Ashtavakra mahageeta (Day 2)

समाधि का सूत्र: विश्राम—दूसरा प्रवचन

12 सितंबर 1976,
ओशो  आश्रम, पूना।


पहला प्रश्न :

कल प्रवचन सुनते समय ऐसा लगा कि मैं इस पृथ्वी पर नहीं हूं, वरन मुक्त और असीम आकाश में एक ज्योति—कण हूं। प्रवचन के बाद भी हलकेपन काखालीपन का अनुभव होता रहाउसी आकाश में भ्रमण करते रहने का जी होता रहा। ज्ञानकर्म, भक्ति मैं नहीं जानतालेकिन अकेला होने पर इस स्थिति में डूबे रहने का जी होता है। लेकिन कभी—कभी यह भाव भी उठता है कि कहीं यह मेरा पागलपन तो नहीं हैकहीं यह मेरे अहंकार का ही दूसरा खेल तो नहीं है! कृपापूर्वक मेरा मार्ग—दर्शन करें!
स पृथ्वी पर हम हैंपर इस पृथ्वी पर वस्तुत: हम न हो सकते हैं और न हम हैं। प्रतीत होता हैपृथ्वी पर हम अजनबी हैं। देह में घर किया हैलेकिन देह हमारा घर नहीं। जैसे कोई परदेस में बस जाये और भूल ही जाये स्वदेश कोफिर अचानक राह पर किसी दिन बाजार में कोई मिल जाये जो घर की याद दिला दे,जो अपनी भाषा में बोले—तो एक क्षण को परदेस मिट जायेगास्वदेश प्रगट हो जायेगा।


