Ashtavakra Mahageeta (Day 62)

पहला प्रश्न
आप कहते हैं कि समझ पैदा  हो जाए तो कुछ भी करने की जरूरत नहीं आप जिस समझ की तरफ इशारा करते हैं क्या वह बुद्धि की समझ से भिन्न है असली समझ पर कुछ प्रकाश डालने की अनुकम्पा करें ?

बुद्धि की समझ तो समझ ही नहीं बुद्धि की समझ तो समझ का धोखा है बुद्धि की समझ तो तरकीब है अपने को नासमझ रखने की बुद्धि का अर्थ होता है जो तुम जानते हो उस सबका संग्रह।जाने हुए के माध्यम से अगर सुना तो तुम सुनोगे ही नहीं। जाने हुए के माध्यम से सुना तो तुम ऐसे ही सूरज की तरफ देख रहे हो जैसे की कोई आँख बंद करके देखे। जो तुम जाने हुए बैठे हो तुम्हारा पक्षपात तुम्हारी धारणाएं तुम्हारे सिद्धांत तुम्हारा शास्त्र तुम्हारे संप्रदाय अगर तुमने उनके माध्यम से सुना तुम सुनोगे कैसे तुम्हारे कान तो बहरे हैं। शब्द तो भरे पड़े हैं कुछ का कुछ सुन लोगे वही सुन लोगे जो सुनना चाहते हो। बुद्धि का अर्थ है तुम्हारा अतीत अब तक जो तुमने जाना समझा गुना है समझ का अतीत से कोई सम्बन्ध नहीं समझ तो उसे पैदा होती है जो अतीत को सरका के रख देता है नीचे और सीधा वर्तमान के क्षण को देखता है अतीत के माध्यम से नहीं सीधा सीधा ।  प्रत्यक्ष परोक्ष नहीं बीच में कोई माध्यम नहीं होता तुम अगर हिन्दू हो और मुझे सुनते वक्त हिन्दू बने रहे तो तुम जो सुनोगे वो बुद्धि से सुना।मुसलमान बने रहे तो जो सुना बुद्धि से सुना।गीता भीतर गूंजती रही कुरान भीतर गुनगुनाते रहे और सुना तो बुद्धि से सुना। गीता बंद हो गयी कुरान बंद हो गया हिन्दू मुसलमान चले गए तुम खाली हो गए निर्मल दर्पण की भाँति जिस पर कोई रेखा नहीं विचार की अतीत की कोई राख नहीं। तुमने सीधा मेरी तरफ देखा खुली आँखों से कोई पर्दा नहीं और सुना तो एक समझ पैदा होगी। उस समझ का नाम ही प्रज्ञा विवेक वही समझ रूपांतरण लाती है बुद्धि से सुना तो सहमत हो जाओगे असहमत हो जाओगे बुद्धि को हटा के सुना रूपांतरित हो जाओगे सहमति असहमति का सवाल ही नहीं । सत्य के साथ कोई सहमत होता असहमत होता सत्य के साथ बोलो कैसे सहमत होंगे सत्य के साथ तो सहमत होने का ये अर्थ होगा कि तुम पहले से ही जानते थे सुना राजी हो गए तुम ने  कहा ठीक यही तो सच है यह तो प्रत्भिीज्ञा हुई यह तो तुम मानते थे पहले से जानते थे पहले से । गुलाब का फूल देखा तुमने कहा गुलाब का फूल है जानते तो तुम पहले से थे नहीं तो गुलाब का फूल कैसे पहचानते सत्य को तुम जानते हो जानते होते तो सहमत हो सकते थे जानते होते और कोई गेंदे के फूल को गुलाब कहता तो असहमत हो सकते थे जानते तो नहीं हो जानते नहीं हो इसलिए तो खोज रहे हो इस सत्य को समझो कि जानते नहीं हो तुमने  अभी गुलाब का फूल देखा नहीं इसलिए कैसे तो सहमति भरो कैसे असहमति भरो न तो सिर हिलाओ सहमति में न असहमति सिर ही हिलाओ बिना हिले सुनो और जल्दी क्या है इतनी जल्दी हमें रहती है कि हम जल्दी से पकड़ लें क्या ठीक क्या गलत उसी जल्दी के कारण चूके चले जाते हैं निष्कर्ष की जल्दी मत करो सत्य के साथ ऐसा अधैर्य का व्यवहार मत करो सुन लो जल्दी नहीं है सहमत असहमत होने की और जब में कहता हूँ सुन लो तो तुम ये भ्रान्ति मत लेना कि में कह रहा हूँ कि मुझसे राज़ी हो जाओ। बहुतों को यह डर रहता है कि अगर सुना और अपनी बुद्धि एक तरफ रख दी तो फिर तो राजी हो जायेंगे । बुद्धि एक तरफ रख दी तो राजी होगे कैसे  बुद्धि ही राजी होती नाराजी होती बुद्धि एक तरफ रख दी तो सिर्फ सुना पक्षियों की सुबह की गुनगुनाहट है तुम राजी होते सहमत होते असहमत होते  निर्झर की झर्जर है कि हवा के झोकों का गुजर जाना है वृक्षों की शाखों से तुम राजी होते नाराजी होते सहमति असहमति का सवाल नहीं तुम सुन लेते आकाश में बादल घुमड़ते तुम सुन लेते ऐसे ही सुनो सत्य को क्योंकि सत्य आकाश में घुमड़ते बादलों जैसा है ऐसे ही सुनो सत्य को क्योंकि सत्य जलप्रपातों के नाद जैसा है ऐसे ही सुनो सत्य को क्योंकि सत्य मनुष्यों की भाषा जैसा नहीं पक्षियों के कलरों जैसा है संगीत है सत्य शब्द नहीं निशब्द है सत्य सिद्धांत नहीं शून्य है सत्य शास्त्र नहीं इसलिए सुनने की बहुत अनूठी कला सीखनी ज़रूरी है जो ठीक से सुनना सीख गया उसमे समझ पैदा होती है तुम ठीक से तो सुनते ही नहीं । मुल्ला नसरुद्दीन से एक दिन पूछा कि तू पागल की तरह बचाये चला जाता है रद्दी खद्दी चीज़ें भी फेंकता नहीं कूड़ा करकट भी इक्कठा कर लेता है सालो के अखबारों के अम्बार लगाए बैठा है कुछ कभी तेरे घर कभी बाहर  जाता ही नहीं। ये तूने बचाने का पागलपन कहाँ से सीखा उसने कहा एक बुजुर्ग की शिक्षा से। मैं थोड़ा चौंका क्योंकि मुल्ला नस्सरूद्दीन ऐसा आदमी नहीं जो किसी से कुछ सीख ले तो मैनें कहा कि मुझे पूरे ब्योरे से कह पूरे विस्तार से कह किस बुजुर्ग की शिक्षा से उसने कहा कि मैं नदी के किनारे बैठा था एक बुजुर्ग पानी में गिर गया और जोर जोर से चिल्लाने लगा बचाओ बचाओ उसी दिन से मैनें बचाना शुरू कर दिया तुम वही सुन लोगे जो सुनना चाहते हो कवि जी को आयी जमाई बोले हे माँ सुनकर कवि पत्नी भबकी बोली होके तीन बच्चों के बाप नाम रट रहें हैं हेमा का सत्यानाश हो सिनेमा का। हम जो सुनना चाहते हैं सुन लेते हैं। वही थोड़ा सुनते हैं जो कहा जाता है हमारा सुनना शुद्ध नहीं विकृत है बुद्धि से सुना गया सुना ही नहीं गया सुनने का धोखा हुआ आभास हुआ लगता था सुना तुम्हारे विचार बीच में आ गए तुम्हारी बुद्धि ने आ के सब रूपांतरित कर दिया अपना रंग उड़ेल दिया काले को पीला कर दिया पीले को काला कर दिया  फिर तुम तक जो पहुंचा वो वही नहीं था जो दिया गया था वो बिलकुल ही विनष्ट को के पहुंचा विकृत हो के पहुंचा इसलिए पहली बात बुद्धि की समझ कोई समझ नहीं एक और समझ है वही समझ रूपांतरण लाती है उसको कहो ध्यान की समझ बुद्धि की नहीं विचार की नहीं निर्विचार की समझ तर्क की नहीं शांत भाव की विवाद की नहीं संवाद की। तुम मुझे सुनों बुद्धि से तो सतत विवाद चलता है ठीक कह रहे गलत कह रहे अपने शास्त्र के अनुसार कह रहे कि विपरीत कह रहे मैं राजी हूँ य न राजी हूँ अब तक मेरी मान्यताओं के तराजू पर बात तुलती है य नहीं तुलती है ऐसा सतत भीतर तोल चल रही है ये विवाद है तुम राजी भी हो जाओ तो दो भी दो कौड़ी का है तुम्हारा राजी होना क्योंकि विवाद से कहीं कोई सहमति आयी विवाद की सहमति दो कौड़ी की उसका कोई मूल्य नहीं संवाद संवाद का अर्थ है जब मैं कह रहा हूँ तुम मेरे साथ लीन हो गए तुमने दूर खड़े होके न सुना तुम मेरे पास आ गए। तुम मेरे ह्रदय के पास धड़के तुम मेरे ह्रदय की तरह धड़के तुमनें अपने हिसाब किताब को एक तरफ हटा दिया और तुमने कहा थोड़ी देर झरोखों को खाली रखेंगे थोड़ी देर दर्पण बनेंगे दर्पण बन के जो सुनता है वही सुनता है और दर्पण बन के जो सुनता है उसमे समझ अनायास पैदा होती है दर्पण बनके जो सुनता है वो ही शिष्य है वही सीखने में समर्थ है जो दर्पण बन के सुनता है वो ज्ञान के आधार से नहीं सुनता  वो तो इस परम भाव से सुनता है कि मुझे कुछ भी पता नहीं मैं अज्ञानी हूँ मुझे क ख ग भी पता नहीं इसलिए क्या विवाद पंडित तो कभी सुनता ही नहीं पंडित का तो अपना ही शोरगुल इतना है कि सुनेगा कैसे मीन मेख निकालता आलोचना में लीन रहता भीतर अगर राजी भी होता है तो मजबूरी में राजी होता है और जब राजी भी होता है तो अपने से राजी होता है जो सुना गया उससे राजी नहीं होता अगर मैनें कुछ बात कही जो कुरान से मेल खाती थी तो मुसलमान राजी हो गया वो मुझसे थोड़ी राजी हुआ वो कुरान से राजी था कुरान से राजी रहा वो मुसलमान था मुसलमान रहा इतना ही उसने मान लिया कि ये आदमी भी कुरान की बात कहता है तो ठीक है कुरान ठीक है तो ये आदमी भी ठीक है जो मुझे सुनेगा उसकी प्रक्रिया बिलकुल उलटी होगी। वो मुझे सुनेगा सुनते वक्त विचार नहीं करेगा सुनते वक्त तो सिर्फ पीयेगा आत्मसाथ करेगा और ये मजा है आत्मसाथ  करने का और जब कोई सत्य आत्मसाथ  हो जाता है अगर ठीक होता है तो मांस मज्जा बन जाता है तुम्हे सहमत नहीं होना पड़ता तुम्हारे प्राणों का प्राण हो जाता है तुम्हे राजी नहीं होना होता तुम्हारी स्वांस स्वांस में बस जाता है और अगर सत्य नहीं होता तो ये चमत्कार है सत्य की ये खूबी है अगर सत्य हो और तुम सुन लो तो तुम्हारे प्राणों में बस जाता है अगर सत्य न हो और तुम मौन और ध्यान से सुन रहे हो तुमसे अपने आप बाहर निकल जाता है असत्य पचता नहीं अगर शांत को सुनता हो तो शान्ति में असत्य पचता नहीं को शान्ति असत्य को छोड़ देती है असहमत होती है ऐसा नहीं इस बात को ख्याल में ले लेना शांति सहमत असहमत होना जानती नहीं शान्ति के साथ सत्य का मेल जुड़ जाता है गठबंधन हो जाता है भांवर पड  जाती है और अशांति के साथ असत्य की भांवर पड़ जाती है अशांति के साथ सत्य की भांवर पड़नी कठिन है और शांति के साथ असत्य की भांवर पड़नी असंभव है इसलिए असली सवाल है शांति से सुनो जो सत्य होगा उससे भांवर पड़ जाएगी।