Ashtavakra Mahageeta (Day 8)

अष्‍टावक्र: माहागीता--भाग-1(ओशो) प्रवचन--8

नियंता नहीं—साक्षी बनो—प्रवचन—आठवां


18 सितंबर, 1976
ओशो आश्रम, कोरेगांव पार्क,
पूना।

पहला प्रश्न :

मुझे लगता है कि मेरा शरीर एक पिंजड़े या बोतल जैसा हैजिसमें एक बड़ा शक्तिशाली सिंह कैद हैऔर वह जन्मों— जन्मों से सोया हुआ था,लेकिन आपके छेड़ने से वह जाग गया है। वह भूखा है और पिंजरे से मुक्त होने के लिए बड़ा बेचैन है। दिन में अनेक बार वह बौखला कर हुंकार मारता,गर्जन करताऔर ऊपर की ओर उछलता है। उसकी हुंकारगर्जनऔर ऊपर की ओर उछलने के धक्के से मेरा रोआं—रोआं कैप जाता हैऔर माथे व सिर का ऊपरी हिस्सा ऊर्जा से फटने लगता है। इसके बाद मैं एक अजीब नशे व मस्ती में डूब जाता हूं। फिर वह सिंह जरा शांत होकर कसमसाताचहलकदमी करता व गुर्राता रहता है। और फिर कीर्तन में या आपके स्मरण से वह मस्त हो कर नाचता भी है! अनुकंपा करके समझायें कि यह क्या हो रहा है?

पूछा है 'योग चिन्मयने। शुभ हो रहा है! जैसा होना चाहिएवैसा हो रहा है। इससे भयभीत मत होना। इसे होने देना। इसके साथ सहयोग करना। एक अनूठी प्रक्रिया शुरू हुई हैजिसका अंतिम परिणाम मुक्ति है।

हम निश्चित ही शरीर में कैद हैं। सिंह पिंजड़े में बंद है! बहुत समय से बंद हैइसलिए सिंह भूल ही गया है अपनी गर्जना को। बहुत समय से बंद हैऔर सिंह सोचने लगा है कि यह पिंजड़ा ही उसका घर है। इतना ही नहींसोचने लगा है कि मैं पिंजड़ा ही हूं। देहोऽहम्! मैं शरीर ही हूं!
चोट करनी है! उसी के लिए तुम मेरे पास हो कि मैं चोट करूं और तुम जगो।
ये वचन जो मैं तुमसे बोल रहा हूं सिर्फ वचन नहीं हैंइन्हें तीर समझनाये छेदेंगे तुम्हें। कभी तुम नारज भी हो जाओगे मुझ परक्योंकि सब शांत चल रहा थासुविधापूर्ण थाऔर बेचैनी खड़ी हो गई। लेकिन जागने का और कोई उपाय नहींपीड़ा से गुजरना होगा।
जब भीतर की ऊर्जा उठेगीतो शरीर राजी नहीं होता उसे झेलने कोशरीर उसे झेलने को बना नहीं है। शरीर की सामर्थ्य बड़ी छोटी हैऊर्जा विराट है। जैसे कोई किसी छोटे अपान में पूरे आकाश को बंद करना चाहे।
तो जब ऊर्जा जगेगीतो शरीर में कई उत्पात शुरू होंगे। सिर फटेगा। कभी—कभी तो ऐसा होता है कि पूर्ण ज्ञान के बाद भी शरीर में उत्पात जारी रहते हैं। ज्ञान की घटना के पहले तो बिलकुल स्वाभाविक हैक्योंकि शरीर राजी नहीं है। जैसे जिस बिजली के तार में सौ कैंडल की बिजली दौड़ाने की क्षमता होउसमें हजार कैंडल की बिजली दौड़ा दोतो तार झनझना जायेगाजल उठेगा! ऐसे ही जब तुम्हारे भीतर ऊर्जा जगेगी—जो सोयी पड़ी थी—प्रगट होगीतो तुम्हारा शरीर उसके लिए राजी नहीं है। शरीर तुम्हारा भिखमंगा होने के लिए राजी हैसम्राट होने को राजी नहीं है। शरीर की सीमा हैतुम्हारी कोई सीमा नहीं है। झकझोरे लगेंगे,आंधिया उठेंगी। ज्ञान की घटना के पहलेसमाधि के पहले तो ये झकझोरे बिलकुल स्वाभाविक हैं। कभी—कभी ऐसा भी होता है कि समाधि भी घट जाती है,और झकझोरे जारी रहते हैंआधी जारी रहती हैक्योंकि शरीर राजी नहीं हो पाता।
कृष्णमूर्ति के मामले में ऐसा ही हुआ है। चालीस साल सेपरमज्ञान की उपलब्धि के बाद भी प्रक्रिया जारी हैशरीर झटके झेल नहीं पाता। कृष्णमूर्ति आधी रात में चिल्ला करचीख करउठ आते हैंगुर्राने लगते हैं—वस्तुत: गुर्राने लगते हैं। और सिर में चालीस साल से दर्द बना हुआ हैजो जाता नहींआता है,जाता हैलेकिन पूरी तरह जाता नहीं। दर्द कभी इतना प्रगाढ़ हो जाता है कि सिर फटने लगता है।
कृष्णमूर्ति के पिछले चालीस वर्ष शरीर की दृष्टि से बड़े कष्ट के रहे। ऐसा कभी—कभी होता है। अक्सर तो समाधि के साथ—साथ शरीर राजी हो जाता है। लेकिन कृष्णमूर्ति के साथ इसलिए नहीं हो पाया शांतक्योंकि समाधि के लिए बड़ी चेष्टा की गई। थियोसाफी के जिन विचारकों ने कृष्णमूर्ति को बड़ा किया,उन्होंने बड़ा प्रयास कियासमाधि को लाने के लिए बड़ी अथक चेष्टा की। उनकी आकांक्षा थी कि एक जगतगुरु को वे पैदा करेंजगत को जरूरत है—कोई बुद्धावतार पैदा हो।
कृष्णमूर्ति ने अगर अपनी ही चेष्टा से काम किया होता तो शायद उन्हें एकाध—दो जन्म और लग जाते। लेकिन तब यह अड़चन न होती। त्वरा के साथ काम किया गयाजो दो जन्मों में होना चाहिए थावह शीघ्रता से घट गया। घट तो गयालेकिन शरीर राजी नहीं हो पाया। आकस्मिक घट गयाशरीर तैयार न थाऔर घट गया। तो चालीस वर्ष शारीरिक पीड़ा के रहे। आज भी कृष्णमूर्ति रात गुर्राते हैंनींद से उठ—उठ आते हैं। ऊर्जा सोने नहीं देती। चीखते हैं!
यह थोड़ी हैरानी की बात मालूम होगी कि परमज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति रात को चीखे! लेकिन पूरा गणित साफ है। जिस घटना को घटने में दो जन्म कम से कम लगतेवह बड़ी शीघ्रता से घटा ली गई। उसके लिए शरीर तैयार नहीं हो पाया थाइसलिए प्रक्रिया अभी भी जारी है। घटना घट गईऔर तैयारी जारी है। घर पहुंच गयेऔर शरीर पीछे रह गया है। वह अभी भी घिसट रहा है। आत्मा घर पहुंच गईशरीर घर नहीं पहुंचा है। वह जो घिसटन हैवह जारी हैउससे दर्द है,पीड़ा है।
तो इससे घबड़ाना मत। ये समाधि के आने की पहली खबरें हैं। ये समाधि के पहले चरण हैं। इन्हें सौभाग्य माननाइनसे राजी हो जाना। इन्हें सौभाग्य मान कर राजी हो जाओगे तो शीघ्र ये धीरे— धीरे शांत हो जायेंगे। और जैसे—जैसे शरीर इनके लिए राजी होने लगेगासहयोग करने लगेगावैसे—वैसे शरीर की पात्रता और क्षमता बढ़ जायेगी।
उस असीम को पुकारा हैतो असीम बनना होगा। उस विराट को चुनौती दी हैतो विराट बनना होगा।
पुरानी बाइबिल में बड़ी अनूठी कथा है—जैकब की। जैकब ईश्वर की खोज करने में लगा है। उसने अपनी सारी संपत्ति बेच दीअपने सारे प्रियजनोंअपनी पत्नीअपने बच्चेअपने नौकरसबको अपने से दूर भेज दिया। वह स्वात नदी तट पर ईश्वर की प्रतीक्षा कर रहा है। ईश्वर का आगमन हुआ।
लेकिन घटना बड़ी अदभुत हैकि जैकब ईश्वर से कुश्ती करने लगा! अब ईश्वर से कोई कुश्ती करता है! लेकिन जैकब ईश्वर से उलझने लगा। कहते हैंरात भर दोनों लड़ते रहे। सुबह होते—होतेभोर होते—होतेजैकब हार पाया। जब ईश्वर जाने लगेतो जैकब ने ईश्वर के पैर पकड़ लिए और कहा, 'अब मुझे आशीर्वाद तो दे दो!ईश्वर ने कहा, 'तेरा नाम क्या है?' तो जैकब ने अपना नाम बतायाकहा, 'मेरा नाम जैकब है। ईश्वर ने कहा, 'आज से तू इजरायल हुआ'—जिस नाम से यहूदी जाने जाते हैं—'आज से तू इजरायल। अब तू जैकब न रहाजैकब मर गया। जैसे मैं तुम्हारा नाम बदल देता हूं जब संन्यास देता हूं। पुराना गया!
ईश्वर ने जैकब को कहा, 'जैकब मर गयाअब से तू इजरायल है।'
यह कहानी पुरानी बाइबिल में है। ऐसी कहानी कहीं भी नहीं कि कोई आदमी ईश्वर से लड़ा हो। लेकिन इस कहानी में बड़ी सचाई है। जब वह परम—ऊर्जा उतरती है तो करीब—करीब जो घटना घटती है वह लड़ाई जैसी ही है। और जब वह परम घटना घट जाती है और तुम ईश्वर से हार जाते हो और तुम्हारा शरीर पस्त हो जाता है और तुम हार स्वीकार कर लेते हो—तो तुम्हारी परम—दीक्षा हुई! उसी घड़ी ईश्वर का आशीर्वाद बरसता है। तब तुम नये हुए। तभी तुमने पहली बार अमृत का स्वाद चखा। तो 'योग चिन्मयकरीब—करीब वहा हैंजहां जैकब रहा होगा। रात कितनी बड़ी होगीकहना कठिन है। संघर्ष कितना होगाकहना कठिन है। कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। लेकिन शुभ है संघर्ष।
इस ऊर्जा को सहारा देना। यह जो सिंह भीतर मुक्त होना चाहता हैयही तुम हो। यह जो ऊर्जा उठना चाहती है सिर की तरफकाम—केंद्र से सहस्रार की तरफ जाना चाहती है र राह बनाना चाहती है—यही तुम हो। यह जन्मों—जन्मों से कुंडली मार कर पड़ी थीअब यह फन उठाना शुरू कर रही है। सौभाग्यशाली हो,धन्यभागी हो! इसी से परम आशीर्वाद के करीब आओगे! तुम्हारा वास्तविक रूपांतरण होगा!
कृष्णमूर्ति ने अपनी नोटबुक में लिखा हैकि जब भी यह सिर फटता है और रात मैं सो नहीं पाता और चीख—पुकार उठती हैऔर कोई मेरे भीतर गुर्राता है—उसके बाद ही बड़े अनूठे अनुभव घटते हैं। उसके बाद ही बड़ी शांति उतरती है। चारों तरफ वरदान की वर्षा होती है। सब तरफ कमल ही कमल खिल जाते हैं। ठीक वैसा ही 'चिन्मयको होना शुरू हुआअच्छा है।
'इसके बाद मैं एक अजीब नशे और मस्ती में डूब जाता हूं। '
क्योंकि जब ऊर्जा अपना संघर्ष करके ऊपर उठेगी और शरीर थोड़ा—सा राजी होगातो एक नई मस्ती आयेगी. विकास हुआ! तुम थोड़े ऊपर उठे। तुमने थोड़ा अतिक्रमण किया। तुम कारागृह के थोड़े—से बाहर हुएस्वतंत्र आकाश मिला! तुम प्रफुल्लित होओगे। तुम नाचोगेतुम मगन हो कर
'फिर वह सिंह शांत होकर कसमसाताचहलकदमी करतागुर्राता रहता हैऔर कीर्तन में या आपके स्मरण से मस्त होकर नाचता भी है। '
वह सिंह नाचना ही चाहता हैशरीर में जगह नहीं है नाचने लायक। नाचने को स्थान तो चाहियेशरीर में स्थान कहां हैशरीर के बाहर ही नृत्य हो सकता है। इसलिये अगर तुम ठीक से नाचोगेतो तुम पाओगे कि तुम शरीर नहीं रहे। नाच की आखिरी गरिमा मेंआखिरी ऊंचाई परतुम शरीर के बाहर हो जाते हो। शरीर फिरकता रहताथिरकता रहतालेकिन तुम बाहर होते होतुम भीतर नहीं होते।
इसलिए तो मैं ध्यान की प्रक्रियाओं में नृत्य को अनिवार्य रूप से जोड़ दिया हूंक्योंकि नृत्य से अदभुत ध्यान के लिए और कोई प्रक्रिया नहीं है। अगर तुम भरपूर नाच लोअगर तुम समग्ररूप से नाच लोतो उस नाच में तुम्हारी आत्मा शरीर के बाहर हो जाएगी। शरीर थिरकता रहेगालेकिन तुम अनुभंव करोगे कि तुम शरीर के बाहर हो। और तब तुम्हारा असली नृत्य शुरू होगा : यहां शरीर नीचे नाचता रहेगातुम वहां ऊपर नाचोगे। शरीर पृथ्वी परतुम आकाश पर! शरीर पार्थिव मेंतुम अपार्थिव में! शरीर जड़ नृत्य करेगातुम चैतन्य का नृत्य करोगे। तुम नटराज हो जाओगे।
पूछा है, 'समझायें यह क्या हो रहा है?'
अनूठा हो रहा है! अदभुत हो रहा है! अपूर्व हो रहा है! समझाने योग्य नहीं हैजो हो रहा है. अनुभव करने योग्य है। जो भी मैं कहूंगाउससे कुछ समझ में नहीं आयेगाउससे इतना ही हो सकता है कि तुम ज्यादा सरलता से इसे स्वीकार करने में समर्थ हो जाओ। इससे राजी हो जाओ। इसे दबाना मत! स्वाभाविक मन होता है दबाने काकि यह क्या पागलपन है कि मैं सिंह की तरह गुर्रा रहा हूं! यह गर्जना कैसी! लोग पागल समझेंगे! तो स्वाभाविक मन होता है कि दबा लो इस,छिपा लो इसे! मत किसी को पता चलने दो! कोई क्या कहेगा!
फिक्र मत करना! कौन क्या कहता हैइसकी फिक्र मत करना। लौग पागल कहें तो पागल हो जाना! पागल हुए बिना कभी कोई परमहंस हुआ हैतुम तो अपने भीतर पर ध्यान देना। अगर इससे आनंद आ रहा हैमस्ती आ रही हैसुरा बरस रही हैतो तुम फिक्र मत करना। इस संसार के पास कुछ भी नहीं है! इतना मूल्यवान तुम्हें देने को। इसलिए इस संसार से कोई सौदा मत करना। इंच भर भी आत्मा मत बेचनाअगर पूरे जगत का साम्राज्य भी बदले में मिलता हो।
जीसस ने कहा हैपूरा जगत भी मिल जायेऔर आत्मा खो जायेतो क्या सारआत्मा बच जायेऔर सारा जगत भी खो जायेतो भी सार ही सार है।
हिम्मत रखना! साहस रखना! भरोसे सेश्रद्धा से बढ़े जाना! जल्दी ही धीरे— धीरे करके शरीर राजी हो जायेगा। तब गर्जना भी खो जायेगीतब नृत्य ही रह जायेगा। तब सिंह तडूफेगा नहींक्योंकि सिह को रास्ता मिल जायेगाजब जाना चाहे बाहर चला जायेजब आना चाहे तब भीतर आ जाये। तब यह देह कारागृह नहीं रह जातीतब यह देह विश्राम का स्थल हो जाती है। तुम जब आना हौ भीतर आ जाओजब तुम जाना हो बाहर चले जाओ।
जब तुम इतनी सरलता से बाहर— भीतर आ सकते होजैसे अपने घर में आते—जाते हों—सर्दी हैशीत लग रहीतो तुम बाहर चले जाते होधूप में बैठ जाते हो। फिर धूप बढ़ गईसूरज चढ़ आयागरमी होने लगीपसीना बहने लगा—तुम उठ कर भीतर चले आते हो। जैसे तुम अपने घर में बाहर—भीतर आते हो,तो घर कारागृह नहीऐ है—ऐसा अगर तुम कारागृह में बैठे होतो इतनी सुविधा नहीं है कि जब तुम्हारा दिल हो बाहर आ जाओजब तुम्हारा दिल हो भीतर आ जाओ। कारागृह में तुम बंदी होघर में तुम मालिक हो। जैसे—जैसे तुम्हारा सिंह नाच सकेगा बाहरउड़ सकेगा आकाश मेंचांद—तारों के साथ खेल सकेगा—फिर कोई बात नहीं। फिर शरीर से कोई झगड़ा नहीं हैफिर शरीर विश्राम का स्थल है। जब थक जायेगातुम भीतर लौट कर विश्राम भी करोगे। फिर शरीर से कोई दुश्मनी भी नहीं है। शरीर फिर मंदिर है।

