Ashtavakra Mahageeta (Day 63)

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पहला सूत्र
महासय पुरुष विक्षेप रहित और समाधि रहित होने के कारण न मुमुक्षु है न गैर मुमुक्षु वह संसार को कल्पित देख ब्रह्मवत रहता है। अत्यंत क्रांतिकारी सूत्र है साधारण जन परमात्मा के संबंध में कुछ पूछते हैं तो मात्र कोतुहल होता है कोतुहल से कोई कभी सत्य तक पहुँचता नहीं कोतुहल तो बड़ी ऊपर ऊपर की बात है बचकाना है। जैसे छोटे बच्चे पूछते हैं। जो सामने आ गया उसी के सम्बन्ध में प्रश्न पूछ लेते हैं। उत्तर मिले तो ठीक न मिले तो ठीक। क्षण भर बाद प्रश्न भी भूल जाता है उत्तर भी भूल जाता है। हवा की तरंग थी आयी और गयी। उत्तर दिया तो ठीक न दिया तो भी कोई चिंता नहीं। उत्तर की कोई गहरी चाह न थी। ऐसे ही प्रश्न उठ गया था प्रश्न उठाना मन का स्वभाव है। कोतुहल से कोई कभी सत्य तक नहीं पहुँचता। कोतुहल से गहरी जाती है जिज्ञासा। जिज्ञासा खोजी बनाती है। जिज्ञासा का अर्थ है खोज करूँगा प्रश्न मूलयवान है। और जब तक इस प्रश्न का उत्तर न मिले तब तक जीवन में अर्थ न होगा। सुकरात ने कहा है अपरीक्षित जीवन जीने योग्य नहीं है। जिस जीवन का ठीक से परीक्षण न किया हो और जिस जीवन का अर्थ बोध न हो उसे भी क्या जीना। फिर आदमी और पशु के जीवन में भेद क्या। ठीक विश्लेषण ठीक अर्थ बोध ठीक प्रयोजन का पता चल जाए कि क्यों हूँ तभी जीने का कुछ सार है। कोतुहल ऊपर ऊपर है जिज्ञासा गहरी जाती है लेकिन फिर भी पूरे प्राणों तक नहीं जाती। अगर जीवन दांव पर लगाना हो तो जिज्ञासु दाव पर नहीं लगता। उससे भी गहरी जाती है मुमुक्षा मुमुक्षा का अर्थ होता है प्रश्न का उत्तर जीवन से भी ज्यादा मूलयवान है जिज्ञासा का अर्थ होता है जीवन को जीने के लिए प्रश्न का उत्तर जरूरी है।लेकिन जीवन से ज्यादा मूलयवान नहीं। अगर कोई कहे कि जीवन को दे के उत्तर मिल सकता है तो क्या सार रहा जीने के लिए ही उत्तर चाहिए था अगर जीवन ही गँवा के उत्तर मिले तो उस उत्तर का क्या करेंगे। मुमुक्षा का अर्थ होता है मोक्ष की आकांक्षा परम स्वातन्त्र की प्रबल अभीप्सा अब अगर जीवन भी दांव पर लग जाये तो कोई हर्ज नहीं। इतना महत्वपूर्ण है प्रश्न का उत्तर की जीवन भी गंवाया जा सकता है। जीवन को भी दांव पर लगाया जा सकता है मुमुक्षा और गहरे जाती है लेकिन ये सूत्र कहता है ऐसा सूत्र किसी दूसरे शास्त्र में उपलब्ध नहीं। इसलिए मैं कहता हूँ सूत्र बड़ा क्रांतिकारी है अष्टावक्र के सूत्र कुछ ऐसे हैं कि किसी शास्त्रकार ने कभी इतने गहरे जाने का साहस नहीं किया। अष्टावक्र कहते हैं महासय पुरुष विक्षेप रहित और समाधि रहित होने के कारण न मुमुक्षु है और न गैर मुमुक्षु है लेकिन एक ऐसी भी दशा है जहां मुमुक्षा भी न ले जाती। वहां जाने के लिए मुमुक्षा भी छोड़ देनी पड़ती है। तो समझें मुमुक्षा का अर्थ होता स्वतंत्र होने की आकांक्षा। मोक्ष की आकांक्षा। लेकिन मोक्ष का स्वाभाव ऐसा है कि कोई भी आकांक्षा हो मोक्ष संभव न हो पायेगा। मोक्ष की आकांक्षा भी बाधा बन जाएगी। आकांक्षा मात्र बंधन बन जाती है धन की  आकांक्षा तो बंधन  बनती ही  है प्रेम की आकांक्षा तो बंधन बनती ही है लेकिन मोक्ष की आकांक्षा परमात्मा को पाने की आकांक्षा भी अंतिम बंधन है आखरी बंधन है बड़ा स्वर्ण निर्मित है बंधन हीरे जवाहरातों जड़ा है धन्यभागी हैं वे जिनके हाथों में मोक्ष का बंधन पड़ा हो। लेकिन है तो बंधन ही। ये ख्याल कि  मैं मुक्त हो जाऊं बेचैनी पैदा करेगा। और यह ख्याल कि  मैं मुक्त हो जाऊँ वर्तमान से अन्यथा ले जायेगा। भविष्य में ले जायेगा। ये तो वासना का फैलाव हो गया। नयी वासना है पर है वासना सुन्दर वासना है पर है वासना। और बीमारी कितनी  ही बहुमूल्य हो हीरे जवाहरातों जड़ी हो इससे क्या फर्क पड़ता है चाहे चिकित्सा शास्त्री कहते हों कि बिमारी साधारण बिमारी  नहीं है राज रोग है सिर्फ राजाओं महाराजाओं को होता है तो भी क्या फर्क पड़ता है। राज रोग भी रोग ही है। मोक्ष की वासना भी वासना है। इसे समझने की थोड़ी चेष्ठा करें। आदमी बंधा क्यों है ? बंधन कहाँ है ? बंधन इस बात में है कि हम जो हैं उससे हम राजी नहीं। कुछ और होना है। तो जो हैं उसमे हमारी तृप्ति नहीं। जहाँ हम हैं जैसे हम हैं वहां हमारा उत्सव नहीं। कहीं और होंगे तो नाचेंगे। यहां आँगन टेड़ा है। आज तो नहीं नाच सकते। आज तो सुविधा नहीं है। कल नाचेंगे। परसों नाचेंगे। कल आता नहीं। कल ही नहीं आता तो परसों आएगा कैसे। रोज जब भी समय मिलता है वो आज होता है और जो भी पास आ जाता वो आँगन टेड़ा हो जाता है हमारे जीवन की धारा भविष्य सन्मुख है कल स्वर्ग में