जो असत्य होगा उससे छुटकारा हो गया।  तुम्हें ऐसा सोचना भी न पढ़ेगा क्या ठीक है क्या गलत है जो ठीक ठीक है वो तुम्हारे प्राणों में निनाद बन जायेगा। और ध्यान रखना जब सत्य तुम्हारे भीतर गूंजता है तो वो मेरा नहीं होता अगर तुम उसे गूंजने दो तो तुम्हारा हो गया सत्य किसी का थोड़ी होता है जिसके भीतर गूंजा उसी का हो जाता है असत्य व्यक्तियों के होते हैं सत्य थोड़ी किसी का होता है सत्य पर किसी की बपौती नहीं। सत्य का कोई दावेदार नहीं असत्य अलग अलग होते हैं तुम्हारा असत्य तुम्हारा मेरा असत्य मेरा असत्य निजी होते हैं झूठ हर एक का अलग होता है इसलिए सब सम्प्रदाय झूठ धर्म का कोई सम्प्रदाय नहीं क्योंकि सत्य का कोई सम्प्रदाय नहीं हो सकता सत्य तो एक है अनिर्वचनीय है सत्य तो किसी का भी नहीं है हिन्दू का नहीं मुसलमान का नहीं सिख का नहीं पारसी का नहीं सत्य तो पुरुष का नहीं स्त्री का नहीं सत्य तो वेद का नहीं क़ुराण का नहीं सत्य तो बस सत्य का है तुम जब शांत को तो तुम भी सत्य के हो गए उस घडी में भांवर पड़ जाती है उस भांवर में ही क्रांति है सम्यक श्रवण शांतिपूर्वक सुनना और निष्कर्ष की जल्दी नहीं तो तुम्हारे भीतर वो समझ पैदा होगी जिसकी मैं बात करता हूँ। तुम्हारी बुद्धि के निखार में कुछ सार नहीं है। तुम्हारा तर्क कितना ही पैना हो जाये तुम कितनी ही धार रख लो इससे कुछ भी ना होगा विवाद करने में कुशल हो जाओगे थोड़ा पाण्डित्य का प्रदर्शन करने की क्षमता आ जाएगी किसी से झगडोगे लड़ोगे तो दबा दोगे किसी को चुप करने की कला आ जाएगी।लेकिन कुछ मिलेगा नहीं। मिलता तो उसे है जो चुप होके पीता है

दूसरा प्रश्न
आपको पाने के बाद मुझमे बहुत कुछ रूपांतरण हुआ है और ऐसा भी लगता है कि कुछ भी नहीं हुआ है इस विरोधाभास को स्पष्ट करने की कृपा करें ?
स्वाभाविक है ऐसा की होगा ऐसा ही प्रत्येक को लगेगा क्योंकि जिस रूपांतरण की हम चेष्ठा कर रहे हैं इस रूपांतरण में कुछ अनूठी बात है जो समझ लेना यहाँ तुम्हें वही बनाने का उपाय किया जा रहा है जो तुम हो यहां तुम्हें अन्यथा बनाने की चेष्ठा नहीं चल रही तुम्हें तुम्हारे स्वाभाविक रूप में ले जाने का उपाय हो रहा है तुम्हें वही देना है जो तुम्हारे पास है तो जब मिलेगा तो एक तरफ  से तो लगेगा कि अपूर्व मिलान हो गया क्रांति घटी अहोभाव और दूसरी तरफ ये भी लगेगा जो मिला वो कुछ नया तो नहीं है वो तो  पहचाना लगता है वो तो कुछ अपना ही लगता है वो तो जैसे था ही अपने भीतर याद न रही थी बुद्ध को जब ज्ञान हुआ और देवताओं ने उनसे पूछा कि क्या मिला तो कथा कहती है कि बुद्ध हँसे और उन्होनें कहा कि मिला कुछ भी नहीं जो मिला ही हुआ था उसका पता चला जो प्राप्त ही था लेकिन भूल बैठे थे जैसे कभी आदमी अपना चश्मा लगाए और अपने चश्मा को खोजने लगता है और चश्मे से खोज रहा है आंख पे चश्मा लगाए है और खोज रहा है कि चश्मा कहाँ गया विस्मरण यादाश्त  खो गयी है सत्य नहीं खोया है सिर्फ याद खो गयी है तो जब याद जागेगी तो ऐसा भी लगेगा कि कुछ मिला पूर्व मिला क्योंकि इससे पहले याद तो नहीं थी तो भिखारी बने फिर रहे थे सम्राट थे और अपने को भिखारी समझा था और ऐसा भी लगेगा की कुछ  तो नहीं मिला सम्राट तो थे ही इसी की याद आ गयी विरोधाभास नहीं है अगर तुम्हें ऐसा लगे कि कुछ एकदम नवीन मिला है तो समझना कि कुछ झूठ मिल गया ऐसा लगे कि कुछ नवीन मिला है जो अति प्राचीन भी है वही समझना कि सच मिला अगर ऐसा लगे कि सनातन और चिरनूतन सदा से है और अभी अभी ताज़ा घटा है ऐसी दोनों बातें जब साथ लगें तभी समझना कि सत्य के पास आये सत्य के द्वार में प्रवेश मिला है तुम्हें अन्यथा बनाने की चेष्ठा बहुत की गयी है कोई नहीं चाहता कि तुम वही  हो जाओ जो तुम हो। कोई चाहता है तुम कृष्ण बन जाओ कोई चाहता है तुम क्राइस्ट बन जाओ कोई चाहता है महावीर बनो कोई चाहता है बुद्ध बनो लेकिन तुमने ख्याल किया कभी दोबारा कोई इंसान बुद्ध बन सका एक बार एक आदमी बुद्ध बना
बस एक बार एक आदमी कृष्ण बना बस अनंतकाल बीत गया दोबारा कोई कृष्ण नहीं बना इससे तुम्हें कुछ समझ नहीं आती इससे कुछ बोध नहीं होता कि तुम लाख उपाय करो कृष्ण बनने की रासलीला में बनना हो बात अलग है असली कृष्ण न बन सकोगे लाख उपाय करो राम बनने की रखो धनुष बाण चले जंगल की तरफ ले लो सीता को भी साथ लक्ष्मण को भी राम लीला होगी असली राम ना बन सकोगे असली तो तुम एक ही चीज़ बन सकते हो जो अभी तक तुम बने नहीं और कोई नहीं बना है असली तो तुम एक ही चीज़ बन सकते हो जो तुम्हारे भीतर पड़ी है जो तुम्हारी नियति है जो तुम्हारा अंतरतम भाग्य है जो तुम्हारे बीज की तरह छिपा है और वृक्ष की तरह खिलने को आतुर है और तुम्हे कुछ भी पता नहीं कि वो क्या है क्योंकि जब तक तुम बन न जाओ कैसे पता हो तुमने जिनकी खबरें सुनी उन में से तुम कोई भी बन ने वाले नहीं बुद्ध बुद्ध बने बुद्ध को भी तो राम का पता था राम नहीं बने बुद्ध बुद्ध को कृष्ण का पता था कृष्ण नहीं बने बुद्ध। बुद्ध बुद्ध बने। तुम तुम बनोगे। तुम  तुम ही बन सकते हो बस और कुछ बनने की कोशिश की झूठ हो जायेगा।विकृति हो जाएगी। आरोपण हो जायेगा। पाखण्ड बनेगा फिर परमात्मा तो दूर और दूर हो जायेगा। तुम पाखंडी हो जाओगे। मेरी सारी चेष्ठा एक है तुम्हें इस बात की याद दिलानी कि तुम तुम्ही बन सकते हो तुम्हें यहां तुम्हें अन्यथा बनानें की कोशिश य उपाय नहीं कर रहा हूँ। मेरी  कोई चेष्टा ही नहीं की तुम्हें कुछ और बना दूँ मेरी यही चेष्टा है तुम्हें याद दिला दूँ की तुम कुछ और बन ने की चेष्ठा में मत उलझ जाना अन्यथा चूक जाओगे। समय खोयेगा। शक्ति व्यय होगी। और तुम्हारा जीवन संकट, दुःख और दारिद्य से भरा रह जायेगा। तुम्हारे भीतर एक फूल छिपा है और कोई भी नहीं जानता कि वो फूल कैसा होगा जब खिलेगा तभी जाना जा सकेगा। जब तक बुद्ध न हुए थे किसी को पता न था कि ये गौतम सिद्धार्थ कैसा फूल बनेगा हाँ कृष्ण का फूल पता था राम का फूल पता था लेकिन बुद्ध का फूल तो तब तक हुआ न था अब हमें पता है लेकिन तुम्हारा फूल अब भी पता नहीं तुम्हारे भीतर कैसा कमल खिलेगा। कितनी पंखुड़ियां होंगी उसकी कैसा रंग होगा कैसी सुगंध होगी। नहीं कोई भी नहीं जानता। तुम्हारा भविष्य गहन अँधेरे में पड़ा है। तुम्हारा भविष्य बीज में छिपा है। बीज टूटे बीज की तंदरा मिटे बीज जागे अंकुरित हो खिले तो तुम भी जानोगे और जगत भी जानेगा उसी जानने में जानना हो सकता है उससे पहले जानने का कोई उपाय नहीं इसलिए मैं तुमसे ये भी नहीं कह सकता कि तुम क्या बन जाओगे भविष्यवाणी नहीं हो सकती और यही आदमी की महिमा है की उसके बारे में कोई