दूसरा प्रश्न :

कल आपने कहा कि आप तो सदा हमारे साथ हैंलेकिन हमारे संन्यास लेने से हम भी आपके साथ हो लेते हैं। मुझे तो ऐसा कोई क्षण स्मरण नहीं आताजब मैंने संन्यास लिया हो : कब लियाकहां लिया! आपने ही दिया था। मैं आप तक पहुंचा कहां अभी! मुझे तब कछ पता न था संन्यास काऔर न आज ही हैँ। तो कैसे होऊं संन्यस्तप्रभुकैसे आऊं मैं आप तकमेरी उतनी पात्रता कहां! मेरी उतनी श्रद्धा व समर्पण कहां!

सा भी बहुत बार हुआ है कि मैंने संन्यास उनको भी दिया हैजिन्हें संन्यास का कोई भी पता नहीं। उन्हें भी संन्यास दिया हैजो संन्यास लेने आये नहीं थे। उन्हें भी संन्यास दिया हैजिन्होंने कभी स्वप्न में भी संन्यास के लिए नहीं सोचा था। क्योंकि तुम्हारे मन को ही मैं नहीं देखतातुम्हारे मन के अचेतन में दबी हुई बहुत—सी बातों को देखता हूं।
कल रात्रि ही एक युवती आई। उससे मैंने पूछा भी नहीं। उससे मैंने कहा, 'आंख बंद कर और संन्यास ले। उससे मैंने पूछा भी नहीं कि तू संन्यास चाहती हैउसने आंख बंद कर लीऔर संन्यास स्वीकार कर लिया। अन्यथा आदमी चौंकता है। आदमी सोचता है! संन्यास लेना है तो महीनों सोचते हैं कुछ लोगवर्षों सोचते हैं। कुछ तो सोचते—सोचते मर गये और नहीं ले पाये। उसने चुपचाप स्वीकार कर लिया। उसे चेतन रूप से कुछ भी पता नहीं है।
लेकिन हम नये थोड़े ही हैं—हम अति प्राचीन हैं! वह युवती बहुत जन्मों से खोजती रही है। ध्यान की उसके पास संपदा है। उस संपदा को देख कर ही मैंने कहा कि तू डूबआंख बंद कर! उससे मैंने कहातुझसे मैं पूछूंगा नहीं कि तुझे संन्यास लेना या नहीं। पूछने की कोई जरूरत नहीं है।
ऐसा ही मैंने 'दयालको भी संन्यास दिया था। दयाल का यह प्रश्न है। दयाल से पूछा नहीं हैदयाल को पता भी नही है।
तुम्हें अपना ही पता कहां है! तुम कहां से आते होपता नहीं। क्या—क्या संचित संपदा लाते होपता नहीं। क्या—क्या तुमने किया है अनेक—अनेक जन्मों मेंउसका तुम्हें पता नहीं। क्या—क्या तुमने खोज लिया थाक्या—क्या अधूरा रह गया हैउसका तुम्हें कुछ पता नहीं। हर बार मौत आती हैऔर तुमने जो किया थासब चौपट कर जाती है। तुममें से बहुत ऐसे हैंजो बहुत बार संन्यस्त हो चुके हैं—हर बार मौत आ कर चौपट कर गई। और तुम्हारी इतनी स्मृति नहीं है कि तुम याद कर लो।
ऐसा ही समझो कि तुम एक काम कर रहे थेतुम एक चित्र बना रहे थेअधूरा बना पाये थे कि मौत आ गई। बस मौत आ गई कि तुम भूल गए। फिर तुम जन्मे। फिर अगर तुम्हें वह अधूरे चित्र की सूचना भी मिल जायेवह अधूरा चित्र भी तुम्हारे सामने ला कर रख दिया जायेतो भी तुम्हें याद नहीं आताक्योंकि तुमने तो सोचा ही नहीं इस जन्म मेंकि मैं और चित्रकार! और अगर मैं तुमसे कहूं कि इसे पूरा कर लोयह अधूरा पड़ा हैतुमने बड़ी आकांक्षा से बनाया थातुमने बड़ी गहन अभीप्सा से रचा था—अब इसे पूरा कर लोमौत बीच में आ गई थीअधूरा छूट गया था। तुम कहोगे, 'मुझे तो कुछ पता नहींआप पकड़ा देते हैं तूलिका तो ठीक हैलेकिन मुझे तूलिका पकड़ना भी नहीं आता है। आप रख देते हैं ये रंगतो ठीक है रंग दूंगालेकिन मुझे कुछ पता नहीं कि चित्र कैसे बनाये जाते हैं। फिर भी मैं तुमसे कहता हूं कि शुरू करोशुरू करने से ही याद आ जायेगी। चलोपकड़ो तूलिका हाथ मेंयाद आ जाये शायद!
ऐसा हुआदूसरे महायुद्ध मेंएक सैनिक गिरा चोट खा करउसकी स्मृति खो गई गिरते ही। सिर पर चोट लगीस्मृति के तंतु अस्तव्यस्त हो गयेवह भूल गया। वह भूल गया—अपना नाम भी! वह भूल गया मैं कौन हूं! और युद्ध के मैदान से जब वह लाया गया तो वह बेहोश थाकहीं उसका तगमा भी गिर गयाउसका नंबर भी गिर गया। बड़ी कठिनाई खड़ी हो गई। जब वह होश में आया तो न उसे अपना नंबर पता हैन अपना नाम पता हैन अपना ओहदा पता है। मनोवैज्ञानिकों ने बड़ी चेष्टा की खोज—बीन करने कीसब तरह के उपाय कियेकुछ पता न चले। वह आदमी बिलकुल कोरा हो गयाजैसे अचानक उसकी स्मृतियों से सारा संबंध टूट गया। फिर किसी ने सुझाव दिया कि अब एक ही उपाय है कि इसे इंग्लैंड में घुमाया जाये। वह इंग्लैंड की सेना का आदमी था। इसे इंग्लैंड में घुमाया जाए शायद अपने गाव के पास पहुंच कर इसे याद आ जाये।
तो उसे इंग्लैंड में घुमाया गया ट्रेन पर बिठा करदो आदमी उसे ले कर चले। हर स्टेशन पर गाड़ी रुकतीवह उसे नीचे उतारते। वह देखता खड़े हो कर! वह थक गए। इंग्लैंड छोटा मुल्क हैइसलिए बहुत अड़चन न थीसब जगह घुमा दिया। और अंततः एक छोटे—से स्टेशन परजहां गाड़ी रुकती भी नहीं थीलेकिन किसी कारणवश रुक गईवह आदमी नीचे उतराउसने स्टेशन पर लगी तख्ती देखीउसने कहा, 'अरेयह रहा मेरा गाव!वह दौड़ने लगा। वह पीछे भूल ही गया कि मेरे साथ दो आदमी हैं। वे दो आदमी उसके पीछे भागने लगे। वह स्टेशन से निकल कर गाव में दौड़ा। सब याद आ गया! गली—कूचे याद आ गये। उसने किसी से पूछा भी नहीं। गली—कुचों को पार करके वह अपने घर के सामने पहुंच गया। उसने कहा, 'अरे! यह रहा मेरा घरयह रहा मेरा नाम! यह मेरी तख्ती भी लगी है!उसे सब याद आ गई। बस एक चोट पड़ी कि फिर उसे सारी याद आ गई। विस्मृति खो गईस्मृति का तंतु फिर जुड़ गया।
तो कभी—कभी मैंजैसे 'दयालको संन्यास दियाइसी आशा में कि घुमाऊंगा गेरुए वस्त्रों मेंशायद याद आ जाये कि तुम पहले भी गेरुए वस्त्रों में घूमे हो! कि कहूंगा. नाचो! शायद नाचते—नाचते किसी दिन उस मनोअवस्था में पहुंच जाओजहां तुम्हें अतीत जन्मों के नृत्य याद आ जायें। कहूंगा : ध्यान करो! ध्यान करते—करते शायद अचेतन का कोई द्वार खुल जायेस्मृतियों का बहाव आ जाये! इसीलिए तो बोले चला जाता हूं—कभी गीता परकभी अष्टावक्र परकभी जरथुस्त्र परकभी बुद्ध परकभी जीसस परकभी कृष्ण पर! न—मालूम कौन—सा शब्द तुम्हारे भीतर गज बना देन—मालूम कौन—सा शब्द तुम्हारे भीतर कुंजी बन जायेन—मालूम कौन—सा शब्द तुम्हें जगा दे तुम्हारी नींद से! सब उपाय किये चला जाता हूं। कोशिश सिर्फ इतनी हैकि किसी तरह मृत्युओं ने जो बीच—बीच में आ कर तोड़ दिया है और तुम्हारा जीवन अस्तव्यस्त हो गया हैउसमें एक सिलसिला पैदा हो जायेउसमें एकतानता आ जायेएकरसता आ जाए। बस एकरसता आते ही तुम्हारी नियति करीब आने लगेगी। तुमने घर तो बहुत बार बनायाअधूरा—अधूरा छूट गया।
इसलिए 'दयालठीक ही कहता है कि मुझे तो ऐसा कोई क्षण स्मरण नहीं आता जब मैंने संन्यास लिया हो। उसने लिया भी नहीमैंने दिया है।
'कब लियाकहा लिया! आपने ही दिया था। मैं आप तक पहुंचा कहां हूं अभी!'
मुझ तक तो तुम तभी पहुंचोगेजब तुम तुम तक पहुंच जाओगे। मुझ तक पहुंचने का और कोई उपाय भी नहीं। अपने तक पहुंच जाओ कि मुझ तक पहुंच गये। स्वयं को जान लोतो मुझे जान लिया। मेरे पास आने के लिए बाहर की कोई यात्रा नहीं करनी है—अंतरतमऔर अंतरतम में उतर जाना है।
'न मुझे तब कुछ पता था संन्यास का और न आज ही पता है। '
होगाशीघ्र ही पता होगा। न तब पता थान आज पता है—यह सच है। लेकिन यह मनोदशा अच्छी है कि तुम सोचते होजानते हो कि तुम्हें पता नहीं। दुर्भाग्य तो उनका है जिनको पता नहींऔर सोचते हैं कि पता है। तुम तो ठीक स्थिति में हो। यही तो निर्दोष चित्त की बात है कि मुझे पता नहीं है! तो तुम खाली होतो तुम्हें भरा जा सकता है। कुछ हैं जिन्हें कुछ भी पता नहीं है—और बहुत है उनकी संख्या—लेकिन सोचते हैं उन्हें पता है। इसी भ्रांति के कारणपता हो सकता हैउससे भी वंचित रह जाते हैं।
ज्ञान रोक लेता हैज्ञान तक जाने से। अगर तुम्हें पता है कि मैं अज्ञानी हूं तो तुम ठीक दिशा में हो। ऐसी निदोंषचित्तता में ही ज्ञान की परम घटना घटती है। यह जानना कि मैं नहीं जानता हूं जानने की तरफ पहला कदम है।
'मेरी पात्रता कहां! मेरी उतनी श्रद्धा और समर्पण कहा!'
यह पात्र व्यक्ति के हृदय में ही भाव उठता है कि मेरी पात्रता कहा! अपात्र तो समझते हैंहम जैसा सुपात्र कहां! यह विनम्र भाव ही तो पात्रता है कि मेरी पात्रता कहाकि मेरा समर्पण कहांकि मेरी श्रद्धा कहां! यही तो श्रद्धा की सूचना है। बीज मौजूद हैंबस समय की प्रतीक्षा है : ठीक अनुकूल समय परठीक अनुकूल ऋतु मेंअंकुरण होगाक्रांति घटेगी।
और यह यात्रा तो अनूठी यात्रा है। यह यात्रा तो अपरिचितअज्ञेय की यात्रा है।
      मुसलसल खामोशी की ये पर्दापोशी,
      अबस है कि अब राजदा हो गये हम।
      सुकूं खो दिया हमने तेरे जुनू में,  
      तेरे गम में शोला—बजी हो गये हम।
      हुए इस तरह खम जमानों के हाथों,
      कभी तीर थेअब कमी हो गये हम।
      न रहबर न कोई रफीके—सफर है,  
      ये किस रास्ते पर रवी हो गये हम।
      हमें बेखुदी में बड़ा लुक आया
      कि गुम हो के मजिलनिशा हो गये हम।
यह मंजिल ऐसी है कि खो कर मिलती है। तुम जब तक होतब तक नहीं मिलेगीतुम खोये कि मिलेगी।
      हमें बेखुदी में बड़ा लुक आया
जहां तुम नहींजहां तुम्हारा अहंकार गयाजहां बेखुदी आई..।
      हमें बेखुदी में बड़ा लुक आया
      कि गुम हो के मजिलनिशा हो गये हम।
कि खो कर और पहुंच गये! यह रास्ता मिटने का रास्ता है।
तो अगर तुम्हें लगता है, 'मेरी समर्पण की पात्रता कहां?' तो मिटना शुरू हो गयेबेखुदी आने लगी। अगर तुम्हें लगता है कि 'मेरी श्रद्धा कहां?' तो बेखुदी आने लगीतुम मिटने लगे।
संन्यास यही है कि तुम मिट जाओताकि परमात्मा हो सके।
      न रहबरन कोई रफीके—सफर है!
यह तो बड़ी अकेले की यात्रा है।
      न रहबरन कोई रफीके—सफर है!
न कोई साथी हैन कोई मार्गदर्शक है। अंततः तो गुरु भी छूट जाता हैक्योंकि वहां इतनी जगह भी कहां! प्रेम—गली अति सीकरीतामें दो न समाये! वहां इतनी जगह कहां कि तीन बन सकें! दो भी नहीं बनते। तो शिष्य होगुरु होपरमात्मा होतब तो तीन हो गए! वहां तो दो भी नहीं बनते। तो वहां गुरु भी छूट जाता है। वहा तुम भी छूट जातेवहा परमात्मा ही बचता है।
      न रहबरन कोई रफीके—सफर है
      ये किस रास्ते पर रवी हो गये हम।
संन्यास तो बड़ी अनजानी यात्रा हैबड़ी हिम्मतबड़े साहस की यात्रा है! जो अनजान में उतरने का जोखिम ले सकते हैं—उनकी। यह होशियारोंहिसाब लगाने वालों का काम नहीं। यह कोई गणित नहीं है। यह तो प्रेम की छलांग है।

तीसरा प्रश्न :

आपने कहा कि 'तू अभीयहीं, इसी क्षण मुक्त है'; लेकिन मैं इस 'मैंसे कैसे मुक्त होऊं?