शास्त्र का यही मूल्य है। शास्ताओं के वचनों का यही अर्थ है। उनकी सुनकर क्षण भर को हम यहां नहीं रह जातेवहां हो जाते हैं जहां हमें होना चाहिए। उनके संगीत में बहकरजो चारों तरफ घेरे है वह दूर हो जाता हैऔर जो बहुत दूर हैपास आ जाता है।
अष्टावक्र के वचन बहुत अनूठे हैं। सुनोगे तो ऐसा बार—बार होगा। बार—बार लगेगापृथ्वी पर नहीं होआकाश के हो गयेक्योंकि वे वचन आकाश के हैं। वे वचन स्वदेश से आए हैं। उस स्रोत से आए हैंजहां से हम सबका आना हुआ हैऔर जहां हमें जाना चाहिएऔर जहां जाए बिना हम कभी चैन को उपलब्ध न हो सकेंगे।
जहां हम हैं—सराय हैघर नहीं। कितना ही मानकर बैठ जायें कि घर हैफिर भी सराय सराय बनी रहती है। समझा लेंबुझा लेंभुला लें—भेद नहीं पड़ताकाटा चुभता ही रहता हैयाद आती ही रहती है। और कभी जब ऐसे किसी सत्य के साथ मुलाकात हो जायेजो खींच लेजो चुंबक की तरह किसी और दूसरी दुनिया का दर्शन करा दे तो लगेगा कि हम पृथ्वी के हिस्से नहीं रहे।
ठीक लगा।
'कल प्रवचन सुनते समय ऐसा लगा कि मैं इस पृथ्वी पर नहीं हूं।
इस पृथ्वी पर कोई भी नहीं है। इस पृथ्वी पर हम मालूम होते हैंप्रतीति होती हैसत्यतः हम आकाश में हैं। हमारा स्वभाव आकाश का है।
आत्मा यानी भीतर का आकाश। शरीर यानी पृथ्वी। शरीर बना है पृथ्वी से। तुम बने हो आकाश से। तुम्हारे भीतर दोनों का मिलन हुआ है।
तुम क्षितिज होजहां पृथ्वी आकाश से मिलती हुई मालूम पड़ती हैलेकिन मिलती थोड़े ही है कभी! दूर क्षितिज मालूम पड़ता है—मिल रहा आकाश पृथ्वी से। चल पड़ोलगता है ऐसे घड़ी दो घड़ी में पहुंच जायेंगे। चलते रहो जन्मों—जन्मों तककभी भी उस जगह न पहुंचोगे जहां आकाश पृथ्वी से मिलता है। बस मालूम होतासदा मालूम होता मिल रहा—थोड़ी दूर आगेबस थोड़ी दूर आगे!
क्षितिज कहीं है नहीं—सिर्फ दिखाई पड़ता है। जैसे बाहर क्षितिज है वैसे ही हमारी अवस्था है। यहां भीतर भी मिलन कभी हुआ नहीं। आत्मा कैसे मिले शरीर से! मर्त्य का अमृत से मिलन कैसे हो! दूध पानी में मिल जाता है—दोनों पृथ्वी के हैं। आत्मा शरीर से कैसे मिले—दोनों का गुणधर्म भिन्न है! कितने ही पास होंमिलन असंभव है। सनातन से पास हों तो भी मिलन असंभव है। मिलन हो नहीं सकतासिर्फ हमारी प्रतीति हैहमारी धारणा है। क्षितिज हमारी धारणा है। हमने मान रखा हैइसलिए है।
अष्टावक्र के वचनों को अगर जाने दोगे हृदय के भीतर तीर की तरह तो वे तुम्हारी याद को जगायेंगेतुम्हारी भूली—बिसरी स्मृति को उठायेंगेक्षण भर को आकाश जैसे खुल जायेगाबादल कट जायेंगेसूरज की किरणों से भर जायेगा प्राण।
कठिनाई होगीक्योंकि हमारे सारे जीवन के विपरीत होगा यह अनुभव। इससे बेचैनी होगी। और ये जो घटाएं छट गई हैंये तुम्हारे कारण नहीं छटी हैंये तो किसी शास्ता के वचनों का परिणाम हैं। फिर घटाएं घिर जायेंगी। तुम घर पहुंचते—पहुंचते फिर घटाओं को घेर लोगे। तुम अपनी आदत से इतनी जल्दी बाज थोड़े आओगे—फिर घटाएं घिर जायेंगीतब और बेचैनी होगी कि जो दिखाई पड़ा थावह सपना तो नहीं थाजो दिखाई पड़ा थाकहीं कल्पना तो नहीं थीकहीं अहंकार कामन का खेल तो न थाकहीं ऐसा तो न हुआ कि हम किसी पागलपन में पड़ गये थे!
स्वभावत: तुम्हारी आदतों का वजन बहुत पुराना है। अंधेरा बड़ा प्राचीन है। यद्यपि है नहीं—पर है बहुत प्राचीन। सूरज की किरण कभी फूटती है तो बड़ी नयी है—अत्यंत नयी हैसद्यस्नात! क्षण भर को दिखाई पड़ती हैफिर तुम अपने अंधेरे में खो जाते हो। तुम्हारे अंधेरे का बड़ा लंबा इतिहास है। जब तुम दोनों को तौलोगे तो शक किरण पर पैदा होगाअंधेरे पर पैदा नहीं होगा। होना चाहिए अंधेरे पर—होता है किरण परक्योंकि किरण है नयी और अंधेरा है पुराना। अंधेरा है परंपरा जैसा— सदियों—सदियों की धारा है। किरण है अभी—अभी फूटी—ताजीनयीइतनी नयी कि भरोसा कैसे करें!  '…. लगा कि मैं इस पृथ्वी पर नहीं हूं।
इस पृथ्वी पर कोई भी नहीं है। इस पृथ्वी पर हम हो नहीं सकते। मान्यता है हमारीधारणा है हमारीलगता है—सत्य नहीं है।
'…… और मुझेअसीम आकाश में एक ज्योति—कण हूं ऐसा प्रतीत हुआ।
यह शुरुआत है : 'असीम आकाश में एक ज्योति—कण हूं।’ जल्दी ही लगेगा कि असीम आकाश हूं। यह प्रारंभ है।
तो असीम आकाश में भी अभी हम पूरी तरह लीन नहीं हो पाते। अगर लगता भी है कभीकभी वह उड़ान भी आ जाती हैवह तूफान भी आ जाता हैहवाएं हमें ले भी जाती है—तो भी हम अपने को अलग ही बचा लेते हैं।ज्योति कण!न रहे अंधेरेहो गये ज्योति—कणलेकिन आकाश से अभी भी भेद रहाफर्क रहा,फासला रहा। घटना तो पूरी उस दिन घटेगीजिस दिन तुम आकाश ही हो जाओगे—ज्योति—कण भी भिन्न है—जिस दिन तुम अभिन्न हो जाओगेजिस दिन लगेगा मैं शून्याकाश हूं।
ऐसा तो कहते हैं भाषा में कि मैं शून्य आकाश हूं। जब तक 'मैंहैतब तक यह कैसे हो सकेगामैं है तो आकाश अलग रहेगा। जब ऐसा प्रतीत होगा कि शून्याकाश हैतब मैं तो नहीं रहूंगा। शून्याकाश ही रहेगा। कहते हैं : अहं ब्रह्मास्मि—मैं ब्रह्म हूं। लेकिन जब ब्रह्म होगा तब मैं कैसे रहेगाब्रह्म ही रहेगामैं नहीं रहूंगा। पर कहने में और कोई उपाय नहीं।
भाषा तो सोए हुए लोगों की है। भाषा तो उनकी है जो परदेस में बस गए और जिन्होंने परदेस को स्वदेश मान लिया है। मौन ही ज्ञानियों का हैभाषा तो अज्ञानियों की है।
तो जैसे ही कुछ कहोकहते ही सत्य असत्य हो जाता है।अहं ब्रह्मास्मि! मैं ब्रह्म हूं। मैं आकाश हूं।’—कहते ही असत्य हो गया।.. आकाश ही है!
लेकिन यह भी कहना आकाश ही हैपूरा सत्य नहीं हैक्योंकि 'हीबताता है कि कुछ और भी होगाअन्यथा 'हीपर जोर क्यों है? 'आकाश है', इतने कहने में. भी अड़चन हैक्योंकि जो है वह  'नहींहो सकता है।
हम कहते हैंमकान हैकभी मकान नहीं हो जाता हैगिर जाता हैखंडहर हो जाता है। हम कहते हैंआदमी हैकभी आदमी मर जाता है। आकाश इस तरह तो नहीं है कि कभी है और कभी नहीं है। आकाश तो सदा है।
तो आकाश हैऐसा कहना पुनरुक्ति है। आकाश का स्वभाव ही होना हैइसलिए 'हैको क्या दोहराना? 'हैकहना तो उन चीजों के लिए ठीक है जो कभी'नहींभी हो जाती हैं। मनुष्य है। एक दिन नहीं थाआज हैकल फिर नहीं हो जायेगा। हमारी 'हैतो दो 'नहींके बीच में है। आकाश की  'हैकल भी है आज भी हैकल भी है। दो 'हैके बीच में 'हैका क्या अर्थदो 'नहींके बीच में 'हैका अर्थ होता है।
आकाश हैयह भी पुनरुक्ति है। कहें आकाश। लेकिन आकाशजब कहते हैंशब्द जब बनाते हैंतभी भूल हो जाती है। आकाश कहने का अर्थ ही हुआ कि कुछ और भी है जो आकाश से अन्यथा हैभिन्न है। अन्यथा शब्द की क्या जरूरत हैअगर एक ही है तब तो एक कहने का भी कोई प्रयोजन नहीं। एक तो तभी सार्थक है जब दो होतीन होचार होसंख्या हो।’ आकाशभी क्या कहनाइसलिए ज्ञान तो मौन है। परम ज्ञान को शब्दों तक लाना असंभव है।
लेकिन हम धन्यभागी हैं कि अष्टावक्र जैसे किन्हीं पुरुषों ने अथकअसंभव चेष्टा की है। जहां तक संभव हो सकता थासत्य की सुगंध को शब्द तक लाने का प्रयास किया है।
और इतना खयाल रखना कि अष्टावक्र जैसी सफल चेतना बहुत कम है। बहुतों ने प्रयास किया है सत्य को शब्द तक लाने का—सभी हारे हैं। हारना सुनिश्चित है। मगर अगर हारे हुओं में भी देखना होतो अष्टावक्र सबसे कम हारे हैंसबसे ज्यादा जीते हैं। सुनोगे ठीक से तो घर की याद आयेगी। शुभ है कि लगा ज्योति—कण हूं। तैयारी रखना खोने की। किसी दिन लगेगा ज्योति—कण भी खो गयाआकाश ही बचा। तब पूरा मतवालापन छायेगा। तब डूबोगे सत्य की शराब में। तब नाचोगे। तब अमृत की पूरी झलक मिलेगी।
'…… प्रवचन के बाद भी हलकेपनखालीपन का अनुभव होता रहा। उसी आकाश में भ्रमण करने का जी होता रहा।
यहां थोड़ी भूल हो जाती है। जब भी हमें कुछ सुखद अनुभव होता हैतो हम चाहते हैं फिर—फिर हो। मनुष्य का मन है बड़ा कमजोर—आकांक्षा से भर जाता हैलोभ से भर जाता हैप्रलोभन पैदा होता है। जो भी सुखद है उसे दोहराने का मन होता है। लेकिन एक बात खयाल रखनादोहराने में ही भूल हो जाती है। जैसे ही तुमने चाहा फिर से होकभी न होगा। क्योंकि जब पहली दफे हुआ था तो तुम्हारे चाहने से न हुआ था—हो गया थाघटा थातुम्हारा कृत्य न था।
यही तो अष्टावक्र का पूरा जोर है : सत्य घटता हैकृत्य नहीं हैघटना है। सुनते—सुनते हुआ थातुम कर क्या रहे थेसुनने का अर्थ ही होता है कि तुम कुछ भी न कर रहे थेतुम शून्य— भाव से बैठे थेतुम मौन थेतुम सजग थेतुम जागे हुए थेसोए नहीं थे। ठीक! लेकिन तुम कर क्या रहे थेतुम केवल ग्राहक थे। तुम्हारी चित्त की दशा दर्पण की तरह थी : जो आ जायेझलक जायेजो कहा जायेसुन लिया जाये। तुम कुछ उसमें जोड़ न रहे थे। अगर तुम जोड़ रहे होते,तो जो घटी है बात वह कभी न घटती। तुम व्याख्या भी न कर रहे थे। भीतर बैठे—बैठे तुम यह न कह रहे थे कि हीठीक है गलत हैमुझसे मेल खाता नहीं मेल खाताशास्त्र में ऐसा कहा है कि नहीं कहा है। तुम तर्क न कर रहे थे। अगर तुम तर्क कर रहे थे तो यह घटना न घटती।
जिन्होंने पूछा हैस्वामी ओमप्रकाश सरस्वती नेउन्हें मैं जानता हूं। तर्क से उनका चित्त बड़ा दूर हैसंदेह—विवाद से बहुत दूर है। जा चुके वे दिन! कभी किया होगा तर्ककभी किया होगा संदेह। जीवन के अनुभव से पक गये हैं। अब नहीं वह बचपना मन में रहा। इसीलिए घटना घट सकी। सुन रहे थेकुछ कर न रहे थेबैठे थे—बैठे—बैठे हो गया।
तो जब पहली दफा तुम्हारे बिना किये हुआतो दूसरी दफा अगर तुमने चाहा कि हो जाये तो बाधा पड़ जायेगी। चाह तो उसके होने का कारण थी ही नहीं। इसलिए जब ऐसी अभूतपूर्व घटनाएं घटें तो चाहना मत. जब घटेंआनंद— भाव वे स्वीकार कर लेनाजब न घटें तो शिकायत मत करनामांगना मत। मांगे कि चूके। मांग में जबरदस्ती हैआग्रह है : 'घटना चाहिए! एक दफा घट गया तो अब क्यों नहीं घटता है?'
ऐसा रोज होता है। जब यहां लोग ध्यान करने आते हैंशुरू—शुरू में ताजे और नये होते हैंकोई अनुभव नहीं होतातो घट जाता है। यह बड़ी हैरानी की बात है। इसे तुम समझना। अष्टावक्र को समझने में इससे सहायता मिलेगी। यह मेरे रोज का अनुभव है : जब लोग नये—ताजे आते हैं और ध्यान का उन्हें कोई अनुभव नहीं होता तो घट जाता है। घट जाता है तो आह्लाद से भर जाते हैंमगर वहीं गड़बड़ हो जाती है। फिर मांग शुरू होती है आज जो हुआ कल होन केवल हो,बल्कि और ज्यादा हो। फिर नहीं घटता। फिर वे मेरे पास आ कर रोते हैं। वे कहते हैं, 'हुआ क्याकहीं भूल हो गईपहले घटाअब नहीं घट रहा है!भूल यही हो गई कि पहले जब घटा तो तुमने मांगा न थाअब तुम मांग रहे हो। अब तुम्हारा मन निर्दोष न रहामांग ने दूषित किया। अब तुम सरल न रहेअब तुम खुले न रहे,मांग ने द्वार—दरवाजे बंद किये। आकांक्षा जग गईआकांक्षा ने सब विकृत कर दिया। वासना खड़ी हो गईलोभ पैदा हो गया।
ऐसा रोज होता है। जो लोग बहुत दिन से ध्यान कर रहे हैंबहुत तरह की प्रक्रियाएं कर रहे हैंउन्हें ध्यान बड़ी मुश्किल से लगता है। उनका अनुभव बाधा बनता है। कभी—कभी कोई चला आता हैऐसे हीतरंगों में बहता हुआ। कोई मित्र आता था—उसने कभी सोचा भी नहीं ध्यान का—कोई मित्र आता थाउसने सोचा चलो चले चलेंदेखें क्या है। कुतूहलवश चला आया थाकोई वासना न थीकोई अध्यात्म की खोज भी न थीकोई चेष्टा भी न थीऐसे ही चला आया था—औरों को ध्यान करते देख तरंग आ गईसम्मिलित हो गया—घट गया! चौंका आदमी. 'मैं तो आया ही नहीं था ध्यान करने और ध्यान हो गया!बस फिर अड़चन। अब दुबारा जब आता है तो आकांक्षा हैमन में रस हैफिर से हो। लोभ हैपुनरुक्ति का भाव है! मन आ गया। मन ने सब खेल खराब कर दिया। जहां मन नहीं हैवहां घटता है।
ध्यान रखनामन पुनरुक्ति की वासना है। जो हुआ सुखदफिर से होजो हुआ दुखदफिर कभी न हो—यही तो मन है। मन चुनाव करता है. यह हो और यह न होऐसा बार—बार हो और ऐसा अब कभी न हो। यही तो मन है।
जब तुम जीवन के साथ बहने लगते हो—जो हो ठीकजो न हो ठीकदुख आये तो स्वीकारदुख आये तो विरोध नहींसुख आये तो स्वीकारसुख आये तो उन्माद नहीं। जब सुख और दुख में कोई सम होने लगता हैसमता आने लगती हैजब सुख और दुख धीरे—धीरे एक ही जैसे मालूम होने लगते हैंक्योंकि कोई चुनाव न रहाअपने हाथ की कोई बात न रहीजो होता है होता हैहम देखते रहते हैं—इसको अष्टावक्र कहते हैं साक्षी— भाव। और वे कहते हैंसाक्षी— भाव सधा तो सब सधा : साक्षी—भाव साक्षी को जगाता है भीतरबाहर समता ले आता है। समत्व साक्षी— भाव की छाया है। या तुम समत्व में उपलब्ध हो जाओ तो साक्षी— भाव चला आता है। वे दोनों साथ—साथ चलते हैं। वे एक ही घटना के दो पैर या दो पंख हैं।
'…….उसी आकाश में भ्रमण करने का जी होता रहता है।
इससे सावधान होना। मन को मौका मत देना कि ध्यान की घड़ियों को खराब करे। इसी मन ने तो संसार खराब किया। इसी ने तो जीवन के सारे संबंध विकृत किये। इसी मन ने तो सारे जीवन को रेगिस्तान जैसा रूखा कर दियाजहां बहुत फूल खिल सकते थेवहां सिर्फ काटे हाथ में रह गये। अब इस मन को अंतर्यात्रा पर साथ मत लाओ। इसे नमस्कार करो। इसे विदा दो। प्रेम से सहीपर इसे विदा दो। इससे कहो : बहुत हो गयाअब हम न मांगेंगे। अब जो होगाहम जागेंगे। हम देखेंगे। जैसे ही तुमने मांगाफिर तुम साक्षी नहीं रह सकतेतुम भोक्ता हो गये। ध्यान के भी भोक्ता हो गये तो ध्यान गया। भोक्ता का अर्थ यह है कि तुमने कहा : इसमें मुझे रस आयाइससे मुझे सुख मिला। 
'…....ज्ञानकर्मभक्ति मैं नहीं जानतालेकिन अकेला होने पर इसी स्थिति में डूबे रहने का जी होता है।
छोड़ो इस जी को—और तुम डूबोगे इसी स्थिति में। अकेले ही नहींभीड़ में भी रहोगेतो डूबोगे। बाजार में भी रहोगे तो भी डूबोगे। इस स्थिति का कोई संबंध अकेले और भीड़ से नहीं हैमंदिर और बाजार से नहीं हैख्यातसमूह से नहीं है—इस स्थिति का संबंध तुम्हारे चित्त के शात होने से हैसम होने से है। जहां भी शातिसमता होगीयह घटना घटेगी। लेकिन तुम इसको मांगों मतअन्यथा यही अशांति बन जायेगीयही तनाव बन जायेगी।
अष्टावक्र कहते. 'अभी और यहीं!'
मांग तो सदा कल के लिए होती है। मांग तो 'अभी और यहींनहीं हो सकती। मांग का स्वभाव वर्तमान में नहीं ठहरता। मांग का अर्थ ही है : होकल हो,घड़ी भर बाद होक्षण भर बाद हो—हो। मांग अभी तो नहीं हो सकतीमांग के लिए तो समय चाहिए। थोड़ा ही सहीपर समय चाहिए। और भविष्य है नहीं। जो नहीं है उसी का नाम भविष्य है। जो है उसका नाम वर्तमान है। वर्तमान और मांग का कोई संबंध नहीं होता। जब तुम वर्तमान में होओगे तो पाओगे कोई मांग नहीं है। और तब घटेगी यह घटना। जब इसे घटाने का जी न रहेगातब यह खूब घटेगी।
इस पहेली को ठीक से समझ लो। इस पहेली का एक—एक कोना पहचान लो। जिस दिन तुम कुछ भी न मांगोगेउस दिन सब घटेगा। जिस तुम परमात्मा के पीछे दीवाने हो कर न दौड़ोगेवह तुम्हारे पीछे चला आयेगा। जिस दिन तुम ध्यान के लिए आतुरता न दिखाओगेतुम्हारे भीतर कोई तनाव न होगाउस दिन ध्यान ही ध्यान से भर जाओगे।
ध्यान कहीं बाहर से थोड़े ही जाता है। जब तुम तनाव में नहीं हो तो तुम्हारे भीतर शेष रह जाताउसका नाम ध्यान है।
जब तुम्हारे भीतर वासना नहीं है तो जो शेष रह जाताउसका नाम ध्यान है।
झील है। तरंगें उठ रही हैं। हवा के झकोरे! झील की पूरी छाती तूफान से भर गई है। आधी है। सब उथल—पुथल हो रही है। आकाश में चांद है पूरा,लेकिन प्रतिबिंब नहीं बनताक्योंकि झील कंप रही हैदर्पण कैसे बनेचांद का प्रतिबिंब बनता हैटूट—टूट जाता है हजार—हजार टुकड़ों मेंचांदी फैल जाती है पूरी झील परलेकिन चांद कर प्रतिबिंब नहीं बनता है। झील शात हो गई। लहरें कहीं चली गईंलहरें कहीं से आई थींलहरें झील की थीं। फिर सो गईंझील में वापस उतर गईं। झील अपनी थिर अवस्था में आ गई। वह जो चांदी की तरह फैल गया चांद था झील की छाती परसिकुड़ आया एक जगहठीक प्रतिबिंब बनने लगा।