मोक्ष में कहीं और सुख है यहां तो दुःख है वासना का अर्थ है यहां दुःख सुख कहीं और। सुख सपने में यथार्थ में दुःख तो हम सपने को उतार लाने की चेष्ठा करते हैं। स्वर्ग को उतारना है पृथ्वी पर य अपने को ले जाना है स्वर्ग में। लेकिन आज और अभी और यहीं तो महोत्सव नहीं रच सकता आज तो बांसुरी नहीं बजेगी। और जिसकी बांसुरी आज नहीं बज रही वही बंधन में है उसकी बांसुरी कभी नहीं बजेगी य तो आज य कभी नहीं य तो अभी य कभी नहीं बंधन का अर्थ है हम भविष्य से बंधे हैं बंधन का  अर्थ है भविष्य की वासना की डोर हमें खींच ले जाती है। और हम आज मुक्त नहीं हो पाते। भविष्य हमें बांधे है वर्तमान मुक्त करता है वर्तमान मुक्ति है मोक्ष अभी है और संसार कल है तुमने अक्सर उलटी बात सुनी है तुमने सुना है संसार यहां है और मोक्ष वहां है मैं तुमसे कहना चाहता हूँ संसार यहां है मोक्ष वहां है नहीं मोक्ष यहां है संसार वहां है। अभी जो मौजूद है यही मुक्ति है। अगर तुम इस क्षण में लीन हो जाओ तलीन हो जाओ डुबकी लगा लो मुक्त हो गए तुम अगर कल की डोर में बंधे खिंचते रहो तो तुम्हारे पैर में जंजीरें पड़ी रहेंगी। तुम कभी नाच न पाओगे। तुम्हारे जीवन में कभी आभार का आशीष का क्षण न आ पायेगा। अष्टावक्र कहते हैं इसका अर्थ हुआ कि मुमुक्षा भी बंधन है मोक्ष की आकांक्षा भी तो कल में ले जाती है। मोक्ष तो कभी होगा मरने के बाद होगा  मृत्यु के बाद होगा। अगर जीवन  में भी होगा तो आज तो नहीं होना है बड़ी साधना करनी होगी बड़े हिमालय के उत्तुंग शिखर चढ़ने होंगे गहन अभ्यास महा योग तप जप ध्यान फिर कहीं अंतिम फल की भांति आएगा मोक्ष प्रतीक्षा करनी होगी धीरज रखना होगा श्रम करना होगा मोक्ष फल की तरह आएगा। मोक्ष फल नहीं है मोक्ष तुम्हारा स्वाभाव है इसलिए मोक्ष कल नहीं है  मोक्ष अभी है यहीं है तो मुमुक्षा बाधा बनेगी जो मुमुक्षा से भरा है वो कोतुहल से तो बेहतर है जिज्ञासा से भी बेहतर है लेकिन उससे भी ऊपर एक दशा है मुमुक्षु के पार वीत मुमुक्षा की भी एक दशा है जहां अब ये भी आकांक्षा न रही कि मोक्ष हो स्वतंत्रता हो। जहां सारी आकांक्षाएं अमूल्य गिर गयीं। संसार की तो मांग रही ही नहीं परमात्मा की मांग भी न रही। मांग ही न रही। उस घडी तुम्हारे भीतर जो घटता है वोही मोक्ष है उस घडी तुम जिसे जानते हो वोही परमात्मा है। उस घडी तुम्हारे भीतर जो प्रकाश फैलता है क्योंकि अब उस प्रकाश को बाधा डालने वाली कोई दीवार न रही वही प्रकाश तुम्हारा स्वभाव है तो मुमुक्षा के भी ऊपर जाना है महासय पुरुष महासय का अर्थ होता है जिसका आसय विराट को गया महा आसय जिसका आसय आकाश जैसा हो गया जिसके आसय पर कोई सीमा न रही हम तो साधारणतः किसी को भी महासय कहते हैं शिष्टाचार तो ठीक है लेकिन महासय तो कभी बुद्ध को अष्टावक्र को क्राइस्ट को कृष्ण को लाओत्सु को ही कहा जा सकता है सभी को महाशय नहीं कहा जा सकता। कहते हैं शिष्टाचार है इस आशा में शायद जो आज महाशय नहीं है कल हो जायेगा यह हमारी शुभाकांक्षा है। लेकिन सत्य नहीं है महाशय का  अर्थ होता है जिसके ऊपर आकांक्षा की कोई सीमा न रही आकांक्षा से मुक्त  जिसका आकाश हो गया वो ही महाशय है जिसको अब आकांक्षा का क्षितिज बांधता नहीं जिस पर अब कोई सीमा ही नहीं है असीम है जिसके भीतर की चैतन्य दशा अब किसी की प्रतीक्षा नहीं कर रही। क्योंकि जिसकी तुम प्रतीक्षा कर रहे हो उसी से अटके हो। जिसकी तुम प्रतीक्षा कर रहे हो उसी पर तुम्हारा सुख दुःख निर्भर है जिसकी तुम प्रतीक्षा कर रहे हो मिलेगा तो प्रसन्न हो जाओगे नहीं मिलेगा तो विषाद से भर जाओगे। पर निर्भरता जारी रहेगी मोक्ष का अर्थ है अब मैं पर निर्भर नहीं अब मैं  अपने में पूरा हूँ। समग्र हूँ। अब किसी भी बात की जरूरत नहीं है जो होना था जो चाहिए था है सदा से है ऐसी महाशय की दशा महाशय पुरुष विक्षेप रहित फिर विक्षेप का कोई कारण ही नहीं विक्षेप तो पड़ता ही इसलिए है कि हमारी कोई आकांक्षा है तुम्हे धन चाहिए तो विक्षेप पड़ेगा क्योंकि और लोगों को भी धन चाहिए संघर्ष होगा प्रतिस्पर्धा होगी दुश्मनी होगी प्रतियोगिता होगी पक्का नहीं कि तुम पा पाओगे । क्योंकि और भी प्रतियोगी हैं बलशाली प्रतियोगी हैं ये कोई सहज होने वाला नहीं है तुम्हे पद चाहिए तो भी उपद्रव होगा विक्षेप खड़े होंगे हज़ार बाधाएं आ जाएँगी तुम्हे अगर मोक्ष चाहिए तो भी तुम पाओगे कि हजार बाधाएं शरीर बाधायें खड़ी करता है मन बाधायें खड़ी करता है वासनाएं उत्तंग हो जाती हैं कामनायें दौड़ती हैं हज़ार हज़ार विक्षेप खड़े हो जाते हैं। बांधो सम्भालो गाँठ बंधती नहीं खुल खुल जाती इधर से सम्भालो उधर से बिखर