कैसे पूछा कि चूक गयेफिर समझे नहीं। यही तो अष्टावक्र का पूरा उपदेश है : अनुष्ठान.,। 'कैसेयानी अनुष्ठान; 'कैसेयानी किस विधि सेविधि—विधान। 'कैसेपूछा कि चूक गयेफिर अष्टावक्र समझ में नहीं आयेंगे। फिर तुम पतंजलि के दरवाजे पर खटखटाओफिर वे बतायेंगे : 'कैसे'। अगर 'कैसेमें बहुत जिद हैतो पतंजलि तुम्हारे लिए मार्ग होंगे। वे तुम्हें बहुत—सा बतायेंगे कि करो यमनियमसंयमप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधि। वे इतना फैलायेंगे कि तुम भी कहोगे : महाराजथोड़ा कम! कोई सरल तरकीब बता देंयह तो बहुत बड़ा हो गयाइसमें तो जन्मों लग जायेंगे।
अधिक योगी तो यम ही साधते रहते हैंनियम तक भी नहीं पहुंच पाते। अधिक योगी तो आसन ही साधते—साधते मर जाते हैं—कहां धारणाकहां ध्यान! आसन ही इतने हैंऔर आसन की ही साधना पूरी हो जाये तो कठिन मालूम होती है। बहुत खोज करने वाले ज्यादा—से—ज्यादा धारणा तक पहुंच पाते हैं। और घटना तो समाधि में घटेगी। और समाधि को भी पतंजलि दो में बांट देते हैं : सविकल्प समाधिनिर्विकल्प समाधि। वे बांटते चले जाते हैंसीढ़ियां बनाते चले जाते हैं। वे जमीन से ले कर आकाश तक सीढ़ियां लगा देते हैं।
अगर तुम्हें 'कैसेमें रुचि है—अनुष्ठान में—तों फिर तुम पतंजलि से पूछो। हालांकि आखिर में पतंजलि भी कहते हैं कि अब सब छोड़ोबहुत हो गया'करना'। मगर कुछ लोग हैं जो बिना किये नहीं छोड़ सकतेतो करना पड़ेगा।
ऐसा ही समझो कि छोटा बच्चा है घर मेंशोरगुल मचाता हैऊधम करता हैतुम कहते हो,  'बैठ शांत', तो वह बैठ भी जाता है तो भी उबलता है। हाथ—पैर उसके कैप रहे हैंसिर हिला रहा है—वह कुछ करना चाहता हैउसके पास ऊर्जा है। यह कोई ढंग नहीं है उसको बिठाने का। इसमें तो खतरा है। इसमें तो विस्फोट होगा। इसमें तो वह कुछ न कुछ करेगा। बेहतर तो यह है कि उससे कहो कि जादौड़ कर जरा घर के सात चक्कर लगा आ। फिर वह खुद ही हांफते हुए आ कर शांत बैठ जायेगा। फिर तुम्हें कहना न पड़ेगाशांत हो जा। उसी कुर्सी पर शांत हो कर बैठ जायेगाजिस पर पहले शांत नहीं बैठ पाता था।
पतंजलि उनके लिए हैंजो सीधे शांत नहीं हो सकते। वे कहते हैंसात चक्कर लगा आओ। दौड़—धूप कर लो काफी। शरीर को आड़ा—तिरछा करो,शीर्षासन करोऐसा करोवैसा करो। कर—करके आखिर एक दिन तुम पूछते हो कि महाराजअब करने से थक गये! वे कहते हैंयह अगर तुम पहले ही कह देते,तो हम भी बचतेतुम भी बचतेअब तुम शांत हो कर बैठ जाओ!
आदमी करना चाहता है। क्योंकि बिना किए तुम्हारे तर्क में ही नहीं बैठता कि बिना किये कुछ हो सकता है! अष्टावक्र तुम्हारे तर्क के बाहर हैं। अष्टावक्र तो कहते हैंतुम मुक्त हो! तुम फिर गलत समझे। तुम कहते हो, 'तू अभी मुक्तयहीं मुक्त'; लेकिन मैं इस 'मैंसे कैसे मुक्त होऊं?'
अष्टावक्र यह कहते हैं कि यह 'कैसेकी बात ही तब हैजब कोई मान ले कि मैं अमुक्त हूं। तो तुमने एक बात तो मान ही ली पहले ही कि मैं बंधन में हूं अब कैसे मुक्त होऊंअष्टावक्र कहते हैं : बंधन नहीं है—भ्रांति है बंधन की। तुम फिर कहोगेइस भ्रांति से कैसे मुका होएतो भी तुम्हें समझ में न आयाक्योंकि भ्रांति का अर्थ ही होता है कि नहीं हैमुक्त क्या होना हैदेखते हीजागते ही—मुक्त हो।
अगर तरकीबों में पड़ेतो बड़ी मुश्किल में पड़ोगे।
      हर तरकीब खोटी पड़ गई
      आखिर जिंदगी छोटी पड़ गई।
ऐसे अगर तरकीबों में पड़े तो तुम पाओगे कि एक जिंदगी क्याअनेक जिंदगियां छोटी हैं। तरकीबें बहुत हैं। कितने—कितने जन्मों से तो तरकीबें साधते रहे! करने पर तुम्हारा भरोसा हैक्योंकि करने से अहंकार भरता है।
अष्टावक्र कह रहे हैंकुछ करो मत। करने वाला परमात्मा है। जो हो रहा हैहो रहा हैतुम उसमें सम्मिलित हो जाओ। तुम इतना भी मत पूछो कि इस 'मैं'से कैसे मुक्त होऊंअगर यह 'मैंहो रहा है तो होने दोतुम हो कौनजो इससे मुक्त होने की चेष्टा करोतुम इसे भी स्वीकार कर लेते हो कि ठीक हैअगर यह हो रहा हैतो यही हो रहा है। तुमने तो बनाया नहीं। याद हैतुमने कब बनाया इसेतुमने तो ढाला नहीं। तुम तो इसे लाये नहीं। तो जिसे तुम नहीं लायेउससे तुम छूट कैसे सकोगे? जो तुमने ढाला नहींउसे तुम मिटाओगे कैसेतुम कहते होक्या कर सकते हैंदो आंखें मिलींएक नाक मिलीऐसा यह अहंकार भी मिला। यह सब मिला है। अपने हाथ में कुछ भी नहीं। तो जो है ठीक है। 'मैंभी सहीयह भी ठीक है।
इसमें रंचमात्र भी शिकायत न रखो। उस बे—शिकायत की भाव—दशा मेंउस परम स्वीकार मेंतुम अचानक पाओगे. गया 'मैं'! क्योंकि 'मैंबनता ही कर्ता से है। जब तुम कुछ करते होतो 'मैंबनता है।
अब तुम एक नई बात पूछ रहे होकि 'मैंको कैसे मिटाऊंतो यह मिटाने वाला 'मैंबन जायेगाकहीं बच न पाओगे तुम। इसलिए तो विनम्र आदमी का भी अहंकार होता है—और कभी— कभी अहंकारी आदमी से ज्यादा बड़ा होता है।
तुमने देखा विनम्र आदमी का अहंकार! वह कहता हैमैं आपके पैर की धूल! मगर उसकी आंख में देखनावह क्या कह रहा है! अगर तुम कहो कि आप बिलकुल ठीक कह रहे हैंहमको तो पहले ही से पता था कि आप पैर की धूल हैंतो वह झगड़ने को खड़ा हो जायेगा। वह यह कह नहीं रहा है कि आप भी इसको मान लो। वह तो यह कह रहा है कि आप कहो कि आप जैसा विनम्र आदमी. दर्शन हो गये बड़ी कृपा! वह यह कह रहा है कि आप खंडन करो कि 'आपऔर पैर की धूलआप तो स्वर्ण—शिखर हैं! आप तो मंदिर के कलश हैं!जैसे—जैसे तुम कहोगे ऊंचावह कहेगा कि नहींमैं बिलकुल पैर की धूल हूं। लेकिन जब कोई कहे कि मैं पैर की धूल हूं तुम अगर स्वीकार कर लो कि आप बिलकुल ठीक कह रहे हैंसभी ऐसा मानते हैं कि आप बिलकुल पैर की धूल हैंतो वह आदमी फिर तुम्हारी तरफ कभी देखेगा भी नहीं। वह विनम्रता नहीं थी—वह नया अहंकार का रंग थाअहंकार ने नये वस्त्र ओढ़े थेविनम्रता के वस्त्र ओढ़े थे।
तो तुम अगर 'मैंसे छूटने की कोशिश कियेतो यह जो छूटने वाला हैयह एक नये 'मैंको निर्मित कर लेगा। आदमी पैरहन बदलता है! कपड़े बदल लिये,मगर तुम तो वही रहोगे।
अष्टावक्र की बात समझने की कोशिश करोजल्दी मत करो कि क्या करेंकैसे अहंकार से छुटकारा होकरने की जल्दी मत करोथोड़ा समझने के लिए विश्राम लो। अष्टावक्र यह कह रहे हैं कि 'मैंबनता कैसे हैयह समझ लो—करने से बनता हैचेष्टा से बनता हैयत्न से बनता हैसफलता से बनता है। तो तुम जहां भी यत्न करोगेवहीं बन जायेगा।
तो फिर एक बात साफ हो गई कि अगर अहंकार से मुक्त होना है तो यत्न मत करोचेष्टा मत करो। जो हैउसे वैसा ही स्वीकार कर लो। उसी स्वीकार में तुम पाओगे. अहंकार ऐसे मिट गयाजैसे कभी था ही नहीं। क्योंकि उसको जो ऊर्जा देने वाला तत्व थावह खिसक गयाबुनियाद गिर गईअब भवन ज्यादा देर न खड़ा रहेगा।
और अगर कर्ता का भाव गिर जायेतो जीवन की सारी बीमारियां गिर जाती हैंअन्यथा जीवन में बड़े जाल हैं। धन की दौड़ भी कर्ता की दौड़ है। पद की दौड़ भी कर्ता की दौड़ है। प्रतिष्ठा की दौड़ भी कर्ता की दौड़ है। तुम दुनिया को कुछ करके दिखाना चाहते हो।