जैसे ही तुम्हारे मन की झील पर तरंगें नहीं होतीं—तरंग यानी वासनातरंग यानी मांगतरंग यानी ऐसा हो और ऐसा न हो—जब कोई तरंग मन की झील पर नहीं होती तो सत्य जैसा है वैसा ही प्रतिबिंबित होता है। तो जो बनता है चांद तुम्हारे भीतरउसके सौंदर्य का क्या कहना! उसके रस का क्या कहना! रसधार बरसती! मिलन होता! फिर सुहागरात ही सुहागरात है!
लेकिन तुमने मांगा कि चूक हो जायेगी।
और मैं समझता हूं मांग बिलकुल स्वाभाविक मालूम होती है। बड़ी अड़चन है। इतना सुख मिलता है ऐसी घड़ियों में कि कैसे बचें न मांगने से! मानवीय है। मैं यह नहीं कहता कि तुमने कुछ बड़ी अमानवीय भूल की। बिलकुल मानवीय भूल है। कभी जब क्षण भर को झरोखा खुल जाता है और आकाश बहता है तुममें,कभी क्षण भर को जब अंधेरा टूटता है और किरणें उतरती हैं तो असंभव हैकरीब—करीब असंभव है कि इसे न मांगो।
लेकिन यह 'असंभवसीखना पड़ेगा। आज सीखोकल सीखोपरसों सीखोमगर सीखना पड़ेगा। जितनी जल्दी सीखो उतना उचित। अभी तैयार हो जाओ तो अभी घटना घटने को देर नहीं है।
जरा भी क्षण भर की प्रतीक्षा करने की जरूरत नहीं है।
'…… इसी स्थिति में डूबे रहने का जी होता है।
यह स्थिति घटेगी। इसका तुम्हारे चित्त से कुछ लेना—देना नहीं है। इसलिए तुम अपने चित्त को पीछे छोड़ो। वह जब बीच—बीच में आये तब उसे बार—बार कह दो कि क्षमा करोबहुत हुआकाफी हुआ! संसार खराब कियाअब परमात्मा तो खराब मत करो! जीवन के सारे सुख विकृत कर डालेअब ये अंतरतम के सुख आ रहे हैंइन्हें तो विकृत मत करो!
सजग रह कर मन को नमस्कार कर लोविदा दे दो। धीरे—धीरेधीरे—धीरे ऐसी घड़ियां आने लगेंगी—तुम्हारे अनुभव से ही आयेंगी—जब मन नहीं होगा,तत्‍क्षण फिर वही झरोखा खुलता हैफिर बहती रसधारफिर उतरता प्रकाशफिर तुम आलोकितफिर तुम मगनफिर तुम अमृत में डूबे! जब ऐसा बार—बार होगा तो बात साफ हो जायेगीतो फिर मन से तुम अपने को दूर रखने में कुशल हो जाओगे।
जब घटेतब घट जाने देनाजब न घटे तब शाति से प्रतीक्षा करते रहना—आयेगा। जो एक बार आया हैबार—बार आयेगा। तुम भर मत मांगना। तुम भर बीच में मत आना। तुम भर बाधा मत देना।  '.? लेकिन कभी—कभी यह भाव भी उठता है कि कहीं यह मेरा पागलपन तो नहीं है!'
बुद्धि ऐसे भाव भी उठायेगी। क्योंकि बुद्धि यह मान ही नहीं सकती कि आनंद हो सकता है। बुद्धि दुख से बिलकुल राजी है। बुद्धि ने दुख को पूरी तरह स्वीकार किया हैक्योंकि बुद्धि दुख की जन्मदात्री है। अपनी ही संतान को कौन स्वीकार नहीं करेगा! तो बुद्धि मानती है : दुख है तो बिलकुल ठीक है। लेकिन महासुख! —जरूर कहीं कोई गड़बड़ हो गई है। ऐसा कहीं होता हैकोई कल्पना हो गईकोई सपना देखाकिसी दिवा—स्वप्न में खो गयेकिसी सम्मोहन में उतर गयेजरूर कहीं कुछ पागलपन हो गया है।
बुद्धि ऐसे बार—बार कहेगी। इसे सुनना मत। इस पर ध्यान मत देना। अगर इस पर ध्यान दिया तो वे घटनाएं बंद हो जायेंगीवे द्वार—झरोखे फिर कभी न खुलेंगे।
एक बात खयाल में रखना : आनंद सत्य की परिभाषा है। जहां से आनंद मिलेवहीं सत्य है। इसलिए तो हमने परमात्मा को 'सच्चिदानंदकहा है। आनंद उसकी आखिरी परिभाषा है। सत्य से भी ऊपरचित से भी ऊपरआनंद को रखा है, 'सच्चिदानंदकहा है। सत्य एक सीढ़ी नीचेचित एक सीढ़ी नीचे—आनंद परम है।
जहां से आनंद बहेजहां से आनंद मिले—फिर तुम चिंता मत करनासत्य के करीब हो। जैसे कोई बगीचे के करीब आता है तो हवाएं ठंडी हो जाती हैं,पक्षियों के गीत सुनाई पड़ने लगते हैंशीतलता अनुभव होने लगती है—तब बगीचा दिखाई भी न पड़े तो भी अनुभव में आने लगता है कि राह ठीक हैबगीचे की तरफ पहुंच रहे हैं। ऐसे हीजैसे ही तुम सत्य की तरफ पहुंचने लगते होआनंद झरता हैशीतल होने लगता मनसंतुलन आने लगतासहिष्णुता बढ़ती हैसुख बढ़ता है! एक उमंग घेरे रहती है—अकारण! कोई कारण भी दिखाई नहीं पड़ता। न कोई लाटरी मिली है। न कोई धंधे में बड़ा लाभ हुआ है। न कोई बड़ा पद मिला है। ऐसा भी हो सकता था : पद थावह भी गयाहाथ में जो था वह भी खो गयाधंधा भी डूब गया—लेकिन अकारण एक उमंग है कि भीतर कोई नाचे जा रहा है,कि रुकता ही नहीं! तो बुद्धि कहेगी. कहीं पागल तो नहीं हो गये होये तो पागलों के लक्षण हैं।
यही बड़ी अजीब दुनिया है. यहां सिर्फ पागल ही प्रसन्न दिखाई पड़ते हैं! इसलिए बुद्धि कहती हैपागल हो गये होओगेक्योंकि यहां पागलों के सिवा किसी को प्रसन्न देखा हैयहां हजार कारण होते हैंतब भी आदमी प्रसन्न नहीं होता। बड़ा महल होधन होसंपत्ति होसुख—सुविधा होतब भी आदमी प्रसन्न नहीं होता। यह दुनिया दुखी लोगों की दुनिया है। मगर दुखी लोगों की भीड़ है। यहां अगर तुम हंसने लगो अकारण तो लोग कहेंगे पागल हो गये हो! अगर तुम कहो कि हंसी आ रही हैकोई कारण नहीं हैफैली जा रही हैभीतर से उठ रही हैलहर आ रही है—लोग कहेंगेबसदिमाग खराब हो गया! यहां तुम शक्ल बना कर चलोउदास रहोतुम्हारी शक्ल देख कर भूत—प्रेत भी डरेंतो बिलकुल ठीक होतो कोई अड़चन नहीं हैतो सब ठीक चल रहा हैतुम आदमी जैसे आदमी हो;जैसा आदमी होना चाहिए वैसे आदमी हो। लेकिन तुम मुस्कुराने लगोतुम हंसने लगोतुम गीत गुनगुनाने लगोतुम राह के किनारे खड़े हो कर नाचने लगो—बस,तुम पागल हो गये!
परमात्मा को हमने इस भांति इनकार किया है कि अगर परमात्मा आये तो हम उसे पागलखाने में बंद कर देंगे। शायद इसी कारण नहीं आताआने से डरता है।
तुम जरा सोचोकृष्ण अगर मिल जायें चौराहे पर बांसुरी बजातेमोर—मुकुट बांधेपीतांबर डालेगोपियां नाचती हों—क्या करोगेतत्थण पुलिस— थाने जाओगे कि कुछ गड़बड़ है! यह क्या हो रहा हैजो नहीं होना चाहिए वह हो रहा है—तुम इस आदमी को जेलखाने में डालोगे।
आनंद निष्कासित कर दिया गया है! हमने आनंद को जीवन के बाहर कर दिया है। हम दुख को छाती से लगा कर बैठे हैं। यहां दुखी आदमी बुद्धिमान मालूम होता हैयहां आनंदित आदमी पागल मालूम होता है। सारी सरणी उलटी है।
तो स्वाभाविक है। जीवन भर जिसको तुमने बुद्धिमानी समझा हैआज अचानक अगर खोने लगेगीखिसकने लगेगीअगर आज अचानक नींव उखड़ने लगेगी तुम्हारी तथाकथित बुद्धिमानी कीऔर अचानक झांकने लगेगी प्रसन्नता—अकारणखयाल रखना! पागलपन का मतलब यह होता है. अकारण प्रसन्न! कारण भी नहीं है कुछ। बैठे हैं अकेले और मुस्कुराहट आ रही है। बसपागल हो गये! क्योंकि ऐसा तो हमने सिर्फ पागलों को ही देखा है।
ध्यान रखना. पागलों में और परमहंसों में थोड़ा—सा संबंध है। पागल भी हंसते हैंप्रसन्न होते हैंक्योंकि बुद्धि गंवा दी। परमहंस भी हंसते हैंप्रसन्न होते हैंक्योंकि बुद्धि के पार आ गये। दोनों—पागल बुद्धि से नीचे गिर जाता हैइसलिए हंस लेता हैपरमहंस बुद्धि के पार चला जाता हैइसलिए हंसता है—दोनों में थोड़ी समानता है।
पागल और परमहंस में एक बात समान है कि दोनों ने बुद्धि गंवाई। एक ने होशपूर्वक गंवाई हैएक ने बेहोशी में गंवाई है—इसलिए फर्क बहुत है। जमीन— आसमान जितना फर्क है। लेकिन फिर भी एक समानता है। इसलिए कभी—कभी तुम्हें पागल में परमहंस दिखाई पड़ेगा और कभी—कभी परमहंस में पागल। तो भूल—चूक हो जाती है।
पश्चिम के पागलखानों में ऐसे बहुत—से लोग बंद हैं जो पागल नहीं हैं। अभी वहां बडी क्रांति चलती है इसके संबंध में। कुछ मनोवैज्ञानिकविशेषकर आर. डी लैंग और उनके साथीएक बड़ा आंदोलन चलाते हैं कि बहुत—से पागल पागलखानों में बंद हैं जो पागल नहीं हैं। अगर वे पूरब में पैदा होते तो परमहंसों की तरह उनका आदर—सम्मान होता है। आर डी लैंग को पता नहीं हैइससे उलटी घटना पूरब में घट चुकी है : यहां कई पागल हैं जो परमहंस समझे जाते हैं। मगर आदमी आदमी है। यहां पूरब में कई पागल परमहंस समझ लिये गये हैं। मगर भूल—चूक होती हैक्योंकि दोनों की सीमाएं एक—दूसरे पर पड़ जाती हैं। तो यह शक स्वाभाविक है।
एक ही बात खयाल रखना इसमें. आनंद बढ़ रहा होघबड़ाना मत। मगर आनंद पागलपन के कारण भी बढ़ सकता है। तो सुरक्षा की. कसौटी क्या है?सुरक्षा की कसौटी यह है : तुम्हारा आनंद बढ़ रहा हो और तुम्हारे कारण किसी का दुख न बढ़ रहा हो तो बेफिक्री से जाना। तुम्हारा आनंद किसी की हिंसाकिसी पर आक्रमणकिसी को दुख देने पर निर्भर न होतो फिर पागलपन से डरने की कोई वजह नहीं है। अगर पागल भी हो रहे हो तो यह पागलपन बिलकुल शुभ हैठीक है। फिर बेझिझक इसमें प्रवेश कर जाना।
डरने का कारण तो तभी है जब तुम किसी को नुकसान पहुंचाने लगो। तुम्हारे नाच से किसी को कोई बाधा नहीं हैलेकिन कोई सो रहा है और तुम उसकी छाती पर जा कर ढोल बजा कर नाचने लगो। तुम नाचोइससे कुछ अड़चन नहीं है। तुम गुनगुनाओ राम का नामयह ठीक है। लेकिन माइक लगा कर आधी रात में और तुम अखंड कीर्तन शुरू कर दोतो तुम पागल हो। हालांकि कोई तुमको पागल नहीं कह सकताक्योंकि तुम राम—धुन कर रहे हो। ऐसे कई पागल कर रहे हैं। वे कहते हैंअखंड कीर्तन कर रहे हैंचौबीस घंटे की कथा की है। सोओ न सोओतुम्हारी मर्जी! अगर तुम बाधा डालो तो अधार्मिक हो।
इतना ही खयाल रखना : तुम्हारा आनंद हिंसात्मक न हो। बस यह पर्याप्त है। तुम्हारा आनंद तुम्हारा निजी हो। इसके कारण किसी के जीवन में कोई बाधा न पड़ेकोई पत्थर न पड़े। तुम्हारा फूल खिलेलेकिन तुम्हारे फूल के खिलने के कारण किसी को कांटे न चुभे। इतना ही भर खयाल रहे तो तुम ठीक दिशा में जा रहे हो।
जहां तुम्हें लगे कि अब दूसरों को बाधा होने लगीवहां थोड़े सावधान होना! वहां परमहंस की तरफ न जा कर तुमने पागलपन का रास्ता पकड़ लिया।
'ओमप्रकाशसे किसी को कोई दुख नहीं है। बेझिझकबेधड़क जा सकते हो। कल मैं एक गीत पढ़ रहा था :
जो कुछ सुंदर थाप्रेयकाम्य
जो अच्छामजानया थासत्य—सार
मैं बीन—बीन कर लाया
नैवेद्य चढ़ाया
पर यह क्या हुआ?
सब पड़ा पड़ा कुम्हलाया
सूख गयामुर्झाया
कुछ भी तो उसने हाथ बढ़ा कर नहीं लिया!
यूं कहीं तो था लिखा
पर मैंने जो दियाजो पाया,
जो पियाजो गिराया,
जो ढालाजो छलकाया,
जो निथाराजो छाना
जो उताराजो चढ़ाया,
जो जोड़ाजो तोड़ाजो छोड़ा
सबका जो कुछ हिसाब रहा,
मैंने देखा कि उसी यज्ञ—ज्वाला में गिर गया
और उसी क्षण मुझे लगा कि
अरे मैं तिर गया!
ठीक हैमेरा सिर फिर गया।
तिरता है आदमी—सिर के फिरने से।
परमात्मा को तुम चढ़ाओ चुन—चुन कर चीजेंअच्छी— अच्छी चीजें—उससे कुछ न होगाजब तक कि सिर न चढ़े। सुनो फिर :
जो कुछ सुंदर थाप्रेयकाम्य
जो अच्छामजानया थासत्य—सार
मैं बीन —बीन कर लाया नैवेद्य चढ़ाया
पर यह क्या हुआ?
सब पड़ा —पड़ा कुम्हलाया
सूख गयामुर्झाया
कुछ भी तो उसने हाथ बढ़ा कर नहीं लिया।
तुम ले आओ सुंदरतम को खोज करबहुमूल्य को खोज करचढ़ाओ कोहिनूर—कुम्हलायेंगे! तोड़ो फूल कमल केगुलाब केचढाओ—कुम्हलायेगे! एक ही चीज वहां स्वीकार है—वह तुम्हारा सिरवह तुम्हारा अहंकारवह तुम्हारी बुद्धिवह तुम्हारा मन। अलग— अलग नाम हैंबात एक ही है। वहां चढ़ाओ अपने को।
और उसी क्षण मुझे लगा कि
अरे मैं तिर गया
ठीक हैमेरा सिर फिर गया!
लोग तो यही कहेंगेओमप्रकाशकि सिर फिर गया! कहने दो लोगों को। लोगों के कहने से कोई चिंता नहीं है। जब लोग तुमसे कहते हैंसिर फिर गया तो वे इतना ही कर रहे हैं कि अपने सिर की रक्षा कर रहे हैंऔर कुछ नही। जब लोग तुमसे कहते हैं तुम्हारा सिर फिर गयातो वे यह कह रहे हैं कि 'बचाओ हमें,इधर इस तरफ मत आओ! हमें मत सुनाओ ये गीत! मत यह हंसी हमारे द्वार लाओ! मत दिखाओ हमें ये आंखें मदमस्त! ये खबरें मत कहो हमसे!घबड़ाहट है उनकी! भीतर उनके भी यही राग है। भीतर उनके भी ऐसी ही वीणा पड़ी हैजो प्रतीक्षा करती है जन्मों—जन्मों से कि कोई छेड़ दे! मगर डर हैघबड़ाहट है। बहुत कुछ उन्होंने झूठे जगत में बनाया हैबसाया है—कहीं उखड़ न जाये!
मैं इलाहाबाद में था। एक मित्र मेरे सामने ही बैठ कर मुझे सुन रहे थे। लाखों लोगों ने मुझे मेरे सामने बैठ कर सुना हैबहुत कम ऐसे लोग हैंजिन्होंने इतने भाव से सुना हो जैसा भाव से वे सुन रहे थे। उनकी आंखों से आंसुओ की धार बह रही थी। अचानक बीच में उठेसभा— भवन छोड़ कर चले गये! मैं थोड़ा चौंका : यह क्या हुआपूछताछ की। संयोजक को कहा।
वे बड़े प्रसिद्ध व्यक्ति थेमैं तो जानता नहीं था। साहित्यकार थेकवि थेलेखक थे। संयोजक ने उनके घर जा कर पूछा।
उन्होंने कहा : 'बाबा माफ करो! मैं घबड़ा गया। बीस मिनट के बाद मैंने कहाअब यहां से भाग जाना उचित है। अगर थोड़ी देर और रहा तो कुछ से कुछ हो जायेगा। इस आदमी का तो सिर फिरा हैमेरा फिरा देगा। आऊंगाअभी नहीं। जरूर आऊंगापर थोड़ा समय दो। और दो रात से मैं सो नहीं सका हूं। और बातें मेरे मन में गज रही हैं। नहींअभी मेरे पास बहुत काम करने को पड़े हैं। अभी बच्चे हैं छोटे। अभी घर—गृहस्थी सम्हालनी है। जरूर आऊंगातुम जाओ! उनसे कहना जरूर आऊंगालेकिन अभी नहीं।
जब कोई तुमसे कहता हैतुम्हारा सिर फिर गयावह सिर्फ अपनी आत्मरक्षा कर रहा है। वह यह कह रहा है कि ऐसा मान कर कि तुम्हारा सिर फिर गया है,मैं अपने आकर्षण को रोकता हूं। उसके भीतर भी अदम्य आकांक्षा है।
कौन है ऐसा जो परमात्मा को खोजने नहीं चला है! कौन है ऐसा जो आनंद का प्यासा नहीं है! कौन है ऐसा जिसे सत्य की अभीप्सा नहीं है! ऐसा कभी कोई हुआ ही नहीं है। जिनको तुम नास्तिक कहते हो वे वे ही लोग हैंजो घबड़ा गये हैंवे वे ही लोग हैं जो कहते हैंनहींकोई परमात्मा नहीं है। क्योंकि परमात्मा को इनकार न करें तो खोज पर जाना होगा।
मेरा अपना अनुभव यह है कि नास्तिक के भीतर तथाकथित आस्तिकों से सत्य की खोज की ज्यादा गहरी आकांक्षा होती है। वह मंदिर जाने से डरता हैतुम डरते ही नहीं। तुम डरते नहींक्योंकि तुम्हारे भीतर कोई ऐसी प्रबल आकांक्षा नहीं कि तुम पगला जाओगे। तुम मंदिर हो आते होजैसे तुम दुकान चले जाते हो। तुम मंदिर के बाहर— भीतर हो लेते होतुम पर कुछ असर नहीं होता।
नास्तिक वैसा व्यक्ति है जो जानता हैअगर मंदिर गया तो वापस न लौट सकेगागया तो वैसा का वैसा वापस न लौट सकेगा। तो एक ही उपाय है : वह कहता है, 'ईश्वर नहीं है! धर्म सब पाखंड है!वह अपने को बचा रहा हैसमझा रहा है कि ईश्वर है ही नहींतो मंदिर जाना क्योंईश्वर है ही नहीं तो क्यों उलझन में पड़नाक्यों ध्यानक्यों प्रार्थना?
मेरे देखेनास्तिक के भीतर आत्मरक्षा चल रही है। मैंने अब तक कोई नास्तिक नहीं देखाजो वस्तुत: नास्तिक हो। आदमी नास्तिक हो कैसे सकता है?नास्तिक का तो अर्थ हुआ कि कोई आदमी 'नहींके भीतर रहने का प्रयास कर रहा है।नहींके भीतर कोई रह कैसे सकता हैनास्तिकता में कोई जी कैसे सकता है?जीने के लिए 'हाचाहिए।नहींमें कहीं फूल खिलते हैं? 'हाचाहिए! स्वीकार चाहिए!
जीवन में जितना स्वीकार होता हैउतने ही फूल खिलते हैंलेकिन सीमा के बाहर फूल न खिल जायेंइससे भय होता है। कहीं फूल इतने न खिल जायें कि मैं उन्हें सम्हाल न पाऊं...!
कल रात एक युवक ने मुझे कहा कि अब मुझे बचाएंयह जरूरत से ज्यादा हुई जा रही है बात। मैं इतना प्रसन्न हूं कि लगता है मैं टूट जाऊंगा! इतना आनंद है कि लगता है मैं सम्हाल न पाऊंगा। यह मेरा हृदय का पात्र छोटा है। मुझे बचाएं! मैं इसके ऊपर से बहा जा रहा हूं। ये मेरी सीमाएं सब टूटी जा रही हैं। और मुझे डर है कि अगर मैं इसके साथ बह गया तो फिर लौट न पाऊंगा।
नियंत्रण कहीं खो न जाये—यह भय है। अहंकार दुख के साथ भलीभांति जी लेता हैक्योंकि दुख में नियंत्रण नहीं खोता। कितने ही तुम रोओ दुख मेंतुम अपने मालिक रहते हो। नियंत्रण खोता है आनंद मेंसीमा टूटती है आनंद में। दुख में कभी कोई सीमा नहीं टूटती। नरक में भी सीमा नहीं टूटती। तुम नरक में भी पड़े रहो तो भी तुम अपने भीतर मजबूत रहते हो। सीमा टूटती है स्वर्ग में। वहां नियंत्रण खो जाता है। जहां नियंत्रण खोता हैवहां अहंकार खो जाता है। जहां नियंत्रण खोता हैवहां बुद्धि की पकड़ खो जाती हैतर्क का जाल खो जाता है।
वही हो रहा है। घबड़ाना मत! तिरने का क्षण करीब आ रहा है। लेकिन सिर फिरे बिना कोई कभी तिरा नहीं है।