जाता एक तरफ से बसा पाते हो कि दूसरी तरफ से उजड़ जाता ऐसे उधेड़बुन में जीवन बीतता जब तक तुम्हारे मन में आकांक्षा है तब तक विक्षेप भी रहेगा। विक्षेप तो ऐसा ही है जैसे कि आकांक्षा की आंधी चलती हो तो शांत झील पर लहरें उठती हैं वो लहरें विक्षेप हैं। जब तुम्हारे चित्त पर आकांक्षा की आंधी चलती है तो लहरें उठती हैं। लहरों से मत लड़ो लहरों से लड़ के कुछ सार न होगा यहीं फर्क है अष्टावक्र और पतंजलि का। पतंजलि कहते हैं चित्त वृति निरोध। चित्त की वृतियों का निरोध करने से योग हो जाता है यही उनकी समाधि की परिभाषा है वृतियों का निरोध वृति का मतलब हुआ तरंग लहर अष्टावक्र कहते हैं वृत्तियों का कैसे निरोध करोगे आंधी चल रही है अंधड़ उठा है तूफ़ान बवंडर है तुम छोटी छोटी उर्मियों को शांत कैसे करोगे एक एक लहर को शांत करते रहोगे अनंत काल तक भी न हो पायेगा। आंधी चल ही रही है वो नयी लहरें पैदा कर रही है अष्टावक्र कहते हैं लहरों को शांत करने की फिक्र छोड़ो आंधी से ही छुटकारा पा लो और आंधी तुम ही पैदा कर रहे हो ये ही मजा है आकांक्षा की आंधी वासना की आंधी कामना की आंधी कामना की आंधी चल रही है तो लहरें उठती हैं अब तुम लहरों को शांत करने में लगे हो मूल को शांत कर दो तरंगे अपने से शांत हो जाएँगी तुम वासना छोड़ दो ये तो तुमसे औरों ने भी कहा है वासना छोड़ दो लेकिन अष्टावक्र का वक्तव्य परिपूर्ण है और कहते हैं वासना छोड़ दो वो कहते हैं संसार की वासना छोड़ दो प्रभु की वासना करो तो आंधी का नाम बदल देते थे सांसारिक आंधी न रही असांसारिक आंधी हो गयी धन की आंधी न रही ध्यान की आंधी हो गयी पर आंधी चलेगी लेबल बदला नाम बदला रंग बदला लेकिन मूल वही का वही रहा पहले तुम मांगते थे इस संसार में पद मिल जाये अब परमपद मांगते हो मगर मांग जारी है और तुम भिकमंगें के भिकमंगें हो अष्टावक्र कहते हैं छोड़ ही दो संसार और मोक्ष ऐसा भेद मत करो आकांक्षा आकांक्षा है किसकी है इससे भेद नहीं पड़ता धन मांगते पद मांगते ध्यान मांगते कुछ फर्क नहीं पड़ता मांगते हो भिकमंगे हो मांगो मत मांग ही छोड़ दो और मांग छोड़ते ही एक अपूर्व घटना घटती है क्योंकि जो तुम्हारी ऊर्जा मांग में नियोजित थी हजारों मांगो में उलझी थी वो मुक्त हो जाती है वही ऊर्जा मुक्त को के नाचती है वही नृत्य महोत्सव है वही नृत्य है परमानन्द सच्चिदानंद कुछ ऊर्जा धन पाने में लगी है पद पाने में लगी है कुछ मंदिर में जाती है कुछ दूकान पे जाती है कुछ बचता है थोड़ा बहुत तो ध्यान में लगा ते हो गीता कुरान पड़ते हो पूजा प्रार्थना करते हो ऐसी जगह जगह उलझी है तुम्हारी ऊर्जा अष्टावक्र कहते हैं महाशय हो जाओ सब जगह से छोड़ दो आकांक्षा का स्वाभाव समझ लो आकांक्षा का स्वाभाव ही तरंगे उठा रहा है कभी तुमने ख्याल किया एक घडी को बैठ जाओ कुछ भी न चाहते हो उस क्षण कोई तरंग उठ सकती है कुछ भी न चाहते हो कोई मांग न बची हो तो लहर कैसे उठेगी तुम कहते हो हम ध्यान करने बैठते हैं लेकिन विचार चलते रहते हैं उसका कारण यही है कि तुम ध्यान करने तो बैठे हो लेकिन तुम आकांक्षा का स्वरुप नहीं समझे हो हो सकता है तुम ध्यान करने इसी लिए बैठे हो कि कुछ आकांक्षाएं पूरी करनी है शायद ध्यान से पूरी हो जाएं मेरे पास लोग आते हैं वो पूछते हैं अगर ध्यान करेंगे तो सुख संपत्ति मिलेगी सुख सम्पत्ति मिलेगी अगर ध्यान करेंगे अब ये आदमी ध्यान कैसे करेगा ये तो सुख सम्पति पाने के लिए ही ध्यान करना चाहता है अब जब ये ध्यान करने बैठे और सुख सम्पति के विचार उठने लगे तो आश्चर्य क्या है फिर ये कहेगा ध्यान नहीं होता क्यूंकि विचार चलते हैं जब ध्यान करने बैठता है तो विचार चलते हैं तो सोचता है विचार नहीं चलने चाहिए तो विचारों को रोकता है और ध्यान करने बैठा ही आकांक्षा से क्षुद्राशय सुख संपत्ति कोई कहता ध्यान करेंगे तो स्वास्थ मिलेगा कोई कहता है ध्यान करेंगे तो सफलता हाथ लगेगी अभी तो विफलता विफलता लगती है ध्यान से जीवन का ढंग बदल जायेगा सफलता हाथ लगेगी अब ये जो आदमी सफलता की आकांक्षा से बैठा पालती मार के आँख बंद कर के इसके भीतर सफलता की तरंगे तो चल ही रही हैं। उलझा रहता था बाजार में तो शायद इतना पता भी नहीं चलता था खाली बैठ गया  सिद्धासन लगा के अब कोई काम भी न रहा तरंगे और शुद्ध हो कर चलेंगी उलझन भी न रही कोई मगर आंधी तो बह रही है अंधड़ तो जारी है अष्टावक्र कहते हैं आकांक्षा की आंधी तुम्हे अँधा बनाये हुए है आकांक्षा की आंधी ने तुम्हे सीमा दे दी है तुम वही हो गए हो जो तुमने आकांक्षा पाल ली है अगर तुम वस्तुओं को संग्रह करने में लगे हो तो अंततः तुम पाओगे तुम वस्तुओं जैसे