मेरे पास कई लोग आ जाते हैंवे कहते हैं कि ऐसा कुछ मार्ग दें कि दुनिया में कुछ करके दिखा जायें। क्या करके दिखाना चाहते होकि नहींवे कहते हैं कि 'नाम रह जाये। हम तो चले जायेंगेलेकिन नाम रह जाए!नाम रहने से क्या प्रयोजनतुम्हारे नाम में और किसी की कोई उत्सुकता नहीं हैसिवाय तुम्हारे। जब तुम्हीं चले गयेकौन फिक्र करता है! जब तुम्हीं न बचोगेतो तुम्हारा नाम क्या खाक बचेगातुम न बचेजीवंततो नाम तो केवल तख्ती थीवह क्या खाक बचेगाकौन फिक्र करता है तुम्हारे नाम कीऔर नाम बच भी गया तो क्या सार हैकिन्हीं किताबों में दबा पड़ा रहेगातड़फेगा वहां! सिकंदर का नाम है,नेपोलियन का नाम है—क्या सार है?
नहींलेकिन हमें बचपन से ये रोग सिखाये गये हैं। बचपन से यह कहा गया है : 'कुछ करके मरनाबिना करे मत मर जाना! अच्छा हो तो अच्छानहीं तो बुरा करके मरनालेकिन नाम छोड़ जाना। लोग कहते हैं, 'बदनाम हुए तो क्याकुछ नाम तो होगा ही। अगर ठीक रास्ता न मिलेतो उलटे रास्ते से कुछ करना,लेकिन नाम छोड़ कर जाना!लोग ऐसे दीवाने हैं कि पहाड़ जाते हैंतो पत्थर पर नाम खोद आते हैं। पुराना किला देखने जाते हैंतो दीवालों पर नाम लिख आते हैं। और जो आदमी नाम लिख रहा हैवह यह भी नहीं देखता कि दूसरे नाम पोंछ कर लिख रहा है। तुम्हारा नाम कोई दूसरा पोंछ कर लिख जायेगा। तुम दूसरे का पोंछ कर लिख रहे हो। दूसरों के लिखे हैंउनके ऊपर तुम अपना लिख रहे हो—और मोटे अक्षरों मेंकोई और आ कर उससे मोटे अक्षरों में लिख जायेगा। किस पागलपन में पड़े हो?
      अलबेले अरमानों ने सपनों के बुने हैं जाल कई।
      एक चमक ले कर उठे हैंजज्जाते —पामाल कई।
      रूप की मस्ती ,प्यार का नशा ,नाम की अजमत ,जर का गुरूर
      धरती पर इन्सां के लिए हैंफैले मायाजाल कई।
      अपनी—अपनी किस्मत हैऔर अपनी—अपनी फितरत है,
      खुशियों से पामाल कई हैंगम से मालामाल कई।
      इंसानों का काल पड़ा हैवक्त कड़ा है दुनिया पर,
      ऐसे कड़े कब वक्त पड़े थेयूं तो पड़े हैं काल कई।
      दिल की दौलत कम मिलती हैदौलत तो मिलती है बहुत,
      दिल उनके मुफलिस थे हमने देखे अहलेमाल कई।
      कितने मंजर पिनहा हैंमदहोशी की गहराई में,
      होश का आलम एक मगरमदहोशी के पाताल कई।
कितने मंजर पिनहा हैं मदहोशी की गहराई में! यह जो हमारी मूर्च्छा हैइसमें कितने दृश्य छिपे हैं—दृश्य के बाद दृश्यपरदे के पीछे परदेकहानियों के पीछे कहानियां! यह जो हमारी मूर्च्छा हैइसमें कितने पाताल छिपे हैं—धन केपद केप्रतिष्ठा केसपनों के! जाल बिछे हैं!
कितने मंजर पिनहा हैं मदहोशी की गहराई मेंहोश का आलम एक मगरमदहोशी के पाताल कई।
लेकिन जो होश में आ गया हैउसका आलम एक हैउसका स्वभाव एक हैउसका स्वरूप एक हैउसका स्वाद एक है!
बुद्ध ने कहा है : 'जैसे चखो सागर को कहीं भी तो खारा हैऐसा ही तुम मुझे चखो तो मैं सभी जगह से होशपूर्ण हूं। मेरा एक ही स्वाद है—होश। '
वही स्वाद अष्टावक्र का है। कर्ता नहींभोक्ता नहीं—साक्षी!
तो यह तो पूछो ही मत. कैसे! क्योंकि 'कैसेमें तो कर्ता आ गयाभोक्ता आ गया—तो तुम चूक गयेअष्टावक्र की बात चूक गये। अष्टावक्र इतना ही कहते हैं : जो भी हैउसे देखोसाक्षी बनो। बस देखो! अहंकार है तो अहंकार को देखोकरने का क्या हैसिर्फ देखो—और देखने से क्रांति घटित होती है।
तुम समझे बातबात थोड़ी जटिल हैलेकिन जटिल इतनी नहीं कि समझ में न आये। बात सीधी—साफ भी है। अष्टावक्र कह रहे हैं कि तुम सिर्फ देखो,तो देखने में कर्ता तो रह नहीं जातामात्र साक्षी रह जाते हो। कर्ता हटा कि कर्ता से जिन—जिन चीजों को रस मिलता थाबल मिलता थावे सब गिर जायेंगी। बिना कर्ता के धन की दौड़ कहांपद की दौड़ कहांबिना कर्ता के अहंकार कहांवे सब अपने—आप गिरने लगेंगे। एक बात साध लो—साक्षीशेष कुछ भी करने को नहीं है। शेष सब अपने से हो जायेगा। शेष सदा होता ही रहा है। तुम नाहक ही बीच—बीच में खड़े हो जाते हो।
मैंने सुना हैएक हाथी एक पुल पर से गुजरता था। हाथी का वजन—पुल कैपने लगा! एक मक्खी उसकी सूंड़ पर बैठी थी। जब दोनों उस पार हो गयेतो मक्खी ने कहा, 'बेटा! हमने पुल को बिलकुल हिला दिया। 'हाथी ने कहा, 'देवी! मुझे तेरा पता ही न थाजब तक तू बोली न थी कि तू भी है। '
यह तुम जो सोच रहे हो तुमने पुल को हिला दियायह तुम नहीं हो—यह जीवन—ऊर्जा है। तुम तो मक्खी की तरह होजो जीवन—ऊर्जा पर बैठे कहते हो, 'बेटादेखो कैसा हिला दिया!'
यह अहंकार तो सिर्फ तुम्हारे ऊपर बैठा है। तुम्हारी जो अनंत ऊर्जा हैउससे सब कुछ हो रहा है। वह परमात्मा की ऊर्जा हैउसमें तुम्हारा कुछ लेना—देना नहीं है। वही तुममें श्वास लेतावही तुममें जागतावही तुममें सोतातुम बीच में ही अकड़ ले लेते हो। इतना जरूर है कि तुम जब अकड़ लेते हो तो वह बाधा नही डालता।
हाथी ने तो कम—से—कम बाधा डाली। हाथी ने कहा कि देवीमुझे पता ही न था कि तू भी मेरे ऊपर बैठी है। इतना तो कम—से—कम हाथी ने कहा,परमात्मा इतना भी नहीं कहता। परमात्मा परम मौन है। तुम अकड़ते हो तो अकड़ लेने देता है। तुम उसके कृत्य पर अपना दावा करते हो तो कर लेने देता है। जो तुमने किया ही नहीं हैउसको भी तुम कहते हो मैं कर रहा हूं तो भी वह बीच में आ कर नहीं कहता कि नहींतुम नहींमैं कर रहा हूं! क्योंकि उसके पास तो कोई 'मैं'है नहींतो कैसे तुमसे कहे कि मैं कर रहा हूंइसलिए तुम्हारी भ्रांति चलती जाती है।
लेकिन गौर से देखोथोड़ा आंख खोल कर देखो : तुम्हारे किये थोड़े ही कुछ हो रहा हैसब अपने से हो रहा है!
यही नियति का अपूर्व सिद्धात हैभाग्य का अपूर्व सिद्धात है कि सब अपने से हो रहा है। गलत लोगों ने उसके गलत अर्थ ले लियेगलत लोगों की भूल। अन्यथा भाग्य का इतना ही अर्थ है कि भाग्य के सिद्धात को अगर तुम ठीक से समझ लोतो तुम साक्षी रह जाओगेऔर कुछ करने को नहीं है फिर। लेकिन भाग्य से लोग साक्षी तो न बनेअकर्मण्य बन गयेअकर्ता तो न बनेअकर्मण्य बन गये।
अकर्ता और अकर्मण्य में भेद है। अकर्मण्य तो काहिल हैसुस्त हैमुर्दा है। अकर्ता ऊर्जा से भरा है—सिर्फ इतना नहीं कहता कि मैं कर रहा हूं। परमात्मा कर रहा है! मैं तो सिर्फ देख रहा हूं। यह लीला हो रही हैमैं देख रहा हूं।
आदमी बहुत बेईमान हैसुंदरतम सत्यों का भी बड़ा कुरूपतम उपयोग करता है। भाग्य बड़ा सुंदर सत्य है। उसका केवल इतना ही अर्थ है कि सब हो रहा हैतुम्हारे किये कुछ नहीं हो रहा है। सब नियत है। जो होना हैहोगा। जो होना हैहोता है। जो हुआ हैहोना था। तुम किनारे बैठ कर शांति से देख सकते हो लीलाकोई तुम्हें बीच में उछल—कूद करने की जरूरत नहीं है। तुम्हारे आगे—पीछे दौड़ने से कुछ भी फर्क नहीं पड़ रहा हैजो होना हैवही हो रहा है। जो होना है,वही होगा। फिर तुम साक्षी हो जाते हो।
साक्षी की तरफ ले जाने के लिए भाग्य का ढांचा खोजा गया था। लोग साक्षी की तरफ तो नहीं गयेलोग अकर्मण्य हो कर बैठ गये। उन्होंने कहाजब जो होना हैहोना हैतो फिर ठीकफिर हम करें ही क्योंअभी भी धारणा यही रही कि हमारे करने का कोई बल हैहम करें ही क्योंपहले कहते थेहम करके दिखायेंगेअब कहते हैंकरने में सार क्या! मगर कर्ता का भाव न गयावह अपनी जगह खड़ा हुआ है।
अष्टावक्र को अगर तुम समझोतो कोई विधि नहीं हैकोई अनुष्ठान नहीं है। अष्टावक्र कहते हैं : अनुष्ठान ही बंधन हैविधि ही बंधन हैकरना ही बंधन है।