एक धुन की तलाश है मुझे
जो ओठों पर नहीं
शिराओं में मचलती है
लावे—सी दहकती है—
पिघलने के लिए
एक आग की तलाश है मुझे
कि रोम—रोम सीझ उठे
और मैं तार—तार हो जाऊं!
कोई मुझे जाली—जाली बुन दे
कि मैं पारदर्शी हो जाऊं!
एक खुशबू की तलाश है मुझे
कि भारहीन होहवा में तैर सकूं
हलकी बारिश की महीन बौछारों में कांप सकूं गहराती सांझ के स्लेटी आसमान पर
चमकना चाहता हूं कुछ देर,
एक शोख रंग की तलाश है मुझे!

ओमप्रकाश, वहीं शोख रंग मैंने तुम्‍हें दे दिया है। ये गैरिक वस्त्र वही शोख रंग है। बहो सीमाएं छोड़ कर बहो! बुद्धि के पार बहो! जाने दो नियंत्रण! नियंत्रण का अर्थ है : कर्ता! छोड़ो नियंत्रण! कर्ता अगर कोई है तो एक परमात्मा है। तुम परमात्मा से होड़ न करोउससे प्रतिस्पर्धा न लोउसके साथ संघर्ष मत करो। करो समर्पण। बहो उसकी धार के साथ। तिरोगे। जो डूब जाते हैंवही तिरते हैं। जो तिरने की चेष्टा करते हैं डूब जाते हैं।


 दूसरा प्रश्न :

सदा से खोजियो का यह अवलोकन रहा है कि परमात्म—उपलब्धि अत्यंत दुःसाध्य घटना है। लेकिन आप जैसे बुद्धपुरुष सदा से इस बात पर जोर देते रहे हैं कि परमात्मा अभी और यहीं घट सकता है। क्या बार—बार यह कहना एक चुनौती और एक प्रयास करने की एक विधि हैएक उपाय है?