ही गए बीते हो गए। किसी कचरे घर में फ़ेंक देने योग्य हो गए अगर तुमने धन चाहा तो तुम एक दिन पाओगे कि तुम धन के ठीकरे हो गए जो तुम चाहोगे वैसे ही हो जाओगे। क्योंकि चाह ही तुम्हारी सीमा बनती है और चाह का रंग रंगत तुम पर चढ़ जाती है तुम वैसे ही हो जाते हो तुमने कभी देखा कंजूस आदमी की आँखें देखी उसमे वैसी ही गन्दी घिनौनी छाया दिखाई पड़ने लगती है जैसे घिसे पिटे सिक्कों पे होती है। तुमने कंजूस कृपण आदमी का चेहरा देखा उसमे वैसा ही चिकनापन दिखाई पड़ने लगता है घिनोना जैसा सिक्कों पे होता है घिसते हैं एक हाथ दूसरे हाथ उधार चलते रहते हैं वैसा ही घिनोना पन उसके चेहरे पे आ जाता है तुम जो चाहोगे तुम्हारी जो चाह होगी वही तुम्हारी मूर्ति बन जाएगी कामी की आँख देखी उसका चेहरा देखा उसके चेहरे पर काम वासना प्रगाढ़ होके मौजूद हो जाती है उसके मन की भी पूछने की ज़रुरत नहीं उसका चेहरा ही बता देगा क्योंकि चित्त पूरा का पूरा चेहरे पर उन डला  आता है। चेहरा तो दर्पण है जो आकांक्षा भीतर चलती है चेहरे पर उसके चिन्ह बन जाते हैं मिटते नहीं। बड़ी पुराणी सूफी कथा है।
एक सम्राट ने जो मूसा का भक्त था अपने चित्रकार को कहा राज्य के बड़े से बड़े चित्रकार को कि मूसा की एक तस्वीर बना दो मेरे दरबार में लगाने को वो चित्रकार गया मूसा जीवित थे मूसा के पास रहा महीनो में तस्वीर पूरी की फिर वो आया और जब वो तस्वीर दरबार में लगी तो राजा नाखुश हुआ उसने कहा ये तस्वीर मूसा की नहीं मालूम पड़ती चेहरे पे तो ऐसा लगता है कोई हत्यारा हो चेहरे पे तो ऐसा लगता है जैसे कामी हो चेहरे पे शान्ति की ध्यान की समाधि की झलक नहीं है कुछ भूल हो गयी चित्रकार ने कहा मैनें कोई भूल नहीं की है जैसा चेहरा था वैसा ही अंकित कर दिया है सम्राट मूसा को मिलने गया और उसने मूसा को कहा कि मुझे बड़ी बेचैनी होती है उस चित्र को देख के वो आपका चित्र नहीं मालूम पड़ता उस पे तो ऐसा लगता जैसे किसी हत्यारे की छाया हो आँख में जैसे किसी गहन वासना का रोग हो चेहरे पर आपकी परम आभा और दीप्ती नहीं है मूसा हंसने लगे और मूसा ने कहा चित्रकार ठीक है वो मेरे पहले दिनों की कथा है वे चिन्ह गहरे पड़ गए हैं मिटते नहीं मैं बदल गया लेकिन चेहरे पे जो चिन्ह पड़ गए हैं वो मिटते नहीं वो मेरे आधे जीवन की कहानी है अब मैं ध्यान भी करता हूँ अब मैं शांत भी हूँ अब कोई वासना भी नहीं रही अब कोई संघर्ष भी नहीं है हिंसा क्रोध भी नहीं है लेकिन वो सब था चित्रकार ने ठीक पकड़ा उसने चमड़ी के भीतर पकड़ लिया मैं भी जानता हूँ जब मैं गौर से आईने में अपने को देखता हूँ गौर से देखता हूँ तो मुझे भी दिखाई पड़ती हैं वो छायायें जो कभी थी जिनके चिन्ह पड़े रह गए सांप निकल गया लेकिन राह पर लकीर पड़ी रह गयी रस्सी जल गयी ऐंठ रह गयी तुम जो हो तुम्हारी वासना की छाप वोही हो तुम महाशय का अर्थ है जिसने अंतिम वासना भी छोड़ दी मोक्ष को पाने की वासना भी छोड़ दी ऐसा व्यक्ति विक्षेप रहित और अनूठी बात सुनते हो अष्टावक्र कहते हैं और समाधी रहित जब विक्षेप ही न रहा तो समाधि की क्या जरूरत समाधि तो ऐसी है जैसी औषधि रोग है तो औषधि की जरूरत है रोग ही न रहा तो औषधि की क्या जरूरत समाधि का अर्थ होता है समाधान समस्या है तो समाधान चाहिए समस्या ही नहीं रही तो समाधान की क्या जरूरत तो ये बड़ा  अनूठा सूत्र है। ... न तो मुमुक्षा है न नमुमुक्षा है न समाधि है न विक्षेप ऐसा जो महाशय है वह संसार को कल्पित देख कर ब्रह्मवत रहता है इसे भी ख्याल रखना अष्टावक्र कहते हैं एक ही बात घटती है उस व्यक्ति को इस महाशय की अवस्था में संसार स्वप्नवत हो जाता है नहीं की मिट जाता है ख्याल रखना मिट नहीं जाता अनेकों को भ्रान्ति है कि ज्ञानी के लिए संसार मिट जाता है मिट नहीं जाता स्वप्नवत हो जाता है होता है लेकिन एक बात निश्चित हो जाती है ज्ञानी के भीतर कि आभास मात्र है तुमने देखा एक सीधी लकड़ी को पानी में डाल दो तिरछी दिखाई पड़ने लगती है तुम जानते हो सीधी है खींच के निकालो  सीधी है फिर पानी में डालो अब तुम भली भांति जानते हो कि पानी में जा के तिरछी होती नहीं सिर्फ दिखाई पड़ती है फिर भी तिरछी ही दिखाई पड़ती है पानी में हाथ डाल के लकड़ी को छू के देख लो सीधी की सीधी है मगर दिखाई तिरछी पड़ती है अब तुम  जानते हो कि लकड़ी सीधी है तिरछी नहीं सिर्फ आभास होता है किरण के नियमों के कारण प्रकाश के नियमों के कारण तिरछी दिखाई पड़ती है। हवा के माध्यम और पानी के माध्यम में फर्क है इसलिए तिरछी दिखाई पड़ती है ज्ञानी को संसार मिट नहीं जाता स्वप्नवत हो जाता है। .. एक ही बात निश्चित हो जाती है कल्पना