चौथा प्रश्न :

आपकी अनुकंपा से आकाश देख पाता हूंप्रकाश के अनुभव भी होते हैंऔर भीतर के बहाव के साथ भी एक हो पाता हूं। लेकिन जब कामवासना पकड़ती हैतब उसमें भी उतना ही डूबना चाहता जितना ध्यान में। कृपया बतायेंयह मेरी स्थिति है?

हली बात : कामवासना के भी साक्षी बनो। उसके भी नियंता मत बनी। उसको भी जबर्दस्ती नियंत्रण में लाने की चेष्टा मत करोउसके भी साक्षी रहो। जैसे और सब चीजों के साक्षी हो वैसे ही कामवासना के भी साक्षी रहो। कठिन हैक्योंकि सदियों से तुम्हें सिखाया गया कि कामवासना पाप है। उस पाप की धारणा मन में बैठी है।
इस जगत में पाप है ही नहीं—बस परमात्मा है। यह धारणा छोड़ो। इस जगत में एक ही है रूप समाया सब में——वह परमात्मा है। क्षुद्र से क्षुद्र में वही,विराट से विराट में वही! निम्न में वहीश्रेष्ठ में वही! कामवासना में भी वही हैऔर समाधि में भी वही है। यहां पाप कुछ है ही नहीं।
इसका यह अर्थ नहीं कि मैं यह कह रहा हूं कि तुम कामवासना में ही अटके रह जाओ। मैं सिर्फ इतना कह रहा हूं. उसे भी तुम परमात्मा का ही एक रूप समझो। और भी रूप हैं। शायद कामवासना पहली सीढ़ी है उसके रूप की। थोड़ा—सा स्वाद समाधि का कामवासना में फलित होता हैइसलिए इतना रस है। जब और बड़ी समाधि घटने लगेगीतो वह रस अपने से खो जायेगा।
जिन मित्र ने पूछा है कि 'ध्यान में लीन होता हूं भीतर के बहाव के साथ एक हो पाता हूं कामवासना पकड़ती हैतब उसमें भी उतना ही डूबना चाहता हूं। 'डूबो! रोकने की कोई जरूरत नहीं है। बस डूबते—डूबते साक्षी बने रहना। देखते रहना कि डुबकी लग रही है। देखते रहना कि कामवासना ने घेरा। असल में'कामवासनाशब्द ही निंदा ले आता है मन में। ऐसा कहना : परमात्मा के एक ढंग ने घेरायह परमात्मा की ऊर्जा ने घेरायह परमात्मा की प्रकृति ने घेरापरमात्मा की माया ने घेरा! लेकिन कामवासना शब्द का उपयोग करते ही—पुराने सहयोगसंबंध शब्द के साथ गलत हैं—ऐसा लगता है पाप हुआसाक्षी रहना मुश्किल हो जाता है—या तो मूर्च्छित हो जाओ और या नियंता हो जाओ। साक्षी होना न तो मूर्च्छित होना है और न नियंता होना है—दोनों के मध्य में खड़ा होना है। एक तरफ गिरोकुंआएक तरफ गिरोखाई—बीच में रह जाओतो सधेतो समाधि।
ये दोनों आसान हैं। कामवासना में मूर्च्छित हो जाना बिलकुल आसान हैबिलकुल भूल जाना कि क्या हो रहा हैनशे में हो जाना आसान है। कामवासना को नियंत्रण कर लेनाजबर्दस्ती रोक लेनासम्हाल लेनावह भी आसान है। मगर दोनों में ही तुम चूक रहे हो। व्यभिचारी भी चूक रहा हैब्रह्मचारी भी चूक रहा है। वास्तविक ब्रह्मचर्य तो तब घटित होता हैजब तुम दोनों के मध्य में खड़े होजब तुम सिर्फ देख रहे हो। तब तुम पाओगे कि कामवासना भी शरीर में ही उठी और शरीर में ही गंजीमन में थोड़ी छाया पड़ीऔर विदा हो गई। तुम तो दूर खड़े रहे! तुममें कैसी कामवासना! तुममें वासना हो ही कैसे सकती हैतुम तो द्रष्टा—मात्र हो।
और अक्सर ऐसा होगा कि जब ध्यान ठीक लगने लगेगातो कामवासना जोर पकड़ेगी। यह तुम समझ लोक्योंकि अधिक लोगों को ऐसा होगा। ध्यान जब ठीक लगने लगेगातो तुम्हारे जीवन में एक विश्राम आयेगातनाव कम होगा। तो जन्मों—जन्मों से तुमने जो जबर्दस्ती की थीकामवासना के साथ जो दमन किया थावह हटेगा। तो दबी—दबाई वासना तेज ज्वाला की तरह उठेगी। इसलिए ध्यान के साथ अगर कामवासना उठेतो घबड़ाना मतयह ठीक लक्षण है कि ध्यान ठीक जा रहा हैध्यान काम कर रहा हैध्यान तुम्हारे तनावहटा रहा हैनियंत्रण हटा रहा हैतुम्हारा दमन हटा रहा हैध्यान तुम्हें सहज प्रकृति की तरफ ला रहा है।
पहले ध्यान तुम्हें प्रकृतिस्थ करेगा और फिर परमात्मा तक ले जायेगा। क्योंकि जो अभी नैसर्गिक नहीं हैउसका स्वाभाविक होना असंभव है। जो अभी प्रकृति के साथ भी नहीं हैवह परमात्मा के साथ नहीं हो सकता। तो ध्यान पहले तुम्हें प्रकृति के साथ ले जाएगाफिर तुम्हें परमात्मा के साथ ले जाएगा। प्रकृति,परमात्मा का बाह्य आवरण है। अगर उससे भी तुम्हारा मेल नहीं हैतो अंतरतम के परमात्मा से कैसे मेल होगाप्रकृति तो परमात्मा के मंदिर की सीढ़ियां हैं। अगर तुम सीढ़ियां ही न चढ़ेतो मंदिर के अंतर्गृह में कैसे प्रवेश होगा?
अगर तुम मेरी बात समझ पाओतो अब और दमन मत करो! अब चुपचाप उसे भी स्वीकार कर लो। परमात्मा जो दृश्य दिखाता हैशुभं ही होगा। परमात्मा दिखाता हैतो शुभ ही होगा। तुम नियंत्रण मत करोऔर न तुम निर्णायक बनीऔर न तुम पीछे से खड़े होकर यह कहो कि यह ठीक और यह गलतमैं ऐसा करना चाहता और ऐसा नहीं करना चाहता। तुम सिर्फ देखो!
      उम्र ढलती जा रही है
      शमा—ए—अरमां भी पिघलती जा रही है,
      रफ्त—रफ्ता आग बुझती जा रही है,
      शौक रमते जा रहे हैं
      सैल थमते जा रहे हैं
      राग थमता जा रहा है
      खामोशी का रंग जमता जा रहा है,
      आग बुझती जा रही है।
ठीक हो रहा है। लेकिन इसके पहले कि आग बुझेआखिरी लपट उठेगी। तुम चिकित्सकों से पूछोमरने के पहले आदमी थोड़ी देर को बिलकुल स्वस्थ हो जाता हैसब बीमारियां खो जाती हैं। जो मुर्दे की तरह बिस्तर पर पड़ा थाउठ कर बैठ जाता हैआंख खोल देता हैताजा मालूम पड़ता है। मरने के थोड़ी देर पहले सब बीमारियां खो जाती हैंक्योंकि जीवन आखिरी छलांग लेता हैऊर्जा जीवन की फिर से उठती है।
तुमने देखादीया बुझने के पहले आखिरी भभक से जलता है! इसके पहले कि आखिरी तेल चुक जायेआखिरी बूंद तेल की पी कर भभक उठता है। वह आखिरी भभक है। सुबह होने के पहले रात देखाकैसी अंधेरी हो जाती है! वह आखिरी भभक है। ऐसे ही ध्यान में भी जब तुम गहरे उतरोगेतो तुम पाओगोआग जब बुझने के करीब आने लगती हैतो आखिरी भभक। काम—ऊर्जा भी उठेगी।
      उम्र ढलती जा रही है
      शमा—ए— अरमां भी पिघलती जा रही है
कामना का दीया पिघल रहा हैउम्र ढल रही है।
      रफ्ता—रफ्ता आग बुझती जा रही है।
      शौक रमते जा रहे हैं
      सैल थमते जा रहे हैं
प्रवाह रुक रहा है जीवन का।
      राग थमता जा रहा है
      खामोशी का रंग जमता जा रहा है।
ध्यान का रंग जम रहा हैमौन का रंग जम रहा है।
      खामोशी का रंग जमता जा रहा है।
      आग बुझती जा रही है।
इसमें किसी भी घड़ी भभक उठेगी। ऐसी भभक ही उठ रही है। उसे देख लो। उसे दबा मत देनाअन्यथा फिर तुम्हारे भीतर सरक जायेगी। छुटकारा होने के करीब हैतुम उसे दबा मत लेनाअन्यथा फिर बंधन शुरू हो जायगा। जो दबाया गया हैवह फिर—फिर निकलेगा। जिसके साथ तुमने जबर्दस्ती की हैवह फिर—फिर आयेगा। जाने ही दोनिकल ही जाने दोबह जाने दो। होने दो भभक कितनी ही बड़ीतुम शांत भाव से देखते रहो। तुम्हारे ध्यान में कुछ बाधा नहीं पड़ती इससे। तुम साक्षी बने रहो!

पांचवां प्रश्न :

आपने कहा कि किसी भी बंधन में मत पड़ोशांत और सुखी हो जाओ। तो क्या संन्यास भी एक बंधन नहीं हैऔर क्या विधिउपाय व प्रक्रिया भी बंधन नहीं हैं? कृपया समझाएं!