त्य है यहीन तो विधि है और न उपाय है। तुम्हारा ऐसा पूछना बचने की विधि और उपाय है। यह बात हमारा मन स्वीकार करने को राजी नहीं होता कि परमात्मा अभी और यहीं मिल सकता है। क्यों नहीं राजी होताइसलिए राजी नहीं होता कि अगर अभी और यहीं मिल सकता हैतो फिर हमें मिल नहीं रहा तो इसका कारण क्या होगाफिर इसकी व्याख्या कैसे करेंअगर अभी और यहीं मिल सकता हैतो मिल क्यों नहीं रहाबेचैनी खड़ी हो जाती है। अभी और यहीं मिल सकता हैमिल तो नहीं रहा! तो इसे समझायें कैसेयह तो बड़ी अड़चन की बात हो गई। इस अड़चन को सुलझाने के लिए तुम कहते हो. मिल तो सकता है,लेकिन पात्रता चाहिए!
बुद्धि रास्ते निकालती है। जहां उलझन खड़ी हो जाती हैउसे सुलझाती है. 'रास्ता खोजना पड़ेगापात्रता खोजनी पड़ेगीशुद्ध होना पड़ेगा—तब मिलेगा। और अगर अष्टावक्र कहते हैं अभी और यहीं मिल सकता हैतो जरूर इसमें कुछ कारण है। वे इसलिए कहते हैं ताकि तुम तीव्रता से प्रयास में लग जाओ! लेकिन लगना प्रयास में ही पड़ेगा।
मन बड़ा होशियार है!
अष्टावक्र की बात बिलकुल सीधी—साफ है. परमात्मा अभी और यहीं मिल सकता हैक्योंकि परमात्मा कोई उपलब्धि नहीं है। परमात्मा तुम्हारा स्वभाव है। सारा जोर सीधा है। तुम परमात्मा होमिल सकने की बात ही गलत है। जब हम कहते हैं अभी और यहीं मिल सकता है तो इसका अर्थ इतना ही हुआ कि मिला ही हुआ हैजरा आंख खोलो और देखो! मिल सकने की भाषा ठीक नहीं है। मिल सकने में तो ऐसा लगता है कि तुम अलग हो और परमात्मा अलग हैतुम खोजने वाले होवह खोज का लक्ष्य हैतुम यात्री होवह मंजिल है। नहींअभी और यहीं मिल सकता है का इतना ही अर्थ है कि तुम वही हो जिसे तुम खोज रहे हो। जरा अपने को पहचानो! आंख खोलो और देखो! या आंख बंद करो और देखो—मगर देखो! थोडी दृष्टि की बात हैपात्रता की नहीं।
पात्रता का तो अर्थ हुआ कि परमात्मा भी सौदा हे। जैसे तुम बाजार में जाते हो तो कोई चीज हजार रुपये की हैकोई लाख रुपये की हैकोई दस लाख रुपये की है—हर चीज का मूल्य है। तो पात्रता का तो अर्थ हुआ कि परमात्मा का भी मूल्य हैजो पात्रता अर्जित करेगामूल्य चुकायेगाउसे मिलेगा। तुम परमात्मा को भी बाजार में एक वस्तु बना लेना चाहते हो। त्याग करोगेतपश्चर्या करोगेतो मिलेगा! मूल्य चुकाओगे तो मिलेगा! मुफ्त कहीं मिलता है! तुम परमात्मा को खींच कर दुकान पर रख देते होडब्बे में बंद कर देते होदाम लिख देते हो। तुम कहते हो : इतने उपवास करोइतना ध्यान करोइतनी तपश्चर्या करोधूप में तपो;सर्दीआतप सहो—तब मिलेगा!
कभी इस पर तुमने सोचा कि यह तुम क्या कह रहे होतुम यह कह रहे हो कि तुम्हारे कुछ करने से परमात्मा के मिलने का संबंध हो सकता है। तुम जो करोगेवह तुम्हारा किया होगा। तुम्हारा किया तुमसे बड़ा नहीं हो सकता। तुम्हारी तपश्चर्या तुम्हारी ही होगी। तुम जैसी ही दीनतुम जैसी ही मलिन। तुम्हारी तपश्चर्या तुमसे बड़ी नहीं हो सकती। और तपश्चर्या से जो मिलेगा उसकी भी सीमा होगीक्योंकि सीमित से सीमित ही मिल सकता हैअसीम नहीं। तपश्चर्या से जो मिलेगा वह तुम्हारे ही मन की कोई धारणा होगीपरमात्मा नहीं।
अष्टावक्र कह रहे हैं कि परमात्मा तो है ही। वही तुम्हारे भीतर धड़क रहा है। वही तुम्हारे भीतर श्वास ले रहा है। वही जन्मा है। वही विदा होगा। वही अनत काल सेअनंत—अनंत रूपो प्रगट हो रहा है। कहीं वृक्ष हैकहीं पक्षी हैकहीं मनुष्य है।
परमात्मा है! उसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। इस सत्य की प्रत्यभिज्ञाइस सत्य का स्मरण...। मैंने सुना हैएक सम्राट अपने बेटे पर नाराज हो गयाउसे देश—निकाला दे दिया। सम्राट का बेटा थाकुछ और तो करना जानता नहीं थाक्योंकि सम्राट के बेटे ने कभी कुछ किया न थाभीख ही मांग सकता था। जब कोई सम्राट सम्राट न रह जाये तो भिखमंगे के सिवा और कोई उपाय नहीं बचता। भीख मांगने लगा। बीस वर्ष बीत गये। भूल ही गया। अब बीस वर्ष कोई भीख मांगे तो याद रखना कि मैं सम्राट हूं असंभवकष्टपूर्ण होगाभीख मांगने में कठिनाई पड़ेगीयही उचित है कि भूल ही जाओ। वह भूल ही गया थाअन्यथा भीख कैसे मांगे! सम्राटऔर भीख मांगे! द्वार—द्वारदरवाजे—दरवाजे भिक्षापात्र ले कर खड़ा हो! होटल मेंरेस्तरा के सामने भीख मांगे! जूठन मांगे! सम्राट! सम्राट को भुला ही देना पडा विस्मत ही कर देना पडा। वह बात ही गई। वह जैसे अध्याय समाप्त हुआ। वह जैसे कि कहीं कोई सपनाँ देखा होगाकि कोई कहानी पढ़ी होगी,कि फिल्म देखी होगी अपने से क्या लेना—देना!
बीस साल बाद जब सम्राट का हो गयाउसका बापतो वह. : एक ही बेटा! वही मालिक था। उसने अपने वजीरों को कहा : उसे खोजो और जहां भी हो उसे ले आओ। कहनाबाप ने क्षमा किया। अब क्षमा और न क्षमा का कोई अर्थ नहींमैं मर रहा हूं। अब यह राज्य कौन सम्हालेगायह औरों के हाथ में जाये इससे बेहतर है मेरे खून के हाथ में जाये। बुरा— भला जैसा भी हैउसे ले आओ!
जब वजीर पहुंचे तो वह एक होटल के सामने पैसे—पैसे मांग रहा था—टूटा—सा पात्र लिये। नंगा था। पैरों में जूते नही थे। भरी दुपहरी थी। गर्मी के दिन थे। लू बहती थी। पैर जल रहे थे। और वह मांग रहा था कि मुझे जूते खरीदने हैंइसलिए कुछ पैसे मिल जायें। कुछ पैसे उसके पात्र में पड़े थे। रथ आ कर रुका। वजीर नीचे उतरा। वजीर ने गिर कर उसके चरण छुए—होने वाला सम्राट था! जैसे ही वजीर ने उसके चरण छुएएक क्षण में घटना घट गई—बीस साल जिसकी याद न आई थी कि मैं सम्राट हूं! फिर ऐसा थोड़े ही लगा रहा कि वह बैठाउसने सोचा और विचारा और तपश्चर्या की और ध्यान किया कि याद करूंएक क्षण में,पल मेंपल भी न लगाएक क्षण में रूपांतरण हो गया. यह आदमी और हो गया! अभी भिखारी था दीन—हीनअब भी थाअब भी पैर में जूते न थे—लेकिन हाथ से उसका पात्र उसने फेंक दिया और वजीरों से कहा कि जाओ और मेरे स्नान की व्यवस्था करोठीक वस्त्र जुटाओ! वह जा कर रथ पर बैठ गया। उसकी महिमा देखने जैसी थी। अभी भी वही का वही थालेकिन उसके चेहरे पर अब एक गरिमा थीआंखों  में एक दीप्ति थीचारों तरफ एक आभामंडल था! सम्राट था! याद आ गई। बाप ने बुलावा भेज दिया।
ठीक ऐसा ही है।
अष्टावक्र जब कहते कि अभी और यहीं तो वे यही कहते हैं. कितने चलोबीस साल नहीं बीस जन्म सही देश—निकाले पर रहे भीख मांगी बहुत भूल गये बिलकुल याद को बिलकुल सुला दिया—सुलाना ही पड़ान सुलाते तो भीख मांगनी मुश्किल हो जातीद्वार—द्वार दरवाजे—दरवाजे भिक्षापात्र ले कर घूमे...। अष्टावक्र यह कह रहे हैं : आ गया बुलावा! जागो! भिखमंगे तुम नहीं हो! सम्राट के बेटे हो।
अगर कोई ठीक से सुन लेगातो घटना सुनने में ही घट जायेगी। यही अष्टावक्र—गीता का महात्म्य हैमहिमा है। कोई आग्रह नहीं है कि कुछ करो। सिर्फ सुन लोसिर्फ सत्य को पहुंचने दो तुम्हारे हृदय तकबाधा मत बनोग्राहक रहोसिर्फ सुन लोपहुंच जाये यह तीर तुम्हारे हृदय मेंइसकी चोट—बस पर्याप्त है! जन्मों—जन्मों की विस्मृति टूट जायेगीस्मरण लौट आयेगा। तुम परमात्मा हो। इसलिए वे कहते हैं : अभी और यहीं!
अब तुम तरकीबें मत खोजो। तुम कहते होशायद यह विधि होगीउपाय होगा कि लोगों की त्वरा बढ़े तीव्रता बढ़े।
'स्वामी योग चिन्मयने पूछा है। चिन्मय के पासचिन्मय की बुद्धि में 'चेष्टा', 'प्रयास', 'तपजरूरत से ज्यादा है—साधारण योगी की जो पकड़ होती है वैसी पकड़ है।
ये अष्टावक्र के वचन साधारण योगी के लिए नहीं हैंअसाधारणप्रज्ञावान.. जो सुन कर ही जाग जाये। चिन्मय थोड़े हठयोगी हैं। काफी पिटाई हो तो थोड़े—बहुत चलेंगे। कोड़े को देख करउसकी छाया को देख कर नहीं चल सकते।
हंसना मतक्योंकि चिन्मय जैसे ही अधिक लोग हैं। हंस कर तुम यह मत सोचना कि तुमने हंस लिया तो तुम चिन्मय से भिन्न हो कि देखो तुम तो हंसे। चिन्मय ने कम से कम हिम्मत करके पूछातुमने पूछा नहीं—बस इतना ही फर्क है। हो तुम भी वही। यह अष्टावक्र की गीता पूरी हो जायेगी और अगर तुम परमात्मा न हो गये तो समझ लेना कि वहीं होकोई फर्क नहीं है। अगर इस सुनने—सुनने में तुम जाग जाओ और परमात्मा हो जाओ तो ही कोड़े की छाया ने काम किया।
'सदा से खोजियो का यह अवलोकन रहा है कि परमात्म—उपलब्धि अत्यंत दुःसाध्य घटना है।’ खोजी शुरू से ही भ्रांति है। खोजी का अर्थ ही यह है कि वह मान लिया है कि परमात्मा को खोजना हैकि परमात्मा को खो दिया है। उसने एक बात तो मान ही ली कि खो दिया परमात्मा को। यह भी कोई बात हुई कि खो दिया परमात्मा कोपरमात्मा को खो कैसे सकते हो?
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैंपरमात्मा को खोजना है! मैं कहता हूं 'चलो ठीक! खोजो! लेकिन खोया कहांकब खोया?' वे कहते हैं, 'इसका तो कुछ पता नहीं है।’ पहले इसका तो तुम ठीक से पता कर लोकहीं ऐसा न हो कि खोया ही न हो!
कभी—कभी ऐसा हो जाता है कि चश्मा नाक पर चढ़ा है और उसी चश्मे से देख कर चश्मा खोज रहे हैं। कहीं ऐसा न हो कि परमात्मा नाक पर चढ़ा हो और तुम उसी परमात्मा से खोज रहे हो! ऐसा ही है। खोजी बुनियादी रूप से भ्रांत है। उसने एक बात तो मान ही ली कि परमात्मा खो दिया हैया परमात्मा को अब तक खोजा नहींपाया नहींवह कहीं दूर हैउसे खोजना है।
खोज से कभी परमात्मा नहीं मिलता। खोज—खोज कर तो इतना ही पता चलता है. खोजने में कुछ भी नहीं है। एक दिन खोजते—खोजते खोज ही गिर जाती हैखोज के गिरते ही परमात्मा मिलता है। बुद्ध ने छह वर्ष तक खोजा। खूब खोजा! उन से बड़ा खोजी और कहां खोजोगेजहां—जहां खबर मिली कि कोई ज्ञान को उपलब्ध हैवहां—वहां गये। सभी चरणों में सिर रखा। जो गुरुओं ने कहा वही किया। गुरु भी थक गये उनसे। क्योंकि गुरु उन शिष्यों से कभी नहीं थकते जो आज्ञा का उल्लंघन करते हैं। उनसे कभी नहीं थकते! क्योंकि उनके पास सदा कहने को है कि तुम आज्ञा मान ही नहीं रहेइसलिए कुछ नहीं घट रहा हैहम क्या करेंगुरु को बड़ी सुविधा हैअगर तुम गुरु की न मानो। वह सदा कह सकता है कि तुमने माना ही नहींमानते तो घट जाता। मगर बुद्ध के साथ गुरु मुश्किल में पड़ गये। जो गुरुओं ने कहाबुद्ध ने वही किया। उन्होंने एक सेर कहा तो बुद्ध ने सवा सेर किया। गुरु ने आखिर उनसे हाथ जोड़ लिये कि तू भई कहीं और जाजो हम बता सकते थे बता दिया। बुद्ध ने कहाइससे तो कुछ घट नहीं रहा है। उन्होंने कहाइससे ज्यादा हमें भी नहीं घटा हैतेरे से क्या छिपाना। तू कहीं और जा!
इतने प्रामाणिक व्यक्ति के सामने गुरु भी धोखा न दे पाए। सब तरफ खोज कर बुद्ध ने आखिर पाया कि नहींखोजने से मिलता ही नहीं। संसार तो व्यर्थ था हीअध्यात्म भी व्यर्थ हुआ। भोग तो व्यर्थ हो ही चुका थाजिस दिन महल छोड़ा उस दिन व्यर्थ हो चुका थाइसलिए छोड़ायोग भी व्यर्थ हुआ। न भोग में कुछ हैन योग में कुछ है—अब क्या करेंअब तो करने को ही कुछ न बचा। अब तो कर्ता होने के लिए कोई सुविधा न रही।
इस सूत्र को ठीक से समझना। न भोग बचा न योग बचान संसार बचा न स्वर्ग बचा—तो अब कर्ता होने के लिए जगह ही न बची। कुछ करने को बचे तो कर्ता बच सकता है। कुछ करने को न बचा। रात घटना। उस सांझ —वृक्ष कुछ न था।. हैरानी में पड़े। संसार छोड़ दिया था तो योग पकड़ लिया था। भोग छोड़ दिया था तो अध्यात्म पकड़ लिया था। कुछ तो करने को था! तो मन उलझा था। अब मन को कोई जगह न बची। मन का पक्षी तड़फड़ाने लगा : कोई जगह नहीं! मन के लिए जगह चाहिए। अहंकार के लिए कर्ता का रस चाहिएकर्तव्य चाहिए। कुछ करने को हो तो अहंकार बचे। कुछ था ही नहीं करने को।
जरा थोड़ा सोचो! एक गहन उदासीनताजिसको अष्टावक्र वैराग्य कहते हैंवह उदय हुआ। योगी विरागी नहीं हैक्योंकि योगी नये भोग खोज रहा है। योगी आध्यात्मिक भोग खोज रहा हैविरागी नहीं है। अभी भोग की आकांक्षा है। संसार में नहीं मिला तो परमात्मा में खोज रहा हैलेकिन खोज जारी है। यहां नहीं मिला तो वहां खोज रहा हैबाहर नहीं मिला तो भीतर खोज रहा है—लेकिन खोज जारी है।
