चल रहा है। आपने और यह कहां की बात कह दीइससे हम और भी उदास हो गए।
लोग दुख से संबंध बना लेते हैं। फिर संबंध ऐसे हो जाते हैं प्राचीन और आदत केकि छूटना भी चाहो तो छूटते नहीं। एक हाथ से छूटते होदूसरे हाथ से बनाए चले जाते हो। इसका थोड़ा खयाल रखना।
कल मैं एक गीत पढ़ता था :
एक उदास तनहाई
जिंदगी को रास आई!
कुछ लोग हैंजिन्हें उदासी और अकेलापन रास आ जाता है। क्योंकि किसी के साथ रहो तो झंझट तो आती है। तुम जानते हो : साथ यानी झंझट। इसलिए तो आदमी साथ से भागता है। किसी के भी साथ रहो तो थोड़ी—बहुत झंझट होगीक्योंकि जहां दो बर्तन हुएथोड़ी आवाजकलह होना शुरू होती है। वहीं चुनौती भी है। लेकिन इससे आदमी डर सकता हैभाग सकता है कि इससे तो अकेले बेहंतर। अकेले राम—कोई झंझट नहीं!
मगर अकेले राम तो हो गएलेकिन चुनौती नहीं रहीसीता नहीं रहीरावण नहीं रहे! अकेले राम तो हो गएलेकिन रामलीला खत्म! तो तुम तो राम से भी ज्यादा समझदार हो गए। राम का सारा व्यक्तित्व निखराक्योंकि अकेले राम नहीं थेबड़ी चारों तरफ जीवन के संघर्ष की स्थिति थी। उसमें से व्यक्तित्व निखरता है। तो अकेले में एक तरह की मुर्दा शांति है।

            एक उदास तनहाई
जिंदगी को रास आई
दिल में तेरी चाहंत भी
ले के रंगे—यास आई।
आशिकी शक—ए—बाइ
क्यों न मेरे पास आई?
कितने जाम खाली हैं
कितने जाम छलके हैं
इश्क की फजाओं में
वहम के महल के हैं
हुस्न की जियाओं में
सोच के धुंधलके हैं
मेरी आरजुओं के
रंग कितने हलके हैं
आहक्यों मेरी फितरत
रोशनी से घबराई?
आहक्यों मेरी फितरत
रोशनी से घबराई?
खलअतो  की शैदाई
जलवतो  से शरमाई
एक उदास तनहाई
जिंदगी को रास आई।