गर बात समझ में आ गई तो पूछो ही मत। अगर पूछते हो तो बात समझ में आई नहीं। अगर बात समझ में आ गई मेरी कि किसी बंधन में मत पड़ो,शांत और सुखी हो जाओतो समझते से ही तुम सुखी और शांत हो जाओगेफिर यह प्रश्न कहांसुखी और शांत आदमी प्रश्न पूछता हैसब प्रश्न अशांति से उठतेदुख से उठतेपीड़ा से उठते।
अगर तुम अभी भी प्रश्न पूछ रहे होतो तुम शांत अभी भी हुए नहींसंन्यास की जरूरत पड़ेगी। अगर शांत तुम हो जाओतो क्या जरूरत संन्यास की?संन्यास हो गया!
लेकिन अपने को धोखा मत दे लेना! संन्यास लेने की हिम्मत न होअष्टावक्र का सहारा मत ले लेना। हीअगर शांत हो गए हो तो कोई संन्यास की जरूरत नहीं है। शांति की खोज में ही तो आदमी संन्यास लेता है।
अगर तुम सुखी हो गएसमझते ही सुखी हो गयेअगर जनक जैसे पात्र होतो बात खतम हो गई। मगर तब यह प्रश्न न उठता। जनक ने प्रश्न नहीं पूछा;जनक ने कहा, 'अहो प्रभु! तो मैं मुका हूंआश्चर्य कि अब तक कैसे माया—मोह में पड़ा रहा!'
तुम अगर जनक जैसे पात्र होतेतो तुम कहते, 'धन्य! तो मैं मुक्त हूं! तो अब तक कैसे माया—मोह में पड़ा रहा!तुम यह प्रश्न पूछते ही नहीं।
मामला ऐसा है कि संन्यास लेने की कामना मन में हैहिम्मत नहीं है। अष्टावक्र को सुन कर तुमने सोचायह अच्छा हुआ कि संन्यास में बंधन हैकोई पड़ने की जरूरत नहीं! और दूसरे बंधन छोड़ोगे कि सिर्फ संन्यास का ही बंधन छोड़ोगेऔर संन्यासी तुम अभी हो ही नहींतो उसे छोड़ने का कोई उपाय नहीं हैजो तुम्हारे पास ही नहीं है। और बंधन क्या—क्या छोड़ोगेपत्नी छोड़ोगेघर छोड़ोगेधन छोड़ोगेपद छोड़ोगेमन छोड़ोगेकर्ता छोड़ोगे? अहंकार— भाव छोड़ोगेऔर क्या—क्या छोड़ोगे जो तुम्हारे पास हैनिश्चित जो तुम्हारे पास है वही तुम छोड़ सकते हो। यह तो संन्यासियों को पूछने दोजो संन्यासी हो गये हैं। तुम तो अभी संन्यासी हुए नहीं। यह तो संन्यासी पूछे कि क्या अब छोड़ दें संन्यासतो समझ में आता है। उसके पास संन्यास हैतुम्हारे पास है ही नहीं। जो तुम्हारे पास नहींउसे तुम छोड़ोगे कैसेजो तुम्हारे पास हैवही पूछो। गृहस्थी छोड़ देंयह पूछो।
अष्टावक्र की पूरी बात सुन कर तुमको इतना ही समझ में आया कि संन्यास बंधन है! और कोई चीज बंधन है?
आदमी चालाक है। मन बेईमान है। मन बड़े हिसाब में रहता है। वह देखता हैअपने मतलब की बात निकाल लो कि चलो यह तो बहुत ही अच्छा हुआ,झंझट से बचे! डरे—डरे लेने की सोच रहे थेये अष्टावक्र अच्छे मिल गये रास्ते परइन्होंने खूब समझा दियाठीक समझा दियाअब कभी भूल कर संन्यास न लेंगे!
अष्टावक्र से कुछ और सीखोगे?
लोग मेरे पास आ जाते हैं। वे कहते हैं, 'अब ध्यान छोड़ देंक्योंकि अष्टावक्र कहते हैंध्यान में बंधन है। धन छोड़ोगेपद छोड़ोगेसिर्फ ध्यान.! और ध्यान अभी लगा ही नहींछोड़ोगे खाकध्यान होता और तुम कहते छोड़ देंतो मैं कहताछोड़ दो! मगर जिसका ध्यान लग गयावह कहेगा ही नहीं छोड़ने की बातवह छोड़ने —पकड़ने के बाहर गया। वह अष्टावक्र को समझ लेगाआनंदित होगागदगद होगा। वह कहेगाठीकबिलकुल बात यही तो है। ध्यान में ध्यान ही तो छूटता है। संन्यास में बंधन ही तो छूटते हैं। संन्यास कोई बंधन नहीं है। यह तो केवल और सारे बंधनों को छोड़ने का एक उपाय है। अंततः तो यह भी छूट जायेगा।
ऐसा ही समझो कि पैर में काटा लगातो तुम दूसरा कांटा उठा कर पहले कांटे को निकाल लेते हो। दूसरा कांटा भी कांटा हैलेकिन पहले कांटे को निकालने के काम आ जाता है। फिर तो तुम दोनों को फेंक देते हो। फिर दूसरे काटे को संभाल कर थोड़े ही रखतेकि इसने बड़ी कृपा की कि पहले कांटे को निकाल दिया! फिर ऐसा थोड़े ही करते कि अब पहला काटा जहां लगा थावहां दूसरा लगा लोयह बड़ा प्रिय है!
संन्यास तो काटा है। संसार का कांटा लगा हैउसे निकालने का एक उपाय है। अगर तुम बिना काटे के निकाल सकोतो बड़ा शुभ। अष्टावक्र की बात समझ में आ जायेतो इससे शुभ और क्या हो सकता है! फिर किसी संन्यास की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन जरा सोच लेनाकहीं यह बेईमानी न हो! अगर बेईमानी होतो हिम्मत करो और संन्यास में उतरो। कभी ऐसी घड़ी आयेगीजब संन्यास को भी छोड़ने के तुम योग्य हो .—जाओगे।
लेकिन छोड़ना क्या हैजब समझ आती हैतो छोड़ने को कुछ भी नहीं—सब छूट जाता है। यही तो जनक ने कहा कि प्रभुयह शरीर भी छूट गया! अभी जनक शरीर में हैंशरीर छूट नहीं गयालेकिन जनक कहते हैंयह शरीर भी छूट गया! यह सारा संसार भी छूट गया! यह सब छूट गया! मैं बिलकुल अलिप्त,भावातीत हो गया! कैसी कुशलता आपके उपदेश की! यह कैसी कला! कुछ भी हुआ नहींन महल छूटान संसार छूटान शरीर छूटा—और सब छूट गया!
जिस दिन तुम समझोगे तो फिर कुछ छोड़ने को नहीं है —न संसार और न संन्यास! छोड़ने की बात ही उस आदमी की हैजो सोचता है कुछ पकड़ने को है।
त्याग भी भोग की छाया है। त्यागी भी भोगी का ही शीर्षासन करता हुआ रूप है। जब भोग जाता हैत्याग भी जाता है। वे दोनों साथ रहते हैंसाथ जाते हैं। इसलिए तो तुम देखते होभोगियों को त्यागियों के पैर पड़ते! वे साथ—साथ हैं। आधा काम त्यागी कर रहेआधा भोगी कर रहे—दोनों एक—दूसरे के साथ जुड़े हैं। न भोगी जी सकते त्यागी के बिनान त्यागी जी सकते भोगी के बिना। तुमने देखा यह षड्यंत्र!
एक आदमी मेरे पास आयाकहा कि ध्यान सीखना है। वे संन्यासी थे—पुराने ढब के संन्यासी! तो मैंने कहा कि ठीक हैकल सुबह ध्यान में आ जाओ। उन्होंने कहावह तो जरा मुश्किल है। मैंने कहा, 'क्योंइसमें क्या मुश्किल है?' उन्होंने कहा कि मुश्किल यह है कि ये मेरे साथ जो हैंजब तक ये मेरे साथ न आएंमैं नहीं आ सकताक्योंकि पैसा ये रखते हैंपैसा मैं नहीं छूता। इनको सुबह कहीं और जाना हैतो मैं कल सुबह तो न आ सकूंगा।
यह भी खूब मजा हुआ! पैसे की जरूरत तो तुम्हें है हीफिर तुम अपनी जेब में रखो कि दूसरे की जेब मेंइससे क्या फर्क पड़ता हैऔर यह तो और बंधन हो गया। इससे तो वे ही ठीक जो अपनी जेब में रखते हैंकम—से—कम जहां जाना हैजा तो सकते हैं! अब यह एक अजीब मामला हो गया कि यह आदमी जब तक साथ न होतब तक तुम आ नहीं सकतेक्योंकि टैक्सी में पैसे देने पड़ेंगे—पैसा हम छूते नहीं हैं! तो तुम अपना पाप इस आदमी से करवा रहे होअपना पाप खुद करो। यह बड़े मजे की बात है कि टैक्सी में तुम बैठोगेनरक यह जायेगा! इस पर कुछ दया करो। यह भोगी—योगी का खूब जोड़ है!
तुम्हारे सारे त्यागी भोगियों से बंधे जी रहे हैं। और तुम्हारा भोगी भी त्यागियों से बंधा जी रहा हैक्योंकि वह त्यागी के चरण छू कर सोचता है, 'आज त्यागी नहीं तो कम—सें—कम त्यागी के चरण तो छूता हूंचलो कुछ तो तृप्तिकुछ तो किया! आज नहीं कलमैं भी त्यागी हो जाऊंगा। लेकिन अभी त्यागी की पूजा—अर्चना तो करता हूं!'
जैन कहते हैंकहां जा रहे हो? —साधु जी की सेवा करने जा रहे हैं! सेवा करके सोचते हैं कि चलोकुछ तो लाभ—अर्जन कर रहे हैं। उधर साधु बैठे हैंवे राह देख रहे हैंकि भोगी जी कब आयें! इधर भोगी जी हैंवे देखते हैं कि साधु जी कब गाव में पधारे! तो भोगी जी और साधु जीदोनों एक ही सिक्के के पहलू हैं।
तुम जरा सोचोअगर भोगी साधुओं के पास जाना बंद कर देंकितने साधु वहां बैठे रहेंगे! वे सब भाग खड़े होंगे। कौन इंतजाम करेगाकौन व्यवस्था करेगा! वे सब जा चुके होंगे। लेकिन भोगी साधु को सम्हालता हैसाधु भोगी को सम्हाले रखता है। यह पारस्परिक है।
वास्तविक ज्ञानी न तो त्यागी होतान भोगी होता। वह इतना ही जान लेता है कि मैं सिर्फ साक्षी हूं। अब पैसे दूसरे की जेब में रखो कि अपनी जेब में रखो,क्या फर्क पड़ता हैवह साक्षी है। होतो साक्षी हैन होतो साक्षी है। गरीब होतो साक्षी हैअमीर होतो साक्षी है। साक्षी में थोड़े ही गरीबी—अमीरी से फर्क पड़ता है! क्या तुम सोचते हो भिखमंगा साक्षी होगा तो उसका साक्षीपन थोड़ा कम होगाऔर सम्राट साक्षी होगा तो उसका साक्षीपन थोड़ा ज्यादा होगासाक्षीपन कहीं कम—ज्यादा होता हैगरीब हो कि अमीरस्वस्थ हो कि अस्वस्थपढ़ा—लिखा हो कि बेपढा—लिखासुंदर हो कि कुरूपख्यातिनाम हो कि बदनाम—इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। साक्षी कुछ ऐसी संपदा हैजो सभी के भीतर बराबर हैउसमें कुछ कम—ज्यादा नहीं होता।