भोगी विरागी नहीं हैयोगी भी विरागी नहीं है। हीउनकी खोज राग की अलग—अलग है। एक बाहर की तरफ जाता हैएक भीतर की तरफ जाता है;लेकिन जाते दोनों हैं।
उस रात बुद्ध को जाने को कुछ न बचा-- बाहर न भीतर। रात की तुम करो! उस रात को जरा जगाओ और सोचो कि कैसी वह रात रही होगी! उस दिन पहली दफा वि उपलब्ध हैं : जो चित्त में विश्राम को उपलब्ध हो जाये तो सत्य उपलब्ध हो जाता है। उस दिन विश्राम उपलब्‍ध हुआ।
जब तक कुछ करने को शेष है तब तक श्रम जारी रहता है। जब तक कुछ करने को शेष हैतनाव जारी रहता है। अब तनाव करके भी क्या करनाशरीर भी ढीला छट गयामन भी ढीला छूट गया। वे उस वक्ष के नीचे पड़ गये और सो गये। सुबह जब उनकी आंख खुँली तो ऐसी खुल की जैसी सबकी खुलनी चाहिए। सुबह जब आंख खुली तो पहली दफा खुली। सदियो—सदियों बदवह आंख खुली। सुबह जब आंख खुली भोर का आखिरी तारा डूबता था। उस भोर के आखिरी तारे को उन्होने डूबते हुए देखा। इधर बाहर भोर का आखिरी तारा डूब गयाभीतर भी की आखिरी रेखा विसर्जित हो गई। कुछ भी न था। भीतर कोई भी न बचा। सन्नाटा थाशून्य थाविराट शून्य थाआकाश था।
कहते हैंबुद्ध सात दिन वैसे ही बैठे रहे—मूर्तिवतहिले नहींडुले नहीं। कहते हैंदेवता घबड़ा गये। आकाश से देवता उतरे। ब्रह्मा उतरे। चरणों पड़े और कहा : आप कछ बोलें! ऐसी घटना सदियों में घटती हैबड़ी मुश्किल से घटती है। आप कुछ कहेंहम आतुर हैं सुँनने को कि क्या हुआ है! हिंदू बहुत नाराज हैं इस बात से कि बौद्ध कथाओं में ब्रह्मा को उतार करऔर बुद्ध के चरणों में गिरा दिया। लेकिन कथा बिलकुल ठीक है। क्योंकि देवता भला स्वर्ग में होंआकांक्षा के बाहर थोड़े ही हैं! आज एक घटना घटी है कि एक व्यक्ति आकांक्षा के बाहर चला गया है।
तो बुद्ध के ऊपर कोई भी नहीं है। बुद्धत्व आखिरी बात है। देवता भी नीचे हैंअभी उनकी भी स्वर्ग कीभोग की आकांक्षा है।
इसलिए तो कथाएं हैं कि इंद्र का आसन डोलने लगता है जब भी लगता है कि कोई प्रतियोगी आ रहाकोई ऋषि—मुनि तपश्चर्या में गहरा उतर रहा है—इंद्र घबड़ाताआसन कंपने लगता! यह तो आसन इंद्र का क्या हुआदिल्ली का हुआ! इंद्र का कहो कि इंदिरा का कहो—एक ही बात है! इसमें कुछ बहुत फर्क न हुआ। यह तो कोई आने लगा! तो प्रतिस्पर्धाघबड़ाहटबेचैनी!
बुद्ध ना—कुछ करके उपलब्ध हुए। जो बुद्ध के जीवन में घटावही अष्टावक्र के जीवन में घटा होगा। कोई कथा हमारे पास नहीं हैकिसी ने लिखी नहीं है। लेकिन निश्चित घटा होगा। क्योंकि अष्टावक्र जो कह रहे हैंवह इतना ही कह रहे हैं कि तुम दौड़ चुके खूबअब रुको! दौड़ कर नहीं मिलता परमात्मारुक कर मिलता है। खोज चुके खूबअब खोज छोड़ो। खोज कर नहीं मिलता सत्यक्योंकि सत्य खोजी में छिपा हैखोजने वाले में छिपा है। कहां भागते फिरते हो?
कस्तूरी कुंडल बसै! लेकिन जब कस्तूरी का नाफा फूटता है तो मृग पागल हो जाता हैकस्तूरी—मृग पागल हो जाता है। भागता है। इधर भागताउधर भागताखोजता है : 'कहां से आती है यह गंध? कौन खींचे ले आता है इस सुवास कोकहां से आती है?' क्योंकि उसने जब भी गंध आती देखी तो कहीं बाहर से आती देखी। कभी फूल की गंध थीकभी कोई और गंध थीलेकिन सदा बाहर से आती थी। आज जब गंध भीतर से आ रही हैतब भी वह सोचता है बाहर से ही आती होगी। भागता है। और कस्तुरी उसके ही कुंडल में बसी है। कस्तूरी कुंडल बसै!
परमात्मा तुम्हारे भीतर बसा है। तुम जब तक बाहर खोजते रहोगे—योग मेंभोग में—व्यर्थ!       साधारण योगी भोग के बाहर ले जाता हैअष्टावक्र योग और भोग दोनों के बाहर ले जाते हैं—योगातीतभोगातीत! इसलिए तुम पाओगे : सांसारिक का अहंकार होता है। तुमने योगी का अहंकार देखा या नहींसांसारिक का क्रोध होता हैतुमनेदुर्वासाओं का क्रोध देखा या नहींसांसारिक आदमी दंभ से अकड़ कर चलता हैपताकाएं ले कर चलता हैतुमने योगियों की पताकाएं,हाथी—घोड़े देखे या नहींसाधारण आदमी घोषणा करता है. इतना धन है मेरे पासइतना पद है मेरे पास! तुमने योगियों को देखा घोषणा करते या नहीं कि इतनी सिद्धि हैइतनी रिद्धि है! लेकिन ये सारी बातें वही की वही हैंकोई फर्क नहीं हुआ।
जब तक योग योगातीत न हो जायेजब तक व्यक्ति 'मैं कर्ता हूं?, इस भाव से समग्रतया मुक्त न हो जायेतब तक कुछ भी नहीं हुआ। तब तक तुमने सिर्फ रंग बदले। तब तक तुम गिरगिट हो : जैसा देखा वैसा रंग बदल लिया। लेकिन तुम नहीं बदलेरंग ही बदला।
'सदा से खोजियों का यह अवलोकन रहा है कि परमात्म—उपलब्धि अत्यंत दुःसाध्य घटना है।’   यह बात एक अर्थ में सच है। अगर तुम बहुत दौड़ कर ही आना चाहते हो तो कोई क्या करेअगर तुम अपने कान को उलटे तरफ से पकड़ना चाहते होमजे से पकड़ो। निश्चित ही तुम जब उलटी तरफ से कान को पकड़ोगे तो तुमको लगेगा : कान को पकड़ना बहुत दुःसाध्य घटना है। यह तुम्हारे कारणयह कान के कारण नहीं। अब अगर तुम सिर के बल खड़े हो कर चलने की कोशिश करो और दस—पांच कदम चलना भी बहुत कठिन हो जाये और तुम कहो कि चलना बहुत दुःसाध्य घटना हैतो तुम गलत भी नहीं कह रहेतुम ठीक ही कह रहे हो। लेकिन सिर के बल तुम खड़े हो। जो पैर के बल चल रहे हैंउनके लिए चलने में कोई दुःसाध्य घटना नहीं है। अब तुम उपवास करोआग में तपाओधूनी रमाओनाहक शरीर को कष्ट दोसताओहजार तरह के पागलपन करो— और फिर तुम कहो कि परमात्मा को पाना बड़ी दुःसाध्य घटना हैतो ठीक ही कह रहे हो।
जहां तुम सहज पहुंच सकते थेवहां तुम असहज हो कर पहुंच रहे हो तो दुःसाध्य मालूम होता है। तुम्हारे पहुंचने में भूल हो रही है।
लेकिन असाध्य को आदमी क्यों चुनता हैयह भी समझ लेना चाहिए। सिर के बल चलने का मजा क्या हैजब कि तुम्हारे पास पैर हैंसिर के बल चलने का एक मजा हैऔर वह मजा यह है. मजा है अहंकार का मजा!
मुल्ला नसरुद्दीन एक झील में मछलियां मार रहा था। घड़ी दो घड़ी मैं देखता रहादेखता रहा. उसकी मछलियां पकड़ में कुछ आती नहींझील में मछलियां हैं भी नहींऐसा मालूम होता है। मैंने उससे पूछा : 'नसरुद्दीन! इस झील में मछलिया मालूम नहीं होतींतुम कब तक बैठे रहोगेवह पास ही दूसरी झील हैवहां क्यों नहीं मछलियां मारतेयहां कोई दूसरा मछुआ दिखाई भी नहीं पड़तावहीं सब मछुए हैं।
नसरुद्दीन ने कहा : 'वहां मारने से सार ही क्या! अरे वहां इतनी मछलियां हैं कि मछलियों को तैरने के लिए जगह भी नहीं है। वहां मारी तो क्या मारी! यहां मछली मारो तो कोई बात।
असाध्य में भी आकर्षण है। जितना असाध्य काम हो उतना अहंकार मजबूत होता है। यहां मछली मारो तो कुछ है। जो सभी कर रहे हैंवही तुमने किया तो क्या सार हैसभी पैर के बल चल रहे हैंतुम भी चलेतो क्या मजासिर के बल चलो!
मेरे देखेपरमात्मा से कोई संबंध नहीं है कठिनाइयों काकठिनाइयों का संबंध अहंकार से है। अहंकार कठिन को करने में मजा लेता है। क्योंकि सरल तो सभी करतेउसमें क्या सार हैअगर तुम किसी से कहो कि हम पैर के बल चलते हैं तो लोग कहेंगे, 'तुम्हारा दिमाग खराब हो गया हैसभी चलते हैं।’ लेकिन अगर तुम सिर के बल चलो तो अखबारों में नाम छपेगातो लोग तुम्हारे पास आने लगेंगेलोग तुम्हारे चरणों में सिर झुकायेंगे कि तुम्हें कोई सिद्धि मिल गई है कि तुम सिर के बल चलते हो।
अहंकार की पूजा तभी हो सकती है जब तुम कुछ असाध्य करो।
जैसे हिलेरी चढ़ गया एवरेस्ट परतो सारी दुनिया में खबर हुई। अब तुम जाओ और पूना की छोटी—मोटी पहाड़ी पर चढ़ कर खड़े हो जाओऔर झंडा लगाने लगो और तुम कहो कि 'कोई अखबार वाला भी नहीं आ रहा हैकोई फोटोग्राफर भी नहीं आ रहा है—मामला क्या है? आखिर यह भेदभाव क्यों हो रहा है?हिलेरी के साथ इतना शोरगुल मचाया—इतिहास में नाम अमर रहेगा सदा के लिए! और हमारा कुछ भी नहीं हो रहा। हम भी वही कर रहे हैंउसने भी झंडा ही गाड़ा।
लेकिन एवरेस्ट पर चढ़ना कठिन है। पचास—साठ साल से लोग चढ़ने की कोशिश कर रहे थेतब एक आदमी चढ़ पायाइसलिए। धीरे— धीरे वहां रास्ता बन जायेगाबस जाने लगेगीकभी न कभी जायेगीसदा इतनी देर तक एवरेस्ट अपने को बचा नहीं सकता आदमी से। जब एक आदमी पहुंच गया तो सिलसिला शुरू हो गया।
अभी कुछ देर पहले औरतें भी पहुंच गईं। जब औरतें भी पहुंच गईं तो अब और पहुंचने को क्या बाकी रहा! अब सब धीरे—धीरे पहुंच रहे हैं। थोड़े दिन में वहां होटलें और बसें और सब पहुंच जायेंगी। फिर तुम फिर जा कर फिर झंडा गाड़नाजब बस वगैरह सब चलने लगे वहां—तुम कहोगे यह वही जगह है जहां हिलेरी ने झंडा गाडा बडा भेदभाव हो रहा हैबड़ा पक्षपात हो रहा है!
कठिन में अहंकार को मजा 'है,। आदमी कई चीजों को कठिन कर लेता है ताकि अहंकार को भरने में रस आ सके। हम बहुत—सी चीजों को कठिन कर लेते हैं। जितनी कठिन कर लेते हैंउतना ही रस आने लगता है। कठिनाई परमात्मा को पाने में नहीं हैकठिनाई अहंकार का रस है।
तो तुम जो कहते हो कि 'सदा से खोजियो का यह अवलोकन रहा है कि परमात्म—उपलब्धि अत्यंत दुःसाध्य घटना है', यह ठीक है। वे जो खोजी हैं,अहंकारी हैं। और परमात्मा को खोजियों ने कब पायाजब खोज छूट गईतब पाया। खोज छूटने पर ही मिलता है परमात्मा। जब तुम कहीं भी नहीं जा रहेसिर्फ बैठे हो—विश्राम मेंपरम विराम मेंयात्रा शून्य जहां हो जाती है!
साधारणत: लोग सोचते हैं कि परमात्मा को पा लेंगे तो फिर यात्रा नहीं हुाएगी। बात बिलकुल उलटी है : यात्रा अगर तुम अभी छोड़ दो तो अभी परमात्मा मिल जाये। लोग सोचते हैं : मंजिल मिल जायेगी तो फिर हम विश्राम करेंगे। हालत उलटी है : तुम विश्राम करो तो मंजिल मिल जाये।
विश्रामध्यान और समाधि का सूत्र हैश्रमअहंकार का सूत्र है।
इसलिए तुम पाओगे कि जितना जिस धर्म के भीतर श्रम की व्यवस्था है साधु के लिएउतना ही अहंकारी साधु होगा। जैनियों का साधु जितना अहंकारी है उतना हिंदुओं का नहीं। क्योंकि जैन साधु कहेगा : 'हिंदू साधुइसमें रखा ही क्या हैकोई भी हो जाये!जैन साधु! कठिन मामला है। एक बार भोजन! अनेक—अनेक उपवास. सब तरह की कठिनाइयां!
फिर जैनों में भी दिगंबरों और श्वेतांबरों के साधु हैं। दिगंबर साधु कहते हैं : 'श्वेतांबरों में क्या रखा हैकपड़े पहने बैठे हैं! साधु तो दिगंबर का है!इसलिए दिगंबर साधु में तुम जैसे अहंकार को चमकता हुआ पाओगेकहीं भी न पाओगे। देह तो सूखी होगीहड्डी—हड्डी होगी—क्योंकि बहुत उपवासनग्न रहनाधूप—ताप सहना—लेकिन अहंकार बड़ा प्रज्वलित होगा। अकड़ उसकी वैसी है जैसी हिलेरी की।
हिंदुस्तान में मुश्किल से बीस दिगंबर मुनि हैंश्वेतांबर मुनि तो पांच—सात हजार हैं। हिंदुओं के तो संन्यासी पचास लाख हैं। और अगर मेरी चले तो सारी दुS_निया को संन्यासी कर दूं। इसलिए मेरे संन्यासी होने में तो अहंकार हो ही नहीं सकता। क्योंकि कोई कह ही नहीं रहा हूं कि तुम ऐसा करोवैसा करो। एक बहुत ही सरल मामला है : तुम गेरुए कपड़े पहन लोसंन्यासी हो गये!
संन्यास सरल हो तो अहंकार को मजा कहा?
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं कि संन्यास आप देते हैं तो इसके लिए कोई विशेष आयोजन करना चाहिए। विशेष आयोजन संन्यास के लिए! वे ठीक कहते हैंक्योंकि ऐसा होता है : अगर जैन दीक्षा होती है तो देखाकैसा घोड़ाबैंडबाजा इत्यादि बजता है और सब मजा आता है और लगता है कोई बड़ी घटना घट रही हैकोई सिंहासन पर चढ़ाया जा रहा है! संन्यास भी सिंहासन जैसा हो गया! लोग जय—जयकार करते हैं कि कोई बडी घटना घट रही है। और मैं 'ऐसाकिसी को पता ही नहीं चलता—पोस्ट से भी देता हूं। मुझे भी पता नहीं चलता कौन सज्‍जन है, उनको भी पता नहीं चलता। ठीक है!
मेरे देखेसंन्यास सरल होना चाहिए। मेरे देखे परमात्मा विश्राम में मिलता हैअहंकार में नहीं। कृत्य नहीं हैखोज नहीं है। परमात्मा मिला ही हुआ है—तुम जरा हलके हो जाओतुम जरा शात हो जाओतुम जरा रुको। अचानक तुम पाओगे वह सदा से था!