भविष्यवाणी नहीं हो सकती। आदमी कोई मशीन थोड़ी है कि भविष्यवाणी हो सके। मशीन की भविष्यवाणी होती है। सब तय है मशीन मुर्दा है आदमी परम स्वातन्त्र है स्वच्छंदता है और एक आदमी बस अपने जैसा अकेला है अद्वितीय है दूसरा उस जैसा न कभी हुआ न होयेगा। न हो सकता है। इस महिमा पर ध्यान दो। इस महिमा के लिए धन्य भागी समझो। परमात्मा ने तुम जैसा कभी कोई नहीं बनाया परमात्मा दोहराता नहीं तुम अनूठी कृति हो लेकिन जब तुम्हारे भीतर फूल खिलना शुरू होगा तो ये विरोधाभास तुम्हें मालूम होगा। तुम्हें यह लगेगा पूछा है आप को पाने  के बाद मुझमे बहुत बहुत रूपांतरण हुआ और ऐसा भी लगता है कि कुछ भी नहीं हुआ। बिलकुल ठीक हो रहा है। तभी ऐसा लग रहा है रूपांतरण भी होगा। महाक्रांति भी घटित होगी। तुम बिलकुल नए हो जाओगे। और उस नए हो जाने में तुम पाओगे अरे ये तो मैं सदा से था ये खजाना मेरा ही है ये सितार तुम्हारे भीतर ही पड़ा था तुमने इसके तार न छेड़े थे मैं तुम्हे तार छेड़ना सिखा रहा हूँ। जब तुम तार छेड़ोगे तो तुम पाओगे कि कुछ नया घट रहा है संगीत लेकिन तुम ये भी पाओगे कि सितार मेरे ही भीतर पड़ा था। ये संगीत मेरे भीतर सोया था। छेड़ने की बात थी जाग सकता था और शायद किन्ही अनजाने क्षणों में धुंदले धुंदले तुमने ये संगीत कभी सुना भी हो क्योंकि कभी कभी अँधेरे में भी अनजाने भी तुम इन तारों से टकरा गए हो और संगीत हुआ है कभी बिना चेष्टा के भी अनायास ही तुम्हारे हाथ इन तारों पे घूम गए हवा का एक झोंका आया और तार कब गए और तुम्हारे भीतर संगीत की एक गूँज हुई है अब तुम अचानक जब तार बजेंगे तब तुम पहचान पाओगे जन्मों जन्मों में बहुत बार कभी कभी सपने में कभी कभी प्रेम के किसी क्षण में कभी सूरज को उगते देख कर कभी रात चाँद को देख कर कभी किसी की आँखों में झाँक कर कभी मंदिर के घंटनाद में कभी पूजा का थाल सजाये ऐसा कुछ संगीत नहीं इतना पूरा लेकिन कुछ ऐसा ऐसा सुना था सब यादें ताज़ी हो जाएँगी सब स्मृतियाँ संग्रहित हो जाएँगी अचानक तुम पाओगे कि नया कुछ नहीं हुआ है जो सदा से हो रहा था धीमे धीमे होता था सचेष्ट नहीं था मैं जाग्रत नहीं था मैं जैसे नींद में संगीत सुना हो कोई सोया हो और कोई उस कमरे में गीत गा रहा हो। य तार बजा रहा हो नींद में भनक पड़ती हो कान में आवाज़ आती हो। कुछ साफ़ न होता हो फिर तुम जाग के सुनो और पहचान लो कि ठीक ये ही मैनें सुना था। नींद में सुना था। तब पहचान न थी अब पहचान पूरी हो गयी ऐसा ही होगा जब  तुम्हारे भीतर की स्मृति जागेगी सुगंध बिखरेगी तुम्हारे नासापुट तुम्हारी ही श्वास से भरेंगे तो तुम निश्चित पहचानोगे नया भी हुआ है और पुरातन से पुरातन नित नूतन और सनातन शाश्वत घटा है क्षण में विरोधाभास जरा भी नहीं।

तीसरा प्रश्न
एक ओर आप कहते हैं कि वासना  स्वभाव से दुस्पूर है वह सदा अतृप्त की अतृप्त बनी रहती है और दूसरी ओर आप यह भी कहते हैं कि संसार में रस बना रह गया हो तो उसे  पूरी तरह भोगना भी अपेक्षित है इस विरोधाभास को दूर करने की अनुकम्पा करें
विरोधाभास दिखाई पड़ते हैं क्योंकि तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता विरोधाभास मालूम पड़ते हैं क्योंकि तुम्हारी आँख खुली हुई नहीं हैं  अँधेरे में टटोलते हो। इसलिए विरोधाभास दिखाई पड़ते हैं। अन्यथा कोई विरोधाभास नहीं है समझो निश्चित ही वासना दुस्पूर है ऐसा बुद्ध का वचन है ऐसा समस्त बुद्धों का वचन है वासना दुस्पूर है इसकी अर्थ होता है कि वासना को भरा नहीं जा सकता।
तुम लाख उपाय करो दस रूपए हैं तो बीस रूपए चाहिए दस हज़ार हैं तो बीस हज़ार चाहिए और दस लाख हैं तो बीस लाख चाहिए जो अंतर है दस और बीस का कायम रहता है वासना दुष्पूर है इसका अर्थ हुआ कि तुम्हारी अतृप्ति का जो अनुपात है सदा कायम रहता है उसमे कोई फर्क नहीं पड़ता तुम कितना कमा लोगे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता तुम्हारी वासना उतनी ही आगे बढ़ जाएगी वासना क्षितिज की भाँती है दिखाई पड़ता है ये दस मील बारह मील दूर मिलता हुआ पृथ्वी से भागो लगता है घडी में दो घडी में पहुँच जायेंगे भागते रहो जन्मों जन्मों तक कभी न पहुंचोगे तुम जितना भागे उतना ही क्षितिज आगे हट गया तुम्हारे और क्षितिज का फांसला सदा वही का वही वासना दुष्पूर है इसका अर्थ की वासना को भरने का कोई उपाय नहीं यह सत्य है अब तुम्हें विरोधाभास लगता है क्योंकि  दूसरी बात मैं कहता हूँ कि जब तक रस बाकी रह गया हो तब तक कठिनाई है रस को पूरा ही कर लेना मैं तुमसे कहता हूँ वासना दुष्पूर है मैनें तुमसे ये नहीं कहा कि रस समाप्त नहीं होगा रस विरस हो जायेगा वासना तो दुष्पूर है तुम्हारा रस सूख जायेगा सच तो ये है कि वासना दुष्पूर है ऐसा जान के ही रस विरस हो जायेगा विरोधाभास नहीं है जिस दिन तुम  जानोगे की वासना भर ही नहीं सकती दौड़ दौड़ थकोगे दौड़ दौड़ गिरोगे सब उपाय कर लोगे वासना भरती नहीं कोई उपाय नहीं दिखाई पड़ता असंभव है हो ही नहीं सकता तो धीरे धीरे तुम पाओगे जो हो ही नहीं सकता जो कभी हुआ ही नहीं उसमे रस विक्षिप्ता है जैसे कोई आदमी दो और दो को तीन करना चाहता हो और कहता हो मुझे बड़ा रस है मैं दो और दो को तीन करना चाहता हूँ दो और दो तीन होंगे नहीं तुम करो दो और दो तीन होंगे नहीं तुम्हारे करने से एक दिन तुम जागोगे और तुम्हारा रस ही मूढ़ता पूर्ण सिद्ध हो जायेगा और तुम ही कहोगे ये होने वाला नहीं ये हो ही नहीं सकता मेरे रस में ही मूढ़ता है
तुम्हारा रस ही खंडित हो जायेगा। जब तुम्हारा रस खंडित होगा तब तुम ये न सोचना दो और दो तीन हो जायेंगे तब भी दो और दो तीन नहीं होते लेकिन अब तुम्हारा रस न रहा। रस का अर्थ ही है कि तुम्हें आशा है कि शायद कोई विधि होगी कोई तरकीब होगी कोई जादू होगा कोई चमत्कार होगा जिससे दो और दो तीन हो सकेंगे दूसरों को पता न होगा सिकंदर हार गया माना नपोलीन हार गया माना लेकिन मैं भी हारूंगा ये क्या पक्का है शायद कोई तरकीब रह गयी हो जो उन्होनें काम में न लायी हो सच है कि बुद्ध हार गए और महावीर हार गए लेकिन ये कहाँ पक्का पता है कि उन्होनें सभी उपाय कर लिए थे और सभी विद्धियाँ खोज ली थीं। अगर एक हज़ार विद्धियाँ खोजी हों और एक भी बाकी रह गयी हो कौन जाने उस एक से ही द्वार खुलता हो उस एक में ही कुंजी छिपी हो रस का अर्थ है आशा बाकी है रस का अर्थ है शायद हो जाये कभी न हुआ ये सच है लेकिन कभी न होगा ये क्या जरूरी है जो कलतक नहीं हुई थी चीज़ें आज हो रही हैं जो कभी नहीं हुई थी वो कभी हो सकती हैं अतीत में नहीं हुईं भविष्य नहीं होगी ऐसा क्या पक्का है। आदमी और भी महत्त्वपूर्ण विद्धियाँ खोज ले सकता है नए तकनीक नए कौशल नए उपाय य नयी तालियां गढ़ ले य ताले को तोड़ने का उपाय कर ले आशा रस का अर्थ है आशा रस का अर्थ है अभी मैं थका नहीं अभी मैं थोड़ी और चेष्ठा करूंगा अभ लगता है कि कहीं से कोई न कोई मार्ग मिल जायेगा। वासना दुष्पूर है ये तो पक्का है और रस भी विरस हो जाता है ये भी पक्का है लेकिन रस विरस तभी होता है जब तुम रस में पूरे जाओ नहीं तो विरस नहीं होता जैसे बीच से कोई भाग आये अधूरा भाग आये जंगल में बैठ जाए तो मुश्किल खड़ी होगी। बार बार मन में होगा शायद एक बार और चुनाव लड़ लेता कौन जाने जीत जाता कहानियां हैं गौरी अट्ठारह दफा हारा उनीसवीं बार जीत गया और कैसे जीता पता है भाग गया था छिपा था एक जंगल में एक खोये में गुफा में और बैठा था थका हुआ घबराया हुआ कि अब क्या होगा सब हार गया और एक मकड़ी को जाला बुनते देखा मकड़ी जाला बुनती रही सत्रह बार गिरी और अट्ठारवीं बार जाला पूरा हो गया। गौरी उठ के खड़ा हो गया उसने कहा जो मकड़ी के लिए हो सकता मुझे  क्यों नहीं हो सकता।