अष्टावक्र गीता
पहला प्रकरण
जनक उवाच
- ज्ञान प्राप्त होता है कैसे, मुक्ति किस तरह से होगी। मुझे बताएं, मानव को वैराग्य प्राप्ति कैसे होगी।
- तात, अगर मुक्ति चाहो तो, विषयों को त्यागो विषवत। क्षमा, दया, सन्तोष, सरलता, सत्य को भजो अमृतवत।
- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु अथवा आकाश नहीं हो तुम। मोक्ष के लिए इनका साक्षी चेतन खुद को जानो तुम।
- अगर देह को अलग समझ कर, आत्मा में स्थिति कर लोगे। इसी वक्त ही सुखी, शांत और बंधनमुक्त अभी होगे।
- नहीं हो तुम वर्णाश्रम वाले, न इन्द्रियों के विषय हो तुम। रहो प्रसन्न, निराकार, जगसाक्षी और असंग हो तुम।
- धर्म-अधर्म, मानसिक सुख-दुःख, नहीं तुम्हारे लिए विभो। कर्ता-भोक्ता नहीं हो तुम तो सर्वथा मुक्त ही हो।
- सबके दृष्टा एक तुम्ही हो, सदा पूर्णतः मुक्त ही हो। यही तुम्हारा बन्धन है, कि 'अन्य' को' दृष्टा कहते हो।
- कर्ता भाव के काले सर्प के डंसने से तुम पीड़ित हो। कर्ता नहीं हूँ इस विश्वास का अमृत पीकर सुखी रहो।
- मैं हूँ एक विशुद्ध बोध यह निश्चायाग्नि प्रज्वलित करो। भस्म करो अज्ञान-गहन-वन और सुखी निःशोक बनो।
- जिस आत्मा में जगत भासता है, रस्सी में सर्प समान। उसी परमानंद-बोध में, सुख से विचरण करो सुजान।
- खुद को मानो मुक्त तो मुक्ति, बंधन समझो बंधन है। जैसी मति वैसी गति होगी, जग में सत्य यह कथन है।