Ashtavakra Gita (Kavya)

अष्टावक्र गीता 

पहला प्रकरण 

जनक उवाच 
  1. ज्ञान प्राप्त होता है कैसे, मुक्ति किस तरह से होगी।  मुझे बताएं, मानव को वैराग्य प्राप्ति कैसे होगी।
अष्टावक्र उवाच
  1. तात, अगर मुक्ति चाहो तो, विषयों को त्यागो विषवत। क्षमा, दया, सन्तोष, सरलता, सत्य को भजो अमृतवत। 
  2.  पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु अथवा आकाश नहीं हो तुम। मोक्ष के लिए इनका साक्षी चेतन खुद को जानो तुम। 
  3. अगर देह को अलग समझ कर, आत्मा में स्थिति कर लोगे। इसी वक्त ही सुखी, शांत और बंधनमुक्त अभी होगे। 
  4. नहीं हो तुम वर्णाश्रम वाले, न इन्द्रियों के विषय हो तुम। रहो प्रसन्न, निराकार, जगसाक्षी और असंग हो तुम। 
  5. धर्म-अधर्म, मानसिक सुख-दुःख, नहीं तुम्हारे लिए विभो। कर्ता-भोक्ता नहीं हो तुम तो सर्वथा मुक्त ही हो। 
  6. सबके दृष्टा एक तुम्ही हो, सदा पूर्णतः मुक्त ही हो। यही तुम्हारा बन्धन है, कि 'अन्य' को' दृष्टा कहते हो। 
  7.  कर्ता भाव के काले सर्प के डंसने से तुम पीड़ित हो। कर्ता नहीं हूँ इस विश्वास का अमृत पीकर सुखी रहो। 
  8. मैं हूँ एक विशुद्ध बोध यह निश्चायाग्नि प्रज्वलित करो। भस्म करो अज्ञान-गहन-वन और सुखी निःशोक बनो। 
  9.  जिस आत्मा में जगत भासता है, रस्सी में सर्प समान। उसी परमानंद-बोध में, सुख से विचरण करो सुजान। 
  10. खुद को मानो मुक्त तो मुक्ति, बंधन समझो बंधन है। जैसी मति वैसी गति होगी, जग में सत्य यह कथन है।