एक बार और कोशिश कर लूँ और गौरी कोशिश किया और जीत गया। तुम अगर अधूरे भाग गए तो कोई न कोई मकड़ी को गिरते देख कर जाला बुनते देख कर तुम लौट आओगे। कौन जाने उपाय पूरा नहीं हो पाया था इसलिए हार गया जाऊँ उपाय पूरा कर लूँ और तुम न भी लौटे तो भी मन तुम्हारा लौटता रहेगा। तुम चाहे बैठे रहो गुफा में मन तुम्हारा बाज़ारों में भरमेगा। धन तिजोरियों की चिंता करेगा स्त्रियों पुरुषों के सपने देखेगा पद प्रतिष्ठा के रस में तल्लीन होगा गुफा में बैठने से क्या फर्क होता है मन को गुफा में बैठा देना इतना आसान थोड़ी है शरीर को बैठा देना आसान है जंजीरें डाल दो कहीं भी बैठ जाएगा। मैनें सुना है एक ईसाई फ़क़ीर के दर्शन करने लोग आते थे बड़े दूर दूर से वो मिस्र  के पास एक रेगिस्तान में एक गुफा में रहता था हज़ारों मील से लोग उसके दर्शन करने आते थे। लोग बड़े चकित होते थे उसका तपस्चर्या उसका त्याग देख कर एक दिन एक फ़क़ीर भी उसके दर्शन को आया था वो देख के हंसने लगा उसने पूछा मैं समझा नहीं आप हंस क्यों रहे हैं उस फ़क़ीर ने कहा मैं ये देख के हंस रहा हूँ कि तुमने अपने हाथों में जंजीरें और पैरों में बेड़ियाँ क्यों डाल रखी हैं। वो  जो फ़क़ीर था गुफा में रहने वाला उसने पैरों में जंजीरें दाल राखी थीं और गुफा के साथ जोड़ राखी थीं जंजीरें और हाथ में जंजीरें थीं। मैं इसलिए हंस रहा हूँ कि तुमने ये ज़ंजीरें क्यों डाल रखी हैं। उस फ़क़ीर ने कहा कि कभी कभी मन में कमजोरी के क्षण आतें हैं और भाग जाने का मन होता है  संसार में लौट जाने कि इच्छा प्रबल हो जाती है तब ये जंजीरें रोक लेती हैं थोड़ी देर ही रुकती है वो कमजोरी फिर अपने को संभाल लेता हूँ उतनी देर तक जंजीरें काम दे जाती हैं क्योंकि जंजीरों को खोलना आसान नहीं है ये मैनें सदा के लिए बंद करवा दीं तो कमजोरी के क्षण में सहारा मिल जाता है लेकिन ये भी कोई बात हुई जंजीरों के सहारे अगर रुके रहे गुफा में और ऐसा नहीं कि सभी सन्यासी इस तरह की स्थूल जंजीरें बांधते हैं सूक्ष्म जंजीरें हैं कि कोई जैन मुनि हो गया अब बीस साल प्रतिष्ठा तीस साल प्रतिष्ठा सम्मान चरण इस पर लोगों का मान पूजा आदर अब अगर आज अचानक लौटना चाहे तो ये जो सारा पूजा आदर जो तीस साल मिला है ये जंजीर बन जाता है आज हिम्मत नहीं होती कि लौट के जाऊँ संसार में लोग क्या कहेंगे अहंकार बाधा बन जाता है ये बड़ी सूक्ष्म जंजीरें हैं इसीलिए तो त्यागी को आदर दिया जाता है ये संसारी की तरकीब है उसको गुफा में रखने की भाग न सको बच्चू एक दफा आ गए गुफा में निकलने न देंगे ऐसी सूक्ष्म जंजीरें हैं इतना शोरगुल मचायेंगे इतना बैंड बाजा बजायेंगे शोभा यात्रा निकालेंगे लाखों खर्च करेंगे लगा दी उन्होनें मोहर अब तुम्हें भागने न देंगे क्योंकि ध्यान रखना जितना सम्मान दिया इतना ही अपमान होगा सम्मान की तुलना में ही अपमान होता है इसलिए जैन मुनि भागना बहुत मुश्किल पाता है हिन्दू सन्यासी इतना मुश्किल नहीं पाता क्योंकि इतना सम्मान कभी किसी ने दिया भी नहीं तो उसी मात्रा में अपमान है मेरे सन्यासियों को तो कोई दिक्कत नहीं वो किसी भी दिन संन्यास छोड़ दें क्योंकि किसी ने कोई सम्मान दिया नहीं था अपमान कोई देगा नहीं अपमान का कोई कारण नहीं अपमान उसी मात्रा में मिलता है जिस मात्रा में सम्मान ले लिया सम्मान जंजीर बन जाता है अगर तुम सच में समझदार हो तो कभी अपने ध्यान अपने संन्यास के लिए किसी तरह का सम्मान मत लेना क्योंकि जो सम्मान दे रहा है वो तुम्हारा जेलर बन जायेगा। उससे कह देना सम्मान नहीं क्षमा करो धन्यवाद क्योंकि कल अगर मैं लौटना चाहूँ तो मैं कोई जंजीरें नहीं रखना चाहता अपने ऊपर न मैं जैसा मुक्त संन्यास में आया था उतना ही मुक्त रहना चाहता हूँ अगर संन्यास के बाहर मुझे जाना हो । तो कुछ तो गुफाओं में स्थूल जंजीरें बाँध लेते हैं कुछ सूक्ष्म जंजीरें मगर जंजीरें हैं और ये जंजीरें रोके रखती हैं। ये कोई रुकना हुआ   जंजीरों से रुके ये कोई रुकना हुआ आनंद से रुको जंजीरों से नहीं। अहोभाव से रुको अपमान के भय से नहीं। सम्मान की आकांक्षा से नहीं। समाधि के रस से लेकिन ये तभी संभव होगा जब संसार का रस चुक गया हो इसलिए मेरा जोर है कि कच्चे मत भागना। अधूरे अधूरे मत भागना। बीच से मत उठ आना महफ़िल से। महफ़िल पूरी हो जाने दो। ये गीत पूरा सुन ही लो। इसमें कुछ सार नहीं है घबराना कुछ है भी नहीं। ये नाच पूरा हो ही जाने दो। कहीं ऐसा न हो कि घर जाके सोचने लगो कि पता नहीं ये कहानी पूरी हो जाने दो  अंतिम पर्दा गिर जाने दो। कहीं ऐसा न हो कि बीच से उठ जाओ और फिर मन पछताए। और मन सोचे कि पता नहीं असली दृश्य देखने को रह ही गया। अभी तो कहानी शुरू ही हुई थी। पता नहीं अंत में क्या आता है इसलिए मैं कहता हूँ कि जीवन को जियो भरपूर जियो डर कुछ भी नहीं है क्योंकि वासना दुष्पूर है तुम मेरा मतलब समझो मैं तुमसे ये कह रहा हूँ कि चूंकि वासना दुष्पूर है तुम लाख जियो आज नहीं कल तुम सन्यासी बनोगे। संन्यास से बचने का उपाय नहीं संन्यास संसार के अनुभव का नाम है जिसने संसार का ठीक अनुभव ले लिया वो करेगा क्या और।संन्यास संसार के अनुभव की निष्पति है सार है। मैं संन्यास को संसार का विरोधी नहीं मानता हूँ। ये उसी जीवन की सारी अनुभूति का सार निचोड़ है। जी के देखा कि वहां कुछ भी नहीं है जी के देखा की वासना भरती नहीं है जी के देखा कि वासना भूखा का भूखा रखती है तृप्त नहीं होने देती जी कर देखा कि दुःख ही दुःख है नरक ही नरक है इसी अनुभव से आदमी ऊपर उठता है और इसी अनुभव से जीवेषणा विसर्जित हो जाती है जीने की आकांक्षा चली जाती है। जीने की आकांक्षा चले जाने का नाम ही मुमुक्षा है। मोक्ष की आकांक्षा मोक्ष का क्या अर्थ होता है अब और नहीं जीना चाहता बहुत जी लिया  नहीं अब और नहीं जीना चाहता देख लिया  जो देखने को था सब नाटक पूरे हुए। सब कथाएं पूरी पड़ लीं जीवन का पाठ अपने अंतिम निष्कर्ष पर आ गया संन्यास संसार के प्रगाढ़ अनुभव का नाम है इसीलिए कहता हूँ कि अनुभव से कच्चे मत भागना संसार से कच्चे भागे तो संन्यास भी कच्चा रह जायेगा। और कच्चा संन्यास दो कौड़ी का है यह संसार की आग में तुम्हारा घड़ा पके तुम पक के बाहर आओ। पूछते हो वासना स्वाभाव से दुष्पूर है ऐसा आप कहते और फिर ये भी कहते कि रस को पूरा भोग लो इनमे विरोधाभास दिखाई पड़ता है दिखाई पड़ता है क्योंकि तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं वासना दुष्पूर है इसीलिए रस से मुक्त हुआ जा सकता है और जब रस से मुक्त हुआ जा सकता है और वासना भरती ही नहीं तो जल्दी क्या है घबराहट क्या है इतना अधैर्य क्या है इस संसार में कितने ही गहरे जाओ कुछ हाथ न लगेगा इसलिए मैं कहता हूँ दिल भर के जाओ वो जो तुमसे कहते हैं कि मत जाओ संसार में जाने में खतरा है मुझे लगता है उन्हें अभी पक्का पता नहीं है उन्हें एक डर है की कहीं कि तुम भर्म जाओ उन्हें भय है उन्हें लगता है कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारी वासना तृप्त ही न हो जाए कहीं फिर तुम मोक्ष की आकांक्षा ही न करो उन्हें डर है कि कहीं ये क्षितिज मिल ही न जाये मिल गया तो फिर तुम न लौटोगे उनका भय तुम समझते हो उनका भय उनका अज्ञान है मैं तुमसे कहता हूँ जाओ जहां जाना हो जाओ भोगो भटको लौट आओगे भटकने में कंजूसी मत करो तो जब तुम लौटोगे पूरे लौटोगे फिर तुम पीछे लौट के भी न देखोगे फिर संसार ऐसे गिर जाता है जैसे सांप अपने पुराने वेश को छोड़ देता है अपनी पुरानी चमड़ी हो छोड़ देता है। सरक जाता है बाहर निकल जाता पीछे लौट के भी नहीं देखता ठीक ऐसा ही जब संन्यास सहज घटता है तब उसकी अपूर्व महिमा है

चौथा प्रश्न
किसी व्यक्ति विशेष के प्रति समर्पण करना क्या निजी अस्तित्व और स्वतंत्रता को खो देना नहीं है व्यक्तित्व की पूजा न कर व्यक्ति की पूजा करना कहाँ तक उचित है ?