मात्र है। .. और ऐसा देख कर महाशय ज्ञानी ब्रह्म में ठहर जाता है अपने ब्रह्म स्वरुप में लीन हो जाता है। ... डुबकी लगा लेता है ठहर जाता है केंद्र पर आ जाता है कल्पना है संसार ऐसा जान कर अब कल्पना के पीछे दौड़ता नहीं। राम की कथा में तुमने देखा स्वर्ण मृग के पीछे दौड़ गए। कथा मधुर है कोई भी जानता है कि मृग सोने के होते नहीं कल्पना ही होगी धोखा ही होगा सपना ही होगा भ्रान्ति ही होगी फिर भी राम स्वर्ण मृग को खोजने चले गए ऐसे गए स्वर्ण मृग को खोजने जो नहीं था उसे खोजने गए सीता को गँवा बैठे ये कथा मधुर है अर्थ पूर्ण है ऐसे ही प्रत्येक व्यक्ति के भीतर का राम स्वर्ण मृगों को खोजने चला गया है। और ऐसे ही प्रत्येक व्यक्ति के भीतर के राम ने अपनी सीता को गँवा दिया है अपने स्वाभाव को गँवा दिया है जो अपना था वो गँवा दिया उसके पीछे चले गए हैं जो नहीं है  जो सिर्फ दिखाई पड़ता है जिस दिन तुम्हे दिखाई पड़ जाएगा कि स्वर्ण मृग वास्तविक नहीं धोखा है भ्रम जाल है उसी क्षण तुम लौट आओगे। उसी क्षण अपने में ठहर जाओगे। ... उसी क्षण तुम अपने में खड़े हो जाओगे फिर स्वस्थ अब तुम कहीं नहीं जाते अब तुम जानते हो ऐसा नहीं कि स्वर्ण मृग दिखाई नहीं पड़ेंगे अब बही दिखाई पड़ेंगे सुबह की धूप में उनका स्वर्ण चमकेगा। उनका बुलावा अब भी आता रहेगा लेकिन अब तुम जानते हो एक बात निश्चित हो गयी कि संसार कल्पना मात्र है
जब भी किसी नए सांचे में हम अपने को ढाल रहे हैं
सोना मढे दांत के नीचे जैसे कीड़े चाल रहे हैं।
गंगा जमनी चमक दांत की सृज रही उन्मुक्त ठहाका
ईर्ष्या की चंचल आँखों में काजल सा है चिन्ह धुआं का
विज्ञापन परिचय के सिगरटों के दौर उछाल रहे हैं
ये सारे संधर्ब स्वयं में अर्थहीन हो गए जतन के
जैसे रत्न जड़ी तलवारें शयन कक्ष में राज भवन के
हीन ग्रंथियों के विष रस को कंचन के घट पाल रहे हैं
अपने को अभिव्यक्ति न कर पाने का दर्द और बढ़ जाता है
जब कोई मुस्कान व्यथा की सोने का पानी चढ़ जाता है
राजा के लक्षण को जिसमे हम ऐसे कंगाल रहे हैं
लक्षण तो राजा के भीख मांग रहे हैं
भिक्षा पात्र हाथ में लिए खड़े हैं सम्राट राम सोने के मृगों में भटक गए हैं और गँवा रहे हैं अपनी सीता को अपनी आत्मा को इतना ही ज्ञानी को हो जाता बस इतनी ही घटना घटती है छोटी कहो बड़ी कहो इतनी ही घटना घटती है कि वासना मात्र कामना मात्र मेरी ही कल्पना का जाल है ऐसा निश्चय हो जाता है। ऐसे निश्चय होते ही अब न कोई समाधि की जरूरत है न कोई मुमुक्षा की जरूरत है न कोई चित्त के तरंगों को शांत करने की अब चित्त वृद्धि निरोध नहीं करना है। हो गया निरोध अपने से मूल को हटा दिया आँधी को हटा दिया और ख्याल रखना आँधी दिखाई नहीं पड़ती तरंगे दिखाई पड़ती हैं जो दिखाई पड़ता है उससे लड़ने का मन होता है जो दिखाई नहीं पड़ता उसकी तो याद ही नहीं आती इसलिए अष्टावक्र पतंजलि से गहरे जाते हैं। पतंजलि की बात सीधी साफ़ है लहरें दिखाई पड़ रही हैं चित्त की इनको शांत करो यम से नियम से आसन से धारणा से ध्यान से समाधि से इन्हें शांत करो इनके शांत हो जाने से कुछ होगा योग का मार्ग है चित्त के साथ संघर्ष का पतंजलि पूरे होते हैं समाधि पर और अष्टावक्र की यात्रा ही शुरू होती है समाधि को छोड़ने से जहां अंत आता है पतंजलि का वहीं प्रारम्भ है अष्टावक्र का। अष्टावक्र आखरी वक्तव्य है इससे ऊपर कोई वक्तव्य कभी दिया नहीं गया।ये इस जगत के पाठशाला में आखरी पाठ है और जो अष्टावक्र को समझ ले उसे फिर कुछ समझने को शेष नहीं रह जाता उसने सब समझ लिया और जो अष्टावक्र को समझ के अनुभव भी कर ले धन्यभागी वो तो फिर ब्रह्म मे रम गया। जब तक तुम आशय में बंधे हो तब तक तुम्हारी सीमा है जिस दिन तुम आशय से मुक्त हुए उसी दिन सीमा से मुक्त हुए। सीमा तुम्हारी धारणा में है। तुमने खींच रखी है ये जो लक्ष्मण रेखा तुमने खींच रखी है किसी और ने नहीं खींची तुम्ही ने खींच रखी है और अब तुम निकल नहीं पाते अब तुम कहते हो लक्ष्मण रेखा के बाहर कैसे जाएँ। डर लकता है घबराहट होती है गुर्जिएफ़ ने लिखा है कि वो अपने युवावस्था के दिनों में मध्य एशिया के बहुत से देशों में यात्रा करता रहा सत्य की खोज में कुर्दिस्तान में उसने एक अनूठी बात देखी पहाड़ी इलाका है स्त्रियों को पुरुषों को बड़ी  मेहनत करनी पड़ती है तब कहीं दो रोटी जुटा पाते हैं तो बच्चों को घर छोड़ जाते हैं जंगल पहाड़ में लकड़ी काटने जाते हैं काम करने जाते हैं तो उन्होनें तरकीब निकाल रखी है वो बच्चे के चारों तरफ चाक की मिट्टी से एक लकीर खींच देते हैं गोल घेरा बना देते हैं। और बच्चे को कह देते हैं बाहर तू निकल न