 तुम कहीं इस उदासी से रास मत आ जाना। इस उदासी से संग—साथ मत बना लेना। इस उदासी से गठबंधन मत कर लेना। इस उदासी से विवाह मत कर बैठना। यह ठंडी है और प्रीतिकर है।
आहक्यों मेरी फितरत
रोशनी से घबराई?
और अगर इससे तुमने बहुत संबंध बना लिया तो फिर तुम रोशनी से घबड़ाने लगोगे।
कुछ लोग हैं जो अंधेरे से घबड़ाते हैंअंधेरे से घबड़ा कर भागते हैं तो रोशनी तक नहीं पहुंच पाते। फिर कुछ लोग हैंजो रोशनी से घबड़ाने लगते हैं;क्योंकि अंधेरे से उनका प्रेम बन जाता है। जिसने पूछा हैधर्म ज्योति नेउसके लिए यह खतरा हैइसलिए मैं कह रहा हूं। उसके लिए खतरा है कि वह इस अंधेरे,उदासीशांति से कहीं बहुत ज्यादा संबंध न बना ले। अगर यह संबंध ज्यादा बन गया तो फिर सुबहहो सकती थी जो सुबहवह भी न हो पाएगी।
इसलिए गुजरो अंधेरे सें—आनंद से गुजरोगीत गुनगुनाते गुजरो। अंधेरा निश्चित ही ठंडा और शीतल हैबड़ा विश्रामदायी है! लेकिन खयाल रखना,अंधेरा केवल गर्भ है उजाले का। अंधेरा केवल निषेध है। विधेय तो प्रकाश है। पहुंचना तो प्रकाश पर है। अंधेरे से गुजरोअंधेरे में निखरोनहाओलेकिन जाना तो प्रकाश पर है।
अगर कोई व्यक्ति अंधेरे में ही रह जाए तो शात तो हो सकता हैलेकिन उसके जीवन में प्रेम पैदा न होगा।
बुद्ध ने कहा है : अगर ध्यान लग जाए और करुणा पैदा न होतो समझना कि कहीं कुछ चूक हो गईहोते —होते बात रह गई। अंधेरे में आदमी ध्यान को तो उपलब्ध हो सकता हैलेकिन जब प्रकाश का उदय होगातभी प्रेम को उपलब्ध होगा। और जब ध्यान और प्रेम दोनों एक साथ फलते हैंतभी व्यक्ति के वृक्ष में फल और फूल दोनों आएतभी कोई वस्तुत: सफल और सुफल हुआ। धर्म ज्योति को खतरा हैक्योंकि वह प्रेम से बड़ी डरी हुई है। उसने जीवन में प्रेम जाना नहीं। वह पहले से ही कुछ गलत गुरुओं के चक्कर में पड़ गईजिन्होंने समझा दिया कि प्रेम पाप हैजिन्होंने समझा दिया कि शरीर पाप हैजिन्होंने समझा दिया कि संबंध संसार हैइससे तो पार जाना है। उन्होंने उसे बहुत घबड़ा दिया। उनसे वह छूट भी गईलेकिन बड़े गहरे अचेतन में उनकी धारणाएं अब भी पड़ी रह गई हैं। इसलिए इस बात का डर है कि कहीं अंधेरे से गठबंधन न बन जाए।
तो ध्यान रखनारोशनी से घबड़ाना मत। रोशनी करीब आए तो आंख बंद मत कर लेना। रोशनी करीब आए तो दरवाजा बंद मत कर लेना। क्योंकि परमात्मा के मार्ग पर भला अंधेरा होपरमात्मा की उपलब्धि पर प्रकाश है। उसकी प्रतीक्षा करते रहना—अंधेरी रात में भी! अंधेरी रात में भी उसे पहचानने की कोशिश जारी रहे।
कुमुद—दल से वेदना के दाग को
पोंछती जब आंसुओ से रश्मिया
चौंक उठतीं अनिल के विश्वास छू
तारिकाएं चकित—सी अनजान—सी
अवनि अंबर की रुपहली सीप में
तरल मोती—सा जलधि जब कापता
तैरते घन मृदुल हिम के पुंज से
ज्योत्सना के रजत पारावार में
सुरभि बन जो थपकियां देता मुझे
नींद के उच्छवास—सा वह कौन है!
अंधेरे में भी जो तुम्हें थपकियां देखयाल रखना. वही है!
सुरभि बन जो थपकियां देता मुझे
नींद के उच्छवास—सा वह कौन है!
वह जो नींद में भी आ कर तुम्हें घेर लेता हैवह भी वही परमात्मा है। अंधेरे की तरह तुम्हें जो घेर लेतावह भी वही परमात्मा है। शीतल छांह जो अंधेरे की मालूम होती हैवह भी उसी की शीतल छाह है। वह जो मीठा शांतिदायीविश्राममयी भाव घेर लेता है अंधेरे मेंवह भी उसी के पास होने की खबर हैकहीं पास ही वह मौजूद है!
उसे भूलना मत और उसकी खोज जारी रखना। जो आज सोया हैवह कल जागेगा। जो आज अंधेरे में दबा है—उभरेगा। क्षितिज पर उसकी लाली जल्दी ही दिखाई देने लगेगी।
मुझे यह महसूस हो रहा है मेरा खुदा
ख्वाबगाहे —गफलत में सो रहा है
मेरा दिले —बेकरार मुद्दत से रो रहा है
शिकस्त है यह कि आजमाइश
कि रब्बे — आलम कि लुत्मोंअकराम की नुमाइश
बफूरे—वहशत ने जिंदगी का सुहाग लूटा
तिलिस्म कैफे—शबाब लूटा
मुझे यह महसूस हो रहा है
कि खालिके —जीस्त सो रहा है।
बशर मुहब्बत से
जीस्त के हुस्ने—रंग से हाथ धो रहा है।
कभी तो जागेगा सोने वाला
कभी तो इस सबकी तीरगी को
मिटाएगा सुबह का उजाला।
कभी तो जागेगा सोने वाला
कभी तो इस सबकी तीरगी को
मिटाएगा सुबह का उजाला।
वह होगा—होने ही वाला है! निश्चित ही है! जब रात आ गई तो सुबह दूर नहीं। जब अंधेरा घना होने लगा और तारों की छांव गहरी होने लगीतो सूरज करीब आने लगा। जल्दी ही क्षितिज पर फैल जाएगी उसकी लाल रेखा।
प्रतीक्षा करो! प्रार्थना करो! आशा को जगाए रखो! आंख खोल कर पुकारते रहो! अंधेरा भी उसका हैप्रकाश भी उसका है! मृत्यु भी उसकीजीवन भी उसका। इसलिए सब जगह उसे पहचानते रहो।

 हरि ओंम तत्सत्!