पहली बात तुम वही खो सकते हो जो तुम्हारे पास हो उसे तो तुम कैसे खोओगे जो तुम्हारे पास नहीं है। इसे समझना अकसर ऐसा हो जाता है कहावत है कि नंगा नाहता नहीं क्योंकि वो कहता है नहाऊंगा तो निचोडूंगा कहाँ। और निचोड़ने को कुछ है ही नहीं भिगमांगा रात भर जागता रहता है कि कहीं चोरी न हो जाये। चोरी को जाए ऐसा कुछ है ही नहीं। तुम पूछते हो किसी व्यक्ति विशेष के प्रति समर्पण करना क्या निजी अस्तित्व और स्वतंत्रता को खो देना नहीं है अगर है स्वतंत्रता तो तो कोई जरूरत  ही नहीं किसी के प्रति समर्पण करने की प्रयोजन क्या है तुम स्वतंत्रता को उपलब्ध हो गए हो। निजी अस्तित्व तुम्हारा हो गया है उसी का नाम तो आत्मा है। अब तुम्हें समर्पण की ज़रुरत क्या है लेकिन अकसर ऐसा होता है न तो स्वतंत्रता है न निजी अस्तित्व है और घबरा रहे हैं कि समर्पण करने से कहीं खो न जाएं नंगा नहाये तो डर रहा है कि निचोड़ूंगा कहाँ कपडे सुखाऊँगा कहाँ पहले तुम ये ही सोच लो ठीक से कि तुम्हारे पास स्वतंत्रता है तुम्हारे पास तुम्हारा अस्तित्व है तुमनें आत्मा का अनुभव किया है तुमनें उस स्वच्छंदता को जाना है जिसकी अष्टावक्र बात कर रहे हैं अगर जान लिया तो अब समर्पण करने की ज़रुरत क्या है किससे समर्पण करना है  किसके लिए करना है समर्पण आदमी इसी स्वतंत्रता की खोज में करता है और अगर तुम्हारे पास ये स्वतंत्रता नहीं है तो समर्पण सहयोगी है फिर समर्पण में तुम वो ही खोओगे जो है तुम्हारे पास अहंकार है तुम्हारे पास आत्मा तुम्हारे पास अभी है नहीं और समर्पण में आत्मा नहीं खोती अहंकार ही खोता है। और अहंकार ही तरकीबें निकलता है बचने की वो कहता है अरे ये क्या करतें हैं समर्पण कर रहे हैं इसमें तो निजता खो जाएगी निजता नाम है अहंकार का इसे साफ़ समझ लेना अगर तुमने अपने को जान लिया अब कोई जरूरत ही नहीं तुम ये प्रश्न ही न पूछते अगर तुम्हें अपनी स्वतंत्रता मिल गयी है तुम अपनी स्वतंत्रता के मालिक हो गए हो ये सम्पदा तुमनें पा ली तो ये प्रश्न तुम किसलिए करते मैं तो नहीं करता ये प्रश्न मैं तो किसी के पास नहीं जाता कहने कि समर्पण करने कि समर्पण करने से मेरी स्वतंत्रता खो जाएगी समर्पण करना ही किस लिए है कोई प्रयोजन ही नहीं रहा है तुम पूछते हो साफ़ है तुम्हें स्वंतंत्रता की कोई सुगंध नहीं मिली है अब तक सिर्फ शब्द तुमनें सीख लिया है शब्द सीखने में क्या धरा है तुम्हें आत्मा का कुछ भी पता नहीं है जिनमें तुमने पूछा है नए हैं नाम है उनका दौलत राम खोजी अभी खोज रहे हो अभी मिला नहीं है और दौलतराम भी नहीं हो दौलत और राम जरा भी नहीं खोजी हो इतना सच है अभी दौलत है नहीं राम के बिना दौलत होती कहाँ अभी तुम्हें भीतर के राम का पता नहीं है  लेकिन डर है की समर्पण  किया तो कहीं खो न जाये क्या खो जायेगा दौलत है नहीं दौलतराम सिर्फ अहंकार का धुंआ है खो जाने दो इसके खोने से लाभ होगा ये खो जाए तो तुम्हारे भीतर इस धुंए के भीतर जो दौलत छिपी पड़ी है उसके दर्शन होने लगेंगे समर्पण तुम्हें स्वतंत्रता देगा अहंकार से स्वतंत्रता का क्या अर्थ होता है हम किसी दुसरे से थोड़ी बंधे हैं अपने ही अस्मिता से बंधे हैं अपने ही अहंकार से बंधे हैं किसी और ने हमें थोड़ी बाँधा है अपना ही दम्भ हमें बांधे हुए है समर्पण का अर्थ है दम्भ किसी के चरणों में रख दो जहां प्रेम जगा हो किसी के पास अगर परमात्मा की थोड़ी सी झलक मिली हो तो चूको मत मौका रख दो वहीँ चरणों में ये बहाना अच्छा है इस आदमी के बहाने अपना अहंकार रख दो इस अहंकार के रखते ही तुम्हारे भीतर जो छिपा है वो प्रकट हो जायेगा ये आवरण उतार दिया तुम नग्न हो जाओगे उस नग्नता में तुम्हें अपनी आत्मा की पहली झलक मिलेगी और उस आत्मा का स्वाभाव ही स्वतंत्रता है अहंकार का स्वाभाव स्वतंत्रता नहीं है इसलिए समर्पण में तो आदमी आत्मावान बनता है स्वतंत्र बनता है समर्पण से किसी की स्वतंत्रता थोड़ी खोती है एक बात दूसरी बात जो स्वतंत्रता समर्पण से खो जाए वो दो कौड़ी की है वो बचाने योग्य नहीं है जो स्वतंत्रता समर्पण करने पर भी बचे वही बचाने योग्य है इस बात को समझना स्वतंत्रता कोई ऐसी कमजोर लचर चीज़ थोड़ी है कि तुमनें समर्पण किया किसी के पैर छू लिए तो गयी इतनी सस्ती चीज़ को बचा के भी क्या करोगे जो पैर छूने से चली जाए जो कहीं सिर झुकाने से चली जाये इसको बचा के भी क्या करोगे इसमें कुछ मूल्य भी नहीं है ये बड़ी कमजोर है नपुंसक है स्वतंत्रता तो ऐसी अध्भुत घटना है कि तुम सारे संसार के चरण छूओ तो भी न जाएगी तुम कंकर पत्थरों के चरण छूओ झाड़ झाड़ पत्थर पत्थर सिर झुकाओ तो भी न जाएगी जा ही नहीं सकती स्वतंत्रता यानि स्वाभाव् जा कैसे सकता है अपना है जो उसे खोओगे कैसे सिर झुक जायेगा तुम झुक जाओगे और तुम पाओगे तुम्हारे भीतर स्वतंत्रता प्रगाढ़ हो के जल रही दिये की भांति अकंप उसकी लौ है अकंप उसका प्रकाश है जितने झुकोगे उतना पाओगे तुम अचानक पाओगे कि विनम्रता से स्वतंत्रता का विरोध नहीं है। स्वतंत्रता विनम्रता में पलती है पुषति है बड़ी होती है फलती है विनम्रता स्वतंत्रता के लिए खाद है समर्पण तो द्वार है स्वतंत्रता का लेकिन मैं तुम्हारा मतलब समझता हूँ तुम्हारी तकलीफ मेरे ख्याल में है तकलीफ है अहंकार की अपने को कुछ मान बैठे हो तो कैसे किसी  के चरणों में झुक आते तुम्हें परमात्मा भी मिल जाए तो भी तुम बचाओगे बचाने की बहुत तरकीबें हैं पहले तो तुम यह मानने को राजी न होंगे कि ये परमात्मा है परमात्मा कहीं ऐसे मिलता है वो पहले ज़माने की बातें गयीं जब परमात्मा ज़मीन पर आया करता था अब थोड़ी आता है तुम कुछ न कुछ परमात्मा में भूल चूक खोज लोगे जिससे समर्पण करने से बच सको तुमनें राम में भी भूल चूक खोज ली थी तुमनें कृष्ण में भी खोज ली थी तुमनें बुद्ध में भी खोज ली थी तुम कुछ न कुछ खोज ही लोगे। तुम अपने को बचा लोगे। अपने को बचाये बचाये तुम जन्मों से चले आ रहे हो। ये गाँठ जिसे
तुम बचा रहे हो तुम्हारा रोग है ये गाँठ छोड़ो ये कैंसर की गाँठ है इसी से तुम व्याधि ग्रस्त हो। समर्पण का कोई और अर्थ नहीं है समर्पण तो एक बहाना है किसीके बहाने तुमनें अपनी गाँठ उठा के रख दी खुद तो उतारने में तुमसे नहीं बनता खुद तो उतारते नहीं बनता आदत पुरानी हो गयी इसको ढोने की किसी के बहाने किसी के सहारे उतार के रख देते हो जैसे ही उतार के रखोगे तुम पाओगे अरे बड़ा पागलपन था तुम व्यर्थ ही इसे ढो रहे थे तुम चाहते तो बिना समर्पण के भी उतार के रख सकते थे लेकिन ये तुम्हें समर्पण के बाद ही पता चलेगा समर्पण तो बहाना है  गुरु तो बहाना है ऐसा कुछ है नहीं कि बिना गुरु के तुम उतार नहीं सकते चाहो तो तुम बिना गुरु के भी उतार सकते हो लेकिन संभावना कम है तुम तो गुरु से भी बचने की कोशिश कर रहे हो तो अकेले में तो तुम बच ही जाओगे अकेले में तुम भूल ही जाओगे उतारने की बात ये तो ऐसा ही है तुम्हें सुबह पांच बजे उठना है ट्रैन पकड़नी है तो दो उपाय हैं य तो तुम अपने पे भरोसा करो कि उठाऊँगा पांच बजे य अलार्म घडी भर के रख दो। उठ सकते हो खुद भी थोड़ा संकल्प का बल चाहिए अगर तुममें थोड़ी हिम्मत हो तो अपने को रात कह के सो जा सकते हो कि पांच बजे से एक मिनट ज्यादा नहीं सोना है दौलत राम ऐसा अगर जोर से कह दिया और तुमने गौर से सुन लिया और धारण कर ली इस बात को तो पांच बजे से रत्ती भर भी आगे नहीं सो सकोगे। पांच बजे ठीक आँख खुल जायेगी अगर अपनी की बात मान सकते हो