सकेगा चाहे कुछ भी कर छोटे बचपन से ये बात कही जाती है धीरे धीरे बच्चा इसका अभ्यस्त हो जाता है बस लकीर खींच दो कि वो उसके भीतर बैठा रहता है जब गुर्जिएफ़ ने ये देखा तो बड़ा हैरान हुआ कि दुनिया में यह कहीं नहीं होता लेकिन कुर्दिस्तान में होता है और माँ बाप बड़े निश्चिन्त जंगल चले जाते हैं अपना काम करने दिन भर आएंगे बच्चा रोये गाये कुछ भी करे लेकिन लकीर के बाहर नहीं निकलता और बच्चे की बात तो छोड़ दो इसी का अभ्यास बचपन से किया जाता है अगर किसी बड़े आदमी के आसपास भी तुम लकीर खींच दो कह दो कि तो तुम बाहर न जा सकोगे तो वो भी एकदम खड़ा रह जाता है वो चेष्ठा भी करता है तो ऐसा लगता है कोई अदृश्य दीवार उसे धक्के दे रही है कहीं कोई दीवार नहीं है धारणा की दीवार वो निकलने नहीं देती कभी कभी कोई चेष्ठा भी करता है तो धक्का खा के गिर पड़ता है धक्का खाने को कुछ भी नहीं है अपना ही भाव है कि निकलना हो नहीं सकता ये तुम चकित होगे जान के लेकिन सन्मोहन के ये सामान्य नियम हैं। और इसी तरह तुम्हारा जीवन भी न मालूम कितनी लकीरों से ग्रसित है वो लकीरें तुमने खीचीं हैं तुम्हारे माँ बाप ने समाज ने व्यवस्था ने मगर वो लकीरें सब झूठी पर एक बार खींच दी तो बस खिंच गयीं किसी ने लकीर खींच दी कि तुम हिन्दू हो अब तुम हिन्दू हो गए अब तुम हिन्दू से इधर उधर हिल न पाओगे। दीवार खड़ी है निकलने की कोशिश की तो चोट खाके गिरोगे किसी ने लकीर खींच दी कि तुम मुसलमान हो तो मुसलमान हो गए किसी ने लकीर खींच दी कि जैन हो तो जैन हो गए ये सब लकीरें हैं और इन सब के कारण तुम शुद्र आशय हो गए हो तुम्हारा महाशय रूप  खो गया है लोग जो कह देते हैं  वो ही तुम हो गए हो मनोविज्ञानिक कहते हैं अगर किसी बच्चे को घर में भी कहा जाये कि  तू गधा है स्कूल में भी कहा जाये तू गधा है वो गधा हो जाता है जब इतने लोग कहते हैं तो ठीक ही कहते होंगे। धारणा मजबूत हो जाती है धारणा एक बार गहरी बैठ जाए तो उखाड़ना बहुत मुश्किल हो जाता है तुम जरा जांचना कितनी कितनी धारणाओं से तुम भरे हो। और इन धारणाओं को तुमने ही संभाल रखा है अब कोई पकडे भी नहीं है तुम्हारे माँ बाप भी तुम्हारे पास नहीं होंगे समाज भी अब तुम्हें कोई रोज़ तुम्हारे आस पास लकीरें नहीं खींच रहा है खींच चुका बात आयी गयी हो गयी लेकिन अब तुम जिए चले जा रहे हो अब तुम अपनी ही लकीरों  में बंद हो और तब तुम्हारे जीवन में वो महाक्रांति नहीं घट पाती तो आश्चर्य नहीं
फूल से फूल डाली से गुथा ही झर गया घूम आयी गंध पर संसार में
फूल तो बंधा है गंध मुक्त है फूल डाली से गुथा ही झर गया घूम आयी गंध पर संसार में गंध जैसे बनो महाशय बनो। फूल जैसे मत रहो सीमित मत रहो।
था गगन में चाँद लेकिन चांदनी व्योम से लायी उसे भू पर उतार।
बांस की जड़ बांसुरी को एक स्वर कर गया गुंजित जगत के आर पार।
और मिट्टी के दिये को एक लौ दे गयी चिर ज्योति चिर अंधियार में
घूम आयी गंध पर संसार में फूल डाली से गुथा ही झर गया
बद्ध सीमा में समुन्द्र था मगर मेघ बन उसने छुआ जा आसमान
तृप्ति बंदी एक जल कण में रही विष अमृत का दे गयी पर प्यास दान
कूल जो लिपटा हुआ था धूल से संग लहर के तैर आया धार में
 घूम आयी गंध पर संसार में फूल डाली से गुथा ही झर गया
तुम पर निर्भर है फूल बने बने ही गिर जाओगे सूख जाओगे य असीम बनोगे महाशय गंध की तरह मुक्त कि घूम आओ सारे संसार में गंध बन जाओ तो मैं कहता हूँ सन्यासी हो गए। फूल रह जाओ तो गृहस्त फूल यानी सीमा है घर है फूल यानी परिभाषा है बंधन है दीवार है संन्यास यानी गंध जैसे मुक्त सब दिशाएं खुल गयीं सारी हवाएं तुम्हारी हुईं। सारा आकाश तुम्हारा हुआ। जिसके अन्तः करण में अहंकार है वह जब कर्म नहीं करता है तो भी करता है और अहंकार रहित धीर पुरुष जब कर्म करता है तो भी नहीं करता है। ...  अहंकार है तो तुम कुछ भी न करो तो भी कर्म हो रहा है क्योंकि अहंकार का अर्थ ही यह भाव है कि मैं करता हूँ। और अगर अहंकार गिर गया तो तुम लाख कर्म करो तो भी कुछ नहीं हो रहा है क्योंकि अहंकार के गिरने का अर्थ है परमात्मा करता है मैं नहीं इस बात को ख्याल में लेना ऊपर ऊपर से भागने से कुछ भी नहीं होता मुझे एक गाँव में जाना पड़ा गाँव में एक बाबा जी आये हुए थे लोगों ने कहा कि देखिये बाबा जी कुछ भी नहीं करते बस दिन भर बैठे रहते हैं मैनें भी देखा बैठे थे भभूत इत्यादि लगाए हुए बड़े बड़े टीका लगाए हुए। धूनी रमाये हुए। तो मैनें कहा भभूत तो लगाते होंगे। टीका इत्यादि तो लगाते होंगे। तुम कहते बाबाजी कुछ भी नहीं करते कुछ तो करते ही होंगे। कुछ न करना तो असंभव है। पालती मार के बैठे हैं यह भी कर्म