आखिरी प्रश्न :

हमारे शरीर में कोई बीस अरब कोशिकाएं हैं और शरीर में प्रतिक्षण रासायनिक प्रतिक्रिया होती रहती है। आप या अष्टावक्र जब कहते हैं कि द्रष्टा बनोतब यह बात आप किससे कहते हैं?

ह कौन है जो कह रहा है कि शरीर में बीस अरब कोशिकाएं हैंनिश्चित ही कोशिकाएं नहीं कह रही हैं। एक कोशिका बाकी कोशिकाओं का हिसाब भी नहीं लगा सकती। ये बीस अरब कोशिकाएं हैं शरीर मेंअरबों—खरबों सेल हैं शरीर में—यह कौन कह रहा हैयह किसने पूछायह किसको पता चलाजरूर तुम्हारे भीतर कोशिकाओं से भिन्न कोई हैजो गिनती कर लेता है कि बीस अरब कोशिकाएं हैं।
'हमारे शरीर में कोई बीस अरब कोशिकाएं हैं और शरीर में प्रतिक्षण रासायनिक प्रतिक्रिया होती रहती है। आप या अष्टावक्र जब कहते हैं कि द्रष्टा बनो,तब यह बात आप किससे कहते हैं?'
उसी से जो कह रहा है कि बीस अरब कोशिकाएं हैं।
'यदि मस्तिष्क की कोशिकाओं से कहते हैं तो बात व्यर्थ हैक्योंकि बुद्धि नश्वर है।
नहींहम कह भी नहीं रहे मस्तिष्क की कोशिकाओं से। हम तुमसे कह रहे हैं। अष्टावक्र भी तुमसे बोल रहे हैं। अष्टावक्र इतने बुद्ध नहीं कि तुम्हारे मस्तिष्क की कोशिकाओं से बोल रहे हों। तुमसे बोल रहे हैं! तुम्हारा होना तुम्हारी कोशिकाओं के पार है। तुम कोशिकाओं का उपयोग कर रहे होसच है। जैसे एक कार में बैठा हुआ ड्राइवर कार चला रहा हैदौड़ा जा रहा है कार की गति से दौड़ा जा रहा हैसौ मील प्रति घंटे चला जा रहा हैलेकिन फिर भी वह जो ड्राइवर भीतर हैवह कार नहीं है। और अगर एक सिपाही सीटी बजाये कि रुको और वह पूछे कि 'किससे कह रहे हैं? —कार के इंजिन से?' क्योंकि चल तो इंजिन रहा है।किससे कह रहे हैं? —पेट्रोल से?' क्योंकि चला तो पेट्रोल रहा है।किससे कह रहे हैं? —पहियों से?' क्योंकि दौड़ तो पहिये रहे हैं। तो क्या कहेगा पुलिस का सिपाहीवही मैं तुमसे कहता हूं कि सीटी तुम्हारे लिए बजा रहे हैं।
'यदि आप आत्मा को जगा रहे हैं तो भी बात व्यर्थ हैक्योंकि आत्मा तो जागी ही हुई है। उसको जगाना और पहचानो कहना तो बेवकूफी है।
बिलकुल ठीक बात है। आत्मा तो जागी ही हुई रही हैउसको जगाने का कोई उपाय नहीं है। और हम उसको जगा भी नहीं रहे।
मामला कुछ ऐसा है कि तुम बने हुए पड़े होजागे हुए पड़े हो और आंखें बंद किये। सोये को जगाना तो बहुत आसान हैहिलाओ—डुलाओपानी छिड़को—जागेगा। जागा हुआ अगर कोई आदमी पड़ा होआंखें बंद करकेढोंग करता हो सोने का—इसको कैसे जगाओछिड़को पानीकोई फर्क नहीं पड़ता। हिलाओ—डुलाओवह हिल—डुल कर फिर करवट ले कर सो जाता है। पुकारो नामसुन लेता हैबोलता नहीं। ऐसी तुम्हारी हालत है।
जागे हुए को जगानाकोई अर्थ नहीं रखतालेकिन जागा हुआ सोने का बहाना कर रहा है। इसलिए जगाने की जरूरत है।
सोये हुए को जगा नहीं रहे हैंक्योंकि आत्मा सो नहीं सकती। जो सोया है वह शरीर है। जो शरीर है उसे जगाया नहीं जा सकता और जो आत्मा जागी हुई हैउसे जगाने का कोई अर्थ नहीं है। बिलकुल ठीक कहते हो। बड़े ज्ञान की बात कर रहे होमगर उधार होगीक्योंकि खुद की समझ से आई होती तो पूछते ही नहीं। अष्टावक्र या मैं उसको जगा रहे हैं जो जागा हुआ है और भूल गया कि हम जागे हुए हैंजो जागा हुआ है और सोने के बहाने में पड़ गया हैसोने का खेल खेल रहा है। इसलिए तो कठिनाई है जगाने मेंबड़ी कठिनाई है।
'आप लोगों को भ्रम में तो नहीं डाल रहे हैं?'
तुम सोचते हो लोग भ्रम में हैं नहींअगर लोग भ्रम में नहीं हैं तो निश्चित ही मैं भ्रम में डाल रहा हूं। मगरअगर लोग भ्रम में नहीं हैं तो भ्रम में डाले कैसे जा सकेंगेइतने बुद्धपुरुष भ्रम में डाले जा सकते हैंऔर अगर लोग भ्रम में हैं तो मैं जो कर रहा हूं वह भ्रम के बाहर लाने की चेष्टा है। जो भी तुम होउससे उलटा मैं कर रहा हूं। अगर तुम सोचते हो तुम भ्रम में होतो यह चेष्टा है जगाने की। अगर तुम सोचते हो तुम जागे हुए हो तो यह चेष्टा तुम्हें भ्रम में डालने की। लेकिन अगर तुम जागे हुए हो तो कौन तुम्हें भ्रम में डाल देगा?
खयाल रखनातुम्हारे अतिरिक्त तुम्हें भ्रम में कोई भी नहीं डाल सकताऔर तुम्हारे अतिरिक्त तुम्हें कोई जगा भी नहीं सकता। जगाने की चेष्टा कोई कर सकता हैलेकिन जब तक तुम सहयोग न करोगेतुम जागोगे नहीं। क्योंकि यह नींद थोड़े ही है कि कोई तोड़ देतुम बने हुए पड़े हो!
तुम्हारा सहयोग जरूरी है। सहयोग का अर्थ ही शिष्यत्व है। सहयोग का अर्थ ही है कि कोई जगाने वाले के पास तुम जाते होतुम कहते हो : मेरी पुरानी आदत हो गई है अपने को धोखा देने कीजरा मुझे साथ देंजरा मुझे सहारा दें कि इस आदत के बाहर निकाल लें।
एक युवती मेरे पास आई और उसने कहा कि उसे कुछ मादक द्रव्य लेने की आदत हो गई हैबाहर आना चाहती है। बड़ी आकांक्षा है बाहर निकल आने की। बड़ी आतुर है कि किस तरह बाहर निकल आये। लेकिन वह जो आदत पड़ गई है मादक द्रव्यों की वह इतनी गहरी हो गई हैवह शरीर की कोशिकाओं में पहुंच गई है। अगर न ले मादक द्रव्य तो ऐसी पीड़ा और बेचैनी सारे शरीर में होती है कि न तो सो सकतीन उठ सकतीन बैठ सकतीतो लेना ही पड़ता है। और लेती है तो पीड़ा होती है मन को कि यह क्या जाल हो गया! अब वह मेरे पास आई कि मुझे बाहर निकाल लेंआपके हाथ का सहारा चाहिए! बस ऐसी ही अवस्था है।
जन्मों—जन्मों तक सोने के अभ्यास को तुमने बहुत गहरा कर लिया है। जागे हुए को सोने के भ्रम में डाल दिया है। सम्राट को भिखारी मान लिया है। लेकिन इतने जन्मों तक माना है कि आज अपने ही अभ्यास के कारण...। सिर्फ सुन लेने से कुछ नहीं होता। तुम मेरी बात सुन ले सकते होउससे कुछ भी न होगा—जब तक कि तुम उसे गुनो नजब तक कि तुम राजी न हो जाओ। तुम्हारे अतिरिक्त तुम्हें कोई जगा न सकेगा। नहीं तो एक बुद्धपुरुष काफी थाशोरगुल मचा कर सबको जगा देताढोल—ढमास पीट देता और सबको जगा देता।
इधर सौ आदमी सो रहे हों तो एक आदमी जगाने के लिए काफी है। वस्तुत: आदमी की भी जरूरत नहीं हैअलार्म घड़ी भी जगा देती है। एक आदमी आ जाये और ढोल पीट देसब उठ जाएंगेघंटा बजा देसब उठ जाएंगे। लेकिन यह क्यों नहीं हो सका कि बुद्ध हुएमहावीर हुएअष्टावक्र हुएकृष्ण हुएक्राइस्ट हुएजरथुस्त्रलाओत्सु—इन लोगों ने ऐसा क्यों न किया कि जोर से घंटा बजा देतेसारी पृथ्वी जाग जातीघंटा खूब बजायामगर कोई सो रहा हो तो जागेयहां बने हुए लोग पड़े हैं! वे आंखें बंद किये पड़े हैं। वे सुन लेते हैं घंटे को। वे कहते हैं. बजाते रहोदेखें कौन हमको जगाता है!
जब तुम जागना चाहोगे तो जागोगे। भ्रम में मैं तुम्हें डाल नहीं सकता। भ्रम में तो तुम होअब और भ्रम में तुम्हें क्या डाला जा सकता हैतुम्हें और भी भटकाया जा सकता है तुम सोचते होतुम सोचते हो और कुछ भटकने को बचा हैइससे नीचे तुम और गिर सकते होगिरने की कोई और जगह हैलोभ जितना तुम्हारे भीतर हैइससे थोड़ा इंच भर और ज्यादा हो सकता हैक्रोध तुम्हारे भीतर हैइससे थोड़ा और ज्यादा हो सकता हैएक रत्ती—माशावासना ने जैसा तुम्हें घेरा हैऔर वासना बढ़ सकती हैतुम आखिरी जगह खड़े हो। जो प्रथम होना चाहिए वह आखिर में खड़ा है। जो सम्राट होना चाहिए वह भिखमंगा हो कर खड़ा है। इससे पीछे अब तुम जा भी नहीं सकते। इसके पार गिरने का उपाय भी नहीं है।
तुम्हें भ्रम में डालने की कोई सुविधा नहीं है। कोई डालना भी चाहे तो डाल नहीं सकता। हाकोई इतना ही कर सकता है ज्यादा से ज्यादा. तुम्हारे भ्रम बदल देएक भ्रम से तुम ऊब जाओ तो दूसरा भ्रम दे दे। यही साधु —संन्यासी करते रहते हैं। संसार का भ्रम उखड़ने लगाऊब पैदा होने लगीखूब जी लिए अब कुछ सार नहींदेख लिया—तो अध्यात्म का भ्रम पैदा करते हैं। कहते हैं कि 'चलो अब स्वर्ग का मजा लो! थोड़ा पुण्य करोत्यागतपश्चर्या करोस्वर्ग में अप्सराएं भोगो! यहां बहुत भोग लींकुछ पाया नहीं। यहां चुन्न—चुन्न शराब पीते रहेवहां बहिश्त मेंफिरदौस में झरने बह रहे हैं शराब केडुबकियां लगाना! यहां क्या रखा हैस्वर्ग में स्वर्ण के महल हैंहीरे—जवाहरातों के वृक्ष हैं—वहां मजा लो! कल्पवृक्ष हैंउनके नीचे बैठो! यहां तो रोना—धोना खूब कर लिया!लेकिन यह नया भ्रम है।

मैं तुम्‍हें कोई नया भ्रम नहीं दे रहा। मैं तुमसे सिर्फ इतना कह रहा हूं : काफी भ्रम देख लिए अब साक्षी—भाव कैसे भ्रम हो सकता हैथोड़ा सोचो। सिर्फ साक्षी होने को कह रहा हूं : जो भी हैउसे देखने को कह रहा हूं। कुछ करने को कहता तो भ्रम पैदा होता। तुमसे कहता कि यह छोड़ कर यह करो तो भ्रम पैदा होता। तुमसे सिर्फ इतना ही कह रहा हूं : जो भी कर रहे होजहां भी होभोगी हो योगी होजो भी होहिंदू हो मुसलमान होमस्जिद में होमंदिर में होजहां भी हो—जागो! जाग कर देखो। जागने में कैसे भ्रम हो सकता हैजागे हुए आदमी को भ्रम की कोई संभावना नहीं रह जाती। नींद में सपने होते हैंजागने में कैसे सपना हो सकता है?
'और यदि लोग सुख—दुख में प्रतिक्रिया करना छोड़ दें तो वे पशु या पेड़—पौधे जैसे तो नहीं हो जायेंगे?'
पहली तो बाततुमसे किसने कहा कि पशु और पेड़—पौधे तुमसे खराब हालत में हैंतुमने ही उमनान ध्यलियापेड़—पौधों से भी तो पूछो! पशुओं से भी तो पूछो! थोड़ा पशुओं की आंख में भी तो झांक