तब तो बहुत ही अच्छा है अगर दौलत राम पे भरोसा न हो और डर हो कि जब कह रहें हैं तभी जान रहे हैं कि ये कुछ होने वाला थोड़ी है कह रहे हैं दौलत राम पांच बजे सुबह उठाना लेकिन कहते वक्त भी जान रहे हैं कि ये कोई होने वाला थोड़ी है। ऐसे तो कई दफा कह चुके हैं कभी हुआ विवेकानंद अमरीका में एक जगह बोलते थे तो उन्होने बाइबिल का एक उल्लेख किया जिसमे जीसस ने कहा है अगर श्रद्धा हो तो पहाड़ भी हट जाएँ अगर श्रद्धा से कह दो हट जाओ पहाड़ों तो पहाड़ भी हट जाएँ एक बूढ़ी औरत सामने ही बैठी थी वो भागी वो अपने घर भागी उसके पीछे एक छोटी पहाड़ी थी जिससे वो बहुत परेशान थी उसने कहा अरे इतनी सरल तरकीब और मुझे अब तक पता नहीं थी और बाइबिल मेरे घर में पड़ी है ईसाई थी उसने कहा मैं तो ईसाई हूँ और मुझमे श्रद्धा भी है ईसा पर जाके अभी निपटा देती हूँ इस पहाड़ी को खिड़की खोल कर उसने आखरी बार देख ली पहाड़ी एक बार और देख लें फिर तो ये चली ही जाएगी खिड़की बंद करके उसने कहा हट जा पहाड़ी श्रद्धा से कहती हूँ। ऐसा तीन बार दोहराया फिर खिड़की खोल के देखी हंसने लगी कहा मुझे पता ही था ऐसे कहीं हटती है पता ही था ऐसे कहीं हटती है ये कोई मज़ाक है कह दो पहाड़ी हट जाये मगर अगर पता ही था तो नहीं हटती भीतर तुम पहले से ही जान रहे हो कि नहीं होने वाला नहीं होने वाला ये अपने से नहीं हो सकता।तो फिर नहीं होगा तो फिर अलार्म घडी भर के रख दो य किसी पडोसी को कह दो कि पांच बजे उठा देना कोई उपाय करो गुरु के पास समर्पण का केवल इतना ही अर्थ है कि तुमसे नहीं होता तो अलार्म भर दो गुरु तो अलार्म है जगा देगा तुमसे नहीं बनता तो वो तुम्हें जगा देगा एमूएल काउंट हुआ जर्मनी का बहुत बड़ा विचारक वो अकेला रहा ज़िन्दगी भर शादी नहीं की लेकिन एक नौकर को अपने पास रखता था वो धीरे धीरे नौकर उसका मालिक हो गया क्योंकि नौकर पे निर्भर रहना पड़ता और एमूनल काउंट बिलकुल पागल था समय के पीछे मिनट मिनट सेकंड सेकंड का हिसाब रखता था अगर ग्यारह बजे खाना खाना है तो ग्यारह ही बजे खाना खाना है दो मिनट देर हो गया तो मुश्किल रात दस बजे सोना है तो दस बजे सो जाना है कभी कभी तो ऐसा हुआ कि कोई मिलने आया था वो बात ही कर रहा है वो उच्चक के अपने कम्बल ओड के सो गया क्योंकि दस बज गया है घडी में देखा वो इतना भी नहीं कह सकता कि मेरे सोने का वक़्त हो गया है क्योंकि इसमें भी समय लग जायेगा वो सो ही गया नौकर आ के गया अब आप जाइये मालिक सो गए और सुबह तीन बजे उठता था और तीन बजे उठने में उसे बड़ी अर्चन थी मगर ज़िद्दी था उठता भी था और अर्चन भी थी अर्चन इतनी थी कि नौकर से मार पीट हो जाती थी नौकर उठाता था और मार पीट हो जाती तो नौकर टिकते नहीं थे क्योंकि नौकर कहते ये भी अजीब बात है आप कहते हो कि तीन बजे उठाना है हम उठाते हैं आप गाली बकते हो मारने को खड़े हो जाते हो मगर वो कहता ये ही तो तुम्हारा काम है तुम चाहो मुझे मारो तुम चाहे मुझे गाली दो मगर उठाना है छोड़ना मत चाहे कुछ भी हो जाए। तो एक नौकर ही टिकता था उसके पास वो उसका मालिक हो गया था वो तो उसकी पिटाई भी कर देता था गुरु तो केवल एक उपाय है कभी ज़रूरत होगी तो तुम्हारी पिटाई भी करेगा। कभी खींचेगा भी नींद से समर्पण का इतना ही अर्थ है कि तुम गुरु से कहते हो कि मुझे पक्का पता है कि मैं तीन बजे उठ न सकूंगा और मुझे ये भी पता है कि तीन बजे मैं करवट ले के सो जाऊँगा। मुझे ये भी पता है तुम भी उठाओगे तो मैं नाराज होंगा फिर भी तुम कृपा करना और उठाना। समर्पण का और क्या अर्थ है समर्पण का इतना सा सीधा सा अर्थ है कि मैं तुम्हारे चरणों में निवेदन करता हूँ कि मुझसे तो उठना हो नहीं सकता और ये भी मुझे पक्का है कि तुम भी उठाओगे तो मैं बाधा डालूँगा ये भी मैं नहीं कहता कि मैं बाधा नहीं डालूंगा। मैं सहयोगी होंगा यह भी पक्का नहीं है। मगर प्रार्थना है मेरी तुम मेरी बाधाओं पर ध्यान मत देना मेरी नासमझियों का हिसाब मत रखना मैं गाली गलोच भी बक दूँ कभी क्षमा कर देना। ये मैं तुमसे प्रार्थना कर रहा हूँ लेकिन मुझे उठाना मुझे उठना है और तुम्हारे सहारे के बिना न उठ सकूंगा। समर्पण का इतना ही अर्थ है कि तुम अपना अहंकार किसी के चरणों में रख देते हो और उससे निवेदन कर देते हो कि तुम्हें खींच ले उठा ले जगा ले तुम्हारी नींद गहरी है जन्मों जन्मों की है अगर तुम स्वयं उठ सको बड़ा शुभ कोई ज़रुरत नहीं किसी गुरु को कष्ट देने की कोई जरूरत नहीं कोई गुरु उत्सुक नहीं है क्योंकि किसी को भी तीन बजे उठाना कोई सस्ता मामला नहीं है उपद्रव का मामला है कोई धन्यवाद थोड़ी देता है फिर तुम पूछ रहे हो व्यक्तित्व की पूजा न कर व्यक्ति की पूजा कहाँ तक उचित है। समर्पण और व्यक्ति की पूजा का कोई सम्बन्ध नहीं जिसके प्रति तुमनें समर्पण कर दिया उसके साथ तुम एक हो गए पूजा कैसी कौन आराध्य और कौन आराधक गुरु और शिष्य के बीच पूजा का भाव ही नहीं है शिष्य ने तो गुरु के साथ अपने को छोड़ दिया ये तो गुरु के साथ एक हो गया इसमें पूजा इत्यादि कुछ भी नहीं है। अगर पूजा कायम रह गयी तो समझना समर्पण पूरा नहीं है समर्पण का तो अर्थ ही यह होता है कि मैनें जोड़ दी अपनी नाव तुम्हारी नाव से मैं अपने को पौंछ लेता हूँ तुम मेरे मालिक हुए अब तुम ही हो मैं नहीं हूँ अब पूजा किसकी कैसी ये कोई व्यक्ति पूजा नहीं है और इसमें एक बात और समझ लेने की जरूरत है पूछा है व्यक्तित्व की पूजा न कर व्यक्ति की पूजा कहाँ तक उचित है आदमी बहुत बेईमान है आदमी की बेईमानी ऐसी है कि वो तरकीबें खोजता है अगर तुम उससे कहो आदमी को प्रेम करो तो वो कहता है आदमियत हो प्रेम करें तो कैसा है अब आदमियत को खोजोगे कहाँ जब भी प्रेम करने जाओगे आदमी मिलेगा आदमियत कभी भी न मिलेगी। अब तुम कहो हम तो आदमियत को प्रेम करेंगे।तो आदमियत कहाँ मनुष्यता को कहाँ पाओगे मनुष्यता तो एक शब्द मात्र है कोरा शब्द ठोस तो आदमी है मगर तरकीब काम कर जाएगी तुम आदमियों को तो गृहणा करोगे और मनुष्यता की पूजा करोगे ऐसा भी हो सकता है कि मनुष्यता के प्रेम के पीछे मनुष्यों की हत्या करनी पड़े तो कर दो। ऐसा तो कर रहें हैं लोग ईश्वर के भक्त हिन्दू मुसलमान को मार डालते हैं मुसलमान हिन्दुओं को मार डालते वो कहते हैं ईश्वर की सेवा कर रहे हैं। ईश्वर कोरा शब्द है और जो ठोस है उसे तुम विनाश कर रहे हो और शाब्दिक प्रत्य मात्र के लिए धारणा मात्र के लिए आदमी बहुत बेईमान है अब तुम कहते हो व्यक्ति की पूजा न करके व्यक्तित्व की पूजा करें व्यक्तित्व का मतलब क्या होता है कहाँ पाओगे व्यक्तित्व को व्यक्ति से अलग कहीं व्यक्तित्व होता है तुम कहते हो नर्तक की  हम फ़िक्र नहीं करते हम तो नृत्य की पूजा करेंगे लेकिन नर्तक से बिना कहीं नृत्य होता है और जब भी तुम नृत्य की पूजा करने जाओगे तो तुम नर्तक को पाओगे  भावभंगिमाएं नर्तन की  नर्तक की  भावभंगिमाएं हैं। व्यक्तित्व की पूजा  का क्या अर्थ होता है लेकिन मैं तुमसे कह नहीं रहा कि व्यक्ति की पूजा करो मैं  तुमसे इतना ही कह रहा हूँ शब्दों से बचो ठोस को ग्रहण करो ठोस है वास्तविक यथार्थ शाब्दिक जाल में मत पड़ो अगर बुद्ध तुम्हें मिल जायें तो तुम यह मत कहना हम तो बुद्धत्व की पूजा करेंगे। बुद्धत्व को  कहाँ पाओगे। जब भी पाओगे बुद्ध को पाओगे और अगर बुद्धत्व कहीं मिलेगा तो बुद्ध की छाया की तरह मिलेगा। तुम  कहते हो हम छाया की पूजा करेंगे।  मूल की पूजा न करेंगे तुम कहते हो हम तो जैनत्व की पूजा करेंगे महावीर से हमें क्या लेना देना।