हो गया। जंगल भाग के जाओ तो भागना कृत्य हो गया। उपवास करो तो कृत्य हो गया। रात सो मत जागते रहो तो कृत्य हो गया। जीने का नाम कृत्य है जब तक जी रहे हो कुछ तो करोगे। और मैनें कहा ये भभूत इत्यादि  किसलिए रमाये बैठे हैं। ये तुम्हारी राह  देख रहे हैं ये उनकी राह देख रहे हैं जो भभूत की पूजा  करते हैं वो आते होंगे चरण छुयेंगे पैसे चढ़ाएंगे ये तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं और कोई आ जायेगा धनी मानी तो गांजा भांग का भी इंतज़ाम करेगा। वो आदमी चौंक गए जो मुझसे कह रहे थे। कहने लगे आपको कैसे पता चला कि बाबा जी गांजा पीते हैं पीते तो हैं लेकिन करेंगे क्या यहाँ बैठे बैठे ये धुनि रमाये बैठे हैं करेंगे क्या किसलिए रमाये बैठे हैं कुछ तो कर ही रहे हैं तुम कहते हो बाबा जी कुछ भी नहीं करते जब तक जीवन है तब तक कृत्य है एक बात तो ख्याल में  ले लेना। कर्म से भागने का तो कोई उपाय जो भी करोगे वो कर्म होगा। इसलिए कर्म से तो भागने की चेष्ठा करना ही मत। उसमे तो धोखा बढ़ेगा। असली काम दूसरा है अहंकार से मुक्त होना कर्ता के भाव को गिराना कर्म को गिराने से कुछ अर्थ नहीं है कर्ता को जाने दो। फिर जो परमात्मा तुमसे करवायेगा करवा लेगा। नहीं करवाएगा नहीं करवाएगा खाली बैठाना होगा खली बैठा देगा चलाना होगा चलाता रहेगा। लेकिन तुम न अपने हाथ से चलोगे न अपने हाथ से बैठोगे। इसी को तो अष्टावक्र ने कहा सूखे पत्त्ते की भाँती। हवाएं जहां ले जाएँ सूखा पत्त्ता चला जाता है। वो नहीं कहता कि मुझे पूरब जाना है ये क्या अत्याचार हो रहा है कि तुम मुझे पश्चिम ले जा रहे हो मुझे पूरब जाना है सूखा पत्ता कहता ही नहीं कि मुझे कहाँ जाना है पूरब तो पूरब पश्चिम तो पश्चिम ले जाओ तो ठीक न ले जाओ तो ठीक छोड़ दो राह पर तो वहीं घर। उठा लो आकाश में तो गौरवान्वित नहीं होता। गिरा दो कूड़े करकट में तो अपमानित नहीं होता। सूखे पत्ते की भांति जो हो गया वो ही ज्ञानी है और इस दशा को ही निरहंकार कहा है। ... जिसके अन्तःकरण में अहंकार है वह जब कर्म नहीं करता तो भी करता है तुम अगर खाली बैठोगे अहंकार से भरे हुए तो तुम्हारे मन में यह भाव उठेगा कि देखो कुछ भी नहीं कर रहे तुम्हारे मन में ये भाव उठेगा कि देखो सारी दुनिया मरी जा रही है आप धापी में हमको देखो कैसे शांत बैठे हैं ध्यान कर रहे हैं जबकि सारी दुनिया धन के पीछे मरी जा रही है हम ध्यान कर रहे हैं हम को देखो ये नया कर्ता का भाव पैदा हुआ अष्टावक्र कहते हैं अगर अहंकार है तो कर्म है कर्ता है तो कर्म है और अगर अहंकार रहित धीर पुरुष बन गए तुम तो फिर कर्म भी हो भी कर्म नहीं। ... फिर तुम करते रहो तो भी कर्म नहीं होता मूल ध्यान रखना कर्म को अकर्म में नहीं बदलना है कर्ता को अकर्ता में बदलना है कर्म को अकर्म में बदलने के कारण इस देश में बड़ी मूढ़ता पैदा हुई ज़माने भर के काहिल सुस्त अपंग महात्मा हो गए जिनके जीवन में कोई ऊर्जा न थी और जिनके जीवन में कोई मेधा न थी ऐसे व्यर्थ के लोग परमहंस मालूम होने लगे इस देश में बड़ी दुर्घटना घटी है प्रतिभाहीन सृजनशून्य जड़ बुद्धि लोग समादर को उपलब्ध हो गए क्योंकि कर्म छोड़ दिया और कर्म छोड़ने से ये पूरा देश दीन और दरिद्र हो गया। और कर्म छोड़ने से इस देश की सारी महिमा खो गयी। तुम अगर गरीब हो भूखे हो बीमार हो परेशान हो सारी दुनिया में दीन हीन हो तो तुम्हीं जिम्मेवार हो कोई और नहीं तुम्हारे महात्मा जिम्मेवार हैं और तुम्हारे तथागथित पंडित जिम्मेवार हैं पुरोहित जिम्मेवार हैं जिन्होंने गलत व्याख्या दी है और जिन्होने समझाया कर्म छोड़ दो। जिन्होनें कहा संन्यास अकर्म का नाम है संन्यास अकर्म का नाम नहीं है सुनो अष्टावक्र को काश तुमने अष्टावक्र को सुना होता तो इस देश की कथा दूसरी होती करो सिर्फ अहंकार न भरे बस मैं भाव न रहे। परमात्मा को करने दो तुम्हारे भीतर से तुम बांस की पोंगरी हो जाओ। गाने दो उसे गीत गुनगुनाने दो जो वो गुनगुनाना चाहे गुनगुनाने दो छोड़ दो उसे पूरा स्वतंत्र कहो कि मैं राजी हूँ तू जो गुनगुनाये गुनगुनाऊँगा तुझे जो करवाना हो करूंगा। जीवन कर्म है ऊर्जा है इसलिए अकर्म तो ठीक नहीं अकर्म तो आत्मघात है। हाँ अकर्ता बन जाओ तो तुम्हारे कर्म में परमात्मा की महिमा प्रवाहित होने लगती है तुम्हारा कर्म भी दैदिप्तयमान हो जाता है। तुम्हारे कर्म में एक ओज एक दूसरे ही आयाम की झलक आ जाती तुम्हारे छोटे से कर्म के आँगन में परमात्मा का अाखास  झाँकने लगता है ऐसा व्यक्ति सारी स्थितियों में परमात्मा को देखने लगता है सारे कृत्यों में उसकी ही छाया पाने लगता है और जो भी करता है अनुभव