यह भी आदमी का अहंकार है कि वह सोचता है कि वह पशुओं से ऊपर है। और पशुओं की इसमें कोई गवाही भी नहीं ली गई हैयह भी बड़े मजे की बात है। एकतरफा निर्णय कर लिया है। अपने—आप ही निर्णय कर लिया है।
अगर पशुओं में भी इस तरह की किताबें लिखी जाती होंगीशास्त्र रचे जाते होंगेतो उनमें भी लिखा होगा कि आदमी बहुत गया—बीता जानवर है।
मैंने तो सुना है कि बंदर एक—दूसरे से कहते हैं कि आदमी पतित बंदर है। डार्विन कहता है कि आदमी बंदर का विकास हैलेकिन डार्विन कौन—सी कसौटी हैबंदरों से भी तो पूछो! दोनों ही पार्टियों से भी तो पूछ लेना चाहिए। बंदर कहते हैंआदमी पतित है। और उनकी बात समझ में आती है। बंदर वृक्षों पर हैं और तुम जमीन पर हो—पतित हो ही! बंदर ऊपर हैंतुम नीचे हो। किसी बंदर से टक्कर ले कर तो देखोतो शक्ति बढ़ी कि खोईजरा एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष पर छलांग ले कर तो देखो, हड्डी पसली टूट जायेंगी! तो कला आई कि गईवह तुमसे किसने कह दियाकि खुद ही

यह बड़े मजे की बात है। आदमी की बीमारियों में एक बीमारी है कि आदमी मानता है कि वह सबसे ऊपर है। फिर पुरुषों से पूछो तो वे मानते हैंवे स्त्रियों से ऊपर हैं। स्त्रियों से बिना ही पूछे! स्त्रियों की इसमें कोई गवाही नहीं ली गई। इस पर कोई वोट नहीं हुआ कभी। क्योंकि पुरुषों ने शास्त्र लिखेजो मन में था लिख लिया। और स्त्रियों को तो पढ़ने पर भी रोक लगा रखी थी कि कहीं वे पढ़ भी लें तो बाधा डालेंगी। क्योंकि जो पंडित लिख रहा थाउसकी पत्नी ही उसको कष्ट में डाल देतीअगर पढ़ना आता होता। तो पढ़ने पर बाधा लगा दी कि वेद पढ़ नहीं सकतीं स्त्रियांयह नहीं कर सकतीं.। हद कर दी पुरुषों ने. स्त्रियां मोक्ष भी नहीं जा सकतीं! मोक्ष जाने के पहले उनको पुरुष होना पड़ेगापुरुष पर्याय में आना पड़ेगा।
फिर पुरुषों में भी पूछो। गोरा समझता है कि वह ऊंचा है काले से। काले से भी तो पूछो!
मैंने सुना है कि अफ्रीका के एक जंगल में एक अंग्रेज शिकार के लिए गया और उसने अपने साथ एक नीग्रो को गाइड की तरह लिया। जंगल में दोनों भटक गये। और देखा कि कोई सौ आदमियों काभाले लिए हुए जंगलियों का एक नीग्रो दस्ता चला आ रहा है। वह अंग्रेज बहुत घबड़ाया। उसने अपने गाइड सेनीग्रो से कहा कि हम लोगों की जान खतरे में है। उसने कहा, 'हम लोगों की! तुम मुझे छोड़ोतुम अपनी सोचो। मेरी क्यों खतरे में होगी?'
सफेद आदमी सोचता हैवह श्रेष्ठ हैकाला सोचता हैवह श्रेष्ठ है।
चीनियों से पूछो। चीनियों की किताबों में लिखा है कि अंग्रेज बंदर हैं। आदमी में भी गिनती नहीं करते वे उनकी।
सारी दुनिया में यह रोग है। आदमी का यह रोग बड़ा गहरा है। वह बिना ही दूसरी पार्टी के पूछे निर्णय करता चला जाता है। ये सब अहंकार के खेल हैं। अगर तुम थोड़े अहंकार को छोड़ कर देखोगेतो तुम पाओगे परमात्मा के ही सब रूप हैं—जानवर भीपशु—पक्षी भीपौधे भीमनुष्य भी। परमात्मा ने कहीं चाहा है हरा हो जाना तो हरा हैकहीं चाहा है पक्षियों के गीत से प्रगट होना तो वैसा हो रहा हैकहीं चाहा है आदमी होना तो आदमी हो गया है। इनमें कोई तारतम्यता नहीं हैहायरेरकी नहीं हैकोई ऊपर—नीचे नहीं है। ये सब एक साथ परमात्मा की अनंत लहरें हैं। छोटी लहर में भी वहीबड़ी लहर में भी वहीसफेद लहर में भी वही,काली लहर में भी वही। घास में भी वहीआकाश छूते हुए वृक्षों में भी वही।
आध्यात्मिक दृष्टि तो यह कहती है कि इसी क्षण जो भी है वही परमात्मा है। फिर परमात्मा में कोई आगे—पीछे कैसे हो सकता हैयह तो बड़ा मुश्किल हो जायेगा। यह तो परमात्मा में भी कुछ नीचेकुछ ऊपर करना कठिन हो जायेगा। एक ही है! साक्षी—भाव से देखोगे तो पाओगे सब एक है। इसलिए पहले तो यह पूछो ही मत कि 'यदि लोग सुख—दुख में प्रतिक्रिया करना छोड़ दें तो वे पशु या पौधे जैसे तो नहीं हो जायेंगे?' हो जायेंगे तो कुछ हर्जा नहीं होगा। हिटलर अगर पशु हो जायेपौधा हो जाये तो कोई हर्जा हैहीदुनिया में करोड़ों लोग मरने से बच जायेंगेऔर तो कुछ हर्जा नहीं हो जायेगा। नादिरशाह अगर शेर होता तो कोई हर्जा होतादस—पांच आदमियों को मार कर तृप्त हो जाता। भोजन के लिए ही मारताऐसे अकारण लाशों से तो नहीं भर देता दुनिया को। इतना तो पक्का है कि पशुओं ने अभी तक एटम बम जैसी कोई चीज नहीं खोजीनाखून से काम लेते हैंबड़े पुराने ढंग से काम चलता है। भोजन के लिए मारते हैं।
आदमी अकेला जानवर है जो बिना भोजन की इच्छा के भी मारता है। आदमी जाता है जंगल में शिकार करनेपशुओं—पक्षियों को मारता है और कहता हैआखेट के लिए आयेखेल के लिए आये! और अगर सिंह उस पर हमला कर देतो वह आखेट नहीं है! फिर नहीं कहता कि सिंह खेल कर रहा है—करने दो,आखेट हो रही है।
खेल के लिए मारते होकोई पशु नहीं मारता खेल के लिए।
और एक और बड़े मजे की बात है कि कोई पशु अपने वर्ग में नहीं मारता। कोई सिंह किसी दूसरे सिंह को मारता नहीं। कोई बंदर किसी दूसरे बंदर की हत्या नहीं करता। सिर्फ आदमी अकेला जानवर है जो आदमियों को मारता है। चींटी चींटी को नहीं मारती। हाथी हाथी को नहीं मारता। कुत्ता कुत्ते को नहीं मारता। लड़—झगड़ लेंमारने वगैरह की बात नहीं करतेहत्या नहीं करते। आदमी अकेला जानवर है जो एक—दूसरे की हत्या करता है।
आदमी में ऐसा है क्या जिसके लिए तुम इतने परेशान हो रहे होखो भी जायेगा तो क्या खो जायेगापेड़—पौधे बहुत सुंदर हैं। पशु बड़े निर्दोष हैं। मगर मैं यह नहीं कह रहा कि तुम पेड़—पौधे या पशु हो जाओ। मैं सिर्फ यह कह रहा हूं कि अहंकार छोड़ो।
और दूसरी बात यह मैंने कहा भी नहीं कि सुख और दुख में प्रतिक्रिया करना छोड़ दें। यह अष्टावक्र ने भी कहा नहीं। सुख—दुख में समता रखने का अर्थ सुख—दुख में प्रतिक्रिया करना छोड़ देना नहीं है। सुख—दुख में समता रखने का अर्थ केवल इतना ही है कि 'मैं साक्षी रहूंगादुख होगा तो दुख को देखूंगासुख होगा तो सुख को देखूंगा।’ इसका यह अर्थ थोड़े ही है कि जब तुम बुद्ध को काटे चुभाओगे तो उनको दुख नहीं होता। बुद्ध को कांटे चुभाओगे तो तुमसे ज्यादा दुख होता हैक्योंकि बुद्ध तुमसे ज्यादा संवेदनशील हैंतुम तो पथरीले होबुद्ध तो कोमल कमल की तरह हैं! तुम जब बुद्ध को काटे चुभाओगे तो बुद्ध को पीड़ा तुमसे ज्यादा होती हैलेकिन पीड़ा हो रही है शरीर मेंबुद्ध ऐसा जान कर दूर खड़े रहते हैं। देखते हैंपीड़ा हो रही हैजानते हैंपीड़ा हो रही है—फिर भी अपना तादात्म्य पीड़ा से नहीं करते। जानते हैं : मैं जानने वाला हूं ज्ञाता—स्वरूप हूं।
प्रतिक्रिया छोड़ने को नहीं कह रहे हैं। यह नहीं कह रहे हैं कि घर में आग लग जाये तो तुम बैठे रहना तो तुम बुद्ध हो गयेभागना मत बाहर! भागते समय भी जानना कि घर जल रहा हैवह मैं नहीं जल रहा। और अगर शरीर भी जल रहा हो तो जानना कि शरीर जल रहा हैमैं नहीं जल रहा। इसका यह मतलब नहीं कि शरीर को जलने देना। शरीर को बाहर निकाल लाना। शरीर को कष्ट देने के लिए नहीं कह रहे हैं।
प्रतिक्रिया—शून्य करने का तो अर्थ हुआ कि तुम पत्थर हो गयेजड़ हो गये। तो बुद्ध पत्थर नहीं हैं। बुद्ध से बड़ा करुणावान कहा पाया तुमनेअष्टावक्र पत्थर नहीं हो गये होंगे। प्रेम की धारा बही। तो जिनसे प्रेम का झरना बहाउनकी संवेदनशीलता बढ़ गई होगीघट नहीं गई होगी। उनके पास महाकरुणा उतरी।
लेकिन तुम गलत व्याख्या कर ले सकते हो।
और जिन्होंने पूछा हैथोड़े शास्त्रीय बुद्धि के मालूम होते हैंथोड़ा बुद्धि में कचरा ज्यादा है। कुछ पढ़ लियासुन लियाइकट्ठा कर लिया—वह काफी चक्कर मार रहा है! वह सुनने नहीं देतावह देखने भी नहीं देता। वह चीजों को विकृत करता चला जाता है।
राही रुके हुए सब भीतर का पानी अधहंसा बाहर जमी बरफ है
एक तरफ छाती तक दल—दल अगम
बाढ़ का दरिया एक तरफ है। मनमानी बह रही हवाएं जंगल झुके हुए सब
राही रुके हुए सब।
बंद द्वारअधखुली खिड़कियां
झांक रहीं कुछ आंखें
सूरज के मुंह पर संध्या की
काली अनगिन तीर सरीखी—सी
चुभती हुई सलाखें अपने चेहरे के पीछे चुप सहमे लुके हुए सब
राही रुके हुए सब! अपने चेहरे के पीछे चुप
सहमे लुके हुए सब
राही रुके हुए सब!
ये जो चेहरे हैंमुखौटे हैं—बुद्धिमानी केपाडित्य केशास्त्रीयता के—इनके पीछे कब तक छुपे रहोगेये जो विचारों की परतें हैंइनके पीछे कब तक छुपे रहोगेइन्हें हटाओ! भीतर के शुद्ध  चैतन्य को जगाओ।
द्रष्टा की तरह देखोविचारक की तरह नहीं। विचारक का तो अर्थ हुआ मन की क्रिया शुरू हो गई तो अगर अष्टावक्र को समझना हो तो चैतन्यशुद्ध चैतन्य की तरह ही समझ पाओगे। अगर तुम सोच—विचार में पड़े तो अष्टावक्र को तुम नहीं समझ पाओगेचूक जाओगे।
अष्टावक्र कोई दार्शनिक नहीं हैंऔर अष्टावक्र कोई विचारक नहीं हैं। अष्टावक्र तो एक संदेशवाहक हैं—चैतन्य केसाक्षी के। शुद्ध साक्षी! सिर्फ देखो! दुख हो दुख को देखोसुख हो सुख को देखो! दुख के साथ यह मत कहो कि मैं दुख हो गयासुख के साथ यह मत कहो कि मैं सुख हो गया। दोनों को आने दो,जाने दो। रात आये तो रात देखोदिन आये तो दिन देखो। रात में मत कहो कि मैं रात हो गया। दिन में मत कहो कि मैं दिन हो गया। रहो अलग— थलगपार,अतीतऊपरदूर! एक ही बात के साथ तादात्म्य रहे कि मैं द्रष्टा हूं साक्षी हूं।

हरि ओम तत्सत्!