लेकिन जरा गौर करना कहीं अहंकार तुम्हें धोखे तो नहीं दे रहा है अहंकार तर्क तो नहीं खोज रहा है अहंकार ये तो नहीं कर रहा है इंतज़ाम कि देखो पूजा से बचा दिया। समर्पण से बचा दिया। विनम्र होने से बचा दिया। अब तुम खोजते रहो बुद्धत्व को जैनत्व को कहीं मिलेगा नहीं तो झुकने का कोई सवाल ही न आएगा। अब ये बड़े मजे की बात है जीवन के सामान्य तल पर तुम ऐसा नहीं करते जब तुम किसी स्त्री के प्रेम में पड़ते हो तो तुम स्त्रीत्व को प्रेम नहीं करते। तुम स्त्री के प्रेम में पड़ते हो तब तुम ये धोखा नहीं करते। तुम ये नहीं कहते हम स्त्रीत्व को प्रेम करेंगे। स्त्री को क्या करना कहते हो तब तुम ये नहीं कहते तब तो तुम स्त्री के प्रेम में पड़ते हो तब तुम नहीं शब्द की बात करते।तब तुम सत्य को पकड़ते हो। जहां तुम पकड़ना चाहते हो वहां तुम सत्य को पकड़ते हो। जहां तुम नहीं पकड़ना चाहते जहाँ तुम बचना चाहते हो वहां तुम शब्दों के जाल फैलाते हो। जब प्रेम करोगे तो स्त्री को प्रेम करना होगा स्त्रीत्व को प्रेम नहीं किया जाता। जब प्रेम करना होगा तो गुरु को प्रेम करना होगा गुरुत्व को प्रेम नहीं किया जाता।और जब करना होगा समर्पण तो बुद्ध को करना होगा बुद्धत्व को समर्पण नहीं किया जाता। ये शब्द जाल है और अहंकार बड़ा कुशल है अपने को इन जालों में छिपा लेने के लिए। तुम इस अहंकार से सावधान रहना। टूटा सिलसिला फुनगी पर फूल खिला, झरा तो गहरा अपना ही मूल मिला। वो जो फुनगी पर फूल खिला है अगर गिर जाए झर जाए तो अपनी ही जड़ें पा लेगा। तुम अगर झुक जाओ तो अपना ही मूल पा लोगे टूटा सिलसिला फुनगी पर फूल खिला झरा तो गहरा अपना ही मूल मिला झुको समर्पण करो तो तुम स्वयं को ही पा लोगे माध्यम होगा कोई पाओगे तुम अपने को ही किसी के द्वार से गुरु द्वार है गुरुद्वारा उसके द्वार से तुम अपने पे ही लौट आओगे।
पांचवा प्रश्न : मैं किसी को पुकारता हूँ जिसे जानता नहीं, मैं हूँ किसी के प्यार में जिसे पहचानता नहीं, यह क्या इंतज़ार के बाद भी आता है इंतज़ार य समझूँ कि मैं ही तुझे पुकारता नहीं।
सत्य की खोज य सत्य का प्रेम य सत्य की जिज्ञासा उसकी ही खोज है जिसे हम जानते नहीं उसकी ही पुकार है जिसे हम पहिचानते नहीं जिसे तुम पहिचानते हो वह तो झूठा हो गया। जिसे तुम जानते हो उससे तो कुछ भी न पाया उसे तो जान भी लिया और क्या पाया। अनजान की तलाश है अपरिचित की खोज अज्ञात की यात्रा है। ऐसा ही है स्मरण रखना रोज रोज जो जान लो उसे छोड़ देना है ताकि यात्रा दूषित न हो पाए। और यात्रा शुद्ध रूप से अनजान अपरिचित अज्ञात की बनी रहे। जो जान लो उसे झाड़ देना वो कचरा हो गया ज्ञात को इकट्ठा मत करना ज्ञात से ही तो बुद्धि बनती है। ज्ञात को इकट्ठा ही मत करना ज्ञात की धुल इकट्ठी मत होने देना ताकि तुम्हारा चित्त का दर्पण अज्ञात को झलकाता रहे। अज्ञात को पुकारता रहे। अज्ञात का आव्हान और चुनौती आती रहे। ठीक ऐसा ही है और ये भी ख्याल रखना ये जो परमात्मा की खोज है ये शुरू तो होती है पूरी कभी नहीं होती। पूरी हो भी नहीं सकती क्योंकि परमात्मा अनंत है। इसे तुम पूरा कैसे करोगे। इसे चुकाओगे कैसे। इसे तौलते रहो तौलते रहो तौल न पाओगे।अमाप है। इसलिए रोज रोज लगेगा पास आये पास आये और फिर भी तुम पाओगे दूर के दूर रहे रोज रोज लगेगा मंज़िल ये आयी ये आयी फिर भी लगेगा इंतज़ार जारी है मगर इंतज़ार में बड़ा मजा है मिलने से भी ज़्यादा मजा है ये जो सतत खोज है और सतत कशिश और खिचाव है और ये सतत पुकार है इसका  मजा तो देखो। इसका रस तो अनुभव करो। अगर परमात्मा मिल जाए तो फिर क्या करोगे। बुलाता रहे दौड़ाता रहे छिपता रहे ये छियाछी चलती रहे। इंतज़ार जारी रहे लेकिन हम बड़े सीमित हैं। हम कहते हैं अब जल्दी मिल जाओ। इंतज़ार नहीं चाहिए। हमें पता नहीं हम क्या मांग रहे हैं।अगर यात्रा पूर्ण हो जाए तो फिर मृत्यु के अतिरिक्त कुछ बचता नहीं। पूर्णता तो मृत्यु है। इसलिए यात्रा अपूर्ण रहेगी। क्योंकि मृत्यु है ही नहीं जगत में। अस्तित्व मृत्यु विहीन है। ये यात्रा शाश्वत है। परमात्मा मंजिल नहीं है यात्रा है। इस तरह सोचना शुरू करो। उसे तुम मंजिल की तरह सोचो ही मत। अन्यथा भ्रान्ति खड़ी होती है। यात्रा की तरह सोचो। और तब एक नया ही रूप प्रकट होता है। तब कल नहीं है रस आज है अभी है यहीं है तब ऐसा नहीं है किसी दिन पहुंचेंगे और फिर मजा करेंगे। परमात्मा में डूबेंगे और रस लेंगे। प्रतिपल मार्ग पर राह पर पक्षियों के गीत में हवा के झोंकों में चाँद तारों में राह की धूल में सब जगह परमात्मा लिप्त है सब जगह मौजूद है यात्रा है परमात्मा मंजिल नहीं इंतज़ार बड़ा मधुर है और ये इंतज़ार अनंत है। हमारा मन तो मांगता है जल्दी हो जाए हमारा मन बड़ा अधीर है।
इतना मत दूर रहो गंध कहीं खो जाए, आने दो आंच रौशनी न मंद हो जाए।
देखा तुमको मैनें कितने जन्मों के बाद, चम्पे की बदली सी धूप छायें आसपास।
घूम सी गयी दुनिया, यह भी न रहा याद, बह गया है वक़्त लिए, सारे मेरे पलाश।
ले लो ये शब्द, गीत भी कहीं न सो जाए, आने दो आंच, रौशनी न मंद हो जाये।
उत्सव से तन पर सजा ललचाती मेहराबें, खींच ली मिठास पर क्यों शीशे की दीवारें।
टकरा के डूब गयी इच्छाओं की नावें, लौट लौट आयी हैं मेरी सब झंकारें।
नेह फूल नाजुक न खिलना बंद हो जाय, आने दो आंच, रौशनी न मंद हो जाये।
क्या कुछ कमी थी मेरे भरपूर दान में , य कुछ तुम्हारी नजर चूकी पहचान में।
य सब कुछ लीला थी तुम्हारे अनुमान में, य मैनें भूल की तुम्हारी मुस्कान में।
खोलो देह बंध मन समाधी सिंधु हो जाए,  आने दो आंच, रौशनी न मंद हो जाये।
हम बड़े डरे हैं हम बड़े भयभीत हैं हम जल्दी मुट्ठी बाँध लेना चाहते हैं। हमारा मन बड़ा आतुर है। अशांत है। जल्दी हो और कहीं ऐसा न हो कि हम खोजते ही रह जाएं। मिलना ही न हो और ये जीवन खो जाए। कहीं ऐसा न हो कि हम राह की धूल में ही दबे रह जाएं और तेरे द्वार तक कभी पहुँच ही न पाएं। कहीं ऐसा न हो कि हम भटकते ही रहें चाँद तारों में तेरा घर ही न मिले। हमारी परमात्मा को देखने की मौलिक दृष्टि भ्रांत है। परमात्मा कहीं और है जहां हमें पहुंचना है इसमें ही भूल हो रही है। परमात्मा यहां है अभी है यहीं है कहीं और नहीं। ये हमारा ध्यान हमें कहीं और चुका रहा है परमात्मा यहां है अभी है यहीं है चारों ओर घना है उसी की रौशनी है उसी की छाया है उसी के हरे वृक्ष है उसी के नदी झरने हैं उसी के पर्वत पहाड़ हैं वही झाँक रहा है तुम्हारी आँखों से वही बोलता मुझमे वही सुनता तुममे। कहीं दूर नहीं है कहीं पार नहीं है। कहीं और नहीं है यहीं है अभी है तुम जागो डूबो इस रस में इस उत्सव को भोगो। और प्रतिपल शूद्र में भी उसे देखो। भोजन करो तो  याद रखो अन्नम ब्रह्म पानी पियो याद रखो झरने सर सरिताएं सब उसकी हैं। कंठ में तृप्ति हो तो याद रखो वही तृप्त हुआ। गले मिलो प्रियजन के स्मरण रखो वही आलिंगन कर रहा है ऐसे दूर मंजिल की तरह देखोगे तो दुखी होंगे परेशान होंगे। और उस परेशानी में जो मौजूद है चारों तरफ उससे चूकते चले जाओगे। फिर दोहराता हूँ परमात्मा मंजिल नहीं मार्ग है। गंतव्य नहीं गति है। आखरी पड़ाव नहीं सभी पड़ाव उसके हैं आखरी कोई पड़ाव ही नहीं है यात्रा ही यात्रा है अनंत यात्रा