हर स्थिति के हम साक्षी हो सकते हैं—सफलता केविफलता केसम्मान केअपमान के। साक्षी बनोइतना ही अष्टावक्र का कहना है। लेकिन अगर पाओ कि कठिन है साक्षी बनना और अभी तो विधि का उपयोग करना होगातो विधि का उपयोग करोघबड़ाओ मत। विधि का उपयोग कर—करके तुम इस योग्य बनोगे कि विधि के भी साक्षी हो जाओगे। इसलिए तो मैं कहता हूं ध्यान करोकोई फिक्र नहीं। क्योंकि मैं जानता हूं ध्यान न करने से तुम्हें साक्षी—भाव नहीं आने वालाध्यान न करने से केवल तुम्हारे विचार चलेंगे। तो विकल्प 'ध्यान और साक्षीमें थोड़े ही हैविकल्प 'विचार और ध्यानमें है।
समझे मेरी बाततुम जब नहीं ध्यान करोगे—सुन लिया अष्टावक्र को—अष्टावक्र ने कहा ध्यान इत्यादि सब बंधन है—और बिलकुल ठीक कहासौ प्रतिशत ठीक कहा—तो तुमने ध्यान छोड़ दिया तो तुम क्या करोगेसाक्षी हो जाओगे उस समयतुम वही कूड़ा—कर्कट विचार दोहराओगे। तो यह तो बड़े मजे की बात हुई। यह तो अष्टावक्र के कारण तुम और भी संसार में गिरे। यह तो सीढ़ीजिससे चढ़ना थातुमने नर्क में उतरने के लिए लगा ली। सीढ़ी वही है।
मैं तुमसे कहता हूं ध्यान करो। क्योंकि अभी तुम्हारे सामने विकल्प ध्यान और विचारइसका हैअभी साक्षी का तो तुम्हारे सामने विकल्प नहीं है। हाजब ध्यान कर—करके विचार समाप्त हो जायेगातब एक नया विकल्प आयेगाकि अब चुनना है : साक्षी या ध्यानतब साक्षी चुननाऔर ध्यान को भी छोड़ देना।
अभी अगर तुमने तय किया कि संन्यास नहीं लेना हैतो तुम संसारी रहोगे। अभी विकल्प संन्यास और संसार में है। अभी मैं कहता हूं : लो संन्यास! फिर एक दिन ऐसी घड़ी आयेगी कि विकल्प संसार और संन्यास का नहीं रह जाएगा। संसार तो गयासंन्यास रह गया। तब परम संन्यास और संन्यास का विकल्प होगा। तब मैं तुमसे कहूंगा : जाने दो संन्यास! अब डूबो परम संन्यास में। हौअगर तुम क्षण भर में जनक जैसे जा सकते होतो मैं बाधा देने वाला नहीं! तुम सुखी हो जाओ! सुखी भव! न हो पाओतो इसमें कोई और निर्णय करेगा नहींतुम्हीं निर्णय करना कि अगर सुखी नहीं हो पा रहेतो फिर कुछ करना जरूरी है।
सत्य भी तुम असत्य कर ले सकते होऔर फूल भी तुम्हारे लिए काटे बन सकते हैं—तुम पर निर्भर है।
      उजियारे में नैन मूंद कर भाग नहीं
      मेरे भोले मन।
      डगरें सब अनजानी हैं,
      पथ में मिलते शूल—शिला
      भीनी—भीनी गंध देख कर,
      सुमनों का विश्वास न कर!
तुम जरा खयाल करनाजाग कर कदम उठाना! क्योंकि तुम जो कदम उठाओगेवह कहीं भीनी—भीनी गंध को देख कर ही मत उठा लेना।
      पथ में मिलते शूल—शिला
      भीनी— भीनी गंध देख कर
      सुमनों का विश्वास न कर।
वह जो तुम्हें भीनी गंध मिलती हैखयाल कर लेनावह कहीं तुम्हारी आरोपित ही न हो! वह कहीं तुम्हारा लोभ ही न हो! वह तुम्हारा कहीं भय ही न हो! वह कहीं तुम्हारी कमजोरी ही न होजो तुम आरोपित कर लेते हो। और उस भीनी गंध में तुम भटक मत जाना।
बड़ा सुगम है कुछ न करनासुन कर ऐसा लगता है। लेकिन जब करने चलोगे 'कुछ न करना', तो इससे ज्यादा कठिन और कोई बात नहीं। सुन कर तो साक्षी की बात कितनी सरल लगती है कि कुछ नहीं करनासिर्फ देखना हैजब करने चलोगे तब पाओगेअरेयह तो बड़ी दुस्तर है!
ऐसा करना कि अपनी घड़ी को ले कर बैठ जाना। सेकेंड का कांटा एक मिनिट में चक्कर लगा लेता है। तुम उस सेकेंड के काटे पर नजर रखना और कोशिश करनाकि मैं साक्षी हूं इस सेकेंड के कांटे काऔर साक्षी रहूंगा। तुम पाओगे दो चार सेकेंड चले—गया साक्षी! कोई दूसरा विचार आ गया! भूल ही गये! फिर झटका लगेगा कि अरेयह काटा तो आगे सरक गया! फिर दो—चार सेकेंड साक्षी रहेफिर भूल गये। एक मिनिट पूरे होने में तुम दों—चार—दस डुबकियां खाओगे। एक मिनिट भी साक्षी नहीं रह सकते हो! तो अभी साक्षी का तो सवाल ही नहीं है। अभी तो तुम विचार और ध्यान में चुनोफिर धीरे—धीरे ध्यान और साक्षी में चुनाव करना संभव हो जायेगा।
संन्यास का पूछते हो तो संन्यास तो सिर्फ मेरे साथ होने की एक भावभंगिमा है। यह बंधन नहीं है। तुम मुझसे बंध नहीं रहे हो। मैं तुम्हें कोई अनुशासन नहीं दे रहा हूं कोई मर्यादा नहीं दे रहा हूं। मैं तुमसे कह नहीं रहा—कब उठोक्या खाओक्या पीयोक्या करोक्या न करो। मैं तुमसे इतना ही कह रहा हूं कि साक्षी रहो। मैं तुमसे इतना ही कह रहा हूं कि मेरा हाथ मौजूद हैमेरे हाथ में हाथ गहोशायद दो कदम मेरे साथ चल लोतो मेरी बीमारी तुम्हें भी लग जाये। संक्रामक है यह बीमारी। बुद्ध के साथ थोड़ी देर चल लोतो तुम उनके रंग में थोड़े रंग जाओगेएकदम बच नहीं सकते। थोड़ी गंध उनकी तुममें से भी आने लगेगी। बगीचे से ही अगर गुजर जाओतो तुम्हारे कपड़ों में भी फूलों की गंध आ जाती है—फूल छुए भी नहींतो भी!
संन्यास तो मेरे साथ चलने की थोड़ी हिम्मत हैथोड़ी भावभंगिमा है। यह तो मेरे प्रेम में पड़ना है। इस प्रेम की पूरी प्रक्रिया यही है कि तुम्हें मुक्त करने के लिए मैं आयोजन कर रहा हूं। तुम मेरे साथ चलो तो मुक्ति की गंध तुम्हें देना चाहता हूं।
      सांस का पुतला हूं मैं
      जरा से बंधा हूं
      और मरण को दे दिया गया हूं
      पर एक जो प्यार है न
      उसी के द्वारा,
      जीवन—मुक्त मैं किया गया हूं!
      काल की दुर्वह गदा को
      एक कौतुक— भरा बाल क्षण तौलता है।
      हो क्या तुम?
      सांस का पुतला हूं मैं
      जरा से बंधा हूं?
      और मरण को दे दिया गया हूं!
जन्म और मृत्युबस यही तो हो तुम। सांस आई और गईइसके बीच की थोड़ी—सी कथा हैथोड़ा—सा नाटक है। इसमें अगर कुछ भी हैजो तुम्हें पार ले जा सकता है मृत्यु के और जन्म के........
      पर एक जो प्यार है न
      उसी के द्वारा,
      जीवन—मुक्त मैं किया गया हूं!
अगर जन्म और मरण के बीच प्यार घट जाये…….
संन्यास तो मेरे साथ प्रेम में पड़ना हैइससे ज्यादा कुछ भी नहीं। बस इतना हीइतनी ही परिभाषा। अगर तुम मेरे साथ प्रेम में हो और थोड़ी दूर चलने को राजी होतो वह थोड़ी दूर चलनातुम्हें बहुत दूर ले जाने वाला सिद्ध होगा।
और बाकी तो सब ऊपर की बातें हैंकि तुमने कपड़े बदल लियेकि माला डाल ली। वह तो केवल तुम्हें साहस जगे और तुम्हें आत्म—स्मरण रहे,इसलिए। वह तो केवल बाहर की शुरुआत हैफिर भीतर बहुत कुछ घटता है। तुम जिनको देख रहे हो गैरिक वस्त्रों में रंगे हुए उनके सिर्फ गैरिक वस्त्र हो मत देखना,थोड़ा उनके हृदय में झांकना—तो तुम वहां पाओगे प्रेम की एक नई धारा का आविर्भाव हो रहा है।
      पर एक जो प्यार है न,
      उसी के द्वारा
      जीवन—मुक्त मैं किया गया हूं!
मुझे गिरने दो तुम्हारे ऊपर! अभी तुम अगर पाषाण भी हो तो फिक्र मत करो : यह जलधार तुम्हारे पाषाण को काट डालेगी।
      किरण जब मुझ पर झरी
      मैंने कहा—
      'मैं वज्र कठोर हूं,
      पत्थर सनातन!'
      किरण बोली—भला ऐसा?
      तुम्हीं को खोजती थी मैं
      तुम्हीं से मंदिर गढूंगी
      तुम्हारे अंतकरण से तेज की प्रतिमा उकेरूंगी। '
      स्तब्ध मुझकोकिरण ने अनुराग से दुलरा लिया।
      किरण जब मुझ पर झरी मैंने कहा—
      'मैं वज्र कठोर हूं
      पत्थर सनातन!'
तुम भी यही मुझसे कहते हो कि नहींआप हमें बदल न पायेंगेकि हम पत्थर हैंबहुत प्राचीनकि न बदलने की हमने कसम खा ली है। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं :
      किरण बोली—भला ऐसा?
      तुम्हीं को खोजती थी मैं
      तुम्हीं से मंदिर गढूगी
      तुम्हारे अंतःकरण से तेज की प्रतिमा उकेरूंगी। '
      स्तब्ध मुझको किरण ने अनुराग से दुलरा लिया।
ये गैरिक वस्त्र तो केवल मेरे प्रेम की सूचना हैं—तुम्हारे प्रेम की मेरी तरफमेरे प्रेम की तुम्हारी तरफ। यह तो एक गठबंधन है।