करता है उसी के लिए समर्पित है यह कलियों की आनाकामी यह अलियों की छीनाजोरी यह बादल की बूंदाबांदी यह बिजली की चोरचोरी यह काजल का जादू टोना यह पायल का सादी गोना यह कोयल की कानाफूसी यह मैना की सीनाजोरी हर क्रीड़ा तेरी क्रीड़ा है हर पीड़ा तेरी पीड़ा है मैं कोई खेलूं खेल दांव तेरे ही साथ लगाता हूँ हर दर्पण तेरा ही दर्पण है   मैं कोई खेलूं खेल दांव तेरे ही साथ लगाता हूँ हर दर्पण तेरा ही दर्पण है फिर सारा रहस्य सारी लीला परमात्मा की फिर न भागना है न कुछ वर्जना है न कुछ त्यागना है त्यागना है एक बात उसे तो हम त्यागते नहीं हम सब त्यागने को तैयार हैं धन छोड़ने को तैयार हैं पद छोड़ने को तैयार हैं पत्नी बच्चे छोड़ने को तैयार हैं एक चीज़ छोड़ने को तैयार नहीं मैं को छोड़ने को तैयार नहीं। इसलिए तुम बड़े चकित होंगे आदमी ने धन छोड़ दिया पद छोड़ दिया मकान छोड़ दिया घर गृस्थि छोड़ दी वस्त्र छोड़ दिए नग्न खड़ा हो गया और देखो भीतर दहकता अंगारा अहंकार का वह नहीं छूटा जो छूटना था। तुम्हारे सन्यासी में जैसा अहंकार प्रकट होता है वैसा किसी में प्रकट नहीं होता। अगर तुम्हें असली शुद्ध अहंकारी देखने हों तो साधू सन्यासी मुनि महाराजों में देखना।संसार में तो तुम्हें अशुद्ध अहंकारी मिलेंगे मिलावट है संसार में बहुत शुद्ध अहंकारी तुम्हें मंदिरों में पूजा ग्रहों में मिलेंगे वहां मिलावट भी नहीं है वहां बिलकुल शुद्ध अहंकार है ज़हर ही ज़हर है छोड़ना है अहंकार लोग छोड़ते हैं कर्म कर्म छोड़ना आसान है कौन नहीं छोड़ना चाहता सच्चाई तो ये है कर्म से तो सभी भागना चाहते हैं कौन नहीं चाहता कि छुटकारा मिले कर्म से कर्ता को कोई नहीं छोड़ना चाहता। जिसको कोई नहीं छोड़ना चाहता उसी को छोड़ने में गौरव है। और आदमी ऐसा है की हर जगह से अहंकार को बनाने के बहाने खोज लेता है। मुल्ला नसरुद्दीन को लाटरी में पहला इनाम मिल गया। स्वयं तो पढ़ा लिखा है नहीं तो जो स्वयं पढ़े लिखे नहीं होते उनको  अपने बेटे बच्चों को पढ़ाने की बड़ी धुन होती है उनके बहाने ही कम से कम पढ़े लिखों के माँ बाप हो जाएं।लाटरी में पैसा हाथ लग गया तो उसको एकदम धुन सवार हुई कि सुपुत्र को खूब पढ़ाना है किसी ने सलाह दी जब पढ़ा ही रहे हो तो विदेशी भाषाएं पढाओ तो मुल्ला ने कहा ये बिलकुल ठीक सुझाव है। अतः विदेशी भाषा सिखाने वाले विश्वविद्यालय में पहुंचा। उपकुलपति से बोला मैं अपने पुत्र को विदेशी भाषा सीखाना चाहता हूँ। खर्च की फिक्र न करें। जो खर्च होगा दूंगा। उपकुलपति ने पूछा महानुभाव कौन सी विदेशी भाषा सिखाना चाहते हैं फ्रेंच जर्मन स्पेनिश इटालियन। मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा ये सब विस्तार में मत पड़ो इनमे जो भी सबसे ज़्यादा  विदेशी हो वही सिखाना चाहता हूँ। मेरा बेटा ऐसी वैसी विदेशी भाषा नहीं सीखेगा सबसे ज़्यादा विदेशी। अब सब से ज़्यादा विदेशी क्या होता है लेकिन अहंकार रास्ते खोजता है अहंकार को हर जगह प्रथम होना चाहिए। तो एक बड़ी मजे की घटना घटती है आदमी विनम्रता तक में अहंकार खोज लेता है वो कहता मुझसे विनम्र कोई भी नहीं  मुझसे विनम्र कोई भी नहीं  तो यहां भी अहंकार मजे ले रहा है यहां भी प्रतिस्पर्धा जारी है बस तुम एक बात छोड़ दो तो संन्यास घट गया तुम ये मैं भाव छोड़ दो और मजा तो ये है इसको छोड़ के कुछ छूटेगा नहीं इसको छोड़ के तुम बहुत कुछ पाओगे इसको पकड़ने के कारण सब छूटा हुआ है इसके पकड़ने के कारण तुम दीन दरिद्र बने हो इसके पकड़ने के कारण तुम्हे सीमा मिल गयी है इसको छोड़ते ही फूल मुक्त हो जायेगा गंध हवाओं में उड़ेगी इसको छोड़ते ही बूँद सागर बनेगी इसको छोड़ते ही तुम परमात्मा के आवास हो जाओगे। तीसरा सूत्र पुनः अत्यंत क्रांतिकारी है। मुक्तपुरुष का उद्वेग रहित संतोषरहित कर्तत्वरहित सपंद्रहित आशारहित और संदेहरहित चित्त ही शोभायमान है। ... एक एक शब्द को समझने की चेष्ठा करें मुक्त पुरुष का उद्वेग रहित ये तो समझ में आता है ये तो और शास्त्र भी कहते हैं कि मुक्त पुरुष में कोई उद्वेग न होगा परम शान्ति होगी लेकिन तत्क्षण अष्टावक्र कहते हैं संतोषरहित हम तो आम तौर से सोचते हैं कि जो शांत है वो संतुष्ट होगा हमारा तो संतोष का अर्थ ही होता है शांत व्यक्ति को हम कहते हैं बड़ा संतुष्ट बड़ा शांत बड़ा सुखी  संतोषी सदा सुखी अष्टावक्र कुछ गहरी बात कह रहे हैं अष्टावक्र कहते हैं संतोष भी उद्वेग की छाया है जो उद्विग्न होता है वो कभी कभी संतुष्ट भी होता है लेकिन जिसका उद्वेग ही चला गया अब कैसा संतोष जहां असंतोष न रहा वहां कैसा संतोष जब असंतोष ही न रहा तो संतोष भी गया तुम जरा ऐसा समझो