खुलता है हर एक रहस्य का दरवाज़ा दूसरे रहस्य में प्रत्येक वर्तमान की इति है अशेष भविष्य में और हर रहस्य का दरवाज़ा खोल के जब तुम गहरे उतरोगे फिर पाओगे नया एक दरवाज़ा एक पहाड़ के उतुंग शिखर को लांघोगे सोचोगे आ गए घर अब और चलना नहीं  पहुंचोगे शिखर पर और पाओगे और बड़ा शिखर प्रतीक्षा कर रहा है और बड़े शिखर की पुकार आ गयी। और ऐसा ही सदा होता रहेगा सौभाग्य की यात्रा थकती नहीं झुकती नहीं अंत नहीं आता ये खेल शाश्वत है अनवरत है
तूफान और आंधी हमको न रोक पाए वो और थे मुसाफिर जो पथ से लौट आये।
संकल्प कर लिया तो संकल्प बन गए हम मरने के सब इरादे जीने के काम आये।
कुछ कल्पनायें जोड़ी कुछ भावनाएं तोड़ी दीवानगी में न हमनें क्या क्या न गुल खिलाये।
आबाद हो गयी हैं दुःख दर्द की सभायें एक साज की बदौलत सौ तार थर थराएं।
जाने कहाँ बसेंगे जाने कहाँ लुटेंगे बादल ने बाग़ सींचें बिजली ने घर जलाये।
संतोष को सफर में संतोष मिल रहा है हम भी तो हैं तुम्हारे कहने लगे पराये।
संतोष को सफर में संतोष मिल रहा है हम भी तो हैं तुम्हारे कहने लगे पराये।
जिस दिन तुम यात्रा को ही गंतव्य मान लोगे उस दिन कोई पराया नहीं कोई अन्य नहीं सभी अनन्य हैं। जिस दिन प्रतिपग मंजिल मालूम होने लगेगी उस दिन तुम धन्यभागी हुए। उस दिन प्रभु तुम पर बरसा। उस दिन तुमने पहचाना। उस दिन प्रतिभिज्ञा हुई।
आखरी प्रश्न
प्यारे भगवान् श्री हम्मा को बिना सवाल किये जो जवाब दिया उसे सुन कर मुझे कितनी ख़ुशी हुई यह मैं शब्दों में नहीं कह सकती। आपका आशीर्वाद बरस रहा है पूछा है जस्सू ने
पहली बात सवाल हो तो तुम पूछो य न पूछो जवाब मैं देता हूँ सवाल न हो तो तुम कितना ही पूछो जवाब मैं नहीं देता। सवाल पूछने से ही  जरूरी नहीं है कि सवाल हो। कुछ लोगों को पूछने की बिमारी है वो बिना पूछे रह नहीं सकते। जैसे खाज खुजलाती है ऐसी उनकी बीमारी है वो पूछते चले जाते हैं। उनको इतनी फुर्सत भी नहीं होती कि वो सुने कि उत्तर क्या दिया जब मैं उत्तर दे रहा होता हूँ वो दूसरे प्रश्न बनाते हैं तब वो सोचते हैं कल क्या पूछना है। वो आगे पूछने में लग जाते हैं। कुछ हैं जिनका धंधा पूछना है। उन्हें उत्तर से कोई प्रयोजन नहीं है । उन्हें प्रश्न पूछना है। उन्हें प्रश्न पूछने में ही सारा रस है। कुछ हैं जो उत्तर के लिए प्यासे हैं और पूछते नहीं। उनके लिए भी मैं उत्तर देता हूँ सच तो ये है कि वो ही उत्तर पाने के लिए के लिए ज्यादा योग्य पात्र हैं जो पूछते भी नहीं और प्रतीक्षा करते हैं उत्तर की आकांक्षा है लेकिन प्रश्न पूछने की खुजलाहट नहीं। राह देखते हैं समय होगा जब ऋतु आएगी ठीक ठीक घडी होगी तो भरोसा है उनका कि मैं उत्तर दूंगा। इसलिए कभी कभी मैं उनके भी उत्तर देता हूँ जिन्होनें नहीं पूछा और रोज ही उन बहुतों के उत्तर नहीं देता हूँ जो पूछते चले जाते हैं। असली सवाल पूछना नहीं है असली सवाल उत्तर को ग्रहण करने की क्षमता असली सवाल उत्तर को स्वीकार करने की साहस हिम्मत हम्मा ने पूछा नहीं था उत्तर मैनें दिया हम्मा को पूछने का कोई आग्रह नहीं है सुनते हैं वर्षों से सुनते हैं चुपचाप सुनते रहते हैं सुनते हैं कभी रोते देखता हूँ उनको आँसुओं से भरे कभी हँसते देखता हूँ कभी प्रफुलित कभी आनंदित लेकिन गहरे सुनते हैं ऐसे जो भी सुनने वाले हैं उनका कोई भी उत्तर होगा वो पूंछे य न पूछे मैं उत्तर दूंगा। उनका प्रश्न हो बस इतना काफी है ठीक समय पर उन्हें उनका उत्तर मिल जायेगा। जस्सू ने कहा कि उसे सुन के ये बहुत ख़ुशी हुई जस्सू जानती है हम्मा उसके पति हैं जस्सू उन्हें पहचानती है वो चौंकी होगी मैनें जो उत्तर दिया क्योंकि उसे ख्याल है कि हम्मा की जरूरत क्या है हम्मा को निकट से उसने जाना है उनकी छाया से परिचित है। उनसे लम्बे जीवन का सम्बन्ध है। तो सुन के चौंकी होगी जब मैने उत्तर दिया क्योंकि पूंछा नहीं था और दिया और जो उत्तर दिया वो वही था जिसकी उन्हें जरूरत थी और ये भी मैं आपको कहूं हम्मा ने तो पूछा था जस्सू ने भी नहीं पूंछा था लेकिन जस्सू पूछना चाहती थी। कहना चाहती थी कि मैं हम्मा को कुछ कहूं। वो उसके प्राणों में था। इसलिए आनंदित हुई। निश्चित ही शब्दों में कहना मुश्किल है उसने कहा आपका आशीर्वाद बरस रहा है जब तुम मेरे उत्तर को ग्रहण करने में समर्थ हो जाओगे तो तुम अचानक पाओगे कि आशीर्वाद बरसा मैं उत्तर नहीं दे रहा हूँ आशीष ही दे रहा हूँ जो इन्हें उत्तर समझते हैं वो चूक गए ये कोई शाब्दिक सिद्धांत और शास्त्र की बातें नहीं हैं जो यहां हो रही हैं यहां कोई शब्द जाल नहीं है यहां किन्ही सिद्धांतों की रचना नहीं की जा रही और न कोई संप्रदाय गड़े जा रहे। यहां कोई बौद्धिक उत्तर नहीं खोजे जा रहे अगर तुमने मेरा उत्तर ग्रहण कर लिया अगर तुमनें ह्रदय में उसे जाने दिया तीर की तरह चुभने दिया तो तुम अनुभव करोगे कि आशीर्वाद की वर्षा हुई। तुम पर निर्भर है वर्षा होती है तुम उलटे घड़े की तरह भी हो सकते हो घड़ा रखा रहे खुले आँगन में वर्षा होती रहे पानी न भरेगा तुम फूटे घड़े की भांति भी हो सकते हो सीधा भी रखा रहे वर्षा भी होती रहे पानी भरता भी रहे फिर भी बचे न। तुम सीधे बिन फूटे घड़े की तरह जब स्वीकार करोगे तुम्हारे मन और मन के विचारों के छिद्र जब जो मैं तुम्हें दे रहा हूँ उसे बहा न ले जायेंगे जब तुम मुझे निर्विचार होके सुनोगे तो अछिद्र हो के सुनोगे उस समय तुम्हारे घड़े में कोई छेद नहीं और जब तुम्हे मुझे प्रेम समर्पण से सुनोगे श्रद्धा से सुनोगे तो तुम्हारा घड़ा सीधा है तो वर्षा भर जाएगी तुम्हें आशीर्वाद का अनुभव होगा ये उत्तर नहीं है आशीष ही है ढोलक ठनके रूठी मनके रूठें प्रीतम के धिकभेंसे घन बरसे घन बरसे भीग धरा घम के घन बरसे रस धार गिरे दिन सरस फिरे पपीहा तरसे न पिया तरसे घन बरसे घन बरसे भीग धरा गम के घन बरसे और घन बरस रहा है रस धार बह रही है तुम्हारे हाथ में कितना पी लो तुम मुझे दोषी न ठहरासकोगे न पिया तो तुम ही जिम्मेवार हो तुम मुझे उत्तरदायी न ठहरा सकोगे तुम ये न कह सकोगे कि घन नहीं बरसे थे कि रसधार नहीं बही थी ये उपाय तुम्हारे लिए नहीं है तुम ये न कह सकोगे कि हम बुद्ध के समय में नहीं थे और क्राइस्ट के समय में नहीं थे और कृष्ण की बांसुरी को हमनें नहीं सुना क्या करें तुम ये न कह सकोगे बांसुरी बज रही है नहीं सुनें तो तुम ही सिर्फ जिम्मेवार हो सुन लिया तो निश्चित ही आशीर्वाद की वर्षा हो जाएगी और आशीर्वाद मुक्ति है आशीष में निर्वाण है प्रार्थना में शक्ति है ऐसी कि वह निष्फल नहीं जाती जो अगोचर कर चलाते हैं जगत को उन करों को प्रार्थना नीरव चलाती है प्रार्थना से सुनो प्रार्थना पूर्ण हो कर सुनो जो अगोचर कर चलाते हैं जगत को उन करों को प्रार्थना नीरव चलाती अगर तुमने प्रार्थना पूर्वक सुन लिया तो तुम्हारे प्राणो से जो भी उठेगा वो परमात्मा को  चलाने लगता है वो ही तो आशीर्वाद का अर्थ है उसकी तरफ से आशीर्वाद बरसने लगते प्रार्थना में शक्ति है ऐसी की वह निष्फल नहीं जाती। जो अगोचर कर चलाते हैं जगत को उन करों को प्रार्थना नीरव चलाती कहना भी नहीं पड़ता बिन कहे भी प्रार्थना पहुँच जाती बस हृदय प्रार्थना भरा हो समर्पित हो श्रद्धा से आपूर हो बाढ़ आयी हो प्रेम की तो अनंत आशीषों की वर्षा उपलब्ध होगी आशीष तो बरस ही रहे हैं तुम्हारा ह्रदय खुला होगा और तुम उन्हें पाने में समर्थ हो जाओगे इसे याद रखना यहां कोई बौद्धिक निर्वचन नहीं चल रहा है यहां तो अनिर्वचनीय की बात हो रही है उसे पाने के लिए भाव ही एक मात्र पात्रता देता है विचार नहीं भाव से समझोगे तो ही समझोगे विचार से समझा तो चूक सुनिश्चित है।