आखिरी प्रश्न :

हे प्रियप्यारे! प्रणाम ले लो, इन आंसुओं को मकाम दे दोतुमने तो भर दी है झोली,
फिर भी मैं कोरी की कोरी। है प्रिय प्‍यारे! मीत हमारे! शीश श्रीफल चरण तुम्‍हारे!

या ने पूछा है। '
जया मेरे करीब है बहुत वर्षों से। ठीक मीरा जैसा हृदय है उसके पासवैसा ही गीत है दबा उसके हृदय मेंवैसा ही नृत्य है उसके हृदय में दबा। जब प्रगट होगाजब वह अपनी महिमा में प्रगट होगीतो एक दूसरी मीरा प्रगट होगी। ठीक समय की प्रतीक्षा हैकभी भी किरण उतरेगी और अंधकार कटेगा। और हिम्मतवर है—इसलिए भविष्यवाणी की जा सकती है कि होगा।
      किंतु नहीं क्या यही धुंध है सदावर्त
      जिसमें नीरंध्र तुम्हारी करुणा
      बंटती रहती है दिन—याम
      कभी झांक जाने वाली छाया ही
      अंतिम भाषासंभव नाम
      करुणाधाम
      बीजमंत्र यह
      सारसूत्र यह
      गहराई का एक यही परिमाण
      हमारा यही प्रणाम





      धुंध ढकी,
      कितनी गहरी वापिका तुम्हारी,
      लघु अंजुली हमारी!
प्रभु के सामने तो हमारे हाथ सदा छोटे ही पड़ जाते हैं! हमारी अंजुली छोटी है!
      धुंध ढंकी
      कितनी गहरी वापिका तुम्हारी
      लघु अंजुली हमारी!
जिनके हृदय में भी प्रेम हैउन्हें सदा ही लगेगा हमारी अंजुली बड़ी छोटी है।
पूछा है जया ने— 

'हे प्रिय प्यारेप्रणाम ले लो
इन आंसुओं को मुकाम दे दो
तुमने तो भर दी है झोली
फिर भी मैं कोरी की कोरी।'

यह कुछ ऐसा भराव हैकि इसमें आदमी और—और शून्य होता चला जाता है। यह शून्य काही भराव है। यह शून्य सेही भराव है। तुम्हें कोरे करने का ही मेरा प्रयास है। अगर तुम कोरे हो गये तो मैं सफल हो गया। अगर तुम भरे रह गये तो मैं असफल हो गया। तुम जब बिलकुल कोरे हो जाओगे और तुम्हारे भीतर कुछ भी न रह जायेगा—कोई रेखाकोई शब्दकोई कूड़ा—कचरा—तुम्हारी उस शून्यता में ही परमात्मा प्रगट होगा।
जया से कहूंगा :
      जाआत्मा जा
      कन्या वधु का,
      उसकी अनुगा
      वह महाशून्य ही अब तेरा पथ
      वह महाशून्य ही अब तेरा पथ
      लक्ष्य अन्य जल पालक
      पति आलोक धर्म
      तुझको वह एकमात्र सरसायेगा
      ओ आत्मा री!
      तू गई वरी
      ओ संपृक्ता
      आ परिणीता,
      महाशून्य के साथ भांवरें तेरी रची गईं।
महाशून्य के साथ भांवरें तेरी रची गईं! यह रिक्त होनायह कोरा होते जाना—महाशून्य के साथ भांवरों का रच जाना है। नाचतेउस शून्य के महाभाव को प्रगट करतेगुनगुनातेमस्तखोते जाना है!
होते जाने का एक ही उपाय है—खोते जाना है। यहां तुम पूरे शून्य हुए कि वहां परमात्मा पूरी तरह उतरा। तुम ही बाधा हो। इसलिए घबड़ाओ मत! कोरे हो गयेतो सब हो गया।'
महाराष्ट्र में कथा है कि एकनाथ ने निवृत्तिनाथ को पत्र लिखा—कोरा कागज! कुछ लिखा नहीं। निवृत्तिनाथ ने बड़े गौर से पढ़ा—कोरा कागज! पढने को वहा कुछ था भी नहीं। खूब—खूब पढ़ा! बार—बार पढ़ा! फिर—फिर पढ़ा! पास मुक्ताबाई बैठी थीफिर उसे दियाफिर उसने पढ़ा। उसके तो आंसू बहने लगे! वह तो गदगद हो गई! और लोग मौजूद थेवे कहने लगेयह बड़ा पागलपन हुआ! पहले तो एकनाथ पागल कि कोरा कागज भेजा। चिट्ठीकुछ लिखा तो हो! फिर वह निवृत्तिनाथ पागलकि पढ़ रहा हैएक बार ही नहींबार—बार पढ़ रहा है। फिर हद मजा कि यह मुक्ताबाईये गदगद हो कर आंसू बहने लगे!
सब शास्त्र कोरे कागज हैं! और अगर कोरा कागज पढ़ना आ जायेतो सब शास्त्र पढ्ने आ गये—वेदकुरानगुरुग्रंथगीताउपनिषदबाइबिल,धम्मपद। जिसने कोरा कागज पढ़ लियासब आ गया!
तुम कोरे कागज जैसे हो जाओइसी चेष्टा मैं संलग्न हूं। तुम्हें मिटाने में लगा हूं क्योंकि तुम ही बाधा हो।
अरी ओ आत्मा री,
कन्या भोली क्यारी
महाशून्य के साथ भांवरें तेरी रची गईं।